प्रिय भाई रघुनन्दनजी;
कुछ खबरें अविश्वसनीय ढ़ग से स्तब्ध करती हैं… जैसा गत जुलाई के ‘प्रशांत ज्योति’ के रविवारीय परिशिष्ट में छपी उस खबर ने किया जिसमें आपकी वह जग-जाहिर पासपोर्ट आकार वाली फोटो टंगी थी… ‘स्मृतियों में पिता’ कहानी के अन्त की तरह खुद को चौखटे में समेटे हुए…। पहले मैं सन्न हुआ… कि ऐसा कैसे हो सकता है?।ाया्ी घबराहट पर किसी तरह काबू रखते हुए तुरन्त हरिनारायण जी को दिल्ली फोन मिलाया। पुष्टि करते हुए उन्होंने जो ब्यौरा दिया उससे उत्पन्न अवसाद ने किसी अजगर की तरह गिरफ्त में लेकर मुझे निस्सहाय कर दिया। तड़पते हुए कराह निकली कि यह नहीं होना चाहिए था, यह नहीं होने दिया जाना चाहिए था। भीड़ और कोलाहल के बीच, नाम और मंच से परहेज बरतते लेखक को जिन्दगी वैसे भी कौन-सा सुख-सन्तोष देकर निहाल कर रही थी जो अब…। मगर यह हुआ। दूर-दराज बैठे हमारे जैसे लोग तो कह सकते हैं कि सब कुछ उतनी आसानी से हो गया जैसे आपकी कहानियों में स्थितियाँ करवट लेती हैं… बिना शोर-शराबे के, आहिस्ता से हानियान्तोष दिल्ली फोन मिलामगर मारक तरीके से असर रखते हुए। ‘चोर जिन्दगी के’ कहानी में आपका एक पात्र कहता भी तो है… ‘‘ जिन्दगी जितनी होती है, कहानी भी उतनी ही हो सकती है, न जिन्दगी से ज्यादा, न जिन्दगी से कम।’’ और देखा जाये तो जिन्दगी का यही फलसफा आपकी कहानी कला की पुख्ता पहचान रहा। इसी की मार्फत, बिना कोई मुलाकात या मध्यस्थता के आपसे परिचय हुआ था। ‘‘आखरी दशक की कहानी’’ के अपने लेख और भाई हसन जमाल के साथ चलते पत्राचार में, आपके उल्लेख के कारण आपने रास्ता प्रशस्त किया था।
आपकी कहानियों पर जान छिड़कते एक नव-लेखक की इससे बड़ी सौगात और क्या हो सकती थी? बहरहाल यह सिलसिला चल निकला था। इस दरम्यान यह भी पता चला कि इतने लम्बे साहित्यिक जीवन में, बिना किसी मुलाकात के हरिनारायणजी आपकी कहानियों पर क्यों आसक्त रहते हैं…। वैसे आलोचक यह जुमला अपने हस्तगत हर तत्कालीन लेखक के बारे में गढ़ते हैं… कि पूरे परिदृश्य में मच रही विधागत-कलागत हलचल के बरक्स आपकी कहानियाँ अलग किस्म का प्रभाव छोड़ती हैं… मगर मुझे लुभाया था आपकी अधिकांश (या अमूमन सभी) कहानियों में पैठी उस विश्वसनीयता ने जिसकी तलाश में भटकते मेरी आँखों पर चश्मा चढ़ आया था। उन कहानियों में, आपके लेखक की नजर प्रस्तुत चरित्रों और स्थितियों के ग्राफ पर एकाग्र होते कथानक में गो जिन्दगी का हर साधारण विद्रूप एक ऐसी निगाह उत्कीर्ण करती कि पाठक उस ‘खेल’ में जुटे (न कि जुते) बगैर रह ही न सके। भाषा की भूमिका वहाँ मशीन को रफ्तार में रखने के लिए जरूरी स्नेहक की होती, न कि चटखारे, प्रयोग या अमूर्त के नाम की चिरौरी करने की। वह तो कहानी पूरी पढ़ने या दूसरे-तीसरे पाठ के बाद आभास होता कि आकार में छोटी होने के बावजूद आपकी कहानियों के सरोकार कितने गहरे और व्यापक होते हैं; न उनमें किसी वैचारिक संकीर्णता का आग्रह और न ही अपनी किसी व्यक्तिगत कुंठा-कटुता को प्रकारान्तर से दर्ज करता रचना कौशल। कहानी-कला के बारे में सौ बरस पहले चेखव की बतायी कसौटी (इस बहाने हालाँकि उन्होंने एक तंज ही कसा