कमुझे अच्छी तरह याद है। गफलत की कोई गुंजाइश ही नहीं है। ट्रेन साढ़े पाँच पर आ गयी थी। मैं सोया पड़ा था। अटेन्डेन्ट ने मुझे छेड़ लगाई तो मैं अकबकाकर जागा था इसलिए टाइम देखने को कलाई लेखी। खट से पानी की बोतल बैग में डाली, अपने शोल्डर बैग को आड़ा करके जिस्म पर ताना और मिनी सूटकेस को उठाकर ट्रेन से उतर आया। बान्द्रा टर्मिनस के बाहर ऑटो वालों ने ऐसा नरक मचा रखा होता है कि गुस्सा आता है कि ये सरकार कितनी अंधी और बहरी है। अब बताइए, शास्त्री नगर तक जाने के लिए कोई कमबख्त या तो जाने को तैयार नहीं या फिर सौ रुपये से कम लेने को तैयार नहीं। दुनिया करती है मुम्बई बहुत कायदे-कानून वाली है, यहां के ऑटो वाले दिल्ली जैसे नहीं हैं। कोई बान्द्रा आकर देख ले, सब दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। प्लेटफॉर्म पर किसी ऑटो-टेक्सी वाले को आने की इजाजत नहीं होती है लेकिन सीधे कोच तक चले आते हैं। देर तक चिरौरी करते हैं और जैसे ही उनके बताए भाड़े पर आपने त्योरियां चढ़ाईं नहीं कि बस, आपसे पीछा छुड़ाकर किसी दूसरी सवारी को लपकने लगते हैं।
लेकिन उस दिन नसीब अच्छा था कि बाहर सड़क तक आ गया और जैसे ही एक ऑटो रुका और मैंने शास्त्री नगर जाने की बात की और ‘एशियन हार्ट के पास’ कहा, पट्ठा मान गया और दस मिनट में उसने मुझे छोड़ भी दिया। एहतियात रखने का ही नतीजा है कि मैंने अपनी ट्रैक की जेब से निकाल खुले चालीस रुपये उसे पकड़ाये और घर आ लगा।
सुबह के सवा छह बजेहोंगे। थोड़ा अंधेरा था और मामूली ठंडक भी। इसलिए सीधे जाकर आरजू के साथ लेट गया। ट्रेन में अच्छा-खासा सो लिया था लेकिन सोचा इस सन्नाटे में क्या करूंगा, कुछ देर और झपकी मार ली जाये तो क्या बुरा है। लेकिन दो-चार बार करवटें बदलने के बाद भी नींद गायब ही रही। अन्दर से जब थोड़ा दबाव भी महसूस करने लगा तो फारिग होने के लिए गया और सब काम निपटा कर आदतन टहलने जाने के लिए जूते पहन लिये। कॉलोनी से जरा निकलकर बीकेसी आ जाओ तो इस वक्त पूरा इलाका अपना ही लगता है। । हां, तो जूते चढ़ाने के तुरंत बाद जब मैंने एहतियातन सौ का नोट जेब में रखने के लिए अपने बटुए की खोज की तब… और तब… धीरे-धीरे मेरी हवा खिसकने लगी। वहां मिनी सूटकेस था, मोबाइल था, मेरी छोटी डायरी थी, वहां मेरे एक-दो दूसरे कागज थे लेकिन मेरा बटुआ! वह गायब था। मैंने बिस्तर को दो-तीन बार उलटा-पलटा, बाथरूम चेक किया, बैग को खंगाला लेकिन सब फिज़ूल। वो हो तो मिले। उफ्फ… इस वक्त कोई खुदा को इस वजह से भी याद करता है… या अल्लाह। मेरी हिम्मत नहीं हुई की आरजू को जगाकर कहूं कि मेरा पर्स खो गया है, मतलब किसी ने मार लिया है। मैंने तय कर लिया कि तुरंत स्टेशन भागता हूं, अभी तो मुश्किल से कुल जमा पौन घण्टा गुजरा है। घण्टे भर के अन्दर ऐसा बिगड़ा काम बाज दफा बन जाता है। लेकिन दिक्कत ये थी कि अब मेरे पास स्टेशन वापस जाने के लिए ऑटो को देने लायक भी पैसे नहीं थे। ट्रैक की पाकिट जो में आदतन पैसे रखता हूं, वह ऑटो वाले को पहले ही दे चुका था।
मैंने थोड़ी हिम्मत की और अपने ऊपर काबू रखते हुए, आरजू के नजदीक जाकर थोड़ी कातर आवाज में सरकाया,
“अरे सुनो, मेरा पर्स चला गया, मतलब किसी ने उड़ा दिया। मुझे स्टेशन जाना पड़ेगा, सौ रुपये की दरकार है… उठो तो”।
वह अभी पूरी तरह से जागी नहीं थी लेकिन लानत गिराने लायक आंखें उसने फिर भी खोल लीं थी।
“ पर्स! उसमें तो बहुत कुछ होगा।”
वैसे चाहे चाय के बगैर सोकर नॉर्मल न उठ पाती हो मगर अभी देखो, कैसे बाहोश पेश आ रही है।
“हां, अमूमन जो उसमें होता है वही।”
“ कितने पैसे होंगे?”
“अब एकदम तो याद नहीं, लेकिन हजार-डेढ़ हजार तो रहे ही होंगे।”
“ और क्या-क्या था?”
रवैये से लग रहा था कि सारे मुमकिन नुकसान का जायजा लेने के बाद वह भरपूर सजा सुनाएगी।
“एक तो मेरा डेबिट कार्ड ही था, ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड भी उसी में रखता था और बैंक का आई-कार्ड…”
‘आधार’ कार्ड को मैं जान-बूझकर गुल कर गया।
“मैंने पहले भी कितना कहा है कि पैन कार्ड उसमें रखने की क्या जरूरत है।”
“ सही कह रही हो लेकिन ये बात कभी और करें?”
“ कभी और तुम सुनते हो?”
“अमां तुम बहस मत करो और जरा उठके मुझे…”
“एक तो नींद खराब कर रहे हो और उस पर ये तुर्रा।”
मैं चुप रहा।
पहले ही एक मुसीबत गले अटकी पड़ी थी।
खैर, पहले उसने पचास रुपये देने चाहे लेकिन मैंने कहा कि लौटना भी तो है। तो फिर दोसौ का नया नोट पकड़ा दिया। मैंने कॉलोनी के बाहर खड़े ऑटो को लपक कर पकड़ा और बान्द्रा टर्मिनस जाने के लिए बोला। उसने बेअदबी से कहा की पचास लगेंगे जबकि मैं खुद थोड़ी देर पहले चालीस में वहां से यहां आया था। हद है। खैर, इन छोटी-छोटी बातों पर किस-किससे बहस करें। किससे और कितनी?
