(रफ्ता-रफ्ता मुझे एहसास हुआ कि अच्छाई और बुराई को तक्सीम करने वाली लकीर ना किसी राज्य , ना किसी वर्ग और ना राजनैतिक कबीलों से गुजरती है। ये तो हर दिल से होकर गुजरती है… सभी इन्सानों के दिल से — सोल्झेनित्सिन)
“क्या! कब?”
विवेक ने फोन पर जब बताया तो मैं भीतर तक चौंक पड़ा।
“कल सुबह… ग्यारह बजे।”
और मेरे ‘कैसे’ कहते ही उसने भीगे स्वर में आगे कहा “हार्ट-अटैक से।”
मैं एकदम ठगा सा रह गया।
एक हफ्ते पहले तो वह पुराना घर छोड़ा था जिसके सामने वाले फ्लैट में विवेक परमार और उसका परिवार यानी उसकी पत्नी, बेटी और उसके बुजुर्ग पिता रहते थे।
विवेक अपने बुजुर्ग पिता यानी श्री पंचम परमार की बात कर रहा था।
मैंने अकुलाहट में इतना ही कहा “भाई कल बता देना चाहिए था”।
उसने ‘जी’ जैसा कहा जरूर लेकिन उसमें कहीं अफसोस जैसा कुछ नहीं था।
आदमी के चले जाने के बाद और किया भी क्या जा सकता है!
लेकिन पंचम परमार ने मुझे अभी रिहा नहीं किया था। पिछले कई महीनों से वे एक तरह से मेरे हमजोली से हो गये थे। उन्हीं की जुबानी कहूं तो यहां जिन्दगी कहानी से कहीं ज्यादा दिलचस्प और घुमावदार होती दिखती थी। एक ऐसी कहानी या कहें ऐसी जिन्दगी, जो बहुत आसानी से दर्ज नहीं हो पाती है। मेरे पास स्मृति के अलावा संयोग से एक डिमाई साइज की डायरी है जिस पर उनकी आड़ी-टेढ़ी लिखावट के हजारों अल्फ़ाज़ हैं। उनके सहारे मैं उनकी जिन्दगी, या उनकी जिन्दगी की कहानी, बस आधी-अधूरी से ज्यादा नहीं बतला सकता।
हुआ ये कि किसी पत्रिका में मेरी एक कहानी छपी थी। मेरे घर पर कोई मौजूद नहीं था इसलिए डाकिया उस पत्रिका को सामने वाले घर में दे गया। पंचम परमार या कहें उनके बेटे विवेक परमार का परिवार थोड़े दिनों पहले ही उस सामने वाले तीन बेडरूम अपार्टमेन्ट में रहने आया था। मैं शाम को अपने काम से घर लौटा तो पंचम परमार साहब अपने दरवाजे पर खड़े होकर मेरे आने का इंतजार करते हुए मिले। इससे पहले उनसे मेरी कोई बातचीत नहीं हुई थी। इसकी एक वजह यह भी थी कि मैं अपनी कम्पनी के काम से पिछले दस दिनों से विदेशी दौरे पर था और मुम्बई वालों को अमूमन ऐसी कोई वजह नहीं लगती है कि सामने वाले की घण्टी बजाकर तार्रूफ लिया-दिया जाये। लेकिन उस वृद्ध सज्जन ने जब पत्रिका को सामने दिखाते हुए एक खुशी जाहिर कि तो मैंने उन्हें अपने घर के भीतर आमंत्रित कर लिया ताकि उनके साथ एक कप चाय पी जा सके। मुझे हैरानी हुई कि ये हंसमुख दिखते जनाब अपनी भाषा में बोल नहीं पाते हैं…सिवाय अस्फुट ‘आ-ओ-ऊं’ या कड़क ‘ना’ जैसे दो-चार लफ्जों के। हां, लिखकर वे अपनी बात कह कह सकते थे और जो बोला जाये उसे सुन-समझकर उस पर लिखकर अपनी राय दे देते थे। हम दोनों के बीच में उम्र का अच्छा-खासा फासला था। मुझसे मिलकर उन्हें यकीनन एक खुशी हो रही होगी क्योंकि उनके हाव-भाव बहुत उत्फुल्ल दिख रहे थे। यह बात कि वे बोल नहीं पाते है, उन्होंने मेरे टेलीफोन के पास रखे नोट-पैड पर लिखकर मुझे बताई थी। इस तरह हमारे बीच एक संवाद का सिलसिला शुरू हुआ। यानी वे वहीं पर अपने सवाल लिखते और मैं बोलकर उन्हें जवाब देता। थोड़ा समय लगता था लेकिन इसमें कोई हर्ज़ नहीं था। उन्हें जब पता लगा कि कॉर्पोरेट की दुनिया में काम करने वाला आदमी अदब या कहानी की दुनिया में आजमाइश करता है तो मैं उनके भीतर कोई सुकून बरामद होते देख सकता था। ऐसा सुकून अमूमन किसी ऐसे व्यक्ति को ही मिल सकता है जो या तो आपका आत्मीय हो या लेखकी की दुनिया से जिसका वास्ता रहा हो। इससे पहले कि मैं उनसे कुछ और पूछता, उन्होंने उस पत्रिका में प्रकाशित कहानी के बारे में जानना चाहा कि यह किस बारे में है। मैंने कहा कि यह बताना शायद मुश्किल है, आप इस पत्रिका को तसल्ली से पढ़ लें और खुद अंदाजा लगायें कि यह किस बारे में है। मैंने जब उनसे पूछा कि क्या आप भी पहले कभी कुछ लिखते थे? तो उस हंसमुख चेहरे पर एक तरेड़ आकर गायब हो गयी। उन्होंने होले से कई दफा हामी में गर्दन ऊपर-नीचे की और नोट-पैड उठा लिया।
उन्होंने लिखा: थोड़ा बहुत…कविताएं ।
लिखकर वे बड़े रहस्यमय ढंग से मुस्कराते हुए मुझे देखने लगे।
मैंने पूछा: किस तरह की कविताएं? तो उन्होंने जैसे बदला लेते हुए शरारतन कहा,
“कल मैं आपको कुछ कविताएं दूंगा, आप खुद अंदाजा लगा लें कि वे किस तरह की हैं”।
मुझे उनकी बात जंची।
कुछ देर में हम चाय पी चुके थे।
उन्होंने जाने की इजाजत ली और कल मिलने का वादा करके वापस अपने घर चले गये।
मेरा अगला दिन बेहद व्यस्त रहा। हम कुछ टेलीकॉम कम्पनियों को डिजिटल कन्टेन्ट देने के एक बड़े प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे। उस कम्पनी के साथ कई महीनों की मशक्कत के साथ हमारा करार हो चुका था। उस करार के तहत हम अपना कुछ दायित्व निभा भी चुके थे …कि पता लगा कि वह कम्पनी दिवालिया हो चुकी है! और आगे उससे धन्धा करना हमारी जैसी कम्पनी के लिए सिर्फ एक घाटे का सौदा हो सकता था। इसलिए हमें तुरन्त दूसरी टेलीकॉम कंपनियों को पकड़ने की मजबूरी थी। लेकिन पकड़ते भी तो कैसे? उन्होंने, या कहें हमारे प्रतिद्वन्द्वियों ने, कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ रखी थी। पहले हम कॉलर-ट्यून को लेकर अपनी जगह बना चुके थे। बाद में हमने हिन्दी गाने, गज़लें और यहां तक कि भजन और पश्चिमी संगीत को लेकर भी अच्छा काम किया था। लेकिन जिस काम को करने में हमारी लीगल और टैक-टीम को दो से तीन बरस लगे थे, वह सारा काम– और जैसा सुनने में आया और बताया गया– हमारी प्रतिद्वन्द्वी फर्म, जो मुश्किल से छः महीने पहले वजूद में आयी थी, रातों-रात करके हमसे कहीं आगे निकल गयी थी। उसके पास वेन्चर कैपिटल ही नहीं बल्कि फॉरेन फण्डिंग की इतनी सहूलियत थी कि कायदे से हम उसके आगे कहीं टिक ही नहीं सकते थे। हम कुछ हद तक अपनी ब्राण्ड वैल्यू और कॉर्पोरेट दुनिया के भीतर अपनी ईमानदार उपस्थिति के कारण बने रहने का दावा कर सकते थे। लेकिन सिर्फ दावा। वास्तव में क्या हो सकता था, इसके बारे में कुछ भी पक्का नहीं था। इसलिए पूरा दिन मीडिया, टेक्नोलोजी और मार्केटिंग की टीमों के साथ एक के बाद एक अंतहीन मीटिंग-मशवरे करने में बीता।
घर आने में भी मुझे इसलिए देर हुई।
देर मतलब रात के साढ़े ग्यारह बजे।
लेकिन घण्टी बजने के कारण मेरे घर का दरवाजा खुलने से पहले, पाँच फिट दूर सामने वाले घर का दरवाजा खुला और पंचम जी सामने आ गये। यह वक्त उनको अंदर बुलाने का नहीं था, इसलिए मैंने उनसे माफ़ी माँगी और कहा कि मैं आपसे कल या जब भी मुमकिन हो सका तब, मिलूँगा और बात करूंगा। उन्होंने वहीं खड़े होकर अपनी आ-ओ-ऊँ के सहारे गर्दन और हाथ को एक लय से हिलाते हुए खिलकर हामी भरी और अपने घर का दरवाज़ा तब-तक बंद नहीं किया, जब-तक कि मैंने अपने घर में घुसकर अपना दरवाज़ा बंद नहीं कर लिया। अंदर घुसने के बाद मुझे इस बात का भी बहुत ख़याल नहीं आया कि वे मेरा इंतज़ार क्यों कर रहे थे या मेरे फैसले के बाद उनका चेहरा जरा मुर्झाया सा क्यों हो गया था? जैसा मैंने अभी कहा, अपने कंपनी के कारोबार के हालात को लेकर इतनी उठापटक हो रही थी कि मुझे वाक़ई अपनी सुध नहीं थी, किसी और की क्या होती!
इस तरह कई हफ़्ते बीत चुके थे और एक रोज़, मुद्दत बाद, जब पहले रविवार को दफ़्तर नहीं गया, तब उनसे मिलना हो पाया। मैं रविवार के दिन दफ़्तर नहीं गया था इसकी उन्हें ख़बर थी क्योंकि उन्होंने घंटी बजाकर भीतर आने के लिए मानो अपने को ख़ुदबख़ुद पेश कर दिया था। सुबह के ग्यारह बजे होंगे। उनके एक हाथ में एक छोटी टॉवल थी जिसका भरपूर इस्तेमाल वे जब-तब अपनी लार पोंछने में करते दिखते थे। दूसरे हाथ में एक नीले रंग की डिमाई साइज़ की डायरी थी।
मैंने उस रोज का तार जोड़ते हुए जब उनसे पूछा कि बताएं कि वे किस तरह की कवितायें लिखते थे, तो उन्होंने उंगली से उस नीली डायरी की तरफ़ इशारा किया और बताया कि उन्होंने दो कविताओं के अंश, अपनी याद्दाश्त की बिना पर, इस डायरी में लिखे हैं जिन्हें पढ़कर मैं अंदाज़ा लगा सकता हूँ कि जब वे लिखते थे तो किस तरह की कवितायें लिखते थे। कच्ची–पक्की लिखावट में ही उन्होंने मेरी कहानी की खुले दिल से तारीफ़ कर रखी थी हालाँकि उसके अंत को लेकर संदेह जताया था कि वह इतना धूमिल सा क्यों है। मैंने जब उनको कहा कि कहानी किसी अन्त के होने या न होने के कारण नहीं, अपनी पूरी बुनावट के कारण समझी जानी चाहिए, तो उन्होंने उसे सिर्फ़ आधा-अधूरा ही स्वीकार किया।
उनकी कविताएँ थीः
1.
