उनकी हर चीज़ में नफ़ासत थी।
बोल-चाल में संयत ठहराव। पहनावे में ज़हीनी चटख़ और हावभाव में गरिमापूर्ण सादगी। घर की इमारत किसी कलात्मक वास्तुशिल्पी ने बनायी थी। घुमावदार सीढ़ियाँ, पर्याप्त रोशनी, लुभावना रंग-रोगन, जगह की व्यवस्था में आमन्त्रित-सा करता खुलापन। मुझे तो पुरोहित साहब, यानी मेरे बॉस ने पहले ही बता दिया था कि मिसेज़ चाँद ने इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स किया हुआ है। आना पहले उन्हीं को था मगर आखिर वक़्त में उन्हें किसी ज़रूरी काम से जाना पड़ा तो उन्होंने मुझे ठेल दिया…कि जाओ और फलाँ बँगले के इंटीरियर में और क्या किया जा सकता है, इसका मुआयना कर आओ। चटख़ मोटे परदे, विशिष्ट किस्म की मेज़-कुर्सियाँ, मेज़ पर रखे हुए कुछ स्टैच्यूज…हर कमरे की एक अलग ही सज्जा। घर में घुसने के बाद थोड़ी देर बैठने का मन करे। चीज़ों को निहारने का मन करे। रही-सही कसर पूरी कर दी साज-सज्जा के अनुरूप रखी दो-तीन पेंटिंग्स ने जो पूरे मकान के सौन्दर्य पर चार-चाँद लगा रही थीं।
मुझे सुकून मिल रहा था…आज के दौर में कोई घर के अन्दर चीज़ों को इतनी तहज़ीब, चयन और सुविधा से कहाँ रख पाता है।
उन्होंने माना भी कि घर की सारी बुनावट में केवल उन्हीं का योगदान है। पति का व्यवसाय है, अतः फुर्सत नहीं है। घर के बनाने में मिट्टी-गारे से लेकर आर्कीटैक्ट मुकर्रर किये जाने या पेंटिंग्स के चयन में, सारा कुछ उन्हीं का है। पवन, यानी उनके पति का सहयोग है तो बस इतना ही कि पैसे को लेकर उन्होंने कभी उनका हाथ नहीं खींचा। जितना उन्होंने माँगा, दिया। कोई सवाल भी नहीं किया कि…इतना महँगा क्यों ख़रीद रही हो, थोड़े दिन बाद कर लेना…भाई साहब तो यह नहीं करा रहे हैं।
भाई साहब वाली बात अपनी जगह अहम थी। दोनों बँगले ईंट-दर-ईंट एक ही शिल्पी ने गढ़े थे मगर अन्दरूनी साज-सज्जा ने दोनों के बीच ऐसा कायाकल्प मचा रखा था कि उनका घर थोड़े सुकून से बैठने का निमन्त्रण देता जाता था तो भाई साहब वाला अपने मामूलीपन से ओछा लग रहा था।
‘‘आपने अपना गार्डन अच्छा मैंटेन कर रखा है।’’
यह सच भी था।
एक साथ कटी ताज़ा हरी घास, व्यवस्थित कटे-छँटे फूल-पौधे। मेरी याददाश्त अच्छी होती तो आपको बता सकता था कि बैंगनी रंग के फूलों से लदी उस घास का क्या नाम था जिसने एक पेड़ की शक्ल अख़्तियार कर रखी थी।
‘‘इनके दफ़्तर जाने के बाद कोई दो घंटे रोज़ मैं इनकी देख-रेख में लगाती हूँ। कभी माली के सहारे नहीं छोड़ा, हालाँकि आता वो रोज़ है’’
वे जैसे तत्पर थीं।
‘‘ये मार्लिन मुनरो है ना?’’ उस एकान्त में यह प्रश्न अश्लील था मगर मैं रोक नहीं पाया।
ड्राइंग-रूम के कोने की गोल मेज़ पर तीन फिटी आकृति को देख मैंने पूछा। कटे अलमस्त बाल, मुस्कराहट में धीमे-से खुला चेहरा, किसी उन्माद के आगोश में सनी आँखें, टेढ़े तने जिस्म के विरुद्ध बग़ावत करती स्कर्ट के ऊपर आधे उघड़े वक्षों के आनुपातिक तनाव को अनदेखा करना हर्गिज नामुमकिन था। पतली लम्बी और कमान-सी खिंची टाँगें…
‘‘जी?’’
संशय से उनकी गर्दन नाम सुनने को लपलपायी।
‘‘मार्लिन मुनरो’’
मेरा तीर चूँकि छूट चुका था इसलिए अब अपोलोजैटिक होने की वजह नहीं थी।
‘‘कौन?’’
मासूम चेहरे की मासूमियत बता रही थी कि उस अमरीकी करिश्मे की उन्हें दूर तक ख़बर नहीं थी। बात ही आयी-गयी करनी पड़ी। झक्क काले रंग में मैटल की प्रतिमा थी। पाँच-सात हजार से कम की क्या होगी।
‘‘आपका सौन्दर्यबोध लाजवाब है।’’
मैं चापलूसी नहीं सिर्फ़ सच बयानी कर रहा था। चीज़ें इस कदर ख़ूबसूरत और इफ़रात में थीं कि मुझे इसी शगूफ़े से रिक्तिपूर्ति करनी पड़ी।
‘‘धन्यवाद’ बिलाहिचक स्वीकारते हुए वे मुस्कराईं। मानो, यह सुनने की कब से अभ्यस्त हों।
‘‘ये सूजा की पेंटिंग आपने कहाँ से ली?’’
‘‘यहीं पर एक एग्जीबीशन लगी थी। मेरी सहेली के यहाँ भी है। उसके यहाँ देखकर मैंने पसन्द की थी।’’
‘‘आप जानती हैं ये किसकी है?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘आप सूजा को जानती हैं?’’
‘‘ये कौन है?’’
अब तक तय हो गया था कि न तो उन्हें कला के बारे में जानकारी है और न कलाकारों के बारे में। उन्हें जो अच्छा लगता है, करती हैं। पति का सहयोग अलबत्ता उन्हें रहता ही है।
यह बात भी सोलह आने सच थी कि उनके घर में पसरे सौन्दर्य के बावजूद पतिदेव की अभिरुचियों पर उसका कोई असर नहीं था। उसके बाल अजब तरह से बढ़े थे। बातचीत में एकदम किसी दूसरे कारोबारी की तरह दब्बू। घर की हर चीज़ से निरपेक्ष। टहोके उठाने के लिए एक नौकर था जिसे वह बात बेबात इस्तेमाल करता। पीने के लिए पानी माँगता मगर दो घूँट पीकर वापस कर देता। थोड़ी देर में फिर मँगाता।
अच्छा हुआ, जल्द ही, वह टहलुए को लेकर धन्धे पर चला गया।
उन्होंने ही बताया कि घर की चीज़ों में बच्चों की भी रुचि नहीं है जो चीज़ अच्छी-बुरी, वे ले आती हैं, ना-नुकर के बिना काम आती है।
‘‘कोई भी कला या सौन्दर्यबोध का हमारे जीवन में क्या रोल होता है?’’
यह सवाल किसी प्रहार की तरह उन पर गिरा।
वे बैठी थीं। आराम से। सुनकर सचेत हो गयीं।
‘‘मैं समझी नहीं?’’
‘‘जैसे कोई कला यदि हमारे अन्दर है या किसी कलात्मक चीज़ के प्रति हम आकर्षित होते हैं, तो इसके क्या मायने होते हैं?’’
अब भी ढाक के वही तीन पात थे। मगर उन्हें लगा, यहाँ कुछ उत्तर दिया जाना चाहिए। वरना उन्हें बेपढ़ा माना जा सकता था।
‘‘सौन्दर्य तो देखने-परखने की चीज़ होती है…फिर भी पता नहीं आप इससे क्या मतलब निकाल रहे हैं।’’ उन्होंने सकुचाते हुए कहा।
‘‘वैसे तो हर व्यक्ति का अपना ही सौन्दर्यबोध होता है…किसी को लाल रंग पसन्द है किसी को नीला या हरा, लेकिन जैसे यह वाला जो तकिये का कवर है और इस हल्के बैंगनी रंग में, सभी को लुभाएगा…सभी इसे न खरीदें…इसके पीछे दूसरे कारण हो सकते हैं…जैसे उपलब्ध न हो, थोड़ा महँगा हो या…’’ मैंने जितना खुलकर, बेतकल्लुफी से कह सकता था, कह डाला। उन्हें तर्क में दम नज़र आया।
‘‘तो?’’