ऑटो में बैठने के बाद फिर एक लड़ी मेरे अन्दर चलने लगी कि पर्स कहां रह गया होगा। मेरी याद्दाश्त बहुत अच्छी नहीं रह गयी है लेकिन फिर भी मुझे बाखूब याद हो आया कि हां, गई रात मैंने पर्स निकाला था क्योंकि टी.टी. महाशय ने, रात के साढ़े ग्यारह बजे, टिकट चेक करने के लिए एक सोते हुए आदमी को उठाकर मेरा आई-कार्ड चेक करना चाहा था। ट्रेन सवा दस बजे अहमदाबाद से चलती है जहां से मैं उसमें बैठा था। रात के वक्त डेढ़ घण्टे तक मियां को फुर्सत नहीं मिली कि अपना काम कर लें। बताइए, साढ़े ग्यारह तक सवारी बाट जोहती रहे कि टी.टी. साब आएं तो हम सोने जाएं। हम्म… तो उस नीमहोशी की हालत में ही मैंने जब पर्स निकाला था और उसको खोलकर जब आई-कार्ड दिखाया था… तब शायद… पर्स को बैग में वापस रखने के बजाय वहीं सीट पर छोड़ दिया होगा। ‘होगा’ इसलिए कि मेरे जाने और कोई गुंजाइश तो दिख नहीं रही थी। अब बताइए कि क्या सोता हुआ आदमी कभी इतना एहतियात रख सकता है कि वापस एक-एक चीज को वहीं रखे! मोबाइल को लेकर भी मैं पहले एक धोखा खा चुका हूं। इसीलिए तो शोल्डर बैग लिया कि उसमें चीजें डाल दो और सुबह उसे उठाकर चलते बनो। उस समय मेरे पास शोल्डर बैग नहीं रहा करता था। मोबाइल को जेब में ही रखकर सोया करता था। कोई ग्यारह बजे किसी अहमक़ का फोन आया था और बात करके मोबाइल इधर-उधर रख दिया था। सुबह उठकर बिना मोबाइल लिये चलता बना था। लेकिन उस वक्त जब मुझे एहसास हुआ तब काफी देर हो गयी थी। बेशक यही ट्रेन थी और लगभग इसी वक्त आकर लगी थी लेकिन मुझे मोबाइल के इस्तेमाल की तलब अगले तीन घण्टे नहीं हुई थी। इसलिए देर तक उसके गुम होने की खबर नहीं लगी।
लेकिन आज, मतलब अभी तो एक घण्टा भी नहीं हुआ है। इसलिए मुझे यकीन है, यकीन क्या पक्का ही है कि पर्स मिल जायेगा। भाई, हमें किसी की चीज दिख जाये तो आगे बढ़कर पूछते हैं कि किसकी है। अब देखो, हमारे साथ कोई ऐसा ही सुलूक करता है कि नहीं। वैसे सभी तरह के लोग हैं दुनिया में। और उन सभी तरह के लोगों में अच्छे लोग भी ख़ासी तादाद में हैं। मैंने आरजू को बताया नहीं कि उस पर्स में हजार–डेढ़ हजार नहीं करीब तीन-साढ़े तीन हजार रहे होंगे। भाई, दूसरे शहर में आदमी काम करता है, आड़े वक्त के लिए और कुछ हो न हो, पैसे तो गांठ में होने चाहिए। बैंक में आप कितने भी पैसे रख लें लेकिन आड़े वक्त पर्स वाले की काम आते हैं। वैसे भी पर्स उन्हें कौन सा उनको खा जायेगा। मैं वैसे भी अपने ऊपर खामखां खर्च नहीं करता।
कोच अटेन्डेन्ट के नाम पता होने का तो खैर सवाल ही नहीं है। हाँ, उस टी.टी. का नाम मैंने उसकी पट्टी पर रात साढ़े-ग्यारह बजे, उस नीम-होशी में भी पढ़ लिया था जो अब याद आ रहा है: टी.के. नायर। कोच और सीट नम्बर मैं जाकर अगर रेलवे वालों को बता दूंगा तो नायर के जरिये से लड़का आसानी पकड़ में आ जाना चाहिए। पक्का उसी ने पर्स उड़ा लिया होगा। उसमें मेरा आई-कार्ड है, उसमें मेरा विजिटिंग कार्ड है, उस विजिटिंग कार्ड पर मेरा मोबाइल नम्बर है। वह चाहता तो तुरंत मुझे फोन लगा सकता था। मैंने अपने फोन की स्क्रीन को कब से मुंह के सामने कर रखा है ताकि कोई अंजान नम्बर से कॉल आते ही मैं बहुत सारी चीजों के साथ उसका लाख-लाख शुक्रिया कहना शुरू कर दूं। उसके लिए दुआएं पढ़ दूं और बता दूं कि एक कोच अटेन्डेन्ट के तौर पर वह अपना फ़र्ज कितनी नेकदिली से करता है। अल्लाह सब देखता है। खुश रहो बेटा, तुम जहां हो वहीं रहो, मैं अभी पहुंच रहा हूं।
वहां तो क्या पहुंचना था मैं अब सीधे टर्मिनस पर ही पहुंच गया । इससे पहले कभी कोई चीज इस तरह से खोयी नहीं थी तो यही नहीं पता कि किसी चीज के लिए कहां भाग-दौड़ करनी होती है। रिजर्वेशन काउंटर के बगल में जो सिक्यूरिटी गार्ड खड़ा था, मैंने उसी से गुहार लगानी शुरू कर दी… “भाई कोई आधा घण्टे पहले मेरी ट्रेन आई थी, उसमें मेरा पर्स छूट गया, तो… आप लोगों के यहां जो लॉस्ट एण्ड फाउण्ड या जो सामान गुम हो जाता है, उसको कहाँ जमा कराया जाता है, या जहां उसकी दरयाफ्त करनी होती है… मुझे वहां जाना है, आप बताएंगे?”
“कौन सी गाड़ी से आये थे?” उसने सीधे सवाल किया।
“बान्द्रा-भुज सुपरफास्ट।”
“ किस प्लेटफॉर्म पर आयी थी?”
“अब साब प्लेटफॉर्म का तो पता नहीं लेकिन छह बजे के करीब आयी थी।”
मेरे छह बजे कहने के बाद उसने कलाई की घड़ी देखी और बोला, “अब तो सात से ऊपर हो लिया। गाड़ी तो यार्ड में चली गयी होगी। ऐसा करो रिजर्वरेशन काउंटर के पीछे, यानी बैक साइड में जो पार्सल डिपो है, वहां पता करो।”
सिक्यूरिटी गार्ड को शुक्रिया कहकर मैं फटाफट वहां से उसके बताये ठिकाने की तरफ लपका। वहां जाकर देखा तो वहां तो कुछ था ही नहीं बस एक आवारा सा ट्रक खड़ा था। कैसा आदमी है यार, सुबह-सुबह किसी की मदद करने के बजाय फालतू भटका रहा है। मैं दौड़ता वापस उस सिक्यूरिटी गार्ड के पास आया और कहा कि वहां तो कुछ नहीं है। गार्ड ने मुझे बड़ी हिकारत भरी नजरों से देखा और कहा “आपने देख लिया?”