डायरी के पृष्ठ उसके
लगते हैं घनिष्ठ कितने
समोये हैं उनमें ज़िंदगी के असीम अर्थ
उठते-गिरते और गिरकर उठते वह हुई है समर्थ
संघर्ष में, सोच मैं
हासिल में, लोच में
कागज़ के यही पन्ने
लगते हैं प्रतिबिम्ब अपने
डायरी के पृष्ठ उसके…
2.
उसके होठों की मुलायमियत
उसकी जुबान से जुड़ी है
आँखों की गहराई
मन की किसी परत से
और सोच की उलझनें
शख्सियत की मासूमियत से ।
लेकिन यूँ ऊपर से
देखते हुए आप कभी
उसके हृदय की थाह नहीं ले सकेंगे
जिसकी कोई चाबी नहीं बनी है।
हाँ,
इबादत में शामिल होते ही
वह दुआ बनकर बरसती है।
उससे मिलकर मैंने जाना
नहीं,
महसूस किया
कि क्यों धरती एक स्त्री है।
अगली बार जब उनसे मुलाक़ात हुई और मैंने जरा छेड़ते हुए कहा कि परमार साब आप तो बहुत रोमांटिक आदमी हैं, तो वे धीरे से मुस्कुरा भर दिए और तुरंत टेलीफ़ोन के पास पड़े नोटपैड पर लिखा:
‘था’
“हैं” और “था” के बीच की खाई जैसे अबूझ दहशत में टूटे तारे सी निमिष भर चमककर गुम हो गई।
“नहीं परमार साहब, वंस ए रोमैंटिक, ऑलवेज़ ए रोमैंटिक”
मैंने चुस्की ली।
शायद उनकी लार फिर मुँह से बाहर आने को थी कि उन्होंने अपनी हैंड टॉवल से अपने मुँह को पोंछा और बात को रफा-दफा करते हुए नोट-पैड पर ही लिखकर स्पष्टीकरण माँगा कि मैंने कहानी में अपने समाज में इन दिनों उभरती जिन फ़ासिस्ट ताक़तों का ज़िक्र किया है, क्या वे बहुत वास्तविक हैं? क्या मैं उससे चिंतित रहता हूँ? मैंने कहा कि एक लेखक को जो भीतर से लगता है, ज़रूरी नहीं है कि वह अंतिम सत्य हो, जो थोड़ा-बहुत होता भी हो, लेकिन लेखक को अमूमन यह आज़ादी रहती है– या रहनी चाहिए–कि यथार्थ के जिन टुकड़ों को वह जिस नज़रिए से देख या महसूस कर पा रहा है, उनके साथ उसके सरोकार जुड़े हों…
मैंने सोचा था कि शायद वे मेरी बात समझ जाएंगे या उससे संतुष्ट हो जाएंगे लेकिन ऐसा होता हुआ मुझे लगा नहीं।
इसलिए मैंने बात बदल सी दी।
वैसे बात थी भी ऐसी जो शायद मुझे सबसे पहले दिन कर लेनी चाहिए थी: उनकी ज़ुबान के चले जाने का राज, यानी वह हादसा कब और कैसे हुआ कि भाषा के साथ इतना अच्छा ताल्लुक रखके बावजूद वे अब उन लफ्जों को बोल क्यों नहीं पाते?
उन्होंने इस बार लिखा नहीं और सिर्फ़ अपने हाथ को आगे गोलाई में घुमाकर इशारा किया।
मतलब अगली बार।
मुझे अच्छा यह लगा कि इस उम्र में (मतलब सत्तर से ऊपर तो वे रहे ही होंगे) भी उन्हें दुनियादारी के और दूसरों की गतिविधियों के बारे में जानने की जिज्ञासा थी।
अगली बार जब हमारी मुलाक़ात हुई तो उस नीली डायरी में उन्होंने राज के साथ अपना एक जीवन-परिचय भी लिख डाला था।
उनका जन्म उनतीस अप्रैल सन चौवालीस को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले के एक गाँव में हुआ। वे अपने घर में सबसे बड़े थे। उनकी दो छोटी बहनें थीं, जो हिमाचल प्रदेश में ही रहती हैं। सन छियासठ से लेकर चौरानवें तक उन्होंने भारतीय सेना के लिए अपनी सेवाएँ दीं। एक छोटे से इलेक्ट्रिकल विभाग में। नागालैंड, जम्मू-कश्मीर, असम, उड़ीसा और दिल्ली तक में उनकी तैनाती रही। सन दो हज़ार दस में उनकी पत्नी का निधन हुआ। हार्ट अटैक से। उनके दो बच्चे, एक विवेक यानी जिसके साथ वे मेरे पड़ोसी के तौर पर रहते हैं, और एक विवेक की छोटी बहन, रेवती जो सोलन में रहती है… जिससे मिले हुए उन्हें अरसा हो गया। उनकी ज़ुबान के खोने का कारण एक मोटर हादसा रहा जिसमें उनके सर में चोट आयी। चिकित्सा की भाषा में इसे अफेसिया कहा जाता है। अफेसिया यानी जब आप भाषा को सोच सकते हैं, उसको लिखकर अभिव्यक़्त भी कर सकते हैं, लेकिन बोलकर इज़हार नहीं सकते…मोटे तौर पर इतना ही की दिमाग में बनते-उमड़ते शब्दों को जुबान तक पहुंचने वाला स्नायु-तंत्र लकवाग्रस्त हो गया है। अफेसिया की भी कई किस्में होती हैं लेकिन उन्हें बहुत सामान्य क़िस्म का अफेसिया है। दिल्ली समेत कई बड़े अस्पतालों में उन्होंने इसका इलाज करवाया लेकिन बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ा।
और अब तो खैर उन्हें आदत पड़ गई है।
मैंने जब थोड़ी असहमति जतलाते हुए कहा कि क्या किसी को … न बोलने की भी आदत पड़ सकती है, तो न जाने क्यों वे एकाएक गुमसुम हो गये।
लेकिन बहुत जल्द उन्होंने उस डायरी का एक पन्ना खोलकर मेरे सामने रख दिया जिसमें उन्होंने एक सादा सा सवाल किया हुआ था।
“आप हिटलर को जानते हैं?”
मैं जरा ठिठका।
सवाल थोड़ा अजीब भी लगा।
मेरी उस कहानी में अपने समाज में उभरती फासिस्ट मानसिकता की तरफ इशारा तो कमोबेश था मगर ऐसा भी नहीं कि सब कुछ लुट-पिटने का रोना हो।
हिटलर मेरे लिए कभी बहुत दिलचस्प या महत्वपूर्ण चरित्र नहीं रहा। अलबत्ता उस ‘मोंस्टर विद नो बैड हैबिट्स’ के बारे में कुछ बुनियादी चीज़ों से मैं वाकिफ था। पेंटिंग की दुनिया में नाकामयाब होकर एक औसत सा गंवई नौजवान कैसे एक ख़ूँख़ार तानाशाह बना… कि कैसे पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार का फ़ायदा उठाकर उसने अपने लोगों के बीच पहले सहानुभूति हासिल करने और बाद में देशभक्ति की भावनाओं को उकसाने की आड़ में कैसे उन्हें बरगलाने का अभियान चलाया… एक-एक करके यूरोप के लगभग सभी देशों को अपने क़ब्ज़े में करते हुए करोड़ों लोगों और क़रीब साठ लाख यहूदियों को नेस्तनाबूद किया और अंत में पूरी दुनिया को तबाह करते हुए आत्महत्या कर ली…
मैंने निचोड़ में ऐसा ही कुछ कहा था।
“मेरे पास हिटलर से जुड़ी दूसरे विश्वयुद्ध की और उसके अलावा भी बहुत सारी कहानियां हैं। क्या आप सुनना, माफ़ कीजिए पढ़ना-जानना चाहेंगे?”