बात के विस्तार से मुझे भी लगा, बात ही ग़ायब हो गयी है।
‘‘मतलब यही कि सौन्दर्य को परखने की जो दृष्टि हमारे तईं होती है…एक ऐसी दृष्टि जो सार्वभौमिकता लिये हुए हो…उसकी क्या अहमियत है?’’
‘‘उसकी क्या अहमियत होगी? उनके सपाट चेहरे पर अज्ञान था या प्रतिप्रश्न, मैं भेद नहीं कर पा रहा था।
‘‘मतलब यही कि क्या इसे व्यक्ति के परिष्कृत संस्कारों का ही रूपक मानें?’’
‘‘हाँ वो तो मानना चाहिए।’’
पहली बार उनकी स्थिति डाँवाडोल से परे थी।
‘‘तो हमारे व्यक्तित्व के परिमार्जन की ज़रूरत या अहमियत क्या होती है?’’
‘‘आप चाय पीएँगे?’’
शहरी आवभगत के चोले में उन्होंने थोड़ी राहत-सी ली। मैंने ‘हाँ’ कह दिया। मैंने उन्हें पटरी पर लाना चाहा तो वे लगभग बौखला गयीं।
‘‘पता नहीं आप क्या कर रहे हैं…? क्या पूछ रहे हैं? सबकी अपनी-अपनी पसन्द होती है। मेरी भी है। मुझे नहीं पता इसमें कोई कला है, परिमार्जन है…’’
उन्होंने अपने पर चढ़ता धूल-धक्कड़ लगभग झाड़ दिया। वे अब अपने को ज़्यादा महफ़ूज़-सा महसूस कर रही थीं।
‘‘कोई कलात्मक चीज़, पहली बात तो ये, इतनी अनायास भी नहीं होती…दूसरी बात ये कि एक खास तरह की, या कहें कलात्मक रूप से बेहतर, चीज़ों के प्रति यदि हम आकर्षित होते हैं तो, वे मनुष्य के रूप में क्या हमें बेहतर नहीं बनाती हैं? आप ये मानती हैं या नहीं?’’ मैंने बात का छूटा सिरा पकड़ते हुए पूछा।
‘‘इसमें बेहतरी कमतरी की बात ही नहीं है। पसन्द-नापसन्द में कोई चीज़ कम या ज़्यादा कलात्मक हो सकती है, बेहतर कमतर नहीं। मुझे फलाँ डिज़ाइन का सोफ़ा पसन्द है, आपको किसी दूसरे का…’’
लग रहा था वे अपनी फ़ेहरिस्त गिना सकती हैं लेकिन मैंने ही काटा।
‘‘तो फिर कला या कलात्मक सौन्दर्यबोध का मतलब क्या है?’’
‘‘मुझे नहीं पता…मैंने तो ये शब्द भी आपसे सुना।’’ उन्होंने अपना पीछा छुड़ाने की ऐसी कोशिश की कि मैं खुद हँस पड़ा।
‘‘आपमें जो संस्कार या समझ है–चीज़ों की, उनके व्यवस्थित, सुघड़पन की, खूबसूरती की…शायद आपके बच्चों या पति में नहीं है। वो ठीक है, उनका अपना अस्तित्व है और आपका अपना। लेकिन घर में आपने जो सजावट की है…क्या आपको लगता है इससे आपके पति के अन्दर, जीवन या उसके मूल्यों को लेकर जो समझ है, किसी रूप में प्रभावित होगी…मतलब, क्या सौन्दर्य का सामीप्य थोड़े बहुत बदलाव या परिमार्जन का सबब हो सकता है।’’ मैंने बहुत सँभल-सँभलकर कहा, किसी भी कलात्मक या सौन्दर्यबोधमूलक शब्द से लगभग परहेज़-सा करते हुए।
‘‘बदलाव के बारे में कैसे कहा जा सकता है…बच्चे घर से ज़्यादा तो स्कूल या दोस्तों के साथ रहते हैं। हसबैंड हैं, मगर उन्हें काम-काज से ही फुर्सत नहीं…तो मुझे नहीं लगता उनमें इससे कोई बदलाव आएगा…ना मैं ऐसी उम्मीद रखती हूँ।’’
मुझे लगने लगा, अब वे ज़्यादा खुलकर और स्पष्ट बोल रही हैं। संशय तो उनमें अब नदारद ही था।
‘‘लेकिन आपके बच्चे…बच्चे दिखाई नहीं दे रहे हैं?’’