मैंने खट से से हामी भरी और बताया कि वहां तो सिर्फ एक ट्रक खड़ा है और कुछ नहीं है।
“अरे तो बाबा, उस ट्रक के आगे तो जाके देखना चाइए था। जाओ-जाओ वहीं है, देखो।”
मैं फिर लपककर पहले ट्रक और फिर उसके आगे तक गया और देखा तो वाकई एक गैरेज टाइप सी जगह थी जिसका दरवाजा खुला पड़ा था। गलती मेरी थी। मुझे वापस अपना पर्स हथियाने की ऐसी पड़ी थी कि बहुत सहज होकर नहीं सोच पा रहा था। दरवाजे पर जो आदमी खड़ा था मैंने उससे तस्दीक की कि क्या यही पार्सल रूम है? उसने हामी में गर्दन हिलायी तो मैंने फौरन से पेश्तर उससे पूछ डाला कि रेलवे पेसेंजर्स की जो चीजें खो जाती हैं, उन्हें जमा करने-कराने की जगह कौन सी है और किससे बात करनी पड़ेगी?
उसने ढिठायी से मेरी तरफ देखा और बिना बोले ही अन्दर की तरफ हाथ का इशारा कर दिया। दो-तीन खपरेल टाइप के छोटे-छोटे कमरे थे और सभी खुले पड़े थे। सिर्फ एक जगह दो-तीन लोग निठल्ले से बैठे थे। सामने चाहे लोग कैसे भी हों लेकिन ऐसी हालत में मेरी कोशिश रहती है कि बहुत अदब से और शान्त स्वभाव से पेश आऊं। पता नहीं क्यों? पता नहीं इसका कुछ फायदा भी होता है मुझे या नहीं। लग रहा था वे सभी फालतू बैठे बतिया रहे थे। मैं उनके बीच में जाकर खड़ा हुआ और इंतजार करने लगा कि कही जाने वाली बात पूरी हो तो मैं अपनी बात कहूं। कम से कम किसी को यह न लगे कि मैंने बीच में टोक दिया। और जब उनमें से एक ने मेरी तरफ गर्दन करके जानना चाहा तो मैंने अपनी मुसीबत को मुख्तसर उड़ेला… मैं भुज-बान्द्रा से सुबह छह बजे यानी थोड़ी देर पहले ही कोच नम्बर ए थ्री से आया था। वहीं पर मेरा बटुआ छूट गया, जिसमें मेरी बहुत सारी जरूरी चीजें थीं और कुछ पैसे भी। क्या वह टी.टी. या अटेन्डेन्ट के हवाले से यहां जमा करा दिया गया है? या वह जगह जहां ऐसी चीजें जमा कराई जाती हैं…। उनमें से जो लड़का अभी तक बोल रहा था, उसने इशारे के साथ कहा “बाजू वाले कमरे में”।
मैं लपककर बाजू वाले कमरे में गया जो सुनसान और खुला पड़ा था। लेकिन फिर भी मैं अन्दर घुस गया और इधर-उधर झांकने लगा कि कोई मिल जाए। तभी एक बेतरतीब दाढ़ी वाले लड़के ने बाहर से आकर मुझसे वहां होने की वजह पूछी तो मैंने उसे सब बता दिया। उसने माना कि ‘लॉस्ट एण्ड फाउण्ड’ वाले आइटम उसी के काउण्टर पर जमा होते हैं लेकिन आज सुबह, यानी छह बजे जबसे वह ड्यूटी पर आया है, कोई पार्सल रिपोर्ट नहीं हुआ है। मुझे अचानक एक गहरी सांस आयी जिसमें शायद उस कोच अटेन्डेन्ट के किरदार के लिए बहुत सारी हिकारतें भरी होंगी। लेकिन उससे क्या, वो पट्ठा तो ईद मना रहा होगा… उसके अन्दर रत्ती भर भी इंसानियत होती तो अब तक उसका फोन मेरे पास आ जाना चाहिए था, मगर नहीं। मुझे लगता है जैसे आज मेरा बटुआ छूटा है, आये रोज किसी और का छूटता होगा। बटुआ नहीं तो मोबाइल। कुछ न कुछ तो ये सुबह वाली ट्रेन में सवारियों का छूटता रहता ही होगा। अब तो पट्ठे की चमड़ी मोटी हो गई होगी।
खैर, ऊपर वाला सब देखता है।
“ यानी किसी टी.टी या ट्रेन अटेन्डेन्ट ने कोई पर्स आपके यहां जमा नहीं करवाया है?”
मैं मानो मुतमइन होना चाहता था कि मेरा बटुआ अभी पार्सल रूम में जमा नहीं हुआ है।
नहीं हुआ है तो इसका मतलब है अभी वह उस ट्रेन अटेन्डेन्ट के पास ही होगा।
सारा ज़ोर उसे पकड़ने में लगाया जाए।
“तो साब ये बतायें कि किससे शिकायत की जाये या पता लगाया जाये, उसकी जानकारी कैसे मिलेगी कि वह कहां हो सकता है।”
उसके दिलतोड़ लफ्जों ने दरअसल मुझे इतना मायूस कर दिया था कि में उससे चिरौरी सी करने लगा।
“ आप रिजर्वेशन काउण्टर के ऊपर, उधर फस्ट फ्लोर पर टी.टी. रूम में चले जाइये, वहीं पता लगेगा।”
उसने बात बड़ी बेरूखी से कही थी लेकिन बड़ी साफ-साफ कही थी। “वहीं पता लगेगा” बोला था, यह नहीं कि वहीं ‘पता लग सकता’ है। इस बात से ही मेरे भीतर बड़ी उम्मीद जगी। एक खयाल यह भी आया कि उस सिक्यूरिटी गार्ड ने भी मुझसे ऐसा ही कुछ कहा था लेकिन पता नहीं क्यों पहले मैं पार्सल रूम की तरफ लपका चला आया हालांकि वह थोड़े उल्टे रास्ते पर है। भाई, ऐसी जगहों को ऐसी पिछवाड़े की जगह क्यों बनाते हैं? उसे तो एकदम सामने की तरफ होना चाहिए जिससे मुसीबतजदा सवारी सीधे वहाँ पहुँच सके।
चलो कम से कम एक रास्ता तो नजर आया। मैं पूरी धुकधुकी भरता हुआ सिक्यूरिटी गेट के पास पहुंचा, जहां अब पहले वाला तो क्या, कोई दूसरा गार्ड भी नहीं खड़ा था। फिर भी मैं उसके पार पहली मंजिल जाने के लिए बनीं उन सर्पीली सीढ़ियों पर खट से चढ़ गया जिसकी तरफ दो लोगों ने इशारा किया था।
और लो वो मेरा मकाम आ गया।
कमरे में चार मेजें थीं, जिनमें तीन पर लोग बैठे थे और एक पर पुराने मॉडल का कम्प्यूटर रखा था। धूसर फाइलों से लदी एक लंबी खुली लकड़ी की रेक थी। दूर वाले कोने में गहरे हरे रंग की, कुछ चकत्ते खाई अलमारी थी जिसका एक पल्ला आधा खुला पड़ा था। सामने घुसते ही, मेज के आगे एक खाली कुर्सी भी पड़ी थी, जिस पर बैठने से पहले मैं थोड़ा रुका और इंतजार करने लगा कि वो अधेड़ सज्जन खुद मुझसे पूछे कि ‘जी बताइये, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?’
लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। वह अपने बाजू वाले आदमी से जो अच्छा खासा भारी भरकम था, पता नहीं कहां-कहां की और किस तरह की बातें करने में लगा था। वो ऐसा है, वो ऐसा है, कल उसने सिक किया था। आह वो फलाना गुल्ली मार गया। मुझे लगा कि मेरा एक-एक पल कीमती है और वह यूं ही जाया हो रहा है। जब पूरे दो मिनट खड़े रहने के बाद भी उन्होंने मेरी तरफ नहीं देखा तो मुझे मजबूरन कहना पड़ा कि ‘एक्सक्यूज मी, मेरा नाम मोहम्मद शाहिद है, मैं रिजर्व बैंक में काम करता हूं। मैं अभी सुबह-सुबह, ये जो भुज-बान्द्रा आयी है, उससे आया था… उसमें मेरा पर्स छूट गया। पर्स में कुछ पैसे थे लेकिन उससे ज्यादा जरूरी कुछ डॉक्यूमेन्ट थे… मसलन मेरा डेबिट कार्ड। आप जरा पता लगाइये कि उसमें कौन टी.टी… कौन क्या, टी.टी. का मुझे पता भी है, मिस्टर नायर, टी.के. नायर… कौन अटेन्डेन्ट था। कोच ए थ्री और सीट नंबर पन्द्रह थी… नीचे वाली, वहीं पर मेरा पर्स छूट गया। अब घण्टे भर से ऊपर हो गया लेकिन मुझे अभी तक कोई फोन नहीं आया है… आप जरा प्लीज देखिये…।
मैं पूरी शाइस्तगी से उसे अपनी समस्या बताए जा रहा था।
मैंने बात पूरी कि तो उस आदमी ने पूरी हमदर्दी के साथ सामने पड़े पुलिंदे में से दो-तीन कागज पलटे और उस नम्बर पर उंगली रख दी जो उस कोच के अटेन्डेन्ट का रहा होगा।
नायर का फोन नम्बर भी वहीं लिखा था।
मुझे बड़ा सुकून मिला, चलिये व्यवस्था हमारे यहां ऐसी बनी हुई है कि इतनी जल्दी मुद्दे तक पहुंचा जा सकता है। पहले उन्होंने अटेन्डेन्ट को ही फोन लगाया, जिसका कोई जवाब नहीं आया। फिर उन्होंने नायर को फोन लगाया जो कुछ देर पहले ही गाड़ी का अपना हिसाब-किताब करके चला गया था। नायर ने उनको फोन पर क्या बताया होगा, यह तो मैं नहीं सुन सकता था लेकिन इधर से जो सवाल-जवाब किये जा रहे थे उससे यही नतीजा निकल रहा था कि नायर की जानकारी में वहां तो क्या, उसकी निगरानी के किसी भी कोच में उस गाड़ी में आज किसी पर्स के खोने की कोई जानकारी उसके पास नहीं है, हालांकि वह उस लड़के से भी इस बाबत पूछ लेगा। मेरा दिल थोड़ा और बैठ गया। जब उन्होंने नायर को इस बात का हवाला दिया कि “ ये भाई रिजर्व बैंक के एक सीनियर ऑफिसर हैं, जरा दिखवा लेना।” तो मुझे लगा कि एक कंसोलेशन प्राइज मेरी झोली में आ गया है। मैं अब तक उस कुर्सी पर बैठ चुका था और तहेदिल से उन्हें शुक्रिया कहने लगा। शायद उनकी ड्यूटी खतम हो गयी थी या वे सुबह का अपना हिसाब-किताब पूरा कर चुके थे क्योंकि फोन करने के बाद फिर वे उठ खड़े हुए और मेज की दराज में से चमड़े का अपना शोल्डर बैग निकाल कर बराबर वाले तोंदियल से रुखसत लेते हुए बोले, “अच्छा भरतानी, चलता हूं”।
उन्होंने मुझे लगभग भरतानी के सुपुर्द करते हुए कहा कि आप अपना नम्बर इनको लिखवा दें, हम पूरी कोशिश करते हैं, बाकी आपकी किस्मत।
किस्मत का ऐसे जिक्र मुझे बड़ा गैर-जरूरी लगा, मगर उनकी फौरी मदद का मैं फिर भी कायल था। इसलिए शुक्रिया करने के बाद मैंने तुरंत उनसे पूछा,
“सर, आपका नाम?”
“मिर्जा, अख़्तर मिर्जा”। उन्होंने सीधे कहा
यकायक एक ठण्डक मेरे भीतर उतरती चली गयी। मैं अभी तक अपने भीतर बड़ी उमस सी महसूस कर रहा था। पिघलकर मैंने उससे कहा “मिर्जा साहब, इफ यू डॉन्ट माइन्ड, आपका मोबाइल नंबर मिल सकता है।”
उन्होंने खड़े-खड़े ही अपने मोबाइल के अक्षर सुना डाले जो मैंने अपने मोबाइल में उतार लिए और उनको डायल भी कर दिया।
मुझे लगा मंजिल चाहे न मिले लेकिन मैं सही रास्ते पर तो हूं।
मिर्जा के जाने से पहले ही एक-दो कोटधारी व्यक्ति जो अपने रंग-ढंग से टी.टी. ही लग रहे थे, अंदर आये और मिर्जा को एक छोटी पोटली पकड़ा दी।
उसे देखते ही नजदीक बैठे भरतानी ने चुटकी ली:
“क्या बात है, इस बार तो आप बिना फोन किये ही ले आये।”
काले कोट वाला आदमी थोड़ा सा हिनहिनाया लेकिन मिर्जा साहब ने तुरंत जड़ा,
“अपने आप कुछ नहीं लाये, मैंने कल फोन किया था।”
इस पर भरतानी ने चुस्की ली,
“चलिये बड़ी बात है, एक फोन करने पर तो आ गये।”
बस इसी किस्म का एकाध छिटपुट और कुछ रहा होगा।
‘रहा होगा’ मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरे भीतर तो घड़ी की टिकटिक किसी सुपरफास्ट सी दौड़ रही थी। यानी जितनी देर हो रही है, बटुए के मिलने की संभावना और कम हो रही है। सामने वाले कम्प्यूटर में जगजीत सिंह की गायी एक शिव वंदना चल रही थी। बड़े ही सीधे सपाट लफ़्ज… ओम शिवाय हरिओम शिवाय, हर-हर बोलो नमो शिवाय…। मैं सोचता था कि जो आदमी इतनी अच्छी गजलें और पंजाबी टप्पे गाता है, उसे ऐसे फालतू के काम करने की क्या जरूरत है? पैसों के लिए भी नहीं, क्योंकि पैसे क्या उसने कम कमाये होंगे!
