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शुभारंभ

Aug 09, 2013 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

उसके तुरंत बाद ही जैसे सब कुछ बदल गया।

मुझे लगा जैसे कोई जहरीला सांप धीरे-धीरे या तो मुझे निगल रहा है या मेरे अंदर उतर रहा है। चंद क्षणों पहले और अबकी मेरी हालत में गुणात्मक बदलाव आ गया।

जैसे कोई दीवार गिर गई हो और मेरा पैर उसके मलबे में बुरी तरह फंस गया हो।

गड्डी को पूरी होशियारी और तसल्ली से पकड़कर मैंने दराज में डाल दिया। डाल तो दिया, लेकिन मेरी धौंकनी ने क्या जोर से फड़फड़ाना शुरू किया! एक बारगी तो लगा कि तुरंत ही चपरासी कोई फाइल खोजने के बहाने मेरी ड्रॉअर को खींचेगा और पलभर में ही मुझे निर्वस्त्र कर देगा। क्या कर लूंगा मैं उसका? क्या इज्जत रह जाएगी मेरी? वह अब तक जो वजह-बेवजह मेरा गुणगान करता फिरता था कि उसका साहब बहुत ‘राजा आदमी’ है और गलत पैसे को हाथ लगाना तो दूर, देखता तक नहीं है, अब क्या-क्या नहीं कहेगा?

उम्रभर की पूंजी, चंद कागजों की वजह से इस कदर गुड़-गोबर हो जाएगी!

मैंने तुरंत घंटी मारी और चपरासी को पानी लाने को कहा।

दरअसल मैं चाह रहा था कि गड्डी को दराज से निकालकर किसी गंदी सी फाइल के बीच खोंस दिया जाए। कोई शक ही नहीं कर पाएगा लेकिन उससे क्या होगा? मेरे बॉस ने किसी कारणवश वही फाइल मंगा ली तो! यूं भी वह बड़ा शक्की और ज्यादा झक्की आदमी है। पता नहीं किस-किस तरह के लोगों से उसका पाला पड़ा है। कोई दलील भी नहीं सुनेगा।

और क्यों सुने?

मणीलाल पानी ले आया। इस बीच मैं जो करना चाह रहा था, असमंजस में कर ही नहीं पाया। बौखलाहट में पानी गटकते हुए कनखियों से चपरासी को देखा। लगा, वह कमरे का मुआयना-सा कर रहा है। तो क्या इसे भनक लग गई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने सौ-पचास रुपये इसे भी थमा दिए हों कि ले तेरे साहब को वहां खुश कर दिया, तू यहां खुश रह? मेरा सोचना कोई गलत है, ऐसे आदमियों की कमी है क्या? उस दिन वकुल ही तो कह रहा था कि परमार को जिस आदमी ने पैसे दिए थे, अब पूरे विभाग में बताता फिरता है कि साहब परमार साहब तो बहुत शरीफ आदमी हैं…बहुत सस्ते में ही छोड़ देते हैं। और क्या कह रहा था वकुल…अरे हां, कि कोई आदमी पैसे देता है तो उसका प्रचार तो करता ही है। लेने वाला चाहे कभी न माने, पर जो अपनी जेब से खर्च करेगा, वह तो गाएगा ही।

कहीं ऐसा तो नहीं कि यहीं बाहर खड़ा सलूजा सबको डंके की चोट पर ऐलान करके बता रहा हो कि भाइयो आज, अभी-अभी मैं दीक्षित साहब को दस हजार देकर आ रहा हूं। न मानो तो आप अंदर जाकर…