उन्होंने मेरे नोटपैड पर लिखा और मेरी तरफ़ देखने लगे।
“ख़ुशी से… आप जो भी सुनाएं, मुझे अच्छा लगेगा।”
उस दिन उन्होंने चाय भी नहीं पी और कह भी डाला कि मैं आइंदा से उन्हें चाय की दावत न दिया करूं क्योंकि इस उम्र में उनकी शारीरिक बुनावट में चाय कुछ तकलीफ पेश करती है।
मैंने चुस्की लेकर जोड़ा कि एक रोमांटिक पोएट को तो चाय-कॉफी पीते रहनी चाहिए, तो उन्होंने लिखकर टोका कि अब न वे रोमैंटिक हैं और न पोएट।
मैं डर गया।
इसलिए उस बारे में और बात नहीं करना चाहता था।
वे उठ खड़े हुए और हाथ हिलाकर आ-ओ-ऊँ के ज़रिए मुझे गुड नाइट कहकर चले गए।
सारा सिलसिला बस अगले रोज़ से शुरू हो गया।
उन्हें जैसे एक मक़सद मिल गया था: मुझे हिटलर की दुनिया के बारे में बताने और समझाने का।
वह नीले रंग की डायरी जो लगभग पूरी ख़ाली थी, धीरे-धीरे उनकी नीली लिखावट में भरने लगी।
मेरे आगे उस लिखावट में कुछ बेतरतीब कहानी-किस्से आये चले जा रहे हैं।
…पहले विश्व युद्ध के बाद जर्मनी को मिली करारी हार के बाद हिटलर क्रान्ति करने चला था। क्रान्ति तो दरअसल उसका मुगालता थी। पहला विश्वयुद्ध उसके लिए ख़ुद एक रोज़गार का मौक़ा दे गया था वर्ना सन उन्नीस सौ चौदह से पहले, पिछले पाँच-सात साल से वह वियना के गली-कूचों में एक भिखारी कलाकार का जीवन जी रहा था। लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि वह फिर भी अपनी ज़िद पर चलता रहा और पेट पालने के लिए कोई नौकरी नहीं पकड़ी। पहले विश्वयुद्ध से जर्मनी की हार जैसे उसके लिए एक मौक़ा था। अपने संघर्ष के दौरान उसने अपने मुताबिक इतिहास की किताबें पढ़ी थीं। वह मानता था कि हर क्रान्ति किसी न किसी वर्ग या जाति की बलि चढ़ती है। जैसे, फ़्रांसीसी क्रान्ति मैं कुलीन वर्ग तथा रूसी क्रान्ति में बुर्जुआ वर्ग बलि चढ़ा। हिटलर को लगा कि उसकी क्रान्ति में यहूदियों की बलि चढ़नी चाहिए क्योंकि इन्होंने पूरे समाज को दूषित किया है। इस सोच की एक निजी वजह भी थी। पहले विश्वयुद्ध में अपनी सैनिक-सेवा के दौरान उसे रूसी सीमा पर लड़ना पड़ा था। वहाँ वह चोटिल हो गया और इलाज के लिए बर्लिन भेज दिया गया। बर्लिन में दो-चार रोज़ के इलाज के बाद जब वह अस्पताल से बाहर निकला तो उसने एक डान्स बार देखी। उत्सुकतावश वह वहीं खड़ा हो गया और उन लोगों पर ग़ौर करता रहा जो वहाँ से आ-जा रहे थे। अपनी चाल-चलन और वेश-भूषा से वे सभी यहूदी थे। और यह सब होते उसने कोई पहली मर्तबा नहीं देखा था। वियना के जिस स्कूल में वह पेंटिंग का छात्र बनने आया था वहाँ के अधिकांश अध्यापक यहूदी थे। सच-झूठ भगवान जाने मगर कहते हैं कि उसका पिता किसी यहूदी की नाजायज़ औलाद था। वियना शहर में सारा बैंकिंग व्यवसाय, डॉक्टर, वक़ील और पढ़ने-पढ़ाने वाले ज़्यादातर यहूदी थे। शुरू में उसका मक़सद यहूदियों का सफ़ाया करना नहीं था क्योंकि वे इतनी तादाद में थे कि यह सोचना भी असंभव था। लेकिन जो बात उसके भीतर एक ग्रंथि की तरह बनी हुई थी वो थी: यहूदियों के प्रति नफ़रत। इस नफ़रत को उसके संगी-साथियों जैसे हिमलर, हेंड्रिक, गोरिंग और सबसे अधिक गोएबल्स जैसों ने खूब हवा दी। यहूदियों को बात-बेबात तंग करना, यातना शिविरों में पकड़-पकड़ कर डालना और फिर उन्हें बेरहमी से मार देना, हिटलर के जर्मनी में कुर्सी संभालने के साथ ही शुरू हो गया था। जो यहूदी स्वस्थ होते उनसे निचोड़कर फैक्ट्रियों में काम करवाया जाता और जो थोड़े बड़े-बूढ़े हो गए थे उन्हें कीड़ा-मकोड़ा समझकर यातना-शिविरों में झोंक दिया जाता। शुरू में तो उन्हें सीधा गला घोंटकर या तोपों-बंदूकों से मारा जाता था लेकिन उनकी तादाद इतनी ज्यादा थी कि ये तरीक़े नाकाफी पड़ रहे थे इसलिए उन्हें गैस सुंघाकर (जो शुरू में कार्बन मोनोक्साइड थी और बाद में साइक्लोन बी) मार दिया जाता। वैसे ही जैसे हम और आप घरों में कॉकरोच मारने के लिए आजकल ‘हिट’ या कोई दूसरा स्प्रे इस्तेमाल करते हैं…
…आपको एक बात बताऊँ कि उन यातना-शिविरों में ऐसे एक से एक ज़ालिम तैनात थे कि रेलगाड़ियों से भर-भर कर लाए जा रहे यहूदियों को आनन-फ़ानन में ख़त्म किया जा सके। लेकिन सभी जल्लाद एक से नहीं होते। या हो सकता है, बेक़सूर-मासूमों को देखकर उसमें से कुछ का दिल पसीज जाता हो… क्योंकि उनमें से कई इस कोशिश में रहते कि वो जर्मनी की तरफ़ से कहीं और अपनी सेवा दे सकें, बजाय यातना शिविरों में दिन-रात चलते इन नरसंहारों के। एक क़िस्सा तो यूँ हुआ कि हिमलर जो इस सारे तंत्र का ख़लीफ़ा था, जब उस तक यह बात पहुँची तो उसने उन “मासूम जल्लादों” को उन महान उद्देश्यों की पूर्ति के लिये उनके वृहत्तर औचित्य को समझाया कि कैसे… मोर्चे पर लड़ना आसान है… कोई भी दुश्मन को मार सकता है… गोली चला सकता है… लेकिन बीमारी के बीच रहकर बीमारी को दूर करना मुश्किल है… जर्मन राष्ट्र का ख़याल करो जो तुम से क़ुर्बानी माँग रहा है… यह इतिहास की पुकार है… यह मौक़ा बार-बार और हर किसी को नहीं मिलता… क्या तुम्हें अपने फ़्यूरर में भरोसा नहीं है… वह पूरी कौम और तुम्हारे बारे में कितना सोचते हैं…अपनी कौम के लिए लोग क्या नहीं करते हैं… तुम्हारी कौम ने पिछले दिनों कितने मुँह की खाई है… कितनी बेइज्जती सही है… क्या तुम भूल गए? …
इतना सब सुनना होता और आत्मसंशयों से लदे-पदे वहाँ आए वे सब शिविर-प्रभारी एस-एस के गुर्गे, वापस अपने ‘पवित्र उद्देश्य’ की पूर्ति में लग जाते और बाज दफा तो ऐसे लग पड़ते जैसे ‘टार्गेट’ को बस पूरा भर नहीं, उसके पार भी जा लगाना है। उस ज़िंदगी की कहानियाँ भी इकहरी नहीं हैं। उन शिविर प्रभारियों में से न जाने ऐसे कितने थे जो अपने ‘पवित्र मक़सद’ में दिन भर सेवा देने के बाद शाम को बाख या वागनर की संगीत प्रस्तुतियों की सोहबत में अपने को हल्का करते हैं। लेकिन उनमें से कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने आत्महत्याएं कीं।
…तानाशाहों की जमात में मुसोलिनी का नाम अक्सर हिटलर के साथ लिया जाता है। लेकिन मैं आपको बताऊँ, मुसोलिनी और हिटलर का कोई मुक़ाबला नहीं था। दोनों में बहुत फ़र्क था। न तो मुसोलिनी जर्मन था और न ही हिटलर मुसोलिनी। एक लड़ाकू राज्य के तौर पर जर्मनी ने लगातार अपनी क्षमताएं बढ़ा लीं थी। उसके पास लड़ाकू फ़ौज और सैकड़ों क़ाबिल जनरल थे। अलावा इसके, स्टालिन की तरह हिटलर का तंत्र उन्हें कमज़ोर होने की छूट भी नहीं देता था। जर्मन सेना का ज़रा सा ढीलापन या चूक हिटलर को आग बबूला कर देती थी। हिटलर के कार्यकाल में कोई चौरासी फौजी जनरल इसीलिए भून दिए गए क्योंकि उन्होंने हिटलर के आदेश को या तो पूरी तरह नहीं माना या फिर मानने में आनाकानी सी की। हिटलर ने गेस्टेपो और एस-एस के रूप में जो शुरू से ही जो अपना तगड़ा खुफिया तंत्र खड़ा किया था, वह उसकी ताक़त को कई गुना मारक बना देता था। मुसोलिनी के पास ऐसा कुछ नहीं था। न इटली में जर्मन जैसे उद्योग थे और न वैसा लड़ाकू सैन्यबल और ना ही वैसे मंसूबे। मुसोलिनी की सबसे बड़ी शक्ति हिटलर ही था, जिसके बूते पर वह विरोधियों को दबाकर रख सकता था। लेकिन इटली की भौगोलिक स्थिति के कारण और पूरे यूरोप की राजनीति के चलते हिटलर को मुसोलिनी की ज़रूरत थी। लेकिन जिस तरह और बेआवाज़ ढंग से मुसोलिनी को इटली से खदेड़ दिया गया वह इतिहास का एक बड़ा सबक है… कि तानाशाही का वजूद सिर्फ़ हवाई होता है। बीसवीं सदी में कितने उदाहरण और भी मिल जाएंगे जो दहाड़ते हुए हमें बताते हैं कि तानाशाहों होश में आओ! लेकिन इतिहास से सबक दूसरा कोई ले तो ले ले, तानाशाह तो नहीं ही लेते… क्योंकि वे जानते हैं कि सत्ता की चाँदनी चार दिन की ही होती है। मुसोलिनी एक ठीक-ठाक पढ़ा-लिखा और संजीदा नेता था। वह एक बड़ा दिलचस्प किस्म का औरतबाज था जिससे पता चलता है कि वह अपना जीवन किस तरह देखता था। उसको अगर कुछ बिगाड़ा तो सत्ता के स्वाद ने… या फिर हिटलर की परछाईं ने…
…आपको पता है कि हिटलर को ज्योतिष में बड़ा यक़ीन था। दूसरे तानाशाहों की तरह वह ख़ुद को मानवता के लिए ईश्वर की विरल सौग़ात मानता था। ‘फ्रेड्रिक महान’ हिटलर की प्रेरणाओं में शामिल था इसलिए वह सोचता था कि अंत तक उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। ईश्वर कुछ न कुछ रास्ता निकालता है। सन चौवालीस के मध्य में जब जर्मनी तमाम मोर्चों पर शिकस्त खा चुका था, उन दिनों सेना के कुछ जांबाज जनरलों ने हिटलर को ख़त्म करने का प्रयास किया। लेकिन दुर्भाग्य से बहहुत मामूली चूकों के कारण वह नाकाम हो गया। साज़िश में शामिल पाँच-दस लोगों के कारण हिटलर के तन्त्र ने पाँच हज़ार से ज़्यादा लोगों को ढूंढ-ढूंढकर ज़िबह कर दिया… और इस बार भी यह किया गया ताकि हर कोई यह जान-समझ ले कि अंजाम देना तो दूर, इस तरह के मंसूबे रखना कितना जानलेवा सौदा हो सकता है। लेकिन मैं बात कर रहा था कि किस तरह ऐसे वक़्त भी हिटलर अपने को जायज़ होकर देखता था। उसकी हत्या की इस संगीन साज़िश को नाकाम होने को वह क़ुदरत की चाल समझता था जो एक बड़े मक़सद के तहत उसे बचाए रखती हैं। इसी तरह जब पर्ल-हार्बर पर जापानी हमले के बाद अमेरिका सक्रिय रूप से युद्ध में शामिल हो गया और जर्मनी के लगभग तमाम शहर-क़स्बे ढहा दिए गए, फ़ौजी ताक़त लगभग ख़त्म हो गई तब यानी बारह अप्रैल, सन पैंतालीस को अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट की मृत्यु की ख़बर ने जैसे उसके भीतर फ्रेड्रिक महान की आत्मा को फिर से संचरित कर दिया।
मैं सोचता हूँ और आप मुझे कभी बताइएगा कि उम्मीद रखने का हक़ीक़त से कोई तालमेल होना चाहिए या नहीं? और यदि ‘हाँ’ तो कैसे?