था)… कि उसमें आरम्भ और अन्त नहीं होना चाहिए क्योंकि यहीं आकर लेखक बेईमानी करता है–को आपकी कहानियाँ चमत्कारी ढ़ग से चरितार्थ करती। छूटते ही पाठक कहानी में शामिल, मध्य में किसी खास स्थिति या मनस्थिति पर फोकस कराता बाइस्कोप और अन्त में, बिना किसी धमाके या शोर के कहानी पूरी! न वहाँ पूरी ‘रामायण’ के बीच ठगा-सा रह जाने का पाठकीय आवेश और न ओ-हेनरीनुमा अन्त के दंश की टीस। किसी एक कहानी को लेकर इस सबकी आजमाइश करनी हो तो ‘सिफैलोटस’ को एक बार फिर पढ़ा जा सकता है (व्यक्तिगत तौर पर एक दर्जन बार जिसे मैंने पढ़ा है)। तमाम लेखकीय दन्द-फन्द के बीच एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार की त्रासदी को बेहद कलात्मक संयम और शिल्प में गढ़ती यह रचना सिर्फ विचलित ही नहीं करती; वह आपको ऐसे आसन्न कर देती है कि पात्र और लेखक की नीयत से मुकाबिल होने के लिए आपको शीर्षक के बारे में कोष्ठक में दिये खुलासे से कहानी में पुन: प्रवेश करना पड़ेगा… या किताब बन्द करके कहानी के झंकृत हासिल पर सोचते रहना होगा। कहानी और उसके शिल्प–विधान से कई बार गुजरने के बाद भी इस सवाल का मैं अपने तई कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं खोज पाया हूँ कि ज्ञात अनुभव से रूबरू होने के बाद, लेखक ने वह एक्स फैक्टर कहाँ से ईजाद किया होगा जिसकी बिना पर इतनी मुकम्मल रचना सम्भव हो सकी। और वह भी कहानी विधा के इतने किफायती–कहना होगा रघुनन्दन त्रिवेदीय–संस्करण में। कहानी के इस विशिष्ट विधागत इनोवेशन को आप, समय की कमी के कारण, अपनी जिन्दगी की निजी बाध्यता मानते रहे। आप कितना भी कहें मित्र, यह पूरा सच नहीं था। फिल्म जैसी नितान्त अन्जान पृष्ठभूमि पर आप ‘छुअन’ जैसी एंग्रोसिंग लम्बी कहानी लिख सकते थे तो अपेक्षाकृत जानी-पहचानी स्थितियों पर, दूसरों की तरह लिखना आपके लिए कौन नामुमकिन था? मगर आग और असर के लिए आपने बेरहमी से अपनी कतर-ब्यौंत का दुर्गम रास्ता चुना ताकि उपभोक्तावादी, तथाकथित आधुनिक संस्कृति के विषाक्त माहौल में साहित्य की संकुचित होती दुनिया को आप पुख्ता और विश्वसनीय विकल्प दे सकें। मेरे जैसे सैकड़ों पाठक गवाह हैं कि आपकी मुहिम व्यापक नोटिस में चाहे उतनी न आ सकी हो मगर नाकामयाब तो नहीं ही रही। कहानी विधा के शैशव में वैसे यही काम एंटन चेखव किया करते थे। आपकी परिस्थितियाँ, चुनौतियाँ और मजबूरियाँ, चेखव से अलग रहीं मगर व्यक्तित्व की निश्छल पारदर्शिता और कलात्मक सलीके के लिहाज आपको उनका भारतीय अवतार तो कहा ही जा सकता है।
सरसरी तौर पर ही आपकी कहानियों से गुजरने के बाद, पिता और प्रेम की सुलगती मौजूदगी आपके यहाँ साफ नोटिस की जा सकती है। एक खत में आपने बचपन के लिए चालीस और प्रेम के लिए सौ बरस आबंटित किये जाने की जो आकांक्षा अभिव्यक्त की थी उसकी तह में इसी रीढ़नुमा सूत्र का असर देखा जा सकता है। अपनी खुदगर्जी के कफस में फँसे हममें से कितनों के भीतर पिता की मौजूदगी इतनी मुलायमत, ताप और कलात्मकता से लैस है जितनी आपकी कहानियों में? पिता के माध्यम से मानो आप काफ्का का प्रतिपक्ष रचते हैं जो कला के सन्दर्भ में आसान नहीं है। आप ही के यहाँ अपने बच्चे की नोट बुक में एक अधेड़ गृहस्थ के भीतर वह लड़की रूप बदल-बदलकर जिन्दा रह सकती है जिसके लिए किशोरावस्था में कभी मासूम चाहत जगती रही थी। आपके ही रचना संसार में (स्थितियाँ) चाय की गुमटी पर एक लड़की प्रेमी द्वारा पन्द्रह बरस पहले हथेली पर थमाई अठन्नियों की स्मृति को इतने नॉस्टेल्जिया से महसूस कर सकती है। फैशन मुताबिक देह की वल्गर प्रस्तुति की किंचित भी नीयत नदारद। वक्त के चाक पर बदलते प्रेम के स्वरूप के प्रति आप चौकन्ने अवश्य थे मगर प्रेम करने की मनुष्य की आदिम फितरत पर आपका कस्बाई यकीन हमेशा चौकस रहा। कहना न होगा कि इस मामले में किसी अबूझ चाहत ने आपको बुरी तरह अतृप्त कर रखा था जिसकी वजह से, प्रतिक्रिया-स्वरूप, आप बार-बार अपना रचनात्मक घरोंदा(कैसल) यहीं बनाते जाते थे। साहित्य और कला का मगर जालिमपना तो देखिये कि हर अतृप्त चाहत और दुश्वारी के बीच ही इसका वहशी सौन्दर्य आकार ग्रहण करता है! और मोहरा बनता है बेचारा लेखक-कलाकार।
आपके प्रति ऐसे ही बेतरतीब मगर गहरे पसराये आकर्षण की वजह से, सन 2002 के उतरते दिनों में जोधपुर जाने के एक मौके को मैंने कब्जे में झपट लिया था। आपको बता दूँ कि शहर-कस्बे मेरे लिए व्यक्तियों का पर्याय बन जाते हैं… कानपुर माने प्रियंवद-गिरिराजजी, कुलटी माने संजीव, पटना माने सुलभ-सन्तोष-प्रीत की तिकड़ी, जमशेदपुर-जयनन्दन, इन्दौर-प्रभु जोशी. जोधपुर माने बेशक आप और सत्यनारायण। उस दिन शहर में देरी से पहुँचा था फिर भी पहली शाम सत्यनारायण का ठिकाना ढूँढ़ने में निकली। अगली दोपहर, लंच स्थगित करके सचिवालय की तरफ भागा था। आप अपनी सीट पर नहीं थे। इधर-उधर पूछताछ से पता चला इस वक्त आप अमूमन नजदीक में ही ऑडिटवाली बिल्डिंग में पुराने साथियों के साथ होते हैं। तीन मंजिल सीढ़ियाँ चढ़कर जब वहाँ पहुँचा तो बताया गया कि आप आये तो थे मगर उसके बाद चले गये। अलबत्ता आप सामने जो जनगणना वाली बिल्डिंग है, उसके आखिरी माले पर हो सकते हैं। आप वहीं थे। बाकायदा। किसी अबूझ कारण से जर्जर-सा वह दफ्तर लगभग सुनसान पड़ा था, सिवाय उस कमरे के जिसकी एक मेज के चारों तरफ पत्ते खेलते दस-बारह अर्ध-धूसड़ चेहरों का वैसा ही जमघट था जो हर कस्बे की शिनाख्त कराता जाता है। सबकी निगाह मुकाम की तरफ सरकाती बाजी पर टिकी हुई। ठिठककर, अपने प्रिय कथाकार के जेहन में बसी तस्वीर मैंने एक पत्तेधारी से मिलायी और मामूली प्रयास के बाद कामयाब भी हो गया।
सफलता की खुशी से, आपके नजदीक जाकर चिंहुककर पूछा:
‘‘आप रघु जी हैं?’’
‘‘जी?’’
चलती बाजी में पड़ी खलल की वजह से आँखों में उतरा अजनबीपन सामने वाले को धिक्कार रहा था फिर भी चिंहुक के साथ अपना परिचय देने में कोताही नहीं बरती गयी.
‘‘जी मैं…’’
पत्ता फेंकने का दबाव था या कुछ और, मगर उस चेहरे में वैसा उछाह तो दूर-दूर तक नहीं था जिसकी, दूसरे शहर से आये और गत पन्द्रह मिनट से भटकते, उस आगुन्तक की अपेक्षा थी।
‘‘अरे हाँ… आइये बैठिये.’’
बाजी की जीत पर टिकी आँखों वाले चेहरे ने दुपहरिया उबासी के कारण मुँह पर हाथ रखकर शायद ऐसा ही कुछ बुदबुदाया था.