मैंने हलक से पानी उतारकर मणीलाल को बाहर जाने का आदेश दे दिया और फिर सोचने लगा कि इस मुसीबत से कैसे छुटकारा मिले। ऐसा भी हो सकता है कि मणीलाल उसके मुंह से ही आंखों देखा हाल सुन रहा हो। ऐसा करता हूं कि इस मणीलाल को किसी काम के बहाने यहां से चलता करता हूं। वैसे भी उसके लिए मेरे पास कौन सा काम पड़ा है? लेकिन बाहर भी तो किसी न किसी को रहना पड़ेगा। कम से कम मैं उससे फिलहाल यह तो करा ही सकता हूं कि बाहर से किसी को भी घंटे आधे-घंटे अंदर न आने दे और तब तक मैं इस गड्डी को ठिकाने लगाने का रास्ता निकालता हूं।

 

मुझे दूसरा डर यह भी लग रहा है कि ज्यों-ज्यों समय निकल रहा है, मुसीबत और अधिक उग्र होती जा रही है। मुझे पूरा यकीन है कि सी.बी.आई. वालों को वह साथ ही लाया होगा और किसी भी क्षण गवाहों सहित पुनः प्रवेश करने को होगा। गड्डी को देखकर तो वैसे लग भी रहा है कि नोट नए-नए और बाकायदा ऐसे ही हैं जैसे किसी जाल के तहत इस्तेमाल किए जाते हैं। लेकिन यह मैंने क्या किया? मैंने तो उन्हें छूकर उठाकर भी रख दिया! यानी अब तो वह अदृश्य पाउडर भी मेरे पोटुओं में लग गया होगा, जिसे किसी घोल में डाल देने से रंग लाल हो जाता है। यदि इसी वक्त सी.बी.आई. वालों की टीम दनदनाती मेरे कमरे में घुस आए और मेरा टैस्ट कर ले तो मुझे भगवान भी नहीं बचा सकता। सारे विभाग में खबर फैलेगी। सरकार फौरन निलंबित करेगी और सामाजिक-पारिवारिक अपमान तो बेहिसाब होगा ही। मैं यह सब कहां सहनकर पाऊंगा? नीलू नहीं बता रही थी उस रोज कि उसके एक परिचित के अंकल बारह सौ रुपये लेते पकड़े गए थे। रंगे हाथ। मोहल्ले-समाज में ऐसी रस-मिठास लेकर उनकी चर्चा होती कि परिचित मित्रों के सामने पड़ने से भी कतराते। बच्चों ने ग्लानिवश आस-पड़ोस में भी निकलना बंद कर दिया। तीन वर्ष तक केस कोर्ट में खिंचता रहा। थककर, निराशा में आत्महत्या की असफल कोशिश कर डाली। किसी तरह बच तो गए, पर अर्ध मानसिक रोगी तो स्थाई रूप से ही हो गए।

हे राम, अगर मेरे साथ कुछ ऐसा ही बन गया तो नीलू का क्या होगा?

अच्छा, ऐसा करता हूं कि सहज और सामान्य होकर बाथरूम चला जाता हूं और वहां पर साबुन से हाथ धो डालूंगा। यह करना तो एकदम जरूरी है। कम से कम रंगे हाथों तो नहीं पकड़ा जाऊंगा। बाद में जो होगा, होता रहेगा। अरे, जब आदमी को रंगे हाथों पकड़ा ही नहीं गया तो कोई भी अदालत बहुत ज्यादा सख्त रवैया नहीं अपना सकती है। पकड़े जाने पर तो कुछ हो ही नहीं सकता। धवन अंकल भी कुछ नहीं करा सकते हैं। सी.बी.आई. का चक्कर बहुत बुरा होता है। सब अपनी जान बचाते हैं। दूसरे की आई में कोई नहीं पड़ता।

 

मैंने तुरंत, आहिस्ता उठकर सोपकेस निकाला और बराबर में रख लिया। उठकर दरवाजे तक पहुंचा ही था कि खयाल आया कि यह मैं क्या करने जा रहा हूं? सी.बी.आई. के लोग यदि बाहर ही घात लगाए, जाल बिछाए खड़े हों तो मैं बेमौत मारा जाऊंगा। सुना है बड़ी मक्कारी और बेअदबी से काम करते हैं। जरूरत पड़ने पर उनका एक इंस्पैक्टर भी बड़े से बड़े अफसर को तमाचा जड़ देता है और फिर वहां बाथरूम में ही कोई इंस्पैक्टर प्रतीक्षारत तैनात हो तो?