…संजीव जी, आपको एक बात बतानी है मुझे। हिटलर के बारे में ही। हिटलर ने बहुत कुछ किया। लोगों को मारा-मरवाया लेकिन जानते हैं, मुझे सबसे ज़्यादा क्या अखरता है ? हिटलर ने जो अपना न्याय-तंत्र बनाया… वह। सत्ता कोई भी हो, उसके पास कितनी भी ताक़त हो, वह अपने जाने जो मर्ज़ी करे… लेकिन उसे समाज की न्याय व्यवस्था के साथ छेड़-छाड़ नहीं करनी चाहिए क्योंकि न्याय की उपस्थिति ही तो सभ्यता और बर्बरता का फ़र्क करती है। आपको पता है, रूस की तर्ज़ पर ही उन कचहरियों को क्या कहते थे, जहाँ क़ानून और न्याय की सुनवाई होती थी?: ‘पीपल्स कोर्ट’ यानी आम-जनों की अदालतें। और वहाँ होता क्या था ? उसके वक़ील नाजी होते और न्यायाधीश भी नाजी। और तो और, बचाव करने वाला भी नाजी। अदालती कार्यवाही को देखने आए लोग भी नाज़ी। वादी वक़ील इल्ज़ाम लगाता तो प्रतिवादी वकील उस इल्जाम को थोड़ा और मज़बूत करता। चारों तरफ़ बैठे नाज़ी उन दोनों के साथ ख़ूब हँसी-ठट्ठा कर रहे होते। और तो और जब जज महाशय ख़ुद अभियोग पक्ष में जा मिलते और अभियुक्त से पूछते… “वह सब तो ठीक है, पर ये बताइए आप नाजी पार्टी के सदस्य क्यों नहीं बने?” या फिर यह कि “आपको नहीं लगता कि हिटलर जैसा नेता जर्मनी को कितने नसीब से मिला है।” ज़ाहिर था हिटलर के पास इस अदालती कार्यवाही की फ़िल्में बनाकर पहुँचाई जाती, ताकि जज-वक़ील सभी की पीठ थपथपायी जा सके और हिटलर की किताब में वे अपने नंबर बढ़ा सकें। और याद रहे कि इन अभियुक्तों में तमाम तरह के बुज़ुर्ग और शरीफ़ पढ़े-लिखे भी होते जिन्हें कई दिन भूखा पेट और पस्त-हाल रखने के बाद घसीटकर वहाँ लाया जाता और आनन-फ़ानन में उसे अदालत द्वारा लटकाकर फाँसी की सजा सुना दी जाती। फाँसी तुरंत दे भी दी जाती, जिसकी बाकायदा रील बनती और जिसे सिनेमाघरों में दिखाया जाता ताकि तंत्र की ख़िलाफ़त करने वालों की रूह काँपे। ‘पीपल्स कोर्ट’ से बचने के लिए इसीलिए रोमेल ने ज़हर खाकर खुदकुशी की थी।
…अरे, आप रोमेल को नहीं जानते? वही रोमेल जिसे हिटलर ने फील्ड मार्शल बनाया था… वही रोमेल जिसे आज भी दुनिया ‘डेज़र्ट फॉक्स’ के नाम से याद करती है क्योंकि उसने अफ़्रीकी महाद्वीप में इतने मुश्किल हालात में, इतनी कम फौज के सहारे जर्मनी को ऐसी-ऐसी फतेह दिलायीं थीं कि जर्मनी ही नहीं, जर्मनी के दुश्मन भी उसका लोहा मानते थे। रोमेल की कथा बताते हुए हो सकता है मैं कुछ ज़्यादा ही कहने लगूं लेकिन वह फ़ौजी इतिहास का मेरा बड़ा प्रिय चरित्र है। शायद इसलिए भी मैं खुद एक छोटा-मोटा फौजी रहा। उसका जन्म पन्द्रह नवम्बर, अठारह सौ इक्यासी को हुआ था। उसके पिता एक स्कूल अध्यापक थे जिनकी बहुत जल्द ही मृत्यु हो गई। उसकी विधवा माँ उसी के साथ रहती थी, जिसका वह बेटी की तरह ख़याल रखता था। बहुत कम और सोच समझकर बोलने वाला। अपने ख़ानदान से फ़ौज में शामिल होने वाला पहला बच्चा था। बहुत नाटे क़द का। न सिगरेट-शराब पीता था, न बौद्धिक बातें करता था। ‘डेजर्ट फॉक्स’ के नाम से वह मशहूर जरूर हुआ लेकिन चालाकी उसके निजी जीवन में दूर-दूर तक नहीं थी। लेकिन वह जांबाज था, खतरों से खेलने वाला। मोर्चे पर कई बार वह जवानों के साथ शामिल हो जाता। एक बार मोर्चे पर निगरानी करते हुए उसे दस्त लग गए। घोड़े पर चढ़ने लायक हालत नहीं थी और ऊपर से हुक्म आया कि दुश्मन की हरकतों पर नज़र रखो। मैं यह पहले विश्व युद्ध की बात कर रहा हूँ। वह उस गाँव में घुस गया जहाँ दुश्मनों की आवाजाही थी। उसके साथ में केवल दो रंगरूट थे। गाँव को पार कर जैसे ही वह एक दूसरे छोर पर पहुँचा तो दुश्मन के पन्द्रह-बीस सैनिकों से टकरा गया। सभी अपने औज़ारों से लैस और इधर रोमेल के साथ सिर्फ़ दो रंगरूट। वे न पीछे हट सकते थे, न वार कर सकते थे। मगर रोमेल ने वही किया जो एक बहादुर कर सकता था; यानी आक्रमण। उसके गोली चलाते ही दुश्मन फ़ौजी तितर-बितर हो गए, क्योंकि उनके जाने रोमेल कभी कमज़ोर हालत में तो गोली चला ही नहीं सकता था। कोई टुकड़ी अवश्य घात लगाए पीछे छिपी होगी, तभी उसने गोलियां चलायी हैं। यह थी उसकी शोहरत।
फ़ौज में रहते हुए उसकी गतिविधियों और सोच के इतने किस्से हो गए कि हिटलर को भी ख़बर लग गई। हिटलर ने उसे पचास की उम्र से पहले ही फील्ड मार्शल बना दिया था। मगर जानते हैं, हिटलर ने उसके साथ क्या सुलूक किया? किसी फ़ौजी की मौत पर किसी को गिला नहीं होना चाहिए, मगर जब यह मौत मोर्चे पर दुश्मन के हाथ होने के बजाए, अपने ही आकाओं की गफलतों का नतीजा हो तो आप सोच सकते हैं कि कोई क्या सोच सकता है! मैंने आपको बताया न कि जब सन चौवालीस में हिटलर की हत्या की साज़िश नाकाम हुई तब बहुत सारे लोगों की धर-पकड़ हुई थी और बहुतों को भून दिया गया था।
उसी धर-पकड़ में जी, सच या झूठ, किसी ने रोमेल का नाम उछाल दिया।
खैर, रोमेल को बर्लिन आने को कहा गया लेकिन वह बुरी तरह घायल था, इसलिए यात्रा नहीं कर सकता था। दो दिन बाद रोमेल के घर में हिटलर के दो जनरलों ने दस्तक दी; जनरल बर्गडॉर्फ और जनरल माइसल ने। थोड़ी देर सब ने मिलकर चाय पी। उसके बाद उन्होंने रोमेल से अकेले में पन्द्रह मिनट बात करने को कहा। रोमेल का बेटा दूसरे कमरे में चला गया। उसकी पत्नी और उसका सहायक भी दूसरे कमरे में चले गए। रोमेल ने अपने सहायक को युद्ध संबंधी कुछ काग़ज़ात तैयार करने का हुक्म दिया। दोनों जनरलों और रोमेल की गुप्त वार्ता हुई जो कोई घंटे भर चली।
घंटे भर बाद जब रोमेल निकलकर आया तो उसकी हवाइयां उड़ी हुई थीं।
“क्या बात है?”
पत्नी ने पूछा तो रोमेल ने कहा कि अगले पच्चीस मिनट के भीतर उसे मर जाना होगा क्योंकि हिटलर की हत्या की साज़िश से किसी ने उसका नाम जोड़ दिया है। अब दो ही रास्ते हैं: या तो ज़हर खाकर शहीद हो जाऊँ या ‘पीपल्स कोर्ट’ के मुक़दमे में फँसूं। मैं मुक़दमे से नहीं डरता और न ही मरने से लेकिन मैं वहाँ अपने और अपने परिवार की दुर्दशा होते नहीं देख सकता। बरी तो होने से रहा!
उसने अपने सहायक अल्डिंगर से बात की, जिसका मत था कि घर आए इन दोनों जनरलों को भून देते हैं और भाग जाते हैं।
“कोई फ़ायदा नहीं। घर के चारों तरफ़ गेस्टेपो के लोग हैं। और फिर ये बेचारे तो हिटलर के हुक्म की तामील भर कर रहे हैं। मेरे पीछे मेरा बेटा और पत्नी भी हैं। उनका ये लोग क्या हाल करेंगे?”
अल्डिंगर की समझ में आ गया।
बाज़ू के कमरे से पत्नी की सुबकियां फूट रही थीं।
वे रोमेल को ले गए और ठीक पच्चीस मिनट बाद उनके घर फ़ोन आ गया कि फील्ड मार्शल रोमेल का मगज फट गया है और वे उसे घर ला रहे हैं।
यानी ज़हर देकर की गई हत्या को हिटलर के तंत्र ने नियति के हवाले कर दिया।
जो व्यवस्था वे अपने नायकों के साथ ऐसा सुलूक करती है, उसके बारे में क्या कहेंगे?