मगर वह आगुन्तक बैठता कहाँ? कोई जगह ही नहीं थी। जैसे-तैसे एक मेज से टेक लगाकर वह उस माहौल में अपने को सहज रखने की कोशिश करता रहा। आप फिर बाजी में मशगूल हो चुके थे।
आखिर वह बाजी सम्पन्न हुई। प्रतीक्षारत आगुन्तक, जिन्दगी को एक पहेली मानकर सोचे जा रहा था कि क्या बेशऊर लेखक है… दफ्तर में यूँ ताश खेलता है… मेहमान से ऐसे मिलता है? पत्रों और रचनाओं में कितना सम्वेदनशील और असल जिन्दगी में कितना ‘ठूँठ’ सा! क्या सलीकेदार मुखौटा पहना है…
मुखौटा तो वहाँ था मगर लेखक की बजाय चढ़ा वह आपके व्यक्ति पर था। बाजी पूरी होते ही आपने मंडली को उसी निष्ठुरता से दरकिनार किया और धूप सेंकते हुए बतियाने की गरज से मुझे टैरेस की तरफ ले आये। और तभी, एक ही पल में मेरा सारा उबाल ठंडा हो गया था क्योंकि उस मित्र-मंडली में न आप लेखक की हैसियत से थे और न मेरे कारण ऐसा-वैसा कुछ होने देना चाहते थे। आप जानते थे कि जिन्दगी के अनुभव बटोरने के लिए आपको एक लेखक की तरह नहीं, एक जमीनी आदमी की तरह जमीन पर ही रहना पड़ेगा वर्ना उन अनुभवों पर असल के अलावा कोई दूसरा ही रंग चढ़ा मिलेगा… बाढ़ के प्रकोप का हेलिकॉप्टर से जायजा लेते नेता की तरह… हवाई और गड्ड-गड्ड।
कोई घंटे भर हम यूँ ही बतियाते रहे थे। मुझे जो कहानियाँ याद पड़ रही थीं, उन पर चर्चा की गयी, जो ज्यादा पसन्द नहीं आयी थीं उन पर खुलासा माँगा-जो आपने नहीं दिया सिवाय एक स्वीकारोक्तिनुमा चुप्पी के… कि ऐसा है तो यूँ ही सही। आपकी रचनाओं के प्रति मेरी गर्मजोशी को अनदेखा करने की हद तक, आप चर्चा को अपने लेखन से इतर ही सरकाते रहे। क्या यह आपकी विनम्रता भर थी या कुछ और?…
शीर्ष पत्रिकाओं में छपी पचास से ज्यादा कहानियों की पूँजी जो फिलहाल तीन संग्रहों में निरापद… कहानियाँ ऐसी जिन्हें पाठकों का ढेर प्यार मिला और लेखकों का उत्साहवर्धक एप्रीसिएशन। दो महत्वपूर्ण सम्मान और कई कहानियों के दूसरी भाषाओं में अनुवाद। लेखन की बात पर मगर आप उखड़े-उखड़े थे… विषाद की किरंच जैसे भीतर गहरे तक धँसी पड़ी हो… लेखन की दुनिया से निर्भ्रान्त और अप्रसन्न। उमस और वीतराग की ऐसी सेही जो छुए बगैर भी देखने वाले में चुभन की बेचैनी भर दे। एक अडियल हस्तक्षेप से घिर जाने के बाद ही, आपने बमुश्किल अपनी उन तकलीफों और मनोदशा का एक मोखा खोला था… आपके भीतर एक कहानी का एंगल तय हो चुका था, उसे बस कागज पर उतारा जाना बकाया था मगर दफ्तर में चल रहे इंस्पैक्शन के कारण छुट्टी की दूर-दूर तक कोई गुंजाइश नहीं बन रही थी। आप पर कहानी की खुमारी थी और हालात एकदम नामाकूल। दफ्तर तो जाना पड़ा मगर उससे आपकी बेचैनी बेकाबू हो उठी! उफनाती गर्मी के रोज बड़ा गैर-शरीफाना जोखिम उठा बैठे थे आप… आप टॉयलेट गये और मौका ताड़कर वहाँ यूँ गिर पड़े मानो कोई दौरा पड़ा हो। थोड़ी देर बाद जब किसी सहकर्मी ने आपको बेसिन के नीचे यूँ पड़े देखा तो हड़कम्प मच गया था… कोई आपको पानी पिला रहा है तो कोई पंखा कर रहा है और आप थे कि, किसी मंजे हुए अभिनेता की तरह, अपनी रहस्यमय बीमारी का नाटक किये जा रहे थे… आप बार-बार गश खाने लगते, बैठे-बैठे लुढ़क पड़ते। अस्पताल दाखिल करने का सुझाव, आपको किये-कराये पर पानी फेरता सा लगा था। किसी तरह सम्भलकर आपने बस घर पहुँचा दिये जाने की प्रार्थना की थी। मगर घर आकर भी आपका नाटक जारी रहा… आप सोने चले गये क्योंकि परिवार की खटर-पटर के बीच मनचाही एकाग्रता नहीं आ सकती थी। रात के सन्नाटे के बीच जब तारीख कब की करवट ले चुकी थी, वह कहानी पूरी हुई थी और तब कहीं जाकर आप अपने हाली अवसाद से बरी हुए थे!