मेरा दिमाग अब सचमुच काम नहीं कर रहा है। मुझे स्वयं ही पता नहीं है कि मैं क्या करना चाहता हूं। यह करूं या वह करूं। करूं भी कि न करूं। इसी को तो कहते हैं विनाश काले विपरीत बुद्धि।

तभी बराबर में रखा फोन टनटना गया। किसका होगा? बॉस का तो नहीं है? हो सकता है सलूजा का बच्चा कमरे से निकलते ही सीधा बॉस के पास गया हो,और सब उगल डाला हो। बॉस की त्योरियां चढ़ गई होंगी, तभी उसने फोन किया है। क्या जवाब दूंगा? मेरी मानसिक हालत वैसे भी संतुलित नहीं है। कुछ अंट-शंट निकल गया तो…‘‘नहीं, नहीं सर, मैंने नहीं मांगे…’’ नहीं यह नहीं…वह फड़ाक से कहेगा; ‘‘मैं मांगने या न मांगने की बात नहीं कर रहा मिस्टर कमलकांत दीक्षित…यह बताइए कि आपने लिए या नहीं। झूठ बोलकर ‘ना’ कह भी दूं तो सीधा मेरे कमरे में चढ़ा चला आएगा। वह मनहूस सलूजा तो साथ होगा ही। मेरा कमरा है ही कितना बड़ा। फौरन खोज निकालेंगे। ‘हां’ कहकर हो सकता है वह मेरी सादगी को कुछ ऐप्रिशिएट करे…

मैंने झपट्टा-सा मारकर, धड़कते दिल से ही फोन उठाया और ऐसे कृत्रिम संतुलन के साथ ‘हेलो’ बोला जैसे काम की व्यस्तता में खुद को भूला हुआ था। नाहक ही फोन ने डिस्टर्ब किया। उधर वकुल था।

‘‘क्या हो रहा है भई” उसने हमेशा की तरह हल्की हँसी बिखेरकर पूछा।

क्या कहूं? कह दूं कि यार जरा देर के लिए मेरे पास आ जा। इन नोटों को मेरे पास से ले जा और मेरी जिंदगी बचा ले।

‘‘कुछ नहीं यार, बस यूं ही रूटीन वर्क…’’

‘‘तुमने कुछ सुना’’ उसने थोड़ा रहस्य-सा अपने आपमें समेटने की कोशिश की।

सुना नहीं बाबा, मेरे साथ ही हुआ है। कोई और नहीं मैं ही था। बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी मेरी। साफ-साफ बता देता हूं उसे। दोस्त है। उसकी निगाह में थोड़ा गिर भी जाऊंगा तो क्या हुआ, जमाने भर की जिल्लत से तो छूट जाऊंगा। और फिर उसके भी तो कई राज मेरे पास गुप्त हैं। कभी आजमाइश करेगा तो भुगतेगा भी।

‘‘किस बारे में’’ मैंने आशंकित भाव से पूछा।

मैं सोचने लगा, इसे पता चाहे लग गया हो, पर सब कुछ थोड़े हो पता होगा…किसने दिए, कितने दिए, क्यों दिए, उसे क्या पता। वह सलूजा का बच्चा अपनी तरफ से मुझे लाख बदनाम करे, मेरे वक्तव्य की भी तो कोई अहमियत होगी। सब उसी की ही थोड़े ही सुनेंगे। ताली दोनों हाथों से बजती है। रिश्वत लेना अपराध है तो देना भी तो है।

‘‘मोहन्ती का ट्रांसफर यहीं हो गया है।’’ वकुल ने एक मिनट पहले छुपाए रहस्य का पर्दाफाश किया।

मेरी जान में जान आई।

यानी ऐसा-वैसा इसे कुछ मालूम नहीं है, जिसका अंदेशा था।

‘‘इस वक्त!’’

