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भार-तोल

May 07, 2017 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

‘गैरी क्या तुम अपने जीवन से खुश हो?’

बातों के सिलसिले में मैंने उससे पूछा।

‘क्या मैं तुम्हें नाखुश दिख रही हूँ?’

उसने तपाक से पलटकर जवाब दिया। थोड़ी फीकी-सी मुस्कान बिखेरी।

‘नाखुश न होना एक बात है, खुश होना दूसरी’

मैंने वकालती अंदाज़ में फर्क जड़ा।

वह ठिठकी, फिर हल्के से मुस्कुराई और अपनी निगाहों को मुझ पर गड़ाते हुए राज छिपाने की अदा से बोली, ‘तुम्हें क्या लगता है?’

‘अरे, मेरे लगने न लगने की बात नहीं है…आयम नॉट जजमेन्टल…सिर्फ पूछ रहा हूँ’।

उसकी मुद्रा को देख मैं रक्षात्मक हुआ।

‘क्यूं-क्यूं पूछ रहे हो?’

निजी इलाके में छेड़-छाड़ करने का यही नतीजा हो सकता था जिसे ‘स्नब’ कर दिया जाना कहते हैं। लेकिन ये बात दो पूर्व सहपाठियों के बीच की थी इसलिए बुरा मानने-लगने से परे थी।

‘क्योंकि तुम्हारी आंखें कुछ कहती हैं।’

मैंने कमजोर हालत में बात समेटी।

‘तो मेरा दोस्त आजकल औरतों की आंखें भी पढ़ने लगा है…नॉट बैड।’

उसने शरारतन मुस्कराते हुए तंज कसा।

बातों की बाजी यकीनन उसकी तरफ जा रही थी।

‘दूसरी औरतों का तो कह नहीं सकता लेकिन गैरी, तेरी तो फिलहाल पढ़ ही रहा हूँ।’ मैंने किसी तरह उबरते हुए कहा।

‘तो चल बता क्या पढ़ लिया तूने मेरी आंखों में? मैं भी तो जानू’

उसने सुपुर्द करने के अंदाज में बैठे-बैठे अपना चेहरा मुझे परोस दिया। थोड़ा टेढ़ा होकर ठोढ़ी को फुर्सतिया अंदाज़ में सीधे हाथ की हथेली पर टिका दिया और मुझे तकने लगी।

मैं घबरा गया।

क्या करूं?क्या कहूँ? की कशमकश में उतरने ही जा रहा था कि ‘मुझे इनमें उदासी दिखती है’ जैसा पता नहीं मेरे तालू के किस हिस्से से उसकी तरफ कूद गया।

अब बोल? सच या…

उसने एक अंतराल लिया।

जैसे कुछ कहने या न कहने की उलझन में हो।

‘आई फील वेरी लोनली… बहुत अकेलापन लगता है मुझे।’

कहते हुए वह मानो एक अदृश्य अकेलेपन में धसक भी गई।

लॉन्ज बार अपेक्षाकृत खाली थी। हमारी मेज कोने वाली थी इसलिए आते-जाते लोगों या ताबेदारी करते वेटरों का व्यवधान नहीं बराबर था वरना पता नहीं वह यह कह पाती या नहीं।

मैं थोड़ा चौका; इसलिए नहीं कि वह अकेलेपन से ग्रस्त थी बल्कि इसलिए कि कितनी जल्दी उसने यह मुझसे साझा कर लिया।

‘मगर क्यों गैरी? सब कुछ तो है तेरे पास… लविंग फैमिली, केयरिंग हसबैंड, घर…’

मुझे शालीनतावश संबल जुटाना पड़ा हालांकि जानता था कि ये सब फिजूल बातें हैं।

‘छोड़ न, जाने दे…’

उसने मामले को रफा-दफा करते हुए कदम खींचे।

‘अब तू टाल रही है…दैट्स नॉट लाइक गैरी।’

बजिद मैंने जैसे उसकी नब्ज पकड़ ली।

‘टाल नहीं रही हूँ।’

अपने से खिन्न सी मुद्रा में वह बुदबुदायी।

‘तो फिर?’

‘सोचती हूँ जीवन में कितना कुछ तो मिला है।’

वह खुद से बातें करने के अंदाज में अनमनी होने लगी।

मैंने सामान्य ढंग से ही बात शुरू की थी। मुझे क्या पता था कि बात इस कदर संगीन हो बैठेगी। मैं अपने भीतर घर कर आये गिले से लड़ने की कोशिश में जुटा ही था कि उसने सवाल किया,

‘मेरी आंखों में उदासी के सिवा तुझे और कुछ भी दिखता है? देख’

उसकी मुद्रा गंभीर थी हालांकि पेशकश नाटकीय थी, जो मेरे लिए राहत भरी थी।

मैं पहले की तरह उसके चेहरे पर एकाग्र होने लगा। अनचाहे ही सत्रह-अठारह  साल पहले का दौर याद आने लगा। उसके गालों पर चर्बी पहले भी थी मगर अब वह सरेआम ठोढ़ी के नीचे तक आ जमी थी। उसके जबड़े का विस्तार यूं बालकनी सी झांकता था कि एक सहज मुस्कान सी चेहरे पर बनी रहती थी। कंधों तक लटके बाल किसी नई स्टाइल से ज्यादा महानगरीय सहूलियत ज्यादा लगते थे वरना पहले कुल्हों के नीचे तक नागिन सी लटकती गुथी हुई चुटिया ठीक-ठाक मार्क्सवादी लगती थी। चेहरे की त्वचा पहले से ज्यादा निखरी हुई होने के बावजूद उम्र की चुगली किये जा रही थी जिसका कारण वह अतिरिक्त वजन हो सकता था जो उस पर रफ्ता-रफ्ता आ लदा था। बातचीत में ‘तू’ सम्बोधन उसकी पहल से था जिससे मुझे क्या ऐतराज हो सकता था? मुझे तभी ख्याल आया कि ‘तू’ जड़ित दोस्ताने के बावजूद क्या कॉलेज के दिनों में मुझे वह इस तरह घूरने की छूट दे सकती थी?