ज़िक्र छिड़ने पर ऐसा सवाल न करना अमर्यादित हो सकता था। विशेषकर उस सुनसान से माहौल में जहाँ मुझे उनकी प्राथमिकताओं के मद्देनज़र अपने सुझाव देकर घर के डैकोर को अन्तिम रूप देकर पाँच-दस मिनट में निकल जाना था। मगर उन्हें देखते ही मुझे क्या सूझी कि अच्छा-खासा पत्रकार बन बैठा।
‘‘वो हॉस्टल में पढ़ते हैं। नैनीताल में। कोई 4-5 बरस हो गये। छुट्टियों में ही मिलना होता है। उनका भी अपना ख़र्च है। वैसे भी वे छोटे हैं, कभी आते हैं तो सब कुछ उल्टा करने में लगे रहते हैं।’’
‘‘क्या आपकी अपेक्षा रहती है कि बच्चे या पति आपकी चीज़ों को एप्रिशिएट करें?’’
‘‘नहीं, कतई नहीं…हरेक व्यक्ति अपनी तरह से दुनिया देखने को स्वतन्त्र है… होना भी चाहिए…’’
मुझे लगा बाज़ी उनकी तरफ़ झुकने लगी थी। इसीलिए मैं फिर अपने शस्त्र बटोरने लगा।
‘‘लेकिन कला का कोई बृहत्तर उद्देश्य भी होता है या नहीं?’’
‘‘कला से आप ये मुगालता क्यों पालते हैं कि वह ऐसा करे। करे तो अच्छा है मगर यह आग्रह के तौर पर नहीं होना चाहिए…वैसे भी छोटी-छोटी अपेक्षाएँ कुछ समय बाद बड़ी होने लगती हैं और फिर वे उस कला के प्राकृतिक स्वरूप के साथ ही खिलवाड़ करती हैं।’’
उनका स्वर गहराने लगा था। अब वे मुझे नहीं, सामने रखी उस अमूर्त-सी पेंटिंग (प्रिंट) जिसे वे बाज़ार से, बिना चित्रकार का नाम जाने ख़रीद लायी थीं, को सम्बोधित करती ज़्यादा लग रही थीं। मैं कशमकश में पड़ गया कि साहिबा को मार्लिन मुनरो की दुम की ख़बर नहीं है और कला के उद्देश्य पर किस स्पष्टता से बयान दे रही हैं।
लेकिन उन्होंने मुझे ज़्यादा मौक़ा नहीं दिया और सवाल दाग़ बैठीं।
‘‘अच्छा आप ये बताइए…कि प्रकृति में इतना कुछ है…हर तरह के जीव-जन्तु-जानवर, पेड़-पौधे-फूल-पहाड़…हम लोगों के हिसाब से सब कितने सुन्दर हैं…लेकिन आप तहक़ीक़ात करें तो पता लगेगा कि जैविक दुनिया में लगातार एक घिनौनी हिंसा कार्यरत है और ग़ैर जैविक में दमघोंटू विघटन…हमारे पैमानों पर फिर भी वे सुन्दरता की शर्तें पूरा करते हैं मगर यह सब एक व्याख्या लादने जैसा है। सुन्दरता, खासकर जिस रूप में वह सराही जाती है, वहाँ बनी हुई नहीं है, इतिहास की तरह ढूँढ़ी गयी है…कला मर्मज्ञों द्वारा…’’
मुझे लगा इस औरत के अन्दर अभी-अभी किसी आत्मा ने प्रवेश कर लिया है। सूजा के चित्र ख़रीदते वक़्त इसे पता नहीं होता कि इसका चित्रकार कौन है, मार्लिन मुनरो को तो हिन्दुस्तानी शहरों के गधे भी जानते हैं लेकिन साहिबा बेख़बर हैं। मगर सौन्दर्य की कैसी हैरतअंगेज़ संकल्पनाओं को कोख में सिरजे बैठी हैं? ‘जैविक दुनिया की घिनौनी हिंसा और ग़ैर जैविक संसार का दमघोंटू विघटन…’ क्या भयंकर तर्क सम्मिश्रण है।
‘‘अच्छा ये बताइए, आपके घर में ये पेंटिंग्स, ये गमले, ये स्टैच्यूज़ यानी वह सब सामान जो आपके कलात्मक रुख़ को अभिव्यक्त करता है, हटा लिया जाए तो आपको कैसा लगेगा…मतलब आप क्या मिस करेंगी…?’’