और नायकों को छोड़िए, जो आदमी अपने सहयोगियों को मरवा दे और कोई उसका बाल-बांका न कर सके! करे भी तो कैसे जब जुडिसीयरी भी उसे खुश करते रहने की सोचे।
पता नहीं अर्न्स्ट रोह्म का आपने सुना होगा या नहीं। या फिर ग्रेगोरी स्ट्रासर का। दोनों पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की तरफ से मोर्चे पर लड़े थे। नाजी पार्टी की स्थापना के दौर के हिटलर के पुराने साथी थे। जब वह कुछ नहीं था, तब के संघर्ष के दिनों के। साथ जेल भी गए। अपने आस-पड़ोस को धोंस और निर्मम कुटिलता से धर-दबोचने या नेस्तनाबूद करने वाले जर्मनी के विस्तारवादी फलसफे ‘लिबेनस्रोम’(लिविंग स्पेस) के वे बराबर के हिमायती थे। लेकिन जब हिटलर को लगा कि आगे सत्ता के रास्ते में वे अड़चन बन सकते हैं, तो उसने उनका रातों-रात कत्ल करवा दिया।
… आप हिटलर की बातों से बोर हो गए हों तो मैं आपको अपने जीवन का एक अनुभव बताता हूँ। फौज में मेरी मामूली सी नौकरी थी। गाँव के लिहाज से यही बड़ी बात थी। मुझे पत्नी-बच्चों से कई दफा अलग रहना पड़ता था। मेरा एक साथी था नवल किशोर कुलवी। हम लोग खूब मिलते-जुलते। मगर एक रोज बड़ी अजब बात हुई। कुलवी ने बतलाया कि उसके बेटे का ऊधमपुर से शिलोंग तबादला हो गया है। मैं पूर्वोत्तर में काम कर चुका था तो उसने वहाँ जाने का रास्ता पूछा। मैंने कहा कि दो रास्ते हैं: एक, वह स्यालदाह एक्सप्रेस पकड़कर जम्मू से लखनऊ चला जाये और वहाँ से कामरूप एक्सप्रेस लेकर गोहाटी। गोहाटी से शिलोंग बस से जाया जा सकता है। दूसरा रास्ता दिल्ली से होकर है। यानी असम मेल पकड़कर पहले बरौनी और बरौनी से मीटर गेज की ट्रेन लेकर फिर गोहाटी। अगले दिन उसने फिर से वही सवाल किया। मैंने गए रोज के जोश के साथ फिर बतला दिया। मगर तीसरे दिन जब नवल ने फिर वही बात पूछी तो मुझे चिड़ आ गयी कि ये क्या तमाशा है। नवल ने कुछ नहीं कहा मगर एक कोने में ले जाकर बताया कि उसके एक बेटी और तीन बेटे हैं। तीसरा बेटा जब दो बरस का था तभी उसकी माँ कि मृत्यु हो गई। इसलिए अपने बच्चे के इतनी दूर जाने के रास्ते को कभी वह माँ बनकर पूछ रहा था, कभी बाप बनकर। पिछले पच्चीस बरसों से वह ही बच्चों की माँ और बाप दोनों का फर्ज़ बजा रहा था। तीनों बेटे अच्छी तरह सेटल थे। बेटी एक बिजनेस घराने में ब्याह दी।
मैं सोचने लगा कि नवल ने कितना संघर्ष, कितनी कुर्बानी दी होगी।
विवेक को लेकर एक बार मैं भी उसके स्कूल से चिड़ गया था। उसके स्कूल से शिकायत आई थी। मुझे बुलाया गया। मैं गया। उन्होंने मुझे बहुत कुछ सुनाया… लड़का ऐसा है, वैसा है, होम वर्क नहीं करता, मार-पीट करता है। मैंने सब सुना। बेटा अच्छी तरह पढ़-लिख जाए, इससे ज्यादा मुझे क्या चाहिए था । बाकी चीजें ‘इम्मेटीरियल’ थीं( मैंने ये शब्द अपने एक सीनियर आत्माराम मुल्ला से गृहण किया )। लेकिन महीने भर बाद विवेक ने रोते हुए क्लास-टीचर की बातें बताईं… कि वह कैसे बात-बेबात उसे हयूमिलीएट करती है, क्लास से बाहर निकाल देती है और हाथ भी उठा लेती है। तब पहली बार मैंने ‘इम्मेटीरियल’ को धता बताकर उस क्लास टीचर की खूब खबर ली। उसका नाम था मिस नायर। उसके रवैये को देख मैं समझ गया कि आगे भी विवेक को वहाँ परेशानी रहेगी। हालांकि स्कूल अच्छा था फिर भी मैंने इसे वहाँ से निकाल लिया।
…संजीव जी, दुनिया जानती है कि दूसरा विश्व युद्ध यदि ख़त्म हुआ तो इसके पीछे जापान के हिरोशिमा और नागासाकी के शहरों पर अमेरिका द्वारा गिराए परमाणु बमों का बड़ा हाथ था। असल में यह बात और पूरी
तरह सच नहीं है। अमेरिका ने जापान के इन दो बड़े शहरों में परमाणु बम छ्ह अगस्त, उन्नीस सौ पेंतालीस को गिराए थे। जबकि तीस अप्रैल उन्नीस सौ पेंतालीस को हिटलर ने जर्मनी की करारी हार के मद्देनज़र आत्महत्या कर ली थी। पाँच मई को बर्लिन पर लाल सेना का क़ब्ज़ा पूरा हो गया था। तब तक बागियों ने मुसोलिनी को भी फाँसी पर लटका दिया था। इस तिकड़ी का दूसरा स्तम्भ जापान बचा था जो अमरीकी एटमी बमबारी ने अपनी म्यान के भीतर सुला दिया था। लेकिन जो चीज़ मैं आपको बताना चाह रहा हूँ वो यह कि अगर हिटलर अपनी यहूदी ग्रंथी का शिकार नहीं हुआ होता तो उसके पास परमाणु बम बनाने की संभावना थी क्योंकि जर्मनी के पास ऐसी वैज्ञानिक क्षमता तो थी। एक जर्मन वैज्ञानिक थे फिलिप लेनार्ड। आप चेक करना, शायद उन्हें उन्नीस सौ पाँच का नोबल पुरस्कार भी मिला है। अपनी जमात से नाज़ी पार्टी में शामिल होने वाले वे पहले वैज्ञानिक थे। हिटलर उनका मुरीद था। तब तक आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ रिलेटिवटी प्रकाश में आ चुकी थी जिसने इस संभावना को एक वैज्ञानिक सत्य में बदल दिया था कि परमाणु विघटन के ज़रिए द्रव्य को ऊर्जा में बदला जा सकता है। आख़िर परमाणु बम उसी अथाह ऊर्जा का तो एक रूप है। आइंस्टीन चूँकि यहूदी थे, इसलिए लेनार्ड के मुताबिक़ परमाणु ऊर्जा की अवधारणा यहूदियत का ही दूसरा रूप थी। और कोई चीज़ यहूदियों के साथ जुड़ी हो तो उसे हिटलर कैसे बढ़ावा दे सकता था! इसीलिए क्षमता होते हुए भी जर्मनी परमाणु ऊर्जा की तरफ बहुत देर से ही आगे बढ़ सका।
कोई यकीन करेगा कि एक नोबल सम्मानित वैज्ञानिक ऐसी सोच रख सकता है?
सोचिए, क़िस्मत अपनी तरह से क्या-क्या साजिशें दोनों तरफ़ से रचती है…
… आज मैं आपको एक जोक बताता हूँ। ये भी उन्हीं दिनों का है हालांकि उन दिनों ऐसे जोक्स कहना बड़े खतरे का सौदा हुआ करता था। क्रूर शासक अपने पर लोगों को हँसता या फिर लतीफों को कहाँ झेल पाता है!
किसी यातना शिविर में एस-एस के अधिकारी ने एक कैदी (यहूदी) से कहा “ तुम तो आज मरने वाले ही हो। लेकिन मैं तुम्हें एक आखिरी मौका देता हूँ। मेरी एक आँख शीशे की है, तुम अगर बता दो कि कौन सी है तो मैं तुम्हें छोड़ दूंगा।
यहूदी ने एस-एस अधिकारी की आँख में देखा और कहा, “सर, बाँयी”
“सही है। तुमने कैसे अंदाजा लगाया?”
“इस वाली में थोड़ी इंसानियत दिखती है”
उसने जवाब दिया।
लतीफे की बात जाने दें। लेकिन हर तानाशाह को कोई महंगी सनक बारहा होती है जिनके बारे में वह कई परतों का सख्त रहस्यमय पर्दा डाले रखता है। हिटलर की तो कई थीं। जैसे वह मर्सिडीज़ गाड़ियों का शौकीन था। वह खुद उन्हें अफोर्ड नहीं कर सकता था तो कारोबारियों या ‘प्रसंशकों’ के जरिए ‘भेंट’ स्वरूप हासिल करता था। सन उन्नीससौ बीस के दशक में उसकी कुछ हैसियत तो थी नहीं। बाप-दादा की छोड़ी कोई मिल्कियत थी नहीं। नौकरी वह करता नहीं था। लेकिन फिर भी शासक बनने से बहुत पहले, म्यूनिख में वह नौ कमरों के घर में रहता था। निजी सचिव और बॉडी गार्ड भी रखने लगा था। और आमदनी? जीरो। उसके पास आयकर विभाग का नोटिस भी आया जिसका वह कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया। मर्सिडीज़ के बारे में पूछने पर कहा कि वह बैंक से कर्जा उठाकर ली है… जबकि कर्जे का कोई कागज उसकी गांठ में नहीं। पता नहीं बाद में उस बेचारे इंस्पेक्टर का क्या हुआ होगा जिसने उसे तलब किया था!
क्योंकि हर तानाशाह की न सिर्फ याददाश्त अच्छी होती है बल्कि वह उसके भरपूर इस्तेमाल के तरीके भी जानता है।
वह रास्ते में ठोकर देने वाले पत्थरों को चुन-चुनकर ठिकाने लगाता है।
बदला लेने के नीयत ही शायद उसकी अच्छी याददाश्त की वजह होती है। आपको क्या लगता है?
… अरे, मैं रोमेल का एक किस्सा बताना तो भूल ही गया। आपको पता होगा की एस-एस के गुर्गों की अपनी सत्ता(गुंडई) चलती थी क्योंकि उनकी पहुँच सीधे हिटलर तक थी। किसी रिश्तेदार को छोड़ने रोमेल एक दफा रेलवे स्टेशन गया हुआ था। तभी उसने देखा की एस-एस के लोग ले जाए जा रहे रूसी कैदियों के साथ मार-पीट कर रहे हैं। रोमेल उनके पास गया और उन्हें मार-पीट रोकने को कहने लगा। वे उसे देखकर बोले,
“आप कौन है?”
“मैं एक जनरल हूँ”
“होंगे… हमारा बॉस तो हिटलर है, हम बस उसी का हुकुम मानते हैं”
“अच्छी बात है, लेकिन तीन मिनट में तुम लोग यहाँ से दफा नहीं हुए तो मैं तुम्हें सामने उस पेड़ पर लटकाकर भून दूंगा”
एस-एस के गुर्गों को ऐसा सुनने की आदत नहीं थी मगर जब उन्होंने रोमेल के तेवर देखे तो हवा खिसक गई और वे सब वाकई मैदान छोड़ गए।
मुझे लगता है हमारे यहाँ के लड़के लोग भी ऐसे ही होते हैं… भीतर से बुजदिल। कोई इन्हें जरा डरा-धमका दे तो ये सियार बन जाते हैं, सियार।
आपको क्या लगता है?