‘तेरी आंखों की पारदर्शिता बरकरार है गैरी… यू स्टिल हैव द सेम ट्रांसपेरेंट आइज…’

मैं सोच और एहसास के नितांत निरापद इलाके में पता नहीं क्यों अपनी ही बात का तर्जुमा करने लगा।

गुत्थियों, ग्रन्थियों और मुखौटों के मीना बाजार में हर शहरी इस विशेषण के लिए सबसे ज्यादा लालायित क्यों दिखता है?

किसी ज्योतिषी के से आकलन का अपने यकीन से मिलान हो जाने की खुशी उसकी आंखों में छलक आयी थी। फिर भी उसने संयत होकर ‘हूँ हूँ’ ही किया और उसी अवस्था में बड़ी गूढ़ तरीके से मुझे देखने लगी।

‘क्या हुआ? यह तब्दीली क्यों? कुछ अनाप-शनाप तो नहीं सोचने लगी?’

मैं खुद से ही कुछ सोचने निकल पड़ा था। इस रोल रिवर्सल ने मुझे थोड़ा असहज किया तो मैं वेटर द्वारा कुछ देर पहले रख दिये गये कोल्ड कॉफी के लम्बोतर ग्लास से घूंट भरने लगा।

‘सी इट अगेन।’

वह जैसे एक सही रास्ते के आखिरी छोर तक मुझे ले जाना चाहती थी।

मुझे सच में कुछ और नजर नहीं आ रहा था इसलिए वही पुराने पत्ते फेंके।

‘तुम्हारी आंखें इतनी पारदर्शी हैं कि तुम्हारे अकेलेपन की चुगली कर रही हैं। काजल लगाकर रखा करो।’

बात के आखिर में लगाई मेरी चुस्की पर उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।

वह उसी तरह एकटक मुझे देखती रही।

जैसे उनमें कुछ और पढ़ा जाना चाहिए था।

‘नथिंग मोर।’

मैंने हल्की लम्बी सांस ली और शस्त्र डाल दिये।

कुछ पल यूँ ही नाजायज से टंगे रहे।

‘सलिल, आयम इन लव… कैन यू सी दिस?’

उसने उसी अदा में घूरते हुए कहा।

और तब मुझे उसकी पुतलियों से निकलती एक खास तरह की गहरी कौंध छूकर चली गई…बयान बाहर… जिसकी मासूमियत विरल होती है मगर जिसे मन का रडार या छठी इंद्री पढ़ लेती है।

‘व्हाट?’

मैं कुछ बनावटी ठंग से चौंका तो उसने तस्दीक की ‘… यस, आयम इन लव’

मुझे लगा जैसे किसी ने बिछी हुई बिसात के सारे मोहरे समेटकर फेंक दिये हों।

चालीस की उम्र, दो स्कूल जाते बच्चे और कम से कम ऊपर से दिखता सुखी-समृद्ध परिवार के बीच इसकी गुंजाइश कहां से आ गयी!

हम लोग दोपहरिया बाद उसके दफ्तर के पास कोल्ड कॉफी पीने बैठे थे मगर इस भूचाल की तो मुझे खबर ही नहीं थी। मैं उससे क्या पूछता… क्यों  कर रही है, कैसे हुआ, कौन है वो? मगर इस सबके लिए आज फुर्सत नहीं थी। या कम से कम ये मसला ऐसा था कि उसे वक्त के इतने छोटे अंतराल में समेटना जल्दबाजी होती।

‘ओह दैट साउंड्स सो इंटरेस्टिंग…रियली’

मेरे कहे में गरमजोशी से ज्यादा एक मुक्ति छुपी थी। या हो सकता है कुछ और।

‘इट्स नॉट एट ऑल इंटरेस्टिंग सलिल, शुरू में जरूर इंटरेस्टिंग लगता है मगर… मगर इट्स कॉम्प्लीकेटेड’

कहकर उसने गहरी सांस ली, जैसे किसी गिले को ढाँपा जा रहा हो।

संयोग से अगला दिन शनिवार था जिसमें उसे दफ्तर से मोहलत थी।

‘क्या हम कल मिल सकते हैं? इफ यू डांट माइंड’।

मैंने बिल पे करते हुए उससे उत्सुकतावश कहा तो वह बोली ‘नॉट एट ऑल, मैं खुद किसी अपने के साथ ये शेयर करना चाह रही थी लेकिन तुम जानते हो ये मुम्बई है’।

और हम दोनों अगले दिन मिलने के लिए विदा हो गये।

*                          *

 