लेकिन दुनियादारी की गहमागहमी के बीच उस एकनिष्ठ ओर सरोवर सी बहती आवाज ने जैसे मेरा मन बदल दिया।
लेकिन मुझे खुद उसमें बहकने की नहीं पड़ी थी।
इसलिए कुर्सी को भरतानी की तरफ खिसकाकर उनसे बाअदब बतियाने लगा।
भरतानी ने थोड़े सोच-विचार के बाद सीधे कहा
“देखिये आपका पर्स मिल भी सकता है और नहीं भी। हमारी कोशिश पूरी रहेगी”।
उसके ऐसे बेरूख नजरिये पर थोड़ा बेजार होते हुए मैंने कहा,
“भरतानी साहब, क्या है कि उस बटुए में मेरा डेबिट कार्ड है, पैन कार्ड है और मेरा आधार कार्ड भी है। मेरी फैमिली शास्त्री नगर रहती है। मैं अभी तक मुंबई में ही पोस्टेड था, कुछ दिनों पहले ही मेरा तबादला अहमदाबाद हुआ… हर हफ्ते घर आता-जाता हूं। नौकरीपेशा हूं, तो आप समझ ही सकते हैं कि एक कार्ड को पहले बन्द कराना, फिर चालू कराना या डुप्लीकेट बनवाना… उसमें कितनी परेशानी झेलनी पड़ती है… कितना वक़्त जाया होता है और चार-पांच हजार रुपये भी समझिये कोई कम नहीं होते।”
लेकिन मेरी मार्मिक गुहार का भरतानी पर कोई असर नहीं हुआ।
उसके जाने तो ऐसे मामले आये दिन या फिर दिन में छत्तीस होते रहते होंगे।
“देखिये, मैंने आपको बताया ना कि हम तो कोशिश करेंगे ही लेकिन अगर कोई बेईमान हो उठे तो उसका कोई क्या इलाज कर सकता है। उसका कोई इलाज नहीं है जनाब।”
“ आपने सही कहा, उसका तो कोई इलाज नहीं है लेकिन मामले की सही जगह तक रिपोर्ट ही न कराई जाये तो बेईमानी को शह मिलती है न?”
भरतानी मुझसे उम्र में दस साल तो बड़ा रहा ही होगा। वजन में तो दोगुना होगा। अपनी बात को कहने के बाद मुझे लगा ही नहीं कि मैंने उसे कुछ हिदायत सी दी है या कि मेरे सामने ही थोड़ी देर पहले दो काले कोट वाले जो कुछ पोटली में मिर्जा और उनके लिए थमा गये थे, वह सब भी इस सुबह के नरेटिव के दायरे में आ सकता था।
भरतानी ने शायद मेरी दिली तकलीफ महसूस की होगी कि उसने बड़ी संजीदगी से कहा,
“ मैं वही आपको बताने वाला था। आप इसकी एक एफ.आई.आर. रेलवे पुलिस फोर्स यानी आर.पी.एफ. में जाकर कर दो। ये बहुत जरूरी है। आप बान्द्रा लोकल स्टेशन पर जाइए। वहां एक नम्बर प्लेटफॉर्म पर आर.पी.एफ. की चौकी है। आप रिपोर्ट दर्ज़ करा दीजिए और हां, आप उनसे ये मत कहिये कि बटुए में आपके पैसे थे क्योंकि पैसे की बात से ही मामला बिगड़ जाता है। आप वहां उनको लिखवाइये कि उसमें आपके डॉक्यूमेन्ट्स थे, मतलब जो-जो डॉक्यूमेन्ट्स उसमें थे वे सब… जो आपने अभी बताये… क्योंकि डुप्लीकेट बनवाने के लिए भी और कभी कोई उनका मिसयूज न करे उसकी बाबत भी, एफ.आई.आर. जरूरी होती है। और हां… आप उनसे कहिये कि स्टेशन से उतरकर जब आप ऑटो वाले को पैसे दे रहे थे तब आपका बटुआ खो गया… आपने ट्रेन के अन्दर खोने की बात की तो वे कुछ नहीं करेंगे।”
मैं थोड़ा नाउम्मीद सा उन्हें दिखा होऊंगा कि वे फिर बताने लगे…“ देखिये एफ.आई.आर. दो तरह की होती है। पैसे-वैसे को लेकर जो की जाती है… उसको लेकर पुलिस को जेबकतरों या चोर-उचक्कों को पकड़ना दिखाना पड़ता है, जो वे कभी करते नहीं हैं। और रही बात डॉक्यूमेन्ट्स की तो वे किसी छिटपुट चोर या दूसरे किसी के कोई के नहीं होते हैं। इसलिए बाजदफा बटुआ पानेवाला उसमें से पैसे निकालकर उसे फेंक देता है, इसलिए वह मिल जाता है…”
वे शायद मामले का आगे भी कुछ खुलासा करते लेकिन तभी उनका मोबाइल बज उठा जो इत्तेफाक देखिये, थोड़ी देर पहले मिर्जा अख़्तर की पहल का नतीजा था।
भरतानी फोन पर ही बता रहा था।
“हां, ए-थ्री कोच है, डबलटू नाइन ज़ीरो फोर का। हां, उसमें नायर की ड्यूटी थी तो गाड़ी यार्ड में लगी होगी तो ए-थ्री की पन्द्रह नम्बर की सीट (उन्होंने मोबाइल अपने कान से थोड़ा अलग करते हुए मुझसे तस्दीक भी की, ए-थ्री में पन्द्रह ही थी न, और मेरे ‘हां’ कहने के बाद फिर मोबाइल पर शुरू हो गये)… ए-थ्री में पन्द्रह नम्बर की सीट, उसके चारो तरफ दिखवा लेना और दोनों बाथरूम को भी, हां… और फिर मुझे बताना, ओके।”
भरतानी जब फोन से फारिग हुए तो तुरंत मैंने बताया की बाथरूम तो मैं सुबह गया ही नहीं था, इसलिए वहां ढूँढना बेकार है। वह सीट पर ही हो सकता है या फिर उस अटेन्डेन्ट के पास। भरतानी ने मुझे फिर बताया कि “अटेन्डेन्ट तो यार्ड में नहीं जाता है। मैं यार्ड में किसी से बात कर रहा था, जहां के लड़के कोच में घुस जाते हैं, उन्हें कोई मोबाइल मिल जाता है तो उसे तो अपनी अंटी में रख लेते हैं और तुरंत सिम निकाल लेते हैं या स्विच ऑफ कर लेते हैं। लेकिन बटुआ हाथ लग जाए तो वे अक्सर बाथरूम में जाते हैं और पैसे निकालकर वहीं छोड़ देते हैं। बटुए को लेकर बाथरूम में जाते ही इसलिए हैं कि उसे अच्छी तरह से खंगाल सकें।”
क्या कमाल का आदमी है भाई ये। मैं सोच भी नहीं सकता था। सब कुछ कितना टू द प्वाइंट और मामले की मदद के मुताबिक। मैं और ज्यादा देर नहीं कर सकता था लेकिन एक अबूझ कोफ़्त सताए जा रही थी कि किसी टीटी को रात की गाड़ी में टिकट चेक करने के लिए रवाना होने बाद इतनी देर क्यों करनी चाहिए? सवारी सोएगी नहीं?