… संजीव जी, मैंने दूसरे विश्वयुद्ध की बहुत सारी चीज़ें पढ़ीं। आज भी मैं नहीं समझ पाता हूँ कि वह क्यों हुआ या क्या वह रोका जा सकता था। हिटलर की सनक, यहूदियों के प्रति घृणा और जर्मनी के खोल में दुनिया पर अपनी सत्ता करने की उसकी ललक …अगर इतनी कलुषित और एकतरफ़ा न होती तो वह युद्ध जीत भी सकता था। परमाणु बम का मैंने आपको बताया ही है। इंग्लैंड के ख़िलाफ़ जर्मनी की लड़ाई को यदि वह महीने भर और चलाए रखता तब भी नतीजा कुछ और हो सकता था। रूस पर आक्रमण करने में यदि उसने महीने भर की देरी न की होती और जून के बजाय मई के महीने में हमला का दिया होता तो… तो भी नतीजा कुछ और हो सकता था। लेकिन ये इतिहास की बातें हैं। ये होता तो वो होता। मैंने तो ये देखा कि हिटलर की तानाशाही का काल, दुनिया को तानाशाहों के बारे में, वे चाहे कहीं भी और कभी भी हों, बड़े सबक देकर जाता है। जैसे हर तानाशाह व्यवस्था को बदलने का सपना मासूम जनता को देना शुरू करता है क्योंकि वह तो हैरान-परेशान रहती ही है… अपनी मासूम आकांक्षाओं के फेर में वह कितना पिदती-पिसती है… इसके लिए वह इतिहास–खासकर निकट इतिहास– को अपनी तरह से इस्तेमाल करता है… सारी गलतियाँ तो जा चुके लोगों ने कीं। वह जंगल में शिकार करते चीते की तरह अपनी निगाह किसी एक प्रतिद्वंदी पर केंद्रित करता है जिससे माहौल बनाने में मदद रहे। वह किंचित तत्थों की आड़ में फरेब बुनता है जिसे उसकी लोचदार जुबान और जोशो-खरोश और पैना कर देते हैं… वह लगातार झूठ बोलता है और झूठ को व्यापक स्तर पर सच की तरह बेशर्मी से लगातार परोसता है और उसके एकतरफा समर्थन के लिए वह पूरी राजकीय मशीनरी और प्रॉपेगैंडा का इस्तेमाल करता है… वह खुफिया तंत्र को खूब बढ़ावा देता है जिससे दुश्मनों और संभावित दुश्मनों पर नजर रख सके और वक्त आने पर पूरे सूचना-जाल का मन-माफिक इस्तेमाल कर सके…भीतर से कहीं वह डरा हुआ भी होता है कि कल कहीं लोग उससे डरना बंद ना कर दें इसलिए वह चाटुकार पालता है जिन्हें वह लगातार दंड-भेद में लटकाए-उलझाए रखता है…जो अपनी आत्मा को बहुत पहले उसके सुपुर्द कर चुके होते हैं और लगातार उसे अपने हरदम सही, जायज़ और सर्वश्रेष्ठ होने के भ्रम से भरते रहते हैं… उसे यकीन होता है की केवल धींगामस्ती से अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती है… उसे बुद्धिजीवियों समेत किताबों और ज्ञान के तमाम हासिल से परहेज होता है… वह किसी पर भरोसा नहीं करता है…वह कभी अपनी गलती नहीं स्वीकारता है… और अपनी आत्मा के साथ सबसे बड़ा गुनाह वह यह करता है कि सत्ता के मद में मदमाते हुये भी वह खुद को एक ‘आर्टिस्ट’ कहलवाना चाहता है…
और हाँ, वह वादा-शिकन होता है! हिटलर का ‘ऑपरेशन बारबरोसा’ इसकी मिसाल है।
वादा निभाना क्या होता है, इसकी हमारे हिमाचल में एक लोक कथा है।
एक सेठ की बेटी को गुरु पढ़ाया करते थे। कुछ समय बाद लड़की का रिश्ता तय हो गया। उधर उसकी शिक्षा पूरी होने को आई तो उसने अपने गुरुजी से गुरु-दक्षिणा के लिए पूछा। गुरु ने कहा कि यदि वह वाकई कुछ देना चाहती है तो विवाह के बाद पहली रात उनके साथ गुजारे। लड़की बहुत अच्छी शागिर्द थी। वह जरा झिझकी मगर बोली कुछ नहीं। जब उसकी शादी हो गई और पति के घर पहुंची तो उसने गुरु-दक्षिणा वाली बात आपने पति को बताई। पति ने कहा कि गुरु ने तुम्हें इतना ज्ञान दिया है तो तुम्हें उनकी मांगी गुरु-दक्षिणा जरूर देनी चाहिए। लड़की उसी रात गुरुजी के घर चल दी। रास्ते में उसे एक चीता मिला जो उसे खा जाना चाहता था। लड़की ने चीते को कहा कि वह अपने गुरुजी के पास जा रही है, थोड़ी देर में लौट आएगी, तब खा लेना। चीता मान गया। उसके बाद आगे रास्ते में उसे शेर मिला। शेर ने भी उसे खा जाने की बात की। लड़की ने उसे भी गुरुजी के पास जाने और लौटते वक्त खा लिए जाने की बात की। शेर भी मान गया। अंत में उसे साँप मिला। उससे भी लड़की ने वही बात की। आखिर में वह गुरुजी के यहाँ पहुँच गई और कहा कि आज उसकी शादी की पहली रात है जिसे गुरु-दक्षिणा स्वरूप जैसा उन्होंने चाहा था, वह उनके पास आई है। गुरु ने उसे गले लगा लिया और आशीर्वाद दिया और कहा कि वे तो उसका सिर्फ इम्तहान ले रहे थे। अपने शागिर्द के साथ वे ऐसा कैसे कर सकते थे? उन्होंने लड़की को तोहफे देकर विदा किया। लड़की चल दी। लौटते वक्त रास्ते में पहले उसे साँप मिला। वादे मुताबिक लड़की ने उसे डस लिए जाने को कहा। साँप ने कहा कि उसके जाने के बाद उसे एक बड़ा अंडा हाथ लग गया था जिससे उसका पेट भर गया। अब वह उसे नहीं डसेगा। ऐसे ही शेर को हिरण मिल गया था और चीते को बकरा। किसी जानवर ने उसे हाथ नहीं लगाया और वह सुरक्षित अपने पति के पास आ गई।
अब सवाल है कि उनमें सबसे बड़ा कौन?
मेरे खयाल से तो सबसे ज्यादा बड़प्पन उसके पति का था जिसने गुरुजी को किए वादे का इतना सम्मान किया।
कहाँ उस लोक कथा की लड़की का वायदा और कहाँ हिटलर के वादे? पहल करके किए करारनामे के बावजूद दो बरस में उसने सन इकतालीस में रूस पर हमला कर दिया। उसने सोचा था जैसे हाथी चींटियों के ढेर को रौंदता चला जाता है, वैसे वह भी रूस को रौंद देगा। लेकिन वह भूल गया कि आखिर में चींटियों की पलटन ही हाथी को खा डालती है।
*
विवेक के फ़ोन के बाद यही सब था जो मैं देर तक याद करता रहा। मुझे सचमुच कभी इतनी फ़ुर्सत नहीं मिली कि दूसरे विश्वयुद्ध को लेकर उसकी परतें खोजूं, उसके होने या न होने की संभावनाओं को लेकर चिंतन करूँ। मुझे अपनी कंपनी, जो ग्लोबलाइजेशन की आंच में लगातार अपने वजूद के लिए छटपटा रही थी, जिसमें पाँच सौ से ज़्यादा लोग काम कर रहे थे, जिसमें सात सौ करोड़ से ज़्यादा का निवेश फँसा हुआ था, मैं उसी को— और खुद को भी– बचाने में अपनी मामूली भूमिका ढूंढने में लगा था। मैं हर स्तर पर कुछ न कुछ करने की जुगाड़ में रहता। जी हां, कारोबार को बचाने के लिए अपने यहाँ तरह-तरह के जुगाड़ भी करने पड़ते हैं जो मैं लगातार करते रहने को बाध्य था। लेकिन आज, अभी एक फोन कॉल ने मुझे जैसे बिल्कुल ख़ाली कर दिया था। मेरा और कुछ करने का मन नहीं था। जब-तब ‘अ आ ऊँ’ करते और हाथ में एक हैंड टॉवल लिए उन बूढ़े सज्जन की सोहबत के दृश्य याद आए जा रहे थे जो सिर्फ़ पता नहीं किस सनक के तहत, मुझे दूसरे विश्व युद्ध के बारे में दीक्षित करने में लगे रहते। मेरी उस प्रकाशित कहानी में फासिज्म का ज़िक्र बहुत चलताऊ क़िस्म का ही था। लेकिन उनकी डायरी की बेतरतीब बातों के मद्देनज़र मुझे लगा कि शायद इस मुल्क में हम फासिज्म को कुछ ज़्यादा ही आसानी से इन्वोक कर लेते हैं। अलबत्ता विलियम शिरर और अलबर्ट स्पीयर के अलावा कोई आधा दर्जन दूसरी किताबों को फुर्सत मिलने पर अब तो मुझे पढ़ना लाज़मी हो गया था क्योंकि पंचम परमार ने कई बार मुझे सलाह दी थी कि मैं इतना तो अवश्य करूं।
मैंने अपना कंप्यूटर शट डाउन किया और एक तबीयत ठीक न होने के हल्के बहाने से घर चला रवाना हो गया।
*
लेकिन घर पहुँचकर मैंने देखा कि एक जानी-पहचानी लिखावट में मेरे नाम कूरियर से एक लिफ़ाफ़ा आया पड़ा है। प्रेषक के नाम के बग़ैर, उस घुमावदार जरा कच्ची-पक्की लिखावट को पहचानने में मुझे कोई दिक़्क़त नहीं हुई। मैंने काँपते हुए दिल से उसे खोला और देखा कि वह उसी नीली डायरी के बीच में से निकले काग़ज़ों का एक पुलिन्दा था। नीली डायरी उन्होंने मकान बदलते समय मुझे यह कहकर पकड़ा दी थी कि यह अब मेरी सौगात है। शायद मैं इसे आइंदा कभी पढ़ना चाहूँ। मैं घर आकर दूसरा कुछ किए बग़ैर अपने सोफ़े पर पसर गया और धधकते हीये से उन कागजों पर आँखें गड़ाने जुट लगा।
…प्रिय संजीव जी, जब यह चिट्ठी आपको मिलेगी मैं इस दुनिया से जा चुका हूंगा। मैं इस दुनिया से छह महीने पहले ही चला जाता लेकिन मुझे आपकी सोहबत मिल गई और आपने मेरी उम्र की मोहलत बढ़ा दी। इसके लिए आपका आभारी हूँ। मेरे भीतर बहुत कुछ था जिसे मैं किसी सुपात्र के साथ बाँटना चाहता था।
और एक लेखक से बेहतर सुपात्र कौन हो सकता है!