गैरी यानी गुरप्रीत कौर मेरे साथ कॉलेज में पढ़ती थी। पैंसठ-सत्तर लोगों की क्लास में नौ लड़कियों का होना पूरे वातावरण को अजीब तरह से असंतुलित किए रहता था। गैरी सबसे सुन्दर नहीं थी, गैरी सबसे ज्यादा आकर्षक भी नहीं थी लेकिन वह सबके साथ बहुत सहजता से जुड़ी हुई थी। कॉलेज के सहपाठियों में अक्सर जो ग्रुप बन जाते हैं, वह किसी की स्थाई सदस्य नहीं थी। उन दिनों दिल्ली में विश्वविद्यालय जाने के लिए डी.टी.सी. की जो यू-स्पेशल सेवा थी, वह अमूमन उसी से आती-जाती थी। और यह संयोग ही था कि हमारी क्लास का खासा तेज-तर्रार और मेधावी छात्र राकेश बंसल भी उसी से आता-जाता था। शायद इसी कारण गैरी और राकेश के बीच निकटता हो गयी। ग्रेजुएशन के बाद राकेश जहां एम.बी.ए करने अहमदाबाद चला गया वहीं मैंने और गैरी ने लॉ फैकल्टी ज्वाइन कर ली जिससे हमारा संग-साथ और गहरा हो गया।  गैरी ने जहां कानून की पढ़ाई में तीन वर्ष लगाकर विश्वविद्यालय में अच्छी पॉजीशन ली, वहीं मैं पहले साल के बाद मुम्बई के एक नामालूम संस्थान से एम.बी.ए. करने आ गया। और कई तरह की नौकरियों में संघर्ष के बाद इनवेस्टमेंट बैंकिंग में अपना करियर लगा बैठा। कोई मुझसे न पूछे कि इनवेस्टमेंट बैंकिंग क्या है! बस लब्बोलुआब ये है कि पिछले पाँच-सात सालों से इसी के कारण  परेल की एक हाई-राइज बिल्डिंग में चार बैडरूम के एक टैरेस फ्लैट में रहता हूँ। कहने की जरूरत नहीं कि कोई भी इनवेस्टमेंट बैंकर अपना पैसा किसी एक संपत्ति में नहीं रखता है और न उसकी सलाह देता है। मुम्बई मैं दिल्ली से उखड़कर आया था क्योंकि मेरे घर वालों को कानून की पढ़ाई में एक वाहियात गुंडई के सिवा कुछ नजर नहीं आ रहा था। शुरू में मैं दिल्ली के अपने दो-चार दोस्तों के सम्पर्क में रहा मगर दिल्ली और मुम्बई में एक ऐसी महानगरीय दूरी थी, या पता नहीं क्या ,कि कई वर्षों तक मेरा किसी भी पुराने मित्र से कोई सम्पर्क नहीं रहा। मुम्बई में ही एक इनवेस्टमेंट बैंकर से ही शादी हो गयी। पुराने मित्रों में गैरी या राकेश की कभी याद न आयी हो ऐसा नहीं था मगर उनकी कमी महसूस की जा रही हो, ऐसा भी नहीं था। मेरा उसकी तरफ ध्यान नहीं जाता, अगर गुरप्रीत नाम की एक लड़की का मुझे फेसबुकिया दोस्त बनाने का निमंत्रण नहीं मिला होता। मैंने उसे खट से स्वीकार लिया, मगर यह गुरप्रीत वो गैरी नहीं थी। मैंने खट से उसे अनफ्रेंड किया और अपनी वाली गैरी की फेसबुक पर तलाश करने लगा। एक-दो रोज कुछ जाहिरन आड़ी-तेढ़ी सर्च मारने के बाद परसों मुझे अपने वाली गैरी मिल गई। और लो, कल हम मित्र भी बन गये। मित्र बनने के बाद मैंने पहला काम ये किया कि उसका मोबाइल नम्बर लिया और उसे अपना दिया। और फौरन से पेश्तर बात भी कर ली।

क्या जिन्दगी बैठे-बिठाये ऐसे बेमतलब धचके दे सकती है? यानी गैरी पिछले दस सालों से मुम्बई में रहती है और मुझे या किसी और दोस्त को इसकी खबर तक नहीं?

बस, हमने इसी कारण आज मिलना तय किया था।

 

मैं शाम को घर लौट आया और देर तक गैरी के बारे में सोचता रहा। भौतिक-शास्त्र की एक विद्यार्थी इंस्योरेंस की एक कंपनी में काम करके अपना जीवन सफल कर रही है या जाया? यह मुद्दा ही नहीं था क्योंकि मैं खुद कौन सा ऐसा-वैसा कुछ कर रहा था या कर पाया था। इनवेस्टमेंट बैंकिंग एक तरह की दलाली ही तो है! हां, उसकी ‘लव’ वाली बात को लेकर — और खास तौर से जितनी गुमनाम शिद्दत से वह उसकी पुतलियों की मार्फत मुझ तक पहुंची थी — वह देर तक जेहन में टँकी रही। दो कम्पनियों के मर्जर (विलय) का मामला पिछले पन्द्रह दिनों से मेरी जान को लगा था। हम उन दोनों की परिसम्पत्तियों के मूल्यांकन को लेकर कोई ठोस नतीजों पर नहीं पहुंच पा रहे थे(खासकर ईंटेंजीबल्स को लेकर) और उधर मैनेजमेंट ने तारीख मुकर्रर कर रखी थी, जिसके पहले हमें कुछ कानूनी औपचारिकता पूरी कर डालनी थी। वह सब इतने गहन जुड़ाव और तनाव भरा मामला था कि मैं जीवन में कुछ और सोच नहीं सकता था। लेकिन गैरी के झूठे सच ने पता नहीं कैसे मुझे रोमांचित कर दिया। रोमांचित इसलिए की कॉलेज के दिनों में जब कसमें खा-खाकर सपनों में कुर्बान हो जाने को उम्र जायज करार ठहरा देती है, तब भी गैरी का कोई ‘प्रकरण’ मेरे नोटिस में नहीं आया था। इसलिए मुझे उस शाम का इंतजार था जब हम फिर से मिलने वाले थे।

मैंने दिन भर अपने दफ्तर में जमकर काम किया जो अभी-भी अधूरा था लेकिन पाँच बजते ही मैंने एक निजी झूठ के सहारे अपने को वहां से रिहा कर लिया।

*                               *

 