मैंने भरतानी के सामने अपनी भड़ास जाहिर की तो उसने एक और खुलासा कर डाला।
“आप सही कह रहे हैं। लेकिन बेचारा टीटी क्या करे। रेलवे बोर्ड के मुताबिक दो एसी कोच पर एक टीटी होना चाहिए। और उसे छह कोच पकड़ा दिये जाते हैं। देर तो होगी ही। किसको समझने जाएँ? आजकल कोई सुनता है?”
मैं उससे क्या कहता।
अपने बैंक का भी तो यही हाल है।
मगर इस वक्त मैं किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता था इसलिए जल्दी से भरतानी की मेज के ऊपर रखे कागजों के ऊपर अपना मोबाइल नम्बर घसीटकर, और तहेदिल से उसकी मदद का शुक्रिया करते हुए उठ खड़ा हो गया। भरतानी का नम्बर भी मैंने अपने मोबाइल में न सिर्फ ले लिया बल्कि ‘मनोज भरतानी, रेलवे, बान्द्रा’ के नाम से उसमें संरक्षित भी कर लिया।
अचानक मुझे क्या हुआ कि फिर से भरतानी से गुहार करने लगा।
“साब, मेरा पर्स मिल तो जाएगा न?”
“अरे आपको बता तो दिया। देख भी रहे हो कि कोशिश चल रही है”।
मुझे मुरझाया हुआ देख उसने एक रास्ता और दिखाया।
“ आप ट्विटर पर तो होंगे ही… जीएम वेस्टर्न रेलवे के ट्विटर पर शिकायत कर दें। आजकल इससे जल्दी काम हो जाता है”।
मुझे उसकी बात से बड़ी राहत मिली।
कुछ दिन पहले एक दोस्त की पत्नी ऑल इंडिया रेडियो से रिटायर हुई थी। तीन महीने तक पेंशन को कोई पता ठिकाना नहीं। जब भी विभाग में पूछने जाती तो तरह-तरह के जवाब दे दिए जाते… अभी कागज तैयार करने वाला बाबू छुट्टी पर है, अभी मंत्रालय ने फाइल वापस नहीं की। थक-हारकर उसके पत्रकार बेटे ने सूचना-प्रसारण मंत्री के ट्विटर पर शिकायत कर दी।
पाँच रोज में सारे कागज भी बन गए और पेंशन भी शुरू हो गई।
लेकिन न सारे विभाग एक से होते है और न मंत्री।
सीनियर सिटीजन या पेंशन की बात और है।
मेरा बटुआ किसकी गिनती में आएगा?
वहां से उठकर वापस सर्पीली सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए पता नहीं मुझे भीतर से क्यों लग रहा था कि मैं सही लोगों से मिल लिया और सही रास्ते पर भी हूं। बाहर निकलकर मैंने तुरंत लोकल स्टेशन के लिए ऑटो किया और जल्दी से प्लेटफॉर्म नम्बर एक की तरफ चल पड़ा। आगे खोए अपने मोबाइल का खयाल आया। वह अहमदाबाद की बात थी। पुलिस कमिश्नर के मुख्यालय का एक कारिंदा परिचित था। उसे मोबाइल का ईएमआइई(इन्टरनेशनल मोबाइल इकयुपमेंट आइडेंटिटी) यह सोचकर दे दिया था कि पुलिस तो आए रोज ऐसे चोरों को धर दबोचती है। लेकिन आज तक कुछ नहीं हो पाया। मैंने एकाध बार उसे रिमाइंड कराया तो उसने खुलासा किया कि चोरों को अब हमारी टेकनीक का पता चल गया है इसलिए फ़ोरन उस औज़ार को सीधे नेपाल भेज देते हैं जहां इसका खूब फलता-फूलता कोरोबार होता है। आपके नेटवर्क में ही नहीं आएगा तो पकड़ा कैसे जाएगा?
यही सब सोचते-विचारते बान्द्रा लोकल के एक नम्बर प्लेटफॉर्म पर आ लगा। वहाँ उतरकर पहले खड़े होकर गौर से देखा कि रेलवे पुलिस की चौकी किधर है। काफी इधर-उधर दौड़-भाग की। थोड़ी हैरानी हुई कि अभी तो साढ़े सात–पौने आठ बजे होंगे और इतने सारे लोग कहां जाने को यहां आ पहुंचे। एनाउंसर गाड़ियों के आने-जाने को बड़े यांत्रिक ढंग से बताये जा रही थी। मुझे कई बार खयाल आया कि ये सब कैसे प्री-रिकॉर्डेड किया जाता है। क्या गाड़ियों के आने-जाने में कभी कुछ आगा-पीछा नहीं होता होगा?
खैर, इस सब पचड़े में मुझे पड़ने की क्या जरूरत है।
जब मुझे आर.पी.एफ. की बूथ नहीं दिखाई दी तो मैंने बाहर निकलकर किसी से पूछा। भरतानी ने टेक्नीकली गलत बताया था कि आरपीएफ की चौकी प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर है। पुलिस चौकी प्लेटफॉर्म नम्बर एक के ठीक बाहर थी। मैं जब उसके दरवाजे पर पहुंचा तो एक कुत्ता मेरी टांग के नीचे से लंगड़ाते हुए बाहर निकल भागा। जैसे उसकी आगे की एक टांग की हड्डी टूट गयी हो। सकपकता सा मैं अंदर घुसा तो बायीं तरफ का एक कमरा खुला था जिसमें एक आदमी सादे लिबास में कम्प्यूटर पर टिकटिक कर रहा था और एक वर्दीधारी उसके बाजू में बैठा था। आयताकार कमरे के दूर वाले कोने में एक लड़की कागजों पर कुछ लिखत-पढ़त कर रही थी। दोनों-तीनों अपनी खालिस मराठी में हंसी-ठिठोली करने में ऐसे लीन थे कि दो मिनट तक मुझे वहां इंतजार में खड़ा हुए हो गया था और कोई यह पूछने को तैयार नहीं कि मुझे क्या परेशानी है, क्या तकलीफ है जो मैं यहां आया हूं?
जब दो मिनट इंतजार करने के बाद मराठी में गिटर-पिटर करने से वे बाज नहीं आये तो मुझे कहना पड़ा,
“हैलो, गुड मॉर्निग। माई नेम इज शाहिद। मैं रिजर्व बैंक में काम करता हूं…।”
इससे पहले की मैं कुछ और आगे कहता कि उस वर्दीधारी ने बेअदबी से टोका।
“तो?”