मुझे आपकी वह कहानी आप तक पहुँचने का एक ज़रिया लगी। शायद लेखकी का हासिल भी यही होता है कि वह अनगिनत संभावनाओं से लैस होती है, अनजान ओनों-कोनों तक जाने का माद्दा रखती है। मैंने आपको दूसरे विश्व युद्ध के बहुत सारे मालूमात बताये जिनको पता नहीं आप कितना जान-परख पाए। आख़िर हर लेखक उसके सामने परोसे तथ्यों को अपनी तरह से परखने के लिए स्वतंत्र होता है। हो सकता है भावावेश में कुछ गैर-जरूरी चीजें भी लिख दी हों। आप लोग जिसे ‘पहला ड्राफ्ट’ कहते हैं, वह सब वही तो था। लेकिन इस ख़त के ज़रिए मैं आपको कुछ ऐसे सच और थोड़े से झूठों के बारे में भी बताना चाहता हूँ जो मैंने आपको दी हुई उस नीली डायरी में लिखे थे। उनकी एक मजबूरी थी। पिछले हफ़्ते आपके मकान बदलकर हमारे पड़ोस से जाने के बाद मुझे लगा मुझे आपको उन झूठों– और कुछ दूसरे सचों– के बारे में बताना चाहिए। मैंने कहीं पढ़ा था, अपने जाने गढ़े झूठों के बोझ को आत्मा कभी बर्दाश्त नहीं करती है… इसलिए वह भटकती रहती है।
यह खत मेरा कनफैशन समझें…
तो पहला झूठ तो यही कि मेरी ज़ुबान कैसे चली गई। नहीं, वह कोई मोटर हादसा नहीं था जैसा मैंने आपको बताया था। वह हादसा मेरे घर में हुआ था। मेरी पत्नी यानी विवेक की माँ के साथ। वह तेईस फरवरी सन दो हज़ार दस में ही हुआ था। यानी जब मेरी पत्नी यानी आपके पड़ोसी विवेक की माँ की मौत हुई। मौत हुई कहना ग़लत होगा क्योंकि वह हत्या थी! और हत्यारा कौन? विवेक की पत्नी। जी, वही गार्गी जो शालीनता से कई बार आपसे मुस्कराकर नमस्कार करती रही है। जो अंग्रेज़ी भाषा के ज़रिए किसी भी बैठक में अपना सिक्का जमा देती है। जो ऑडन, टेनीसन और रिल्के की कविताओं के मार्मिक अंशों की मार्फत मिलने-जुलने वालों के बीच बहुत संजीदा मानी जाती है, जो सिमोन द बाऊवा के स्त्रीवादी जुमलों को नींद से उठकर सुना सकती है। जी हाँ, उसी ने… उसे ज़हर दिया था। आजकल बाज़ार में कितनी आसानी से तो उपलब्ध है। कॉकरोच मारने के लिए… कुत्तों की जुओं को मारने के लिए … उसने मरने से पहले तड़प और छटपटाहट के उन पांच-सात पलों में अगर हकलाकर नहीं बताया होता तो बाक़ी सभी की तरह मैं भी उसे दिल के दौरे का मामला समझकर होनी को दोष देकर सब्र कर लेता। लेकिन मुझे पता लग गया और इसी का यह नतीजा रहा कि मुझे उसी वक्त वह ब्रेनस्ट्रोक हुआ जिसे मेडिकल की भाषा में अफेसिया कहते हैं। मेरी जीवन संगिनी, मेरी जानकी चली गई…अपने ही घर के सदस्य के हाथों। धीरे-धीरे हम एक दूसरे के और सहारा होते जा रहे थे। लेकिन जो होना था, वह हो गया था। मेरी पत्नी को भी और मुझे भी। वैसे तो इस लायक बचा नहीं था लेकिन अब मैं इसको लेकर हंगामा भी क्या खड़ा करता। हम हिमाचल के लोग बुनियादी तौर पर बड़े शांतिप्रिय– जिसे कुछ लोग यथास्थितिवादी भी कहते हैं– और बुज़दिल होते हैं। यह बुज़दिली देखा जाए तो हमारे संस्कारों का हिस्सा है। आप हिमाचल की लोक कथाएं पढ़ लीजिये… उनमें देवी-देवताओं की इतनी भरमार है कि लोगों की उम्र उन्हीं को शांत और ख़ुश करने में निकल जाती है। और वे हो भी जाते हैं। इसी में दोनों की मजे से निभ जाती है। आपने हिडिम्बा के बारे में सुना होगा। हमारे यहाँ के राक्षस भी बड़े नरमदिल मिलेंगे।
लेकिन कोई तो वजह होनी चाहिए या होगी कि घर की बहू अपनी सास की जान ले ले? मैंने बहुत सोचा, अपनी स्मृति के घोड़े भी दौड़ाये… कि ऐसा क्या कहा या किया होगा मेरी जानकी ने कि उसको ज़हर से मरना पड़ा। मुझे कोई पर्याप्त कारण नहीं याद आ पाया। जानकी ने एक बार वैसे मुझसे जिक्र किया था कि गार्गी को बिना पूछे जब उसने फ्रिज से दही या ऐसा ही कुछ अपने खाने के लिए निकाल लिया था तो उसने जानकी का टेंटुआ पकड़ डाला था। आपको शायद पता न हो कि गार्गी के माता-पिता उसके लड़कपन की उम्र से पहले ही दुनिया से चले गए थे, जैसे हिटलर के चले गए थे। गार्गी की देखभाल उसके मामा के यहाँ हुई जो सेव के एक बग़ीचे में काम करते थे। यह बग़ीचा बहुत पहले एक ईसाई मिशनरी, मिस्टर स्टोक ने लगवाया था जिसे उनकी एक पोती संभाल रही थी। अपने मामा के घर ही हमने गार्गी को देखा, विवेक को भी लड़की पसंद आयी। लेकिन विवेक की माँ को वह उतनी नहीं जंची। हो सकता है अपने आईआईटी पढ़े इंजीनियर बेटे को लेकर उसकी ज्यादा उम्मीदें रही हो। मैंने उसे समझाया कि अपने इकलौते बेटे का मामला है; उसकी पसंद हमारी पसंद है। ख़ैर, शादी हो गई और विवेक अपनी पत्नी को लेकर गाज़ियाबाद चला गया, जहाँ उन दिनों एक बड़ी फर्म में उसकी नौकरी थी। आपको यक़ीन न हो कि अगले दस वर्षों में विवेक केवल दो दफ़ा हमसे मिलने हिमाचल आया था। पहले तो खैर मेरी नौकरी थी लेकिन बाद में रिटायरमेंट के बाद भी मुझे चार बरस हो गये और मैं अपने इकलौते बेटे से नहीं मिल पा रहा था। मैंने एक बार जब उसे थोड़ा डपटकर कह दिया कि हम बूढ़े हो रहे हैं, कई तरह की परेशानियां दस्तक देने लगी हैं, तब वह तीन बरस बाद एक दिन के लिए आया।
उसने साफ़ कह दिया की गार्गी हमसे मिलने हमारे गाँव कोटगढ़ में नहीं आएगी।
मैंने जब वजह पूछी तो बहुत ना-नुकुर के बाद उसने अपनी माँ यानी जानकी को इसका कारण बताया।
“तुम्हारी माँ? उसने क्या किया?”
मैंने पूछा।
उसने हिम्मत करके कहा कि यह तो शादी के पहले ही ज़ाहिर हो गया था।
मैंने कुछ नहीं कहा। क्या कहा जा सकता था?
कितनी पुरानी और मामूली बात जिसे याद करने में मुझे दम लगाना पड़ा। ।
लेकिन एक वक़्त आया जब मेरी पत्नी को इलाज के लिए मुम्बई लाना पड़ा, जहाँ विवेक एक मल्टी-नेशनल में सीनियर पोजीशन ज्वाइन कर चुका था। मेरी पत्नी की आँखें लगभग चली गई थीं जिसका कारण हमें पता चला कि आनुवांशिक था। देर हो चुकी थी लेकिन मुम्बई में रहकर उसकी आँखों की रोशनी वापस होने की एक संभावना थी। मैं तो अपनी पेंशन के सहारे हिमाचल के अपने कुछ दोस्तों के साथ रहने को तैयार था लेकिन यह बात पता नहीं क्यों विवेक को मंज़ूर नहीं थी। शायद इसलिए कि मुम्बई में भी हिमाचली लोगों का एक आत्मीय समुदाय है। उसे फ़िज़ूल बदनामी का डर था। लेकिन यह सिलसिला डेढ़ साल से अधिक नहीं चल सका।
बाक़ी तो आपको मैंने बता ही दिया।
मैंने ख़ुद सोचा कि मैं खुदकुशी कर लूं। लेकिन मैंने बताया ना, हम हिमाचली लोग बुजदिल होते हैं। या शायद इसकी वजह यह भी रही हो कि विवेक के यहां साल भर पहले एक बेटी ने जन्म लिया था, जिसे मैं विवेक की माँ के पुनर्जन्म के रूप में देखने लगा था। इतने दिनों मैं ख़ुद से रह-रहकर यह सवाल करता रहता कि क्या एक मामूली वजह से कोई किसी को इतनी नफ़रत कर सकता है कि ज़हर दे दे? मुझे कुछ समझ नहीं आता था। हिमाचल के एक मेरे पुराने साथी नवल किशोर कुलवी का मैंने शायद आपको दी हुई डायरी में जिक्र किया था। उनसे मैंने फ़ोन पर बात की तब उन्होंने मुझे कुछ किताबों में अपना मन लगाने के लिए कहा और कुछ किताबें भी लिखवा दीं। जब में नौकरी में था तो बहुत पढ़ता नहीं था। मैंने बहुत पढ़ाई की भी नहीं थी। इलैक्ट्रिकल में डिप्लोमा करने के बाद जब फ़ौज में नौकरी मिल गई तब तो पढ़ना बिल्कुल ही बंद हो गया। लेकिन जब मैंने नवल किशोर की बतायी और बाद में कुछ दूसरी किताबों को पढ़ना शुरू किया तो पता लगा कि किताबों का कितना बड़ा दायरा होता है, या वे किसी का कितना मज़बूत सहारा हो सकती हैं। मैं कहाँ अपने एक निजी दुख की शिनाख्त कर रहा था और वहां मुझे लाखों लोगों के अथाह और बिखरे हुए दुख ने उबार लिया। मैंने हिटलर की आत्मकथा भी पढ़ी। लेकिन उसके नफ़रत की तो एक वजह भी थी जो चाहे सही या ग़लत हो सकती थी लेकिन नफ़रत करने वाले को तो उसमें यक़ीन था।
“ ‘मेरा संघर्ष’ तो उसकी नस्ली नफ़रत का फ़लसफ़ा है… और आत्मकथा तो है ही नहीं।” मैंने एक बार नवल किशोर से जानना चाहा तो उसने, जैसा हम हिमाचली लोगों में होता है, मुझे एक कथा सुना दी।
उसका कहना था कि ये कलयुग का असर है।
‘बनवास के समय एक बार कुंती को प्यास लगी तो युधिष्ठर ने सहदेव को पानी लाने भेजा। वह पनघट पर पहुंचा तो वहाँ तीन बावड़ियाँ थीं। पहली बावड़ी से पानी उछलकर तीसरी बावड़ी में जा रहा और वहाँ से उछलकर वापस पहली में। बीच की खाली थी। वह पानी भरने लगा तो बीच वाली ने सहदेव से सवाल पूछा कि बताओ “मैं बीच में रहकर क्यों सूखी हूँ?”
सहदेव को कोई जवाब नहीं आया तो वह वहीं खड़ा हो गया।
बड़ी देर जब सहदेव नहीं लौटा तो युधिष्ठर ने नकुल को पानी लाने भेजा। नकुल को रास्ते में एक गाय दिखी जो अपनी ही जन्मी बछड़ी का दूध पी रही थी। नकुल वहीं खड़ा हो गया तो बछड़ी ने उससे सवाल पूछा कि बताओ “मैं इस गाय कि जन्मी बछड़ी हूँ तो मुझे इसका दूध पीना चाहिए या इसको मेरा?”
नकुल कोई उत्तर न दे सका तो वह भी वहीं खड़ा हो गया।
जब देर तक नकुल नहीं लौटा तो इस बार अर्जुन को भेजा गया। अर्जुन ने रास्ते में देखा एक घसियारा घास का गट्ठर बांध रहा था। वह उससे उठाया ही नहीं जा रहा था। घसियारे ने और घास काटी और गट्ठर में बांध दी। घास ने अर्जुन से सवाल किया कि बताओ “ जब गट्ठर पहले से ही भारी था तो घसियारे को गट्ठर से घास निकाल देनी चाहिए थी मगर उसने और बांध दी। क्यों?”
अर्जुन को कोई जवाब नहीं आया तो वह वहीं खड़ा हो गया।
आगे जब भीम को पानी लाने भेजा गया तो रास्ते में उसने देखा कि एक खेत के चारो तरफ लगी बाड़ खेत की फसल खा रही थी। भीम वहाँ रुका तो फसल ने सवाल पूछा कि बताओ “ जब बाड़ को फसल बचाने के लिए लगाया गया था तो यह खुद फसल को क्यों खाये जा रही है?”