दक्षिणी मुम्बई से जो लोग वाकिफ हैं वे जानते होंगे कि मुम्बई की सारी खुमारी रात के आठ-नौ बजे के बाद ही परवान चढ़ती है। शाम के पाँच से सात के बीच का वक्त इस मामले में बड़ा सुकूनदेय होता है। शायद इसीलिए ज्यादातर जगह इसे ‘हैप्पी ऑवर्स’ कहा जाता है। तयशुदा होटल इंटर कॉनटीनेंटल की लॉबी में मैं ही पहले पहुंचा और गैरी के साथ होने जा रही इस ‘रहस्य-अपराध-कथा’ के बारे में सोचने लगा। थोड़ी देर में वहां गैरी भी पहुंच गयी। मुख्य दरवाजे से  जब वह उस मेज की दूरी तय कर रही थी तब मेरी निगाह उसे कई-कई स्तरों पर पढ़े जा रही थी। मगर उस सबके बीच मैंने गौर किया कि मोहतरमा ने वाकई आवश्यकता से कहीं ज्यादा पुट-ऑन कर लिया है जो नाटे कद पर और जल्दी दिखता है। मैंने दूर से हाथ हिलाकर जब उसे इशारा किया तो उसके चेहरे का रंग खिल उठा। हमने अपने ऑर्डर देने में देर नहीं की: दो लोंग आयलैंड आइस टी और उसके साथ मसाला पीनट्स तथा ट्यूना सलाद। मैं यहां आपको गैरी की कहानी बताने चला हूँ तो उन तमाम बातों का जिक्र नहीं करूंगा जो आत्मीयता और दोस्ताने के खण्डहरों को पुख्ता करती हैं। एक अरसे बाद मिले दो दोस्त/सहपाठियों के बीच जिस तरह की गर्माहट और खुशी सहज रूप से पैदा होती है, वह हमारे बीच में भी थी। उसमें अगर कुछ नया था तो उसे महसूस करने का हमारा अपना-अपना अहसास। पुराने सहपाठियों के सम्पर्क में न वह थी न मैं, इसलिए ‘वो क्या कर रहा है? और वो कहां चला गया?’ जैसी बातें हमारे बीच नदारद सी ही थीं। राकेश बंसल का जिक्र आने पर उसने लगभग बुरा मानते हुए, भद्दा सा मुंह बनाया। ‘ही वाज ए ट्रयू डेविल ऑफ ए मैन। ए क्रीप, ए चीप एण्ड व्हाट हैव यू’। मुझे अंदाजा नहीं था कि राकेश बंसल को लेकर वह यकायक इतनी नुनखुरी हो जायेगी, इसलिए लोंग आयलैंड के अगले दौर से पहले मैंने वो बात छेड़ दी जो मुझे कल शाम से अजीब तरह से ललचाए और उलझाए हुई थी।

 

 

‘सो माई डीयर फ्रेंड इज इन लव! राइट? क्या बात है गैरी! फ़ैनटास्टिक। कौन है वो खुशनसीब? कैसे हुआ? सरदार को पता है?…’ मैंने जैसे अहमकाने ढंग से सवालों की झड़ी लगा दी। मुझे तभी अहसास हुआ कि मुझे थोड़ा मस्लहत से पेश आना चाहिए। खैर।

‘कूल ड्यूड, कोई ऐसा काम नहीं कर लिया जो अभी तक किसी ने नहीं किया हो… एण्ड यू सीम टू बी लुकिंग ओनली वन साइड ऑफ द पिक्चर। इट्स नॉट दैट सिंपल…’ उसने जैसे चिंगारी पर राख फेंकी।

‘चल मान लेता हूँ, लेकिन कब, क्या, कैसे हुआ ये तो बताओ।’

‘तुम्हें वही बताने आयी हूँ आज क्योंकि…’ वह जैसे कुछ बताते-बताते रह गई।

‘अब जो भी हो, स्टॉप बीटिंग अबाउट द बुश लेडी’

 

आगे की कहानी लगभग उसी की जुबानी है। मैंने अपनी तरफ से थोड़ा-बहुत ही कुछ जोड़ा है। और वह भी बयान के तरीके में न कि कथा-वस्तु में।

 