मुझे लगा मुझसे गलती हुई है: सीधे शिकायत पर ही आना चाहिए था।
दो वाक्यों की भी भूमिका बनाने की जरूरत नहीं थी।
अदब हर जगह कहाँ काम करता है!
“मेरा पर्स चोरी हो गया है।”
“तो?”
उसने फिर उसी सख़्त लहजे में रुखाई से जड़ा।
“मैं उसकी शिकायत दर्ज़ कराना चाहता हूं।”
“ कहां चोरी हो गया?”
“मैं जब… स्टेशन पर आया तो ऑटो वाले को देने के लिए पैसे निकाले थे, शायद वहीं।” उसने मुझे तुरंत पकड़ा।
“ ऑटो वाले को किदर?”
मैंने खुद पर काबू रखते हुए एहतियातन कहा, “वो (इशारा करते हुए)… वहां, एक नम्बर के साथ जो ऑटो खड़े रहते हैं न, वहीं…”
“वहां की शिकायत यहां नहीं हो सकती।”
उसने दो टूक जड़ा।
“क्यों नहीं हो सकती?”
मैंने गो लफ्जों से ज्यादा अपने लहजे से टोका।
“अरे बाबा वो स्टेशन के बाहर है। वो बान्द्रा वेस्ट के पुलिस थाने में लगता है, उदर जाओ।”
एक बार को तो मुझे यकीन नहीं हुआ कि वह ऐसा कह कैसे सकता है? उस चौकी के ठीक बाहर ऑटो स्टैण्ड है। मुश्किल से पन्द्रह मीटर दूर। वह इस चौकी के इख्तियार में नहीं आता है! पुलिस थाने को लेकर तरह-तरह के किस्से-कहानी और तमाम फिल्मी वाकयात जेहन में कौंध गये। ‘रागदरबारी’ याद आ गया जिसमें खून सड़क के इधर हुआ या उधर इसी को लेकर खींचातानी शुरू हो जाती है, बजाय इसके कि खूनी की तहकीकात हो।
मैंने उसकी नेमप्लेट देखी।
वह वही था जो होना चाहिए था, एक मराठी मानस। कुछ ज्यादा ही खालिस मराठी। विलास भेडे। थोड़ा गोरा, हष्ट-पुष्ट सा नौजवान, दिखने में थोड़ा स्मार्ट सा भी मगर घोर… क्या कहूं। यहां काम मेरा अटका पड़ा था, मेरी जरूरत थी कि मैं कोई शिकायतनुमा पुर्जा हाथ ले लूँ, जिस पर कार्रवाई हो न हो वो तो जाने दीजिए… वहां कुछ दर्ज कर सकूं और उसकी एक नकल सा कुछ ले सकूं… जिससे कि कभी कोई मामला बने तो बता सकूं कि मैंने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज़ करा दी थी…
इसलिए मैंने अपने पर काबू रखते हुए फिर जोड़ा:
“देखिये मैं ये सोच रहा हूं कि मेरा पर्स शायद ऑटो वाले को पेमेंट करते वक्त वहां गिरा होगा। मैं तो प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर आया था किसी से मिलने…”
उसने मुझे बीच में फिर पकड़ा,
“किससे मिलने?”
“है मेरा एक दोस्त, उससे मेरा यहीं मिलना तय हुआ था।”
“क्या नाम है उसका?”
“देवेश, देवेश ठाकुर”
“वो क्या करता है”
“शेयर का काम करता है”
“शेयर बोले तो सट्टा ना? वो तो मंदा चल रहा है ?”
“???”
“ कोई सबूत है कि तुम प्लेटफॉर्म नंबर एक पर गया था?’
“हाँ है”
मैंने तैश में कह तो डाला मगर भीतर तक डर गया।
भरतानी के बच्चे को कोसने लगा जिसने मुझसे बेकार ही सफेद झूँठ बोलने को उकसाया था। मेरे पास तो प्लेटफॉर्म टिकट भी नहीं है। मोबाइल में एक ई-टिकट होगी। लेकिन वो गाड़ी तो टर्मिनस पर आती है, लोकल पर नहीं।
ज्यादा प्रेक्टीकल होना ज्यादा भारी पड़ता है। सच बोलो ,चैन से सोओ…
“अमा वो सब जाने दो, जिसके लिए मैं आया हूं, उस पर ध्यान दो।”
मैंने किसी तरह कुछ दम भरकर कहा।
उसे बुरा लगा तो वह फौरन बमक पड़ा।
“जो पूछा जा रहा है, उसका जवाब दो।”
“वो पूछो जिसका ताल्लुक मेरी शिकायत से है।”
इस पर वो कम्प्यूटर पर टिकटिक करता आदमी बोला,
“हमारा ताल्लुक सब चीज से है”
“ रिपोर्ट दर्ज़ करने से भी ताल्लुक है?”
मेरी आवाज थोड़ी और कड़क हो उठी।
उसने फिर मुझे काटा,
“यहां सही रिपोर्ट लिखी जाती है, गलत-सलत नहीं।”
“ मैं क्यों गलत रिपोर्ट लिखवाऊंगा?”
इस बात पर भेडे को जैसे और जोश आ गया।
“ अभी तुम कह रहा था प्लेटफॉर्म के बाहर चोरी हुआ, अभी तुम कह रहा है प्लेटफॉर्म के ऊपर हुआ। गलत-सलत कौन बोलता है, हैं?”
इन पुलिसियों को तो समझाना…तौबा।
लोग तभी इन्हें ‘ठुल्ला’ कहते हैं।
मैंने तालू से हवाई थूक सा निगला और अदब से पेश आने लगा।
“ भाई कोई चीज खो जाती है… क्या आपको तभी पता लग जाता है… जब वह खोती है? नहीं ना! बाद में ही पता लगता है ना। इसलिए पहले जब मैंने आपको बताया…”
“पहला-पीछा क्या होता है। जो फैक्ट है वो तो फैक्ट ही होता है।”
कहकर उसने पहले कम्प्यूटर वाले लड़के की तरफ और बाद में दूसरी तरफ बैठी लड़की की तरफ हिकारत से ठिठोली की।
जैसे किसी वकील ने किसी फौजदारी के मामले में बड़ा पेंच जड़ डाला हो।
इस बार खून का घूंट सा पीया और मन ही मन खुद को शान्त रखते हुए कहा:
“अगर स्टेशन के बाहर ऑटो की बात मैंने कही थी, तो स्टेशन के अन्दर वाली बात भी मैं ही कह रहा हूं, इसमें क्या गलत फैक्ट है।”
भेडे को शायद यह बात लेशमात्र नहीं जंची इसलिए बिना तवज्जो दिये बोला:
“ कितने पैसे थे उसमें?”