भीम को कोई जवाब नहीं आया तो वह वहीं खड़ा हो गया।
जब कोई भाई पानी लेकर नहीं लौटा तो युधिष्ठर स्वयं चल दिए। पहले भीम मिला। उसने युधिष्ठर से फसल के सवाल का उत्तर जानना चाहा। युधिष्ठर ने कहा कि ‘यह कलियुग की शुरुआत है। बाड़ के फसल को खाने का मतलब है देश के प्रहरी ही लोगों के खून-पसीने की कमाई रिश्वत के रूप में खाएँगे’। जब वे अर्जुन के पास गए तो उसके सवाल का युधिष्ठर ने जवाब दिया कि ‘यह कलियुग की शुरुआत है। लोग लालच में अपनी जरूरतों को कम करने के बजाय कर्जा लेकर उन्हें और बढ़ाएँगे’। सहदेव के सवाल का उन्होंने जवाब दिया कि कलियुग में माँ अपनी बेटी कि कमाई पर जिंदा रहने की सोचेगी। नकुल के सवाल पर युधिष्ठर ने समझाया कि ‘कलियुग में लोग अपने रिश्ते-नातों को छोड़, दूसरे परायों के साथ मेल-जोल करेंगे’
संजीव जी, मुझे ये कच्ची-पक्की कथाएं ग़रीब-नादानों के मनबहलाव का ज़रिया लगती थीं। लेकिन मुंबई में अपने बेटे के परिवार के साथ रहते हुए मैंने देखा कि वे कितने बड़े मर्म को कह गई होती हैं।
एक और हादसा भी हुआ… हालांकि कुछ न कुछ तो रोज-ब-रोज होता ही था।
मैंने आपको बताया था कि विवेक की एक बड़ी बहन भी है। रेवती। मैं उससे सालों से नहीं मिला। मिलने का मन करता है मगर उसके दुख को और हरा नहीं कर सकता। फिर आने-जाने की परेशानी। लेकिन तीन साल पहले मजबूरी आ गयी। बारह साल के उसके इकलोते बेटे की सोलन में डेथ हो गयी। ब्रेन ट्यूमर था। महीने भर से ज्यादा अस्पताल में भी रहा। हम सभी मुंबई से सोलन भागे। मैंने विवेक से कहा कि मैं कुछ रकम अलग से रख लेता हूँ, शायद काम लगेंगे। रेवती का हस्बेंड वहीं एक टूरिस्ट कंपनी में मामूली मुलाजिम है। उसने मुझे हड़का दिया कि रेवती उसकी बहन होती है। उसने पचास हज़ार रुपए अलग से रख लिए। खैर जी, हम वहाँ पहुंचे। रेवती का बुरा हाल था। रो-रोकर उसका गला खखरा गया था, आँखें किसी मरी मछली सी फटी-फटी थीं। और चेहरा… आतंकी या नक्सलियों की गोलियों के शिकार पुलिसियों की रोती-बिलखती युवा विधवाओं और बालिकाओं की बदहवास उजड़ी शक्लें आपने अखबारों में शायद देखी होंगी… जिंदगी में जब सबकुछ यकायक शून्य — और बर्बाद– हो जाने से आत्मा पर जो असहनीय वीरानापन चिपक जाता है… उससे जना दर्द…घुप्प अंधेरे में निरुपाय ट्रेप हो जाने का ऐसा खौफ जहां जिंदगी का सबकुछ बेमतलब और बेमानी हो उठता है… कगार पर बेवजह धकेल दिए जाने पर जब आप ईश्वर तक का गिरेबान पकड़ने को हो आते हैं… अवसाद और विषाद से जड़ा यह भयावह चेहरा हर देश और दुनिया में कितना वही-वही और मिलता-जुलता होता है। वह वैसा ही था। उसका पूरा मोहल्ला दुख में डूबा था। दुख में डूबे घर-बाहर के लोग एक दूसरे का ढाढ़स बांध रहे थे। मैं तो जानकी की मौत के बोझ से ही अभी नहीं उबरा था और इधर रेवती पर यह कहर टूट पड़ा। आप मान सकेंगे कि माँ-बाप होना कितना बेबस होना होता है।
लेकिन बड़ा हादसा अगले रोज हुआ।
उसके होने के बारे सोचते हुए भी मेरी आत्मा कराहने लगती है।
मैं बाहर बरामदे में लोगों के बीच बोझिल और गुमसुम सा बैठा था। करीब साढ़े पाँच बजे रेवती मुझे बुलाकर अपने कमरे में ले गई। वह कैसी अशक्त और निचुड़ी सूरत हो चुकी थी। कोई क्या जाने कि बेटी के दुख में हर बाप कितना बेबस और दुखी महसूस कर उठता है।
सुबह ही उसके जिगर के टुकड़े के फूलों को सतलज में सिराया गया था।
विधि-विधानों के फेर भी कैसे एक बेजान काया में रक्त संचरित कर जाते हैं!
“पापा जी, भैया ने कल शाम मुझे पचास हजार का बंडल दिया था। मैंने यहीं कबर्ड में रख दिये थे। अब वहाँ नहीं हैं। कमरा-घर खुले ही रहते हैं। समझ नहीं आ रहा कहाँ चले गए … वैसे कमरे में देर तक गार्गी भाभी ही थीं…”
रुक-रुककर निकलती थकी-मांदी फुसफुसाहटों ने मुझ मरियल बुढ़ऊ को उस वक्त जो नश्तर किया उसके आगे कुछ कहने-करने को कुछ बचा कहाँ था। फिर भी संभाला।
“ बच्ची , तेरे जा चुके बच्चे के आगे इस सब का क्या मोल है… जाने दे”।
“ बच्ची, इसका जिक्र तुम विवेक से भी मत करना। उसे दुख लगेगा… कर तो कुछ सकता है नहीं…”
अंधेरा जरा गहराते ही मैं बहाने से घर से बाहर निकला और नुक्कड़ पर बने बैंक के एटीएम से पंद्रह हजार निकाल लाया। एक चक्कर अगले दिन भी किया।
कितना अच्छा हो गया है कि कस्बों में भी एटीएम खुल गए हैं।
पता नहीं कौन सा दुख ज्यादा बड़ा था!
हिमाचल में एक कहावत है: हांडा बाझिया ठिकरु, माहनू नी मरया किछे।
हांडी टूट जाए तो छीकरा तो बच जाता है, आदमी मर जाए तो कुछ नहीं बचता।
उस दिन मैं बचा-कुचा भी मर गया।
उन्हीं मुश्किल दिनों में मुंबई में हम आपके सामने वाले फ्लैट मे रहने आए थे।
गार्गी की न जाने कितने लोगों से यारी-दोस्ती थी। कभी वे दोनों अपने दायरे के लोगों के घर जाते तो कभी अलग-अलग लोगों को घर बुलाकर दावत देते। खूब हंसी-ठट्ठा होता। मैं फौजी आदमी रहा इसलिए पीने-पिलाने से मुझे कोई शिकायत नहीं थी। लेकिन अपने कमरे में क़ैद होकर भी मैं जान सकता था कि गार्गी का लोगों से मिलना-जुलना और खाना-पीना कितना नक़ली होता है या यह कि पैट्स, मेड्स और फ़ोरेन होलीडेज कितने बड़े मसले बन चुके हैं। लेकिन मैं कोई सलाह मशवरा भी नहीं दे सकता था। मैं लगातार कुनमुनाता और सोचता रहता कि मेरे साथ, यानी जानकी के साथ या फिर सोलन में जो हुआ, वह क्यों हुआ? बहुत पहले मैंने एक फिल्म देखी थी, ‘न्यूरमबर्ग’। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पकड़े नाजियों पर चले मुकदमे पर। बूढ़े, बच्चे और औरतों समेत साठ लाख से ऊपर निर्दोष यहूदियों को जिस बेरहमी से मारा-सताया गया, वह हर मुमकिन सोच से परे था। आरोपियों की मानसिकता की तह तक जाने के लिए– टनों दस्तावेजों के अलावा– मनोचिकित्सक भी उनसे बोलते-बतियाते थे जिससे उस असामान्य बर्बर सोच के संभावित सूत्र हाथ लग सकें। उसमें वह नायक सवाल करता है: यह सब कैसे मुमकिन हो सकता है? इस सब बुराई का स्रोत क्या है? और वह खुद ही जवाब देता है: जब करुणा मर जाती है…दूसरों के प्रति जब हमारे भीतर करुणा-भाव नहीं रह जाता है …तब बुराई पनपने लगती है जो बाद में जघन्य रूप भी ले लेती है। आप लेखक लोग अपने जाने महान रचनाओं में उसका प्रतिकार करते हैं। ‘आत्मिक उत्थान’ की महत्ता रचते हैं। हिटलर से बहुत पहले किसी उस्ताद लेखक ने लिखा भी था “ हाँ, है! एक आततायी को भी एक दिन मुंह की खानी पड़ती है! जब एक दबे-कुचले इंसान की इंसाफ की गुहार बेजा हो जाती है और उसे एहसास होता है कि अब उससे यह बोझ और सहन नहीं होगा… तब वह ऊपर वाले की शरण लेकर उन सब ताकतों को हथिया लेता है जो हमेशा से उसी की होती हैं…”
यानी ईश्वर के हवाले से बुराई का खात्मा!
आततायी और बुराई के किस खात्मे की बात करते हैं आप लोग? आपके वैज्ञानिक स्थापित कर चुके हैं कि इस ब्रहमाण्ड में छियानवे प्रतिशत डार्क मेटर और डार्क ऊर्जा है! पता नहीं इसके क्या मायने हैं लेकिन मैं थोड़ी-बहुत किताबें पढ़ता हूँ और रोज का अखबार भी। क्या कहेंगे इसे कि एक नौजवान कट्टा लेकर किसी ब्यूटी पार्लर में घुसकर पाँच नितांत अनजान और बेकसूर औरतों को भून डालता है… सिर्फ इसलिए कि पेपर में उसका नाम छप जाए…एक महिला नाजायज बच्चों की देखभाल का अड्डा खोलती है और रोज के हिसाब से उनका गला घोंटती है… कोई किसी की पोशाक अच्छी ना लगने के कारण मार देता है तो कोई किसी के होंठों की वजह से। एक अधेड़ दो बरस की बच्ची से कुकर्म करके उसे गटर में फेंक आता है… मार्शल पेशियो जैसे डॉक्टर नाजी दौर में ही नहीं थे जो गैर-कानूनी ढंग से गर्भपात कराने का धंधा करते हुए रोगियों को जहर का टीका भी शौक से लगा देते थे…
जड़, जोरू, जमीन और जाति-धर्म से जुड़े एक से एक हौलनाक हादसों का तो खैर कहना ही क्या…
सत्ता और नृशंसता सिर्फ आतताइयों या फिर राजनेताओं की चौहद्दीयां नहीं हैं। निगरानियाँ-तलाशियाँ, धौंस, फरेब, हिंसा, नफरत, दुष्टता, शोषण, उत्पीड़न और परपीड़न पता नहीं कितने-कितने संस्करणों में हर रोज हर जगह जड़ें जमाए पड़े हैं। साफ-सुथरे दिखते घर-घर में तो ‘लिबेनस्रोम’ घुसा पड़ा है! बूढ़े, कमजोर और निरुपायों के प्रति बेवजह क्रूरता और दुष्टता कहाँ कम हुई है? अपने जिस वयस्क बेटे की खातिर तीन-तीन दफा शिलोंग का रास्ता पूछने वाला नवल किशोर आज अकेला बीमार गुजर कर रहा है। तीनों खुशहाल बेटों (और बेटी भी) को वह कब का फिजूल हो गया है।
संजीव जी, मेरे लेखक दोस्त, दूसरा विश्व युद्ध अभी खत्म कहाँ हुआ है? घर, समाज और पूरे मुल्क में उसका तांडव नई-नई शक्लों में चलता तो चल रहा है।
पूनश्च:
आपने मेरे ‘रोमांटिक’ होने को खूब पकड़ा था। मैंने उस ‘कहानी’ की बाबत नीली डायरी में लिख भी दिया था। लेकिन अगले रोज आपको देने से पहले ही मैंने देखा उसके वे पेज फाड़ दिए गए थे। आप चेक कर लेना।
जिंदगी की तरह कोई कहानी दोबारा कहाँ लिखी जाती है?
पंचम
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खत के कागजों को अपने सुन्न हाथों से वापस लिफाफे में सरकाते हुए किसी उपन्यास की बात याद आने लगीं: जीवन समाप्त होने पर एक ही बात तो बची रहती रहती है— उसकी कहानी।
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