‘सलिल, मैंने तुम्हें बताया था ना कि लॉ फैकल्टी से निकलने के बाद मैंने हर तरह की अखिल भारतीय सेवाओं में आजमाइश की थी लेकिन मेरा कहीं चयन नहीं हुआ। और तो और किसी बैंक तक में मेरा सेलेक्शन नहीं हुआ। मेरी उम्र हो रही थी इसलिए मेरे घर में मेरा बड़ी बेटी होना मेरी मां को खास तौर से अखर रहा था। कॉलेज के दिनों में एक-दो मर्तबा राकेश मेरे घर आया था और उससे दोस्ती की भनक मेरी मां को लग गयी थी। लेकिन उसके अहमदाबाद चले जाने के बाद उसने जो किया अब मैं उसका जिक्र नहीं करूंगी। तुम ये समझ लो कि वो अव्वल दर्जे का खुदगर्ज और अपने काम के लिए दूसरों का इस्तेमाल करने वाला कमीना था। (ओ गॉड, ये तो मुझे पता ही नहीं था!) मांएं अपनी बेटियों की उदासियों को खूब पढ़ लेती हैं… आखिर वह मेरा पहला क्रश था। शायद गलती मेरी ही थी जो मैं इतने खुलेपन से उसके साथ घूमने लगी थी और उसकी मेधा और अपने भविष्य को लेकर मां से बतिया लेती थी। पता नहीं अब वो कहां होगा? लेकिन मेरी मां ने उसे जितना कोसा था और मुझे उसने जितना यूज किया था उसके सामने कोई भी नरक कम पड़ेगा। मेरा छुटपुट नौकरी करने का कोई मन नहीं था इसलिए एक जान-पहचान के व्यक्ति के यहां वकील की तरह ज्वाइन कर लिया। आज चाहे जैसी हो गई हूँ लेकिन तुम जानते हो उस समय मैं ठीक-ठाक तो लगा ही करती थी। लेकिन महीने डेढ़ महीने में ही मुझे अपने वहां लिये जाने का पता लग गया: वे वकील साहब तीस-हजारी और हाई कोर्ट के कुछ जजों के खास थे, क्योंकि उनकी सभी तरह की मांगों की आपूर्ति करते थे। मैं कोई दूध की धुली नहीं थी लेकिन खुद को इस तरह इस्तेमाल किये जाने के लिए हरगिज तैयार नहीं थी। वकील साहब, मुझे अभी भी नाम याद है उसका, चरनजीत सिंह कालरा, ने घर तक आकर मुझे मनाने की कोशिश की, देर तक गलतफहमी होने का सहारा लिया लेकिन कानून की दुनिया की इस खिड़की को देख मेरा फिर कभी काला लिबास पहनने का मन नहीं हुआ। मैंने अपने इलाके के एक-दो प्राइवेट स्कूलों में साइंस पढ़ाने की अर्जी डाली, कामयाब भी हुई मगर इसी दौरान मम्मी-डैडी ने मिलकर सरदार सुखजीत सिंह को मेरे लिए ढूंढ लिया था जो मुझसे छ्ह-सात साल जैसा बड़ा था। सुखजीत मुम्बई की एक एक्सपोर्ट फर्म का दिल्ली का काम देखता था और कह सकते हैं कि वेल सेटल्ड था। सुखजीत भला आदमी था, बल्कि है, लेकिन वह अपनी विधवा मां का कुछ नहीं कर सकता था जो घर पर अजीब तरह से राज करती थी। अपने मिलने-जुलने वालों या जान-पहचान वाले लोगों में मैंने कहीं नहीं देखा था कि एक ठीक-ठाक दिखने वाला बिजनेसमैन अपनी विधवा मां के सामने मुझे जलील होते देख कुछ नहीं कर सकेगा। आनन-फानन में मेरे दो बच्चे भी हो गये। तुमको बताया था न उनका नाम, परम(परमू) और परनीत। लेकिन उस घर में मेरी धेले भर की इज्जत नहीं थी। अपनी मां की करतूतों का जिक्र करने भर से सुखजीत अपना सारा विवेक भूलकर मेरे प्रति और ज्यादा कठोर हो जाता और तब मैंने पहली बार महसूस किया कि वास्तव में जिसे हम प्यार कहते हैं उसमें यदि सम्मान का बड़ा टुकड़ा शामिल न हो तो वह बहुत आधा-अधूरा या झूठा ही होता है। शायद वो लोग फरिश्ते होते होंगे जो इंसानी कुर्बानियों के रंग में प्यार की शिनाख्त कर सकते हैं। वो आठ बरस, आह, जानते हो आठ बरस कितने होते हैं? मैंने कैसे काटे, ये मैं ही जानती हूँ। वो तो मुम्बई आने के बाद जब उन्हें डिमैन्सिया(स्मृतिलोप) हो गया और आखिर के छः महीने ऐसे काटे जैसे मेरी तमाम बद्दुआएं लग गयी हों (उनकी हालत देखकर यूं मैंने उन बद्दुआओं के लिए भी वाहेगुरू से माफी मांग ली थी) तब जाकर कहीं…। हां, मैंने बताया न कि मुम्बई आना सुखजीत के लिए बहुत फायदेमन्द रहा क्योंकि जिस एक्सपोर्ट फर्म का वह दिल्ली का कामकाज देखता था अब उसमें एक भागीदार बन गया। यह एक हीरे-जेवरात निर्यात करने वाली फर्म है जो मन्दी की मार के बावजूद ठीक-ठाक चल रही है। तुम्हें पता ही होगा, आखिर इनवेस्टमेंट बैंकर हो, कि पिछले दस-पंद्रह सालों में बहुत सारी विदेशी कम्पनियों ने इंडिया के इंस्योरेंस मार्केट में प्रवेश किया है। सुखजीत की मम्मी की बीमारी के दिनों में ही हमने दोनों बच्चों को पंचगनी के एक बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया था। लेकिन जब वे दुनिया से चली गयीं तो मुझे घर बैठना मुश्किल हो गया और इस तरह मैंने खुलते-बढ़ते हुए इंस्योरेंस सेक्टर को ज्वाइन किया। बीमा कम्पनियों का काम वैसे देखने चलो तो बहुत संतोष या खुशी देने वाला नहीं है लेकिन जिस तरह के टाइट बजट और गला काटू प्रतियोगिता के बीच इन्हें काम करना पड़ता है वह इसे उस व्यक्ति के लिए तो दिलचस्प बना ही देता है जो कुछ करना-देखना चाहती हो। तुम सोच रहे होगे कि क्या बताने चली थी और क्या-क्या बताने लग गयी? लेकिन मेरे भाई, तुम्हें ये सब इसलिए बता रही हूँ क्योंकि देखने पर आओगे तो सब चीजें जुड़ी हुई पाओगे।

 