कौन कहेगा कि ‘टॉयलेट’ नाम की उस कहानी के लिए लेखक ने इतना कुछ भोगा होगा? शायद कहानी भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। मगर यह तो बहुत बाद की बात होती है कि सृजित रचना आगे कितनी खरी निकलती है। आगे कहीं न शुमार किये जाने वाला मिसकैरेज, प्रक्रिया के स्तर पर माँ को कम दर्द तो नहीं पहुँचाता है?
आप नहीं जानते, यह सब सांझा कर, आपने एक नवेले पर कितना बड़ा एहसान किया था। आपकी लेखकीय आग की यह एक चिंगारी भर थी मगर इसने मेरे भीतर जमे ढेर सारे बुरादे का सफाया कर दिया था। अवसाद में तो आप यकीनन घिरे ही हुए थे क्योंकि मुलाकात की उस अवधि के दरम्यान आप एक दफा भी कायदे से हँसते हुए नहीं देखे गये (क्या यह संयोग ही है कि आपके पात्र या स्थितियाँ भी लगभग इसी तरह अभिशप्त रहते हैं)। अपनी उन आत्मीय बातों को भी आप मुझझे नहीं, खम्बे के तारों या सामने पेड़ पर बैठी चिड़िया के ऊपर टँगे व्योम की तरफ मुखातिब होकर कर रहे थे। एक सच्चे इनसान और सशक्त लेखक की टूटन के पीछे कहीं न कहीं पारिवारिक स्थितियाँ और नौकरी सम्बन्धी हताशाएँ कार्यरत होगीं, अपनी इस अपेक्षा के बावजूद आपसे उस पहली — और अन्तिम — मुलाकात के उपरान्त मैं प्रसन्न हालत में नहीं लौटा था।
भाई, लेखन में अकेले पड़ते जाते आदमी का कोई सहारा नहीं होता है। अकेलेपन को आप अपनी सवारी नहीं बनाएंगे तो यह पल-पल आपको रेतने-रोंदने लगेगा। चिड़चिड़ापन और आत्ममुग्धता इसके दो तुरंत उपलब्ध धुर वीभत्स बाई-प्रोडक्ट्स या ुरंत-उपलब्टअवतार हैं। दोनों से ही पलायन कर, आपने अवसाद और अकेलेपन को अपने तई जज्ब करने का लेखकीय जोखिम उठाया… भीतर गहराते अँधेरे की बाबत हम सबको एकदम अँधेरे में रखते हुए। सुखी जीवन तो खैर हर लेखक-कलाकार का दुश्मन होता है मगर सम्भावित रचनात्मक अवशेष में रिड्यूस हुए जाने से पहले, दुख और अवसाद की अँधेरी लम्बी सुरंग, आत्महन्ता की हदों तक बर्दाश्त करने की कूवत माँगती है। इसलिए आपके यूँ अनायास चले जाने ने, अवसन्न हमें जरूर किया मगर कुल मिलाकर यह सब उतना अनायास भी नहीं था। इसका मुझे दोहरा मलाल है। मलाल हर लेखक का स्थायी भाव होता है मगर उम्मीद है आपके व्यक्ति के भीतर ‘खाँचे’ नहीं रहे होंगे क्योंकि आप तमाम मुगालतों से परे के और सच्ची के लेखक थे.
इस पत्र के साथ आपके द्वारा मुझे प्रेषित कुछ पत्रों की प्रतियाँ संलग्न कर रहा हूँ ताकि कभी आप स्थितियों का पुनरावलोकन कर सकें।
(एक )
आदरणीय भाई शर्मा जी,
इसे ‘तूने मुझे चुन लिया मैं भी तुझे चुनता हूँ’ या शायद इसके उलट है कि ‘मैंने तुझे चुन लिया तू भी मुझे चुन’ वाली बात नहीं समझें। सचमुच ‘अकार’ के प्रवेशांक में आपका ‘एक निरीक्षण’ (आत्मचित्रण और टॉलस्टॉय के बहाने ज्विग) बहुत पसन्द आया। मेरा मन इससे पहले ‘शेष’ में छपे आपके पत्र के कारण भी चिठ्टी लिखने का था, पर मुझे सन्दर्भ नहीं मालूम है कि आपकी चिठ्टी में (जो शेष में छपी है) मेरा जिक्र क्यों आया है ? यदि आपने किसी आलेख में मेरी कहानियों पर टिप्पणी की है तो भाई निश्चय ही मैं उत्सुक हूँ जानने को। यह अलग बात है कि इधर पिछले कुछ समय से एकदम सूखा चल रहा है और मैं कुछ भी लिख-पढ़ नहीं पा रहा। खैर ! ‘अकार’ के आलेख हेतु मेरी बधाई। उम्मीद है स्वस्थ, सानन्द होंगे.