“देखिये पैसे तो बहुत ज्यादा नहीं थे। दोसौ-चारसौ होंगे लेकिन उसमें मेरा डेबिट कार्ड है, मेरा आधार कार्ड है।”
मैं लगभग अलग-अलग हिज्जे करते हुए, लगभग रिरयाते हुए बताने लग रहा था कि शायद अब उसके भीतर का इंसान जागे।
इस पर सादे लिबास में कम्प्यूटर पर टिकटिक करता आदमी मेरी तरफ रूककर बोला,
“तो यहां क्या करता है, डेबिट कार्ड को बन्द करा ना, जल्दी से।”
ना तो वो जुबान और न वो हिदायत गले उतारने लायक थी।
मगर फिर भी बर्दाश्त करना पड़ रहा था।
मैं खुद से सवाल करने लगा की मैं इनसे जो चाहता हूं क्या वह वाकई इतनी बड़ी चीज है जो ये इतनी जिरह… और वह भी इतनी बेअदबी से… मेरे से करने लगे हैं। एक आम शहरी का इतना भी हक नहीं? पुलिस चौकी है या अदावतखाना…
“डेबिट कार्ड को तो मैं घर जाकर फ्रीज कराई लूंगा लेकिन फिलहाल यहां जो कराने आया हूं…”
“ एफ.आई.आर कराने से बटुआ मिल जाएगा?”
“बटुए की बात नहीं है। डॉक्यूमेन्ट्स की बात है।”
“अरे बाबा डाक्यूमेन्ट्स से जो नुकसान होगा, हम उसके लिए कह रहे हैं।”
इसे ‘डॉ’ और ‘डा’ का फ़र्क नहीं पता और मुंसिफी झाड़ रहा है।
“वो मैं समझ रहा हूं।”
तभी वो पीछे कागजों पर काम करती लड़की उनके बीच आयी और मराठी में ही कुछ ऐसी बात कहने लगी जिससे वे सभी जी भरकर चुस्की लेने लगे। बीच में भेडे का मोबाइल बज उठा तो वह देर तक उसमें उलझा रहा। शायद जानबूझकर। मैं इतने दिन मुम्बई में रह लिया लेकिन मराठी में अभी भी लगभग पैदल हूं। अपनी खिलखिलाहट और मस्ती के बीच में जब उन्होंने मुझे उसी तरह गुरगम्भीर हालत में रिपोर्ट दर्ज कराने के मंसूबे पर डटे रहते देखा तो वे मेरी तरफ जैसे फिर शुरू हो गये।
“ तुमने क्या बताया था, कौन से बैंक में, रिजर्व बैंक में न?”
“यस।”
“उसमें कौन से डिपारमेन्ट में?”
“डीप… डिपार्टमेन्ट ऑफ इकनॉमिक एनालेसिस एंड पॉलिसी”
“ अच्छा ये बता, ये डिमोनेटाइजेशन क्यों हुआ था?”
“मुझे नहीं पता।”
“ रिजर्व बैंक में काम करतोये अणे डिमोनेटाइजेशन ची माहीती नको?”
मेरे न किए इस अपराध पर वे लोग आपस में मराठी में तंज कसने लगे जिसका अभिप्राय मुझे अच्छी तरह से समझ आ गया।
मुझे एहसास हो गया कि अब इन लोगों के मुंह नहीं लगना। इसलिए पूछा,
“ यहां आपका साहब कौन है? मैं बात करना चाहता हूं।”
इस पर भेडे तो ज़िबह करने की अदा में उठ खड़ा हुआ।
उस कम्प्यूटर पर काम करते लड़के ने भी कमर कसने के अंदाज में अपना काम बंद कर दिया।
दोनों के मुंह से एक साथ निकला,
“ साहब से बात करेगा? क्या बात करेगा?”
“मुझे साहब से बात करनी है… और क्या करनी है, मैं उनको बता दूंगा।”
लगता है बहुत दिनों से उन्होंने इस तरह की बातें किसी शिकायतकर्ता के मुंह से नहीं सुनी होंगी।
भेडे तो एकदम बिफर गया।
“मैं ही साहब हूं तेरा। बोल क्या बोलना है।”
उसने जैसे चिनौती दे डाली।
“ तू कहां से साहब है बे?”
मैं भी आपा खो बैठा।
“ साहब की शकल ऐसी होती है?”
*
उसके बाद क्या हुआ मुझे मालूम नहीं क्योंकि जब मुझे होश आया तब मैं घर पर था। मेरे माथे पर पट्टी चढ़ी थी और सामने आरजू बड़े उतरे हुए चेहरे से बैठी थी। मैं गुमशुम सा उसे देख रहा था और वो थी कि पता नहीं मेरी कही कौन-कौन सी कही-अनकही बातें पूरे आरोह अवरोह से साथ वहां सुनाए जा रही थी …कोई इस सिस्टम में काम करने को तैयार नहीं…जो काम करते हैं…उसके लाख दुश्मन खड़े हो जाते हैं… खुद को क्या करना चाहिए साले किसी को नहीं पड़ी… दूसरे को क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए… इसकी सब खबर है… बिना झूँठ के सहारे के एक कदम नहीं बढ़ा सकते… मुझे डीमोनेटाइजेशन का पता होना चाहिए था क्योंकि मैं रिजर्व बैंक में हूं… उस हरामजादे को एक झूँठ-मूट का कागज लिखने में परहेज था। ले जाएगा कोई मेरे बैंक अकाउंट से पैसे निकालकर तो ले जाएगा… मेरा बटुआ खो गया… मेरे इतने जरूरी कार्ड उसमें थे, वो चले गये… मुझे इसकी रिपोर्ट दर्ज़ नहीं करानी चाहिए… नहीं करानी चाहिए थी… मुझे बस सोते-जागते उठते-बैठते यही ध्यान रखना चाहिए कि कोई गलती न हो जाये… गलती से भी गलती न हो जाये…
ये आरजू की बड़बड़ थी या मेरे ही भीतर की कुछ आवाजें मुझ तक आ रही थीं?
मेरी आंखें फिर से बन्द होने को थीं कि तभी आरजू ने…
“क्या? बटुआ… ये कहां से आ गया तुम्हारे पास, कौन लाया?”
“कोई नहीं लाया मियां। ये तुम्हारे बैग के नीचे रखा था। मुझसे मत पूछो वहां कैसे पहुंचा।”
मेरी तो जैसे जान में जान आयी लेकिन आरजू फिर भी बाज न आने वाली थी।
“ यार तुम इतने भुलक्कड़ होते जा रहे हो, खुद का ध्यान रखते नहीं हो और सारी दुनिया के बारे में सोचते हो कि वो सुधर जाये… और ये ट्विटर की धौंस का लट्टू कहाँ से पकड़ लिया? किसने बरगला दिया है तुम्हें… कोई सांस लेते इंसान की नहीं सुनता यहाँ तो इसकी सुन लेगा? किसी येडे-भेडे के कहने से तुम पाकिस्तानी हो जाओगे जो उस पर टूट पड़ोगे”?
मैं बाथरूम जाने को उठा तो महसूस हुआ मेरी केफियत तीन टांगों पर भागते उस लंगड़ाते कुत्ते जैसी ही है जो मुझे उस पुलिस चौकी के गेट पर दिखा था।
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