यह एक कार के एक्सीडेंट के क्लेम का मामला था जब पहली बार मैंने अखिल बोर्डे (जिसे मैं एबी कहती हूँ) को देखा था। उसके क्लेम को मेरे कनिष्ठों ने मिलकर आधा कर दिया था जिससे परेशान होकर वह मेरे पास आया था। दफ्तरी काम-काज के बीच इस शहर में आम तौर पर इतनी फुरसत नहीं होती कि सामने वाले को थोड़ा गौर से देख सकें। किसी महिला द्वारा पुरूष को देखना तो और भी मुश्किल होता है। लेकिन मैं कह रही हूँ कि उसे देख मेरे भीतर पता नहीं क्यूँ एक झनझनाहट पैदा हो गयी और मैंने तय कर लिया कि इसकी यथासंभव मदद करूंगी। मैंने अभी तक सिर्फ किस्से कहानी में पढ़ा था कि पहली नजर में ही कोई बहुत अच्छा लगने लगता है। मुझे तो कोई आज तक नहीं लगा था लेकिन ये करिश्मा मेरे साथ होना था। पता नहीं उस क्लेम के सिलसिले में कितनी मदद कर सकी लेकिन ये हुआ कि हम दोस्त बन गये। उस मुलाकात के एक हफ्ते बाद ही उसने मुझे रात को दस बजे एक फोन किया, सिर्फ ये बताने के लिए कि उसे मेरी याद आ रही थी। अरे नहीं, छूटते ही उसने पूछा था कि क्या यह बात करने का सही समय है। सुखजीत घर पर ही था। मैं उसे क्या कहती? बस ओके ओके कहती रही। मैं सचमुच डर गयी थी। अगले दिन दोपहर के समय वह मुझसे मिलने आया और देर रात को यूं फोन किये जाने के लिए माफी भी मांगने लगा। मुझे इस तरह की चीजें पसंद नहीं: यदि आप जानते-बूझते कोई काम कर रहे हैं तो फिर ये माफी का नाटक क्यों? उसने बहुत पिघलकर मगर संभलकर कहा कि फोन जान-बूझकर नहीं किया गया था। मतलब?

तुम जानते हो कि मैं शुरू से ही अपने दोस्तों के साथ एक खुलेपन से मिलती-जुलती रही हूँ इसलिए जब उसने लंच पर ले जाने की बात चलाई तो मुझे ऐतराज की कोई वजह नहीं लगी। कुछ दिनों में ही हम लोग किसी न किसी बहाने से आये दिन मिलने लगे। इस क्रम को चलते दस-पन्द्रह दिन भी नहीं हुए होंगे कि उसने फरमान जारी किया कि अगले शुक्रवार को मैं छुट्टी ले लूं क्योंकि मानसून की शुरुआत हो चुकी है और मुम्बई के आसपास एक से एक खूबसूरत ऐसे न जाने कितने ठिकाने हैं जिन्हें देखा जाना चाहिए। मुझे झिझक थी, इसलिए मैंने मना किया लेकिन वह इतने गरिमापूर्ण ढंग से मनुहार कर रहा था कि मैं मान गयी। पता नहीं क्यों मुझे खुद पर यकीन रहता है कि मेरी मर्जी के बगैर कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इतने दिन की नौकरी में मैंने आज तक इस तरह दफ्तर से छुट्टी नहीं ली थी, यानी सिर्फ मौसम को महसूस करने के लिए। उस दिन मैं बकायदा घर से किसी आम दिन की तरह तैयार होकर दफ्तर के लिए निकली मगर फोर्ट स्थित अपने दफ्तर के बजाय टाइम्स ऑफ इंडिया की बिल्डिंग के पास चली गयी जहां हम दोनों को मिलना था।

सुबह के दस बज चुके थे मगर इन जनाब का कोई ठिकाना नहीं। सवा दस बजे मैं अपने फैसले के बारे में दोबारा से सोचने लगी। क्या करने जा रही हूँ? लेकिन मैंने सोचा जहां इतनी देर रुकी हूँ पांच मिनट और सही। तुमने किसी महानगर में इस तरह किसी लड़की के इंतजार की पीड़ा नहीं महसूस की होगी। हर चलते-फिरते की निगाहें आपको खास नजरिए से टटोलती सी लगती हैं। खुद दी गयी पांच मिनट की पाबंदी को मैंने दो बार और एक्सटेंड भी इसलिए कर दिया कि मैं आज इस फसाद को खतम कर देने की कसम ले चुकी थी। वैसे भी दफ्तर बोल कर आई थी कि छुट्टी पर हूँ और घर से दफ्तर के लिए निकली थी। साढ़े दस बजे जाकर जब जनाब की गाड़ी मेरे सामने आकर रुकी और उसने स्टियरिंग पर बैठे ही आगे का दरवाजा मेरे लिए खोला तो मैंने छूटते ही उससे तुनककर पूछा, ‘क्या टाइम हुआ है?’ उसने गाड़ी को बीस मीटर आगे सरकाया और रोक दिया और मेरे सीधे हाथ के पंजे को अपने हथेलियों के बीच कसकर इतने भीतर से सॉरी-सॉरी बोला कि मेरे भीतर जमा सारा गुस्सा काफूर हो गया। उस समय पहली बार मैंने जीवन में अपनी हथेली में इस तरह किसी पुरूष के हाथ की मजबूती को महसूस किया था जिसकी छुअन मेरे पूरे शरीर ने महसूस कर डाली थी। मैंने ‘इट्स ओके’ कहकर उसको मुक्त किया तो उसके उन्हीं हाथों  ने मेरे चेहरे को मनुहार से दबोचकर ‘दैट्स लाइक ए वंडरफुल वूमैन’ की चहक से सराबोर कर डाला। बड़ी देर तक उमस भरे माहौल की सारी उकताहत को जैसे कोई मूसलाधार बारिश अपने साथ बहाकर ले गयी।

 