‘‘दूसरा ले आएँगे।’’ उन्होंने पूरी नादानी से कहा।
‘‘न होने से मेरा मतलब है…जब किसी भी तरह ये चीज़ें आपको मुहैया न हों?’’
मैंने बिना आक्रामक हुए मुस्कराकर कहा।
‘‘मैं समझ गयी।’’ मेरे द्वारा अपने को यूँ कमतर तौले जाने की मुद्रा का ज़ोरदार प्रतिकार करते हुए वे बोलीं, ‘‘दुनिया में विकल्पों की कमी है क्या…किसी भी चीज़ को, सौभाग्यवश, बनाने या ख़रीदनेवाला कोई एक तो होता नहीं है, दूसरे भी होते हैं। फिर हर चीज़ का बाज़ार है। आप यदि अफोर्ड कर सकते हैं तो जो मर्ज़ी ख़रीदें…’’
‘‘तो क्या सौन्दर्य के लिए पैसा ज़रूरी है?’’
जो चीज़ें हमारे आस-पास बिखरी थीं, महँगी ही थीं। अतः इस सवाल ने उन्हें कुछ चेताया।
‘‘नहीं, ऐसा तो नहीं है, ज़्यादा पैसे से घटिया चीज़ें भी ख़रीदी जा सकती हैं… महँगी चीज़ अच्छी भी हो, यह ज़रूरी नहीं है।’’
मुझे लगा मेरा तीर सही निशाने पर जा रहा है।
‘‘तो इस ‘अच्छेपने’ की आपकी परिभाषा या मानदंड क्या है। कलात्मक या सौन्दर्यबोध के सन्दर्भ में मैं जानना भी यही चाह रहा था…’’
अपनी बात का थोड़ा-सा विस्तार उन्हें अच्छा नहीं लगा क्योंकि बात वे समझ गयी थीं।
‘‘ये बताना या समझाना तो थोड़ा मुश्किल ही है। बहुत कुछ तो यह व्यक्तिपरक ही है…जिसे जो सुन्दर लगे…’’
‘‘वही बात है कि…यानी जिसे जो सुन्दर लगनेवाली बात है तो किसी कृति के सुन्दर या अच्छा होने से क्या अभिप्राय है?’’
बात जब इस मुकाम तक आ गयी तो मुझे भी झिझकने की दरकार नहीं लगी।
‘‘सुन्दरता को समझाना मुश्किल है।’’ उन्होंने लगभग समर्पण करते हुए कहा।
मुझे भी किसी और व्याख्या की गुंजाइश नहीं दिखी तो फिर से वही शुरुआती तमंचा उठा लिया।
‘‘आप अपनी पसन्दीदा सुन्दरता के बग़ैर कैसे रहेंगी?’’