आपका
रघुनन्दन
(दो)
आदरणीय भाई ओमा जी,
नमस्कार। आपका पत्र मिल गया। तत्काल प्रत्युत्तर के लिए आभारी हूँ। आपने जो लिखा वैसा ही कुछ मेरा अनुमान था, हालाँकि ‘अक्षरा-50’ मैंने नहीं पढ़ी। दरअसल हसन जी की परेशानी यह है कि मैं उनके शहर में रहता हूँ और वे खूब लिखने-पढ़ने वाले व्यक्ति हैं, और यह भी कि वे ऐसे आलेख अधिक ध्यानपूर्वक पढ़ते हैं जिसमें लेखकों के नामों का उल्लेख होता है और उन्हें ऐसी सूचियों में अपना नाम नहीं मिलता तो निराशा होती है और अपने ही शहर के किसी लेखक का नाम मिल जाने पर गहरी ईर्ष्या। मुझ पर उनकी विशेष कृपा रहती है हालाँकि मैं शहर में भी कई गोष्ठियों आदि में आता-जाता नहीं, इस कारण बहुत कम लोगों से मिलना-जुलना होता है। इसी तरह खूब नहीं लिख पाता और पढ़ना भी पिछले कुछ सालों से काफी कम हुआ है। खैर, मेरी कहानियाँ छोटी हुआ करती हैं, यह बात पहले भी मुझे किसी ने बतायी है। यह तो ओमा जी मेरी विवशता है। दो-तीन बातें हैं। एक मैं हमेशा चोरों की तरह, जैसे लोग गुनाह करते हों, वैसे ही अपने बाकी जीवन से समय चुराकर लिखता रहा हूँ। इसलिए मुझे इधर-उधर भटकने की छूट नहीं मिली। खैर ! यह भी एक लम्बी बात होगी… आपकी ‘कथादेश’ वाली कहानी तो मैंने पढ़ी है. सत्यनारायण से बात भी हुई थी। ‘अकार’ में आपका आलेख मुझे इतना पसन्द आया कि मैं इस तरह का काम और करने की राय दिये बिना नहीं रह सकता। दो रास्ते हुआ करते हैं… एक लेखक के जीवन को जानकर … उसकी रचनाओं में उसका जीवन तलाश करना। दूसरा, सिर्फ रचना पढ़कर लेखकीय मनोविज्ञान और लेखक के जीवन के बारे में अनुमान लगाना। बाहर इस तरह से काम हुआ है क्योंकि सचमुच जिज्ञासा होती है। आप उम्मीद है स्वस्थ, सानन्द होंगे। पत्र दें जब भी सुविधा हो मन हो। आपसे दोस्ती हो गयी अब तो। हसन जी माध्यम बने उनका भी आभार।
आपका
रघुनन्दन
(तीन)
भाई ओमा जी,
आपका 26.4.02 का पत्र और ‘अक्षरा’ में छपा आलेख मुझे यथासमय मिल गया था। फौरन जबाव नहीं लिख पाया, उम्मीद है अन्यथा नहीं लेंगे। जैसा कि मैंने अपने पहले पत्र में लिखा था, भाई, मेरी मुश्किल यह है कि मेरे पास बहुत समय नहीं रहता, इसी कारण मुझे थोड़े में कहने की आदत होती गयी है। नहीं, मैं कॉलेज में नहीं हूँ। मैं दफ्तर में अकाउन्टेन्ट हूँ और यदि सम्भव हो तो कल्पना कीजिये एक ऐसे आदमी की जिसे सबसे ज्यादा चिढ़ (या कहें घृणा) होती है हिसाब-किताब से और जो निजी तौर पर इतना लापरवाह है कि अपनी जेब में पड़े पैसों का पूरा ब्यौरा नहीं दे पाता, वही व्यक्ति दफ्तर में हिसाब करता है? कहाँ पड़ी है गर्मी की छुट्टियाँ भाई। एक तो हमारा शहर सनसिटी कहलाता है क्योंकि यहाँ इन दिनों सुबह 8-9 बजे दोपहर के समय जितना चमकीला प्रखर होता है सूरज। ऊपर से बिजली की आवा-जाही। फिर 9-9.30 बजे रोज एक झटका। याने यह कि लेखक को मारपीट कर टेबल की दराज में डालो और चलो काम पर। मैंने अपनी डायरी को खत में तब्दील करने की कोशिश करते हुए एक अंश