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वजूद का बोझ : तीन कहानियां

May 18, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

एक : संकट का संपर्क

 

बात चाहे खुद से की जा रही एक विचित्र शरारत से शुरू हुई थी लेकिन थोड़ा रुककर सोचने से उन्हें पता लगने लगा कि बात इतनी गई-गुजरी और महत्त्वहीन नहीं है जितनी ऊपर-ऊपर से लगती है।

हां, तो बात नव-वर्ष की डायरी के उस कॉलम को भरने की थी जिसमें लिखा था ‘व्यक्ति विशेष जिसे संकट के समय संपर्क करना हो।’

अगर दो-चार लोगों के नाम लिखने की बात होती तो शायद दिक्कत नहीं आती। वे आला अफसर थे। संगी-साथियों के अलावा कुछ दूसरे विभागीय मित्र उनके थे। कुछ अच्छे बिजनेस फ्रेंड्स भी। फिर अपने अड़ौस-पड़ौस में भी उठना-बैठना था। अनौपचारिक रूप से भी कम लोगों की आवाजाही नहीं थी उनके यहां।

लेकिन जब वे छंटनी करने लगे तो…

 

नरेश चतुर्वेदी उनका पड़ोसी ही नहीं, बेचमेट भी था, लेकिन दोनों की पत्नियों में चल रही अलिखित घोर अदावत और ईर्ष्या के कारण, वे ठोककर नहीं कह सकते थे कि किसी विकट परिस्थिति में वह दौड़ा चला आएगा। विभाग के एक भूतपूर्व बॉस की मृत्यु पर उसे साथ लेकर चलने का सुझाव जब उन्होंने दिया था तो उसने पूरी निर्ममता से अपनी अनुपलब्धता पेश कर दी थी। ‘‘वैसे भी जो जीते-जी निहायत टुच्ची बातों पर एडवर्स टिका गया, उसके यहां जाकर स्वांग क्या रचना।’’ इस दलील ने गोया नरेश का गिरेबां ही उघाड़ दिया था।

 

राजेंद्र पडगांवकर उनसे था तो एक-दो वर्ष कनिष्ठ, लेकिन पारिवारिक उठना-बैठना उससे अच्छा था। हां, चीजों को जांचने-परखने का उसका नजरिया जरूर बचकाना था। सूचना मिलने पर फोन पर ही पत्नी को कहेगा ‘‘क्या कह रही हैं भाभीजी, लेकिन गाड़ी देखकर क्यों नहीं चला रहा था, कल थोड़ी ‘लगा’ ली थी क्या… अब थोड़ी देर में मुझे तो अपने साढ़ू-साली को स्टेशन लेने जाना है, पहली बार आ रहे हैं, मैं उसके बाद फौरन पहुंचता हूं।’’

 

अलका प्रजापति दूसरे विभाग में थी। हम दोनों ही डेप्यूटेशन पर गृह मंत्रालय में साथ थे। बहुत निष्ठावान और विश्वसनीय महिला। मानसिक धरातल पर उनके सबसे करीब। लेकिन वे जानते थे कि अपने टिंकू-पिंकू के चलते वह कुछ करना भी चाहे, तब भी नहीं कर पाएगी। सुबह बच्चों का स्कूल, दिन भर दफ्तर, शाम को होमवर्क…  कामकाजी महिलाओं का घर की चकरघिन्नी पर जुटे रहना उन्हें इसी कारण बहुत दकियानूसी-सा लगता है।

किसी की मदद तो कोई तब करे, जब अपने जंजालों से जुदा होकर सोच पाए!

 

व्यावसायिक दोस्तों का तो आलम ही यह था कि लगभग हर वर्ष ही नए बनते थे; उनके पास पड़ी फाइलों के अनुरूप। असीम श्रीवास्तव, जिसे उन्होंने अपवाद समझा था, पिछली दीवाली पर, संबंधित काम न होने के अभाव में, कन्नी काट गया था। उनकी पूरी जमात बीसेक मिनट अस्पताल में अपनी मौजूदगी जताकर ‘कोई काम हो तो’ की औपचारिकता निभा सकती थी। इससे अधिक कुछ भी नहीं।

 

उनकी अपने कस्बे से सैकड़ों कोस दूर तैनाती थी, अतः सभी बंधु-बिरादर और रिश्तेदार पीछे छूट गए थे। दूरियां इतनी हो गई थीं कि पहुंचते-पहुंचते एक दिन और रात बिगड़ जाते थे।

वे जानते थे कि हर दो-एक महीने में किसी के साथ पिक्चर देखना, जन्मदिन मनाना, खाना खाना या पिकनिक पर जाना एक बात है और किसी निष्कपट और संकटकालीन मदद की सोचना निहायत दूसरी। वे किसी को दोष नहीं दे रहे थे, मगर हकीकत यही थी कि सामाजिकता के दबाव में रात गई, बात गई, ज्यादा हो रही थी।

 

डायरी का वह खुला हुआ अदना-सा कॉलम अब किसी हीनताग्रस्त असुरक्षा को पनाह देने लगा था। कोई भी एक नाम उस विचित्र कॉलम की शर्तों पर खरा न उतर पाने पर जैसे उनके पैरों की जमीन लगातार स्व-खलित हो रही थी। यह चोट और चुनौती उसके खालिस अहम से अधिक विश्वास पर थी।

वहां उन्होंने लिखा : किसी को नहीं।

 

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दो : चौरासी लाखवां जन्म

 