मैंने हैरत से पूछा। शायद कहना यह चाह रहा था कि इस वक्त यह बात बताने के लिए तुझे मैं ही मिला हूं रे बावले। यह वकुल भी अजब है। जब फुर्सत मिलती है, फोन खटका देता है।

‘‘दरअसल उसकी वाइफ तो पहले से ही यहां थी। सेंट्रल स्कूल में पढ़ा रही थी ना (इस ना के साथ-साथ मैंने समानांतर हां-हां की), वही बेचारा इंदौर में अटका पड़ा था।’’

उसने थोड़ी हमदर्दी जताते हुए वाक्य पूरा किया। लगा, मैं व्यर्थ ही इस बातचीत में कीमती वक्त जाया कर रहा हूं। उधर मेरे खिलाफ एक नियोजित साजिश मुंह बाएं खड़ी है और मैं इस बौड़म के साथ फोन से चिपका हुआ हूं। ऐसा करता हूं कि फोन काट देता हूं। बाद में कह दूंगा लाइन ही कट गई थी। क्रेडल उठाकर अलग रख देता हूं। आगे के लिए भी बला टलेगी।

‘‘कब ज्वाइन कर रहा है’ मैंने बेमन से पूछा।

और फिर तो जैसे एक चमत्कार ही हो गया। वकुल ने माफी मांगते हुए कहा, ‘‘अभी, रखता हूं यार, जरा बॉस ने बुलाया है। लंच पर मिलते हैं।’’

 

‘‘अब क्या किया जाए? नीलू ही आ जाए कहीं से। वैसे भी तो वह कितनी बार, बिना बताए, अचानक बैंक से सीधे मेरे दफ्तर आ धमकती है। लेडीज के पास तो अपनी ही सुरक्षा पेटी होती है। सारी समस्या ही सुलट जाएगी। मैं आते ही, उसे गड्डी पकड़ाकर, आंखों के इशारे से वापस भेज दूंगा। घर जाकर जो भी भला-बुरा कहेगी, सुन लूंगा। है तो अपनी बीवी। उससे क्या शर्म। अरे सुख-दुख के ही तो साथी होते हैं पति-पत्नी और वैसे भी इन रुपयों का उपयोग तो ज्यादातर उसके लिए ही करना है। कितने दिनों से एक पैंडेंट की मांग कर रही है। मैं भी कैसा आदमी हूं। बेचारी को सुहागरात के दिन भी कोई तोहफा नहीं दिया था। ‘‘मुझे पता ही नहीं था और न किसी ने मुझे सुझाया ही।’’

कहकर मैंने हल्के अपराधबोध के साथ ‘ही-ही’ कर दिया था।

‘‘सब हसबैंड्स देते हैं।’’

उसने शांत मगर बुझे स्वर में कहा था।

‘‘चलो ऐनीवरसरी के समय दिला देंगे।’’

उसे पता था तब भी मैंने ‘दिला देंगे’ कहा था… यानी उसके और अपने पैसों को जोड़-जाड़कर। खालिस अपनी तरफ से कुछ नहीं। अब सब कुछ ठीक हो सकता है।

अरे पैंडेंट चाहे आए न आए, पहले यह गड्डी तो यहां से खिसके!

दरअसल गलती मेरी ही थी। अवचेतन में क्या मैं नहीं सोचता रहता था कि कहीं से कुछ ‘जुगाड़’ हो जाए तो क्या बात हो। मां के लिए एक दो बढ़िया कॉटन की साड़ियां खरीदवा दूं। पिताजी के लिए एक-दो अच्छे सफारी सूट सिलवा दूं। घर के ड्राइंगरूम को, कुछ अतिरिक्त पैसे मिलने पर, थोड़ा ढंग का कर लूं और कुछ नहीं तो अपनी पसर्नल लाइब्रेरी में कुछ क्लासिक्स या मास्टरपीस ही सुशोभित हो जाएं। इस बंधी-बंधाई तनख्वाह में कोई क्या-क्या करे?