मुम्बई से बाहर निकलकर उसने मुझे एक बड़े झरने के पास खड़ा कर दिया और गाड़ी पार्क करके खुद भी वहीं आ गया। वह एक नितान्त सुनसान इलाका था। मानसून बीसेक रोज पुराना हो चुका था इसलिए पूरे जंगल की धरती अजीब  मादक गंध उड़ेल रही थी। झरने की धारा की ठंडक और उसकी सिहरन मुझे जैसे अपनी सारी जिद्दी आदतों से मुक्त किये डाल रही थी। मुझे भविष्य की कुछ पड़ी नहीं थी। और सबसे बड़ी बात ये कि मैंने जीवन को इस जादुई अल्हड़ता के साथ देखा तो खैर था ही नहीं, ऐसी कोई कोशिश भी नहीं की थी। कोई बीस-पच्चीस मिनट बाद जब मैं उस प्राकृतिक आनंद से चूर हुई तब मुझे खयाल आया कि मैंने तो बदलने के लिए कोई दूसरी ड्रेस ली ही नहीं है! मैंने एबी से कहा तो वह खारिज करते हुए बोला ‘तो क्या हुआ, ये तो और भी अच्छा हुआ’। मुझे अच्छा नहीं लगा। अभी रिमझिम हो रही थी मगर और भीगा नहीं जा सकता था। उसने वहीं एक बाहर निकले हुए पथरीले कूबड़ की ओट के नीचे अपनी गद्दी बना ली और सिगरेट सुलगा ली। वहां बैठकर मैंने पहली बार किसी दूसरे पुरूष की गंध महसूस की। हम स्त्रियों के साथ, या का से कम मेरे साथ, पता नहीं क्या है कि हर चीज किसी दूसरे के मुकाबले ही महसूस करती हैं। मेरे भीतर तुलनाओं की एक रील चल निकली थी। एबी ने अपने प्लास्टिक के बैग से बकार्डी की दो बोतलें निकालीं और एक खोलकर मेरी तरफ बढ़ा दी। ‘इसे कैसे पता कि मैं पी लेती हूँ या पी सकती हूँ?’ एक बार मेरे भीतर ये खयाल आया जरूर लेकिन फिर मैंने उसे दबोच डाला… ये सोचकर कि आज एक अलग दिन है और ये दिन जांच-परख करने का नहीं है। वहीं बैठकर हमने अपने जीवन की निजी बातें सांझा कीं। उसने मुझे बताया कि उसकी पत्नी एक इंटीरियर डिजाइनर है, उसकी एक बेटी है लेकिन वह अपनी बेटी के साथ अपने मां-बाप के साथ रहता है, न कि अपनी पत्नी के। मुझे उसका मामला बड़ा जटिल और संदिग्ध सा लगा। ‘पत्नी क्यों अलग रहती है’? मैंने जब पूछा तो उसने बस इतना ही कहा, ‘बताउंगा फिर कभी, बस ये समझ लो कि हम एक दूसरे के लिए नहीं बने हैं’। मुझे इस तरह की बातें बहुत आहत करती हैं। शादी के दस-पन्द्रह सालों बाद जनाब को लग रहा है कि एक-दूसरे के लिए नहीं बने हैं? मेरे भीतर जैसे एक कैक्टस उगने लगा। बकार्डी का अगला घूंट भरते हुए मैंने बहुत मतलब परक ढंग से उससे पूछा: तुम्हारी शादी अरेंज थी या लव? ‘लव मैरिज ही थी, यप, मुम्बई में अरेंज मैरिज कौन करता है। हम-दोनों एक दूसरे को स्कूल के दिनों से जानते थे’ कहकर वह अपने भीतर गुम हो गया। मुझे उसका मामला कुछ-कुछ सुखजीत जैसा ही लगा। मेरे यहां तो एक मां थी, उसके यहां तो मां-बाप दोनों हैं। पढ़ी-लिखी लड़की होगी तो वह सब क्यों बर्दास्त करती जो मैं करती आयी थी? अचानक मेरी सहानुभूति उसकी पत्नी की तरफ शिफ्ट होने लगी। मगर हम पहली बार बाहर निकले थे इसलिए अपने-अपने घावों को या एक दूसरे के घावों को बहुत ज्यादा कुरेदना अफोर्ड नहीं कर सकते थे। और सच बात तो यह थी कि उसने मेरे बारे में बहुत कुछ जानने की उत्सुकता ही नहीं दिखाई थी। उसे सिर्फ, जैसा वह कहता था, मुझसे मतलब था। ‘चालीस साल की उम्र, बहत्तर किलो का वजन, पाँच फीट, एक मामूली सी नौकरी’ मैं खुद को देखने चलती तो चाह कर भी बहुत अच्छा नहीं सोच सकती थी। और ऐन उसी वक्त उसने बकार्डी और सिगरेट की गंध से भरे होठों को मेरे होठों पर जड़ दिया। मैं जड़वत हो गयी। एकदम अवसन्न, जैसे मेरी प्रतिरोधक शक्ति मुझसे दगा कर गई हो। कुछ पलों की जकड़न के बाद वह गंध मेरे भीतर किसी आस्वाद-सी यूं उतरने लगी जैसे इसके बिना जीवन असंभव था। कोई आधा मिनट के बाद जब मैंने अपने को सायास किया और हम अलग हुए तब मुझे एहसास हुआ कि अभी तक मेरे जीवन में क्या था जिसे मैं ढूँढ रही थी। बड़ी देर तक हम एक दूसरे से सटे दुनिया-जहान की बातें करने लगे। मुझे गाना गाना नहीं आता लेकिन जब उसने रफी का ‘दिल जो न कह सका’ तरन्नुम से सुनाया तो मेरे भीतर से पता नहीं कैसे लता मंगेशकर का ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ उभर आया… जबकि गाने से मैं झिझकती हूँ। हम दोनों ने अपनी-अपनी पसन्द के गानों के बीच में बकार्डी का अगला दौर भी किया। मुझे लग रहा था कि जैसे कि किसी सपने के भीतर हूँ। मेरे बाकी दिनों, नहीं, अभी तक की पूरी जिन्दगी, से आज का दिन कितना अलग-थलग, बेपरवाह और आनंद से भरा-भरा। कुछ देर बाद बारिश थम गई थी मगर कपड़ों का गीलापन अभी अपनी जड़ें जमाये बैठा था। हम लोग पहाड़ी से निकलकर सड़क के किनारे बने एक छोटे से ढाबे में खाना खाने पहुंचे जिसे एक देहाती दम्पत्ति संभालती थी। वहां अपनी पसन्द-नापसन्द के खाने का सवाल ही नहीं क्योंकि सिर्फ दाल-चावल थे। लेकिन पिछले दो-तीन घण्टों की ठिठुरन और गपशप के बीच मुझे वाकई भूख लगने लगी थी। वह दम्पत्ति हमको पता नहीं क्या समझ रही थी(या ये मेरा वहम था?) लेकिन मेरे भीतर उसके लिए एक ‘पर-पुरूष’ का एहसास टूटा नहीं था। जहाज का पंक्षी कितनी देर मुक्त उड़ान भर सकता है?’