‘‘सुन्दरता जीने के लिए ज़रूरी नहीं है। इसके बग़ैर भी आसानी से रहा जा सकता है। यह जीवन के अमूर्त कोनों या मैनहोलों को भरने के लिए ज़रूरी हो सकती है…अन्ततः तो यह किसी गर्वमिश्रित सार्थकता बोध के अहसास की ही मरीचिका है…निरर्थक होते जा रहे जीवन में कुछ अर्थ झोंकने की निष्कलुष कोशिश…अब मुझे ही देखिए, भाई साहब की तरह पवन भी मुझे समय दे पाते या बच्चे हॉस्टल की बजाय यहीं रह रहे होते तो मुझे कहाँ ज़रूरत होती इस सबकी…जो चीज़ें आप देख रहे हैं बेशक, लम्बे इन्तज़ार के बाद, मशक्कत से, चुन-चुनकर एकत्र की गयी हैं, लेकिन उनके बारे में सोच तो तभी बनी थी जब मैं खालीपन के अहसास से भरी थी…कुछ लोग अपने खालीपन को भरने के लिए कुत्ते पालते हैं, बाग़वानी करते हैं, कुछ कहानी-कविता लिखते हैं तो कुछ यायावरी करते हैं…मूलतः इन सबमें, उस लिहाज़ से कोई फ़र्क़ नहीं है…’’
मैं फिर हक्का-बक्का रह गया। बातें चाहे उलझी कर रही हो, लेकिन महिला है सुलझी हुई। गड्डमड्ड पगडंडियों पर भी एक चकरोट-सा बनाते हुए…और बातें भी ऐसी कि झड्डी ली जा सके। कहाँ कहानी-लेखन और कहाँ बाग़वानी या कुत्ते पालना? होश में तो है या धतूरा गुटक गयी है। अगर वह कोई समीक्षक वग़ैरा होती तो मान सकता था कि जान-बूझकर लफ़्फ़ाजी कर रही है । लेकिन मैं जानता था कि ऊबड़-खाबड़ बातें करते वक़्त भी वह अपना सच कह रही है। इतनी पढ़ी-लिखी वह नहीं थी कि झूठ को किसी अमूर्त तार्किक सच का आवरण दे सके।
‘‘नहीं, लेकिन सवाल ये था कि, इन सबके बिना आप कैसा महसूस करेंगी?’’ उनके बारे में बनती-बिगड़ती अपनी मुसलसल सोच को लगाम देकर मैंने कहा।
‘‘पहली बात तो यही कि मैंने आपके सवाल का जवाब दे दिया है। दूसरे ये कि पसन्दीदा चीज़ कोई एक नहीं होती है…एक नहीं तो दूसरी, दूसरी नहीं तो तीसरी… ऑफकोर्स, हैसियत, जानकारी और उपलब्धता हमारे विकल्पों को निर्धारित करते हैं। हाजमोला महँगी नहीं होती है, मगर किसी ग़रीब परिवार में उसकी एवज़ में कोई चूरन की पुड़िया ही दिखेगी। थोड़ी बारीकी से देखें तो यही फ़र्क़ है। चूरन वहाँ हाज़मे की नहीं, स्वाद की पूर्ति करता है…’’
‘‘तो ज़िन्दगी में स्वाद ज़रूरी है या हाज़मा?’’
दरअसल मेरे पास उनसे पूछने को कुछ नहीं था। उनकी कलात्मक चीज़ों के बजाय अब मैं उनकी समझ का कायल हुआ जा रहा था। मुझे अफ़सोस भी हो रहा था कि किसी व्यवसायी की पत्नी होने के दायित्व ने यकीनन किसी प्रतिभा का कैसा हश्र कर दिया है। थोड़े एक्सपोजर और अध्ययन की हवा मिली होती तो इसके कलागत जीवाणु पूरे भड़भड़ा सकते थे। मगर किस्मत को तो मंज़ूर था कि सुबह-शाम के खानों के खाली दरम्यान को वह पति के इन्तज़ार से भरे…और अपने बचे-खुचे कलाबोध से उसकी खानापूर्ति करके, मिलने-जुलने वालों से प्रशंसा हासिल करके अपने जीवन की सार्थकता महसूस करे।
‘‘आपके सवाल में मुझे ज़्यादती दिख रही है…क्योंकि दोनों ही अहम हैं या कम-से-कम दोनों को एक-दूसरे के विकल्प के रूप में तो नहीं ही लिया जा सकता है…’’
‘‘फिर भी…’’ मैं गोकि संवाद हर सूरत में बनाये रखना चाहता था।