में यह सब लिखा था। कितनी ही बार अधूरी छूट जाती हैं कहानियाँ क्योंकि कभी छुट्टी नहीं मिलती, कभी कहीं जाना जरूरी होता है और विश्वास करें आस-पास कोई ऐसा नहीं जिसके व्यवहार से यह महसूस हो कि जो मैं लिख रहा हूँ उसका कोई मतलब है, कोई उपयोगिता है उसकी… लोग प्राय: तटस्थ होते हैं या फिर इस सबको फिजूल जूझने की आदत बताने वाले। ऐसे में कहानियों के अन्त मुझे खींचते हैं अपनी तरफ। वे छोटी रह जाती हैं। बहुत कुछ बच जाता है कहने से। दो-तीन घंटों से ज्यादा मैं कुर्सी पर इस काम के लिए बैठ नहीं पाता। सुबह ही इतनी ताकत होती है। शाम को तो थकान और रात को नींद। खुद को बहुत स्वस्थ नहीं कह पाता। इसलिए कोशिश करता हूँ कि फिजूल झंझटों से बचूँ। मैं पत्रिकाओं में प्रतिक्रियास्वरूप चिठ्टियाँ भी नहीं लिख पाता कई बार। सोचकर रह जाता हूँ। मेरी शाम प्राय: जंगल में बीतती है जो घर के नजदीक ही है। एक छोटी-सी टेकरी (पहाड़ी) पर बैठकर सूर्यास्त देखता हूँ। बहुत अधिक दोस्त नहीं। जोधपुर में सत्यनारायण है। उनसे भी सप्ताह-दस दिन में एकाध बार मिलना होता है। मेरी अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं। ज्विग को थोड़ा बहुत पढ़ा है मैंने, मैं जिस किताब को सबसे ज्यादा पसन्द करता हूँ वह ‘प्लेग’ है। मैं इसके नायक ‘रियो’ को अपना आदर्श मानता हूँ और वह मुझे मुश्किल परिस्थितियों में जीने का साहस देता है। किसी भी सचमुच के आदमी से ज्यादा करीब है ‘रियो’। मेरी तीसरी किताब ‘हमारे शहर की भावी लोककथा’ मेधा बुक्स दिल्ली से छप रही है। इस साल आ जानी चाहिए थी, लेकिन अभी तक… मैं खुद दिल्ली नहीं जा सकता। फोन पर बात होती है। वे अगले महीने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहते हैं। यही जीवन है। एक बेटा है मेरे, विपुल। 17 साल का कुछ अजीब-सा। अभी साल मैंने मई में ही दो छोटी कहानियाँ लिखीं। एक ठीक-ठाक हो गयी। दूसरी लिखकर कुछ खास तसल्ली नहीं हुई। लिखना शुरू हुआ इस तरह कि मुझे बोलना नहीं आता। तो जैसे कोई आदमी जिसके पाँव खराब हों और जो हाथों से चलायी जाने वाली साइकिल से चलता है, उसके हाथ मजबूत हो जाते हैं या जैसे अंधे की सूँघने की ताकत बढ़ जाती है उसी तरह मैं तुरन्त जब जरूरत होती अपनी बात बोलकर नहीं रह पाता। इसी से एकान्त में बैठ खुद से बातें करने और लिखने की आदत बन गयी। कभी-कभी कोई कहता है अच्छा लिखते हो तो शर्म-सी आती है। हिन्दी में निर्मल को मैं बार-बार पढ़ सकता हूँ। उनसे जिनकी असहमतियाँ हैं, वे भी उनकी तल्लीनता से सीख सकते हैं। विवाद में पड़ना मेरे बूते के बाहर है जो पड़ते हैं वे मजबूत दिल-गुर्दे वाले हैं। उनके पास समय है, मुझे जिन्दगी मेरी जरूरत से थोड़ी मालूम होती है। अगर मुझे पूछकर उम्र तय की जाती तो मैं चाहता… बचपन के चालीस साल और प्रेम के लिए मुझे सौ से एक भी साल कम होना मंजूर नहीं होता। शेष फिर।
साढ़े नौ बजे हैं सुबह के, चिठ्टी जरूर लिखें. मैं प्रतीक्षा करूँगा.