 

उसकी बातों को सुनने में मुझे अच्छा लग रहा था लेकिन लॉबी में अब कुछ और लोग भी आ बैठे थे। क्या इस कहानी को यहीं अधूरा छोड़ें या कहीं और बैठा जाए? मैंने गैरी की तरफ इस तरह गुमान से देखा तो उसने कहा ‘अरे यहीं बैठते हैं, मुम्बई में कोई किसी की बात सुनने बाहर नहीं आता है। हां, अब एक काम करते हैं, मुझे थोड़ी भूख लगी है, एक सैण्डविच खा लेते हैं’।

मैंने एक क्लब-सैण्डविच मंगाया, जिसके दो टुकड़े करके उसने आधा मुझे दे दिया।

‘हम अपना ड्रिंक रिपीट करेंगे या’…

‘आई डोंट माइंड रिपीटिंग’

थोड़ी देर में लोंग आयलैंड आइस्ड टी के जम्बो ग्लास हमारी मेज पर थे।

पहले घूंट के बाद ही जैसे उसने उड़ान भर ली।

 

‘उस दिन शाम को मैं जब लगभग ऑफिस के वक्त तक घर पहुंची तो घर का सब कुछ वैसे ही था जैसा होता था। सिर्फ मैं बदली हुई थी। मंदी के कारण सुखजीत की फर्म के निर्यात का काम बेतरह प्रभावित हुआ था; कारीगरों की लागत बढ़ रही थी और उधर यूरोप को होने वाले निर्यात लगभग आधे रह गये थे। इसलिए सुखजीत के सभी भागीदार अतिरिक्त मेहनत करके अपने धन्धे को बचाने में लगे थे। सुखजीत के लिए मेरे मन में, जैसा मैंने पहले बताया था, प्यार या इज्जत का जज्बा बहुत पहले खतम हो गया था या अगर उसे खतम होना न भी कहो तो वह अधिक से अधिक एक दुनियादारी या पारिवारिकता की डोर से हिलगा पड़ा था। हम पति-पत्नी परमू और परनीत को लेकर यूं कभी खाना खाने जाते, पिक्चर देखते या किसी दोस्त की पार्टी में शामिल होते। लेकिन सुखजीत के लिए मेरे भीतर कोई अलग से कोना नहीं बना था। लेकिन आज घर लौटकर मैं जैसे उसकी मर्दानगी को माफी देना न भी कहूँ तो एक नरमदिल नजरिये से तो देख ही रही थी। सलिल एक बात कहूँ, आजादी की तरह प्यार का बीज भी बहुत जल्दी अपनी जड़ पकड़ता है और किसी पेड़ की बढ़वार तुम जानते हो सिर्फ आड़े-टेढ़े ही होती हैं। मैं दफ्तर में पहले से ज्यादा काम करने लगी और जैसा दूसरों ने बताया, ज्यादा खुश रहने लगी। एक बार मैं एबी के साथ बैठी थी तो मेरे मन में यूं ही खयाल आया: डू आई डिजर्व हिम? किसी मौके पर मैंने उसकी इंटीरियर डिजाइनर पत्नी यानी मानसी को देखा था, जो एकदम छरहरी और आकर्षक थी। उसके मुकाबले मैं तो हर हाल उन्नीस थी। मैंने एबी से ऐसे ही पूछा… क्योंकि जो प्यार में होते हैं वो अपने इजहारों को  संदेहों में पिरोकर शायद इसी तरह मुक्ति तलाशते हैं।

‘तुम्हें मेरे बारे में क्या अच्छा लगता है?’

‘सब कुछ।’ उसने दो टूक कहा।

‘क्या मैं मोटी नहीं हूँ?’

‘मोटे-पतले होने से क्या फर्क पड़ता है।’

‘फर्क तो नहीं पड़ता, फिर भी…एज मैचिंग कपल…’

‘इस सवाल को आगे फिर कभी नहीं करना।’

‘क्यूँ?’

‘क्योंकि बहुत खूबसूरत और पतले दिखते लोग बहुत खराब और बदनीयत हो सकते हैं। पतले मोटे होने को तो बरदाश्त किया जा सकता है, बदनीयती का कोई क्या करेगा?’

जिस तरह से मेरी तरफ देखकर वह सब कुछ कह रहा था, मेरे भीतर एक गहरी ठंडक उतरे जा रही थी। लेकिन मैंने तय कर लिया था कि अपना वजन कम करूंगी। मैं अपनी लम्बाई का कुछ नहीं कर सकती मगर …। मुझे इतनी फुर्सत नहीं थी कि मैं डाइटिंग करती या ज़िम जाती इसलिए मैंने बैरियाट्रिक सर्जरी करा ली।(ओह, उसके बावजूद ये हाल है?) जब आप प्यार में होते हैं तो अधिक से अधिक या अपना सब कुछ देने की फिराक में रहते हैं, यह मैंने पहली बार महसूस किया। सुखजीत तो नाराज हुआ ही क्योंकि मैं वाकई इतनी मोटी नहीं थी कि इस तरह की सर