इसी चिरकुट उड़ान का ही तो फल अब जी भर के मिल रहा है।

मेरा निर्णय-दुर्बल होना ही तो मुझे महंगा पड़ रहा है। उसके गड्डी को निकालते ही मुझे बरस पड़ना चाहिए था। कड़क होकर दहाड़ता उस पर कि अबे ओ लाला को औलाद, तूने हर आदमी को गिरा हुआ और बिकाऊ समझ रखा है। चुपचाप शराफत से वापस रख ले अपनी अमानत को और दफा हो जा, नहीं तो हवालात की सैर करनी पड़ जाएगी।

लेकिन हुआ कुछ और ही।

‘‘इस सबकी कोई जरूरत नहीं है,’’

मैंने शालीनता से कहा। कहने के साथ ही कुछ बड़प्पन का अहसास हुआ।

‘‘मैंने कब कहा जरूरत है या इनसे आपका कुछ होनेवाला है दीक्षित साहब। हम यह अपनी खुशी और दिल से कर रहे हैं।’’

सलूजा मंद-मंद मुस्कराता रहा और गड्डी को मेरी तरफ खिसकाता रहा।

‘‘देखिए, आप मुझे औरों जैसा मत समझिए…मैंने जो भी किया है, बिना किसी मोटिव…’’ मैंने सफाईवश, गड्डी को बिना खिसकाए हाथ से सटाते हुए कहा।

मगर उसने बीच में ही कुतर डाला।

‘‘कैसी बात करते हैं दीक्षित साहब…क्या इंसान के व्यवहार से उसकी नीयत का पता नहीं चल जाता है। प्रैक्टिस के इतने दिनों बाद आदमी-आदमी की कुछ तो समझ हमें भी हो गई है।’’

उसने मुझे आश्वस्त किया था।

‘‘फिर भी, पता नहीं क्यों, कुछ ठीक सा नहीं लगता।’’

मैंने लगभग निढाल होकर कहा।

चाल लगता है उसके हाथ आ गई थी।

‘‘आप इसे किसी बोझ-बोझ के रूप में न लें। लक्ष्मी है। हाथों का मैल है। कोई आपका दाम थोड़े ही है। आप चाहें तो क्या नहीं कर सकते…’’

और फिर अपनी पलकों को मोहक अंदाज में मूंदकर, लगभग रिरियाते हुए कहा,‘‘खुशी से कर रहे हैं, थोड़ा हमारा भी मान रखिए।’’ कहकर वह उठ खड़ा हुआ। फुर्ती से मिलाने को हाथ बढ़ाया और ‘‘अब चलूंगा, कोई काम हो तो बताइएगा’’ कहकर पलभर में ही नदारद हो गया।

 

लेकिन मेरे अब पछताने से कोई लाभ? जो होना था, हो गया। मैंने अपने आपको बेच ही दिया समझो, उसकी चला का शिकार बन ही गया, पर उससे निकलने का कोई न कोई उपाय तो होगा। होगा, होगा क्यों नहीं। मैं तो किसी को अपशब्द भी नहीं कहता। ईश्वर क्या यह सब नहीं देखता है। ठीक है उसने मुझसे एक गलती करवाई, पर उससे निजात भी तो वही दिलवाएगा। मैं कहता हूं ईश्वर है और हर जगह है। वही सबकी परीक्षा लेता रहता है। हरेक के कर्म का लेखा-जोखा रखता है। मैं तो जब भी ट्रेन में सफर करता हूं, शायद ही किसी अपाहिज या गरीब बच्चे को खाली हाथ जाने देता हूं। अरे, इन दीन-हीनों की मदद करने से जो सुकून मिलता है, वह कितना अद्भुत और अलौकिक होता है। भूखी निगाहों को जब कुछ मिल जाता है तो बेचारे कितने तहे-दिल से दुआ देते हैं। मुझे तो आज तक कितनी ही दुआएं मिली होंगी। क्या कोई भी दुआ आज काम नहीं आएगी प्रभु? बस आज रहम कर दो। आगे से तो कभी सोचूंगा भी नहीं और इन पैसों को भी जितना होगा, गरीबों में बांट दूंगा। ‘जितना’ क्या सारा का सारा ही। हो सकता है, प्रभु ने इसीलिए यह सब किया हो।

 

पंद्रह मिनट से भी ज्यादा समय हो गया है और मैं अभी तक कुछ भी नहीं कर पाया हूं। सिर भन्नाए जा रहा है। वो तो गनीमत है कोई मेरे कमरे में आया नहीं है। आ जाए तो मेरी हालत देखकर क्या-क्या नहीं सोचेगा। हवाइयां उड़ रही हैं। टेंशन से मेरी जुबान यकबयक वैसे ही लड़खड़ाने लगती है।

मुझे इसी वक्त कुछ हो जाए तो हाल-चाल देखने के बहाने दस लोग कमरे में घुसेंगे। गड्डी देखकर किसी को शक हो ही नहीं सकता कि यह सिर्फ घूस खाने से आए हैं। मेरा चाहे हार्ट फेल हो रहा होगा, फिर भी दया या सहानुभूति मेरे प्रति कोई नहीं करेगा। उल्टे, सब मेरे दोगलेपन पर स्तब्ध और भौंचक्के होंगे।

‘‘बनते तो बहुत आदर्शवादी और ईमानदार थे…कैसे लेक्चर पिलाया करते थे कि आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं होती है…अरे उन लोगों के बारे में सोचो जो बेरोजगार हैं और पांच-पांच सौ रुपये की नौकरी के लिए दर-दर भटकते हैं …गलत पैसा कुछ न कुछ गड़बड़ी तो जरूर करता है और पता नहीं क्या-क्या अनाप-शनाप मेहता गिलगिलाकर कहेगा।

‘‘मैं विश्वास नहीं कर सकता कि दीक्षित साहब भी, एकदम गऊ जैसे दिखते थे। हमेशा शांत और विनम्र। कार्यशील और मृदु।’’

सिल्वराज विस्मित होकर कहेगा।

उस रोज एक सज्जन ने किसी समारोह में एक सवाल कर लिया था मुझसे, ‘‘दीक्षित साहब, थोड़ा बहुत व्यवहार तो आपके यहां भी चलता होगा…।’’ ‘व्यवहार’ और ‘आपके यहां’ गहरी, मगर मतलबी रहस्यमयता और बेबाकी लिए हुए थे।

‘आपके यहां’ से अभिप्राय था ‘आप’ यानी मैं और ‘व्यवहार’ से मतलब यानी वही सब जो इस समय मेरी छाती पर किसी सांप की तरह लेटा हुआ है।

सिल्वराज ने हस्तक्षेप करने का दुस्साहस कर डाला था।

‘‘मेहता साहब, यह सवाल आप एक ऐसे आदमी से कह रहे हैं जिसे ‘उस तरफ’ की दुनिया के बारे में कुछ मालूम ही नहीं है। हमारे दीक्षित साहब उस विलुप्त होती हुई प्रजाति के हैं, जिनके बारे में पूरा विभाग फख्र करता है।’’ मेहता को टका-सा जवाब देकर सिल्वराज ने मुझे देखा था–गर्वित और उपलब्धिपूर्ण दृष्टि से। मैं जमीन से कई इंच ऊपर उठ गया था। न मेहता के प्रश्न का उत्तर दिया, न शालीनतावश सिल्वराज के स्पष्टीकरण का समर्थन। हां, उस समय अंदर कुछ अवश्य हिल रहा था। उर्दू में शायद इखलाख इसी को कहते हैं।

 

कितना भोला है सिल्वराज भी। उसे अपनी समझ और परख, दोनों के बारे में काफी पुनर्विचार करना पड़ेगा।