हादसे से पूर्व उनकी जिंदगी में सब कुछ तयशुदा ही था। सुबह उठकर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, थोड़ी वर्जिश, चाय के साथ अखबार, नहाना, नाश्ता और फिर दफ्तर। दिनभर दफ्तर की रवायत। शाम को चाय, बच्चों का होमवर्क, थोड़ा टीवी और पत्नी के साथ थोड़ी सी गुफ्तगू। रिमोट पर अपने कब्जे के कारण उनकी उंगलियां किसी आततायी की तरह टीवी से मनमानी करती थीं, मगर बच्चों के रात के डिस्कवरी चैनल के साथ छेड़छाड़ की हिम्मत फिर भी नहीं समेट पाती थीं। इसी प्रक्रिया में उन्होंने महसूस किया कि यह सौदा कोई घाटे का नहीं था। जानवरों की दुनिया की एक से एक अद्भुत और रोचक जानकारी उन्हें बच्चों के प्रति आश्वस्त करती तो वहीं दिनभर की थकान और निराशा को शांत कर देती। अलबत्ता इस बात से इत्तफाक उनकी समझ से परे ही बना रहा कि प्रकृति ने एक जीव को दूसरे का आहार या आश्रित क्यों कर बनाया। प्रकृति यदि मां है तो वह न्याय की किस कलम के तहत एक जीव को दूसरे की जान लेने पर आमादा कर सकती है। मेंढक को सांप, सांप को गीदड़ और गीदड़ को चीते द्वारा चबाया जाना तो समझा भी जाता पर बकरियों और खरगोशों का, निश्छल आचरण के बावजूद बधित होना उनके गले नहीं उतरता था। उधर कैमरा पूरी पेशेवर क्रूरता से उनके वध किए जाने से लेकर दबोच दिए जाने तक की प्रक्रिया को किसी खेल या सीरियल की तरह दिखाता जाता था। उनके गले के पिछवाड़े से हूक निकलती, प्रभु कभी बकरी नहीं बनाना, प्रभु कभी…इस सिलसिले में पता नहीं कौन-कौन से जीव-जीवन रोज जुड़ते रहते। चौरासी लाख जन्मों के चक्र की अनिवार्यता जब उनकी सोच को फुरफुराती तो अपने आदमी होने के सौभाग्य को वे दिल की अतल गहराइयों में डूबकर महसूस करते। बिजली, कंप्यूटर, रॉकेट और चिकित्सा की अधुनातन उपलब्धियों से लेकर आदमी की हर विषम चुनौती से मुकाबला करने और अंततः विजयी होने की फितरत उनके अंदर इंसान के तमाम योनियों में सर्वश्रेष्ठ होने का बोध जगाती चलती।

 

मगर हादसा भी ‘डिस्कवरी’ पर ही हुआ। पता नहीं किस सनक के तहत एक रोज उसमें इथयोपिया के सूखे से पीड़ित कंकाल स्त्री-पुरुष दिखे (कैमरे की उसी चौकन्नी बारीकी के बरक्स) तो दूसरे रोज बोस्निया के युद्ध से अंग-प्रत्यंग कटे बच्चे और बूढ़े। पैंतालीस डिग्री तापमान में डामर की सड़क पर निर्वस्त्र भीख मांगते बच्चों की गुहार और अपनी आया को दिन भर काम करने के बावजूद शराबी पति द्वारा आए दिन पीटे जाने का भी उन्हें भान हो आया। कुछ रोज पूर्व रेलयात्रा के दौरान एक सद्यजन्मा बच्चे को सूप में रखकर भीख मांगती औरत का अक्स आज फिर जायका खराब कर रहा था। हां, आज यकबयक सभी चीजें एक साथ सिर उठाने लगीं।

उन्हें मां प्रकृति की गलती क्षम्य लगने लगी और चौरासी लाखवें जन्म की जिजीविषा एकदम लाचार-निरुपचार।

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तीन : लालकिले की औकात

 

पिछली बार जब सपरिवार दिल्ली घूमने गया था तो छोटे बच्चों की बेहतर देखभाल के लिए मैंने अहमदाबाद में अपने घर पर काम करनेवाली अंशकालिक आया को भी साथ चलने को राजी कर लिया। उसकी बदौलत हम पति-पत्नी को अपने दिल्लीवासी यार दोस्तों और संबंधियों से मिलने-जुलने में काफी सहूलियत रही। अहमदाबाद वापसी के एक रोज पूर्व हमने तय किया कि जब वह हमारी खातिर दिल्ली आई ही है तो क्यों न उसे दिल्ली की खास चीजों से रूबरू करा दिया जाए। इसमें मुख्यतः शामिल थी थोड़ी बहुत खरीददारी और ऐतिहासिक महत्त्व की मानी जानेवाले इमारतों की सैर। कुतुबमीनार को तो उसे क्यों देखना था, क्योंकि वह तो स्वयं झूलती मीनारों के शहर में रहती है।

मैं उसे लालकिला दिखाने ले गया।

‘‘ये रहा लालकिला, जहां से हर साल प्रधानमंत्री भाषण देते हैं।’’

उस भव्य प्राचीन फैलाव के निकट पहुंचकर मैंने उसे बताया।

मेरी बात को उसने कोई खास तवज्जो नहीं दी। किले की दीवारों या फैलाव के प्रति कोई चकित भाव भी नहीं उभरा, तृप्त भाव तो एकदम ही नहीं। मुझे थोड़ी हैरत हुई। कहीं हल्की-सी कोफ्त भी।

चुप्पी तोड़ते हुए उसने पूछा, ‘‘भइया, यहां चोर बाजार भी है ना’

मैं समझ गया। वह हर रविवार लालकिले के पिछवाड़े लगनेवाले कबाड़ी बाजार की ही बात कर रही थी। साथ ही यह भी कि उसने बड़ी शाइस्तगी से शाहजहां के मशहूर लालकिले को, जहां से भाषण देने के लिए हर नेता उत्सुक रहता है, उसकी औकात दिखा दी थी।

 

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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