आपका
रघुनन्दन
(चार)
प्रिय भाई,
आपका पत्र मिला और इस बीच ‘कथादेश’ में आपकी कहानी ‘जनम’ भी पढ़ गया. अच्छी बन पड़ी है. बधाई। शीर्षक यदि ‘चौथा जनम’ होता तो और अधिक उपयुक्त होता। खैर।
कहानी की पठनीयता और पाठकों के कम होते जाने के संकट पर आपकी चिन्ता वाजिब, उनसे असहमति की तो कोई गुंजायश ही नहीं। हुआ दरअसल यह है भाई कि हम ‘बौद्धिक’ हो गये हैं, जिससे हमारी ‘हस्तक्षेप’ की प्रवृत्ति बढ़ गयी है। कहानी का संसार यद्पि हमारा ही बनाया हुआ होता है परन्तु फिर भी वह हमसे थोड़ी ‘तटस्थता’ की अपेक्षा रखता है, और हम हैं कि किसी भी पात्र को अपने तरीके से सोचने, प्रतिक्रिया करने के लिए स्वतंत्र नहीं छोड़ना चाहते बल्कि उसके बदले खुद सोचने, बोलने और रिएक्ट करने लगते हैं जिससे हमारी ‘लायब्रेरी’ कहानी में दिखायी देने लगती है। मैं मानता हूँ कि अपनी ही रचना के संसार से रचनाकार का पूरी तरह तटस्थ होना न तो ठीक है, न सम्भव परन्तु एक सीमा होनी चाहिए जिससे आगे बढ़कर पात्रों के क्रिया-कलापों में हमारा दखल देना वैसा ही होगा जैसे कोई कोच मैच के दौरान खुद ही खेलने लग जाये या कोई पिता अपने वयस्क बेटे को दूसरों के सामने अपना नाम तक न बताने दे बल्कि स्वयं ही उसकी जगह उसके बारे में बोलना शुरू कर दे। दूसरी एक बात यह है कि हर विचार कहानी में ही अभिव्यक्त हो यह जिद नहीं रखनी चाहिए, जो निबन्ध या लेख के लिए अनुकूल हो विषय, उसे निबन्ध या लेख में ही आना चाहिए, जबरदस्ती उसे षियस्ककहानी में घुसाने पर कहानी का नुकसान होगा। अपने समय की जटिलताएँ यदि कहानी में एकमेक होकर आयें तो कोई बुरी बात नहीं, बल्कि अच्छा है पर हमारा ध्यान सिर्फ उन्हीं को शामिल करने की तरफ है तो कहानीपन नहीं रह जाएगा। ‘अवलोकन’, ‘खोज’, ‘जिज्ञासा’ और ‘धैर्य’ ऐसे गुण हैं जो जरूरी तौर पर लेखक में होने चाहिए। निष्कर्ष देने की उतावली, दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति और विवादप्रियता एक तरह का छिछलापन है, इससे ‘चर्चित’ हुआ जा सकता है मगर कहानीकार के रूप में किसी पाठक के मन में बने रहना असम्भव है। और यह इस पर निर्भर है कि हम कौन-सी राह चुनते हैं। रसूल हमजातोव ‘मेरा दागिस्तान’ में एक जगह लिखते हैं ‘मूर्ख अपनी चीख से ध्यान खींचता है और बुद्धिमान अपनी उक्ति से’। खैर !
मेरी किताब मेधा बुक्स दिल्ली से छपकर अभी-अभी आयी है. भेज रहा हूँ. प्राप्ति सूचना दें और यदि सम्भव हो तो बिना दोस्ती की लिहाज किये इस पर तटस्थ होकर लिखें, मैं आभारी होऊँगा। अपनी राय से मुझे भी अवगत करायें।
शेष फिर। उम्मीद है स्वस्थ, सानन्द होंगे। ‘जनम’ के लिए एक बार फिर बधाई। मेरी शुभकामनाएँ।
आपका
रघुनन्दन
(पाँच)
भाई ओमा जी,
‘भविष्यदृष्टा’ (कहानी संग्रह) के प्रकाशन की बधाई और मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। आज ही किताब मिली। बहुत अच्छी छपी है। कवर संग्रह के शीर्षक से अच्छी तरह मेल खाने वाला है। यों भी प्रभु जी मेरी पसन्द के लोगों में हैं। रचनाओं के बारे में पढ़कर अपनी राय लिखूँगा ही.
भाई, और सुनाइये कैसे हैं? मैं ठीक-ठाक। लिखना लगभग बन्द। अलबत्ता कोशिश जारी। स्वस्थ, सानन्द होंगे। पत्र दें।
आपका
रघुनन्दन
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