‘‘उस सूरत में यदि चुनना पड़े तो मैं ‘स्वाद’ को ही चुनूँगी।’’
उनके मुँह से ‘स्वाद’ के उच्चारण मात्र ने किधर से क्या किया कि मेरा काया-कल्प हो गया। मार्लिन मुनरो की आमन्त्रित करती मुद्रा में मुझे वे ही साक्षात दिखने लगीं। मुझे तुरन्त याद आया उनके खालीपन का वह कोना जिसने उन्हें कलागत सौन्दर्य की तरफ़ अग्रसर किया था। मैं बड़ी शिद्दत से महसूस करने लगा कि अपने खडूस कारोबारी पति के साथ वे कितना अतृप्त और अधूरा महसूस करती होंगी…मुझे याद आया कि हम कितने समय से कितना जीवन्त संवाद शेयर कर रहे थे। मुझको कौंध आयी अपने एक मित्र की टिप्पणी कि विपरीत सेक्स के लोगों के बीच मुसलसल संवाद और सम्प्रेषण, दरअसल उनकी शारीरिकता के परस्पर खिंचाव की ही अभिव्यक्ति होता है।
मुझे याद आने लगी नादानी से भरी उनकी संवाद अदायगी और चौंकानेवाली ज़हीनियत की चादर जो वह गाहे-बगाहे ओढ़ लेती थीं। मुझे पहली बार यह अहसास भी हुआ कि उस कमरे में अकेले बतियाते हमें कितना वक़्त हो गया था और कितनी बार मैंने ही उनके पल्लू बदलने की हरकतों को सायास नज़रअन्दाज़ किया था।
‘‘मैं आपका हाथ देख सकता हूँ।’’ मैंने किसी तरह अपने को काबू में रखते हुए कहा। मेरे भीतर की कोई चीज़ असमंजश की कुहेलिका को चीरने का जोखिम उठा लेना चाहती थी।
‘‘आप इंटीरियर डैकोरेशन के अलावा ज्योतिष भी जानते हैं क्या?’’ वे सहजता से हँसते हुए बोलीं।
‘‘हाँ, थोड़ा बहुत यकीन है…वास्तुशास्त्र तो वैसे भी ज्योतिष के बहुत करीब है।’’
‘‘लेकिन मुझे क़तई यकीन नहीं है।’’ कहकर उन्होंने मुझे निचोड़ दिया।
इसके बाद वाकया बताने लायक नहीं है।
मुख़्तसर तौर पर कहूँ तो हुआ यूँ कि उनके ज्योतिष पर यकीन न होने की सूचना मिलते ही मैंने उनकी बाएँ हाथ की हथेली अपने पंजों में भर ली। दूसरी हथेली भी भर लेनी चाहिए थी इसका अहसास तब हुआ जब उसने तमाचे का रूप धरकर मेरे बायें गाल पर ग़ौरतलब दस्तक दे डाली। अपनी शाइस्तगी को कुएँ में फेंक वह किसी जाहिल गँवार औरत की तरह अँग्रेज़ी में पता नहीं क्या अटरम-सटरम बड़बड़ाने लगी।
मैंने बड़ी मुश्किल से, चौखट से मात्र एक गूमट खाकर उसके घर से निजात ली। मगर उसकी बदसलूकी की हद तो देखो? मेरे घर से पचास मीटर दूर जाने के बाद भी पुरोहित साहब जैसे नेक इन्सान के यहाँ से शाम तक ही मुझे नौकरी से हटवा देने के लिए वह अपने बाप की बेटी होने का सरेआम दावा पेश करने तक से बाज़ नहीं आ रही थी।
मेरा यकीन पुख़्ता हो गया है कि पैसेवालों ने कला, संस्कृति और सलीके का सहारा लेकर पूरे समाज का बड़ा अहित किया है।
या कम-से-कम भगवान इस औरत को इतना बड़प्पन तो दे कि वह इस बात पर विचार करे कि मेरी उम्र कच्ची है और मेरी नौकरी चली गयी तो भगवान उसे कभी माफ़ नहीं करेगा।
यह जानने के लिए कि सुघड़ शालीन-सी दिखनेवाली औरतें निहायत बेवकूफ़ और टुच्ची होती हैं, आप तीसरी क़सम का इन्तज़ार न करें।
मेरी उससे असहमति पर ग़ौर करें…कि मैंने उसका नाम तक आपको नहीं बताया।
उससे फ़र्क़ भी क्या पड़ता है।
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