मुझे लग रहा है छाती के नीचे वाले हिस्से में हल्का सा कंपन हो रहा है। कहीं हार्ट-अटैक जैसा तो कुछ नहीं… पहले कभी हुआ नहीं, पर हो तो सकता है। आजकल तो कहते हैं पेनलैस हार्ट-अटैक आम हो गए हैं। जब तक पता लग पाता है, तब तक आदमी का बहुत कुछ हो चुका होता है। मैं तो वैसे भी कभी-कभार सिगरेट के कश लगा लिया करता हूं।

 

ऐसा करता हूं किसी दर्द का बहाना बनाकर मणीलाल को कहकर, गड्डी को यहीं छोड़कर चला जाता हूं। चैंबर लॉक कर दूंगा। अगर कल तक कुछ नहीं हुआ तो नोटों को चूहे थोड़े ही कुतर देंगे। किसी अच्छे डॉक्टर से भी मिल लेता हूं। कह दूंगा अंदर दर्द उठ रहा है, जो थोड़ी देर बाद शांत हो जाता है और फिर उठने लगता है। यह दर्द, हो सकता है मेरा वहम हो, पर डॉक्टर कोई खुदा तो नहीं कि समझ जाए कि मैं उसे उल्लू बना रहा हूं। दो-चार दवाएं यूं ही लिख मारेगा। कल कोई दफ्तर में पूछेगा भी तो मैं डॉक्टर और उसकी दवाओं का हवाला देकर आराम से जस्टीफाई कर दूंगा। अरे, दफ्तर क्या कोई जान से भी ज्यादा जरूरी है या फिर पूरी दुनिया में मैं ही सबसे जघन्य अपराधी हूं क्या? लोग तो पता नहीं कितना और रोज ही खाते हैं और डकार तक नहीं लेते। अब तो मापदंड ऐसे बनते जा रहे हैं कि खाओ तो जमकर। पांच लाख, दस लाख। यह क्या कि पांच-दस हजार के लिए ही समझौता कर लिया। बड़ी राशि लेकर पकड़े भी जाओ तो कोई हिकारत से नहीं देखेगा। बस हाजमे के बारे में दो-चार बातें जरूर उठेंगी।

पर पकड़े जाओ तो दो हजार क्या और दो लाख क्या। सबका गंतव्य एक ही है।

अभी लंच होने में भी डेढ़ घंटा बाकी है। अपने संगी-साथियों से बतियाकर कुछ तो मानसिक राहत मिलेगी। पी.के. तो मेरे चेहरे को देखकर एकदम जिद कर बैठेगा कि मैं तुरंत घर चला जाऊं। नीलू को बैंक में इन्फार्म करेगा सो अलग।

 

पता नहीं, क्या सोचकर मैंने घंटी बजा डाली। मणीलाल हौले से घुसकर आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। मुझे कोई काम तो था नहीं। मैं तो बस इतना ही जानना चाह रहा था कि बाहर ही बैठा है या जो हलचल-हंगामा बाहर हो रहा होगा, उसमें लीन है। मैंने किसी मनोचिकित्सक की तरह उसे गौर से देखा, पर उसका चेहरा भावहीन था। जरूर ऊंघ रहा होगा बैंच पर बैठा-बैठा। क्या काम दूं इसे?

‘‘ऐसा करो जरा…’’ कहते-कहते मैं अटक गया।

‘‘जी…’’ उसने आतुर भाव से, विनम्रतापूर्वक गर्दन आगे लपकाई।

‘‘वकुल साहब के पास से आज का अखबार ले आओ।’’ मैंने निर्व्याज कहा।

 

 

मणीलाल दरवाजा भेड़कर निकला ही होगा कि नोटों का वह मनहूस पिटारा मेरी लरजती-पसीजी उंगलियों में सरक आया और किसी करिश्मे की तरह गीता के श्लोकों का स्मरण दिलाता हुआ मेरे ब्रीफकेस में समा गया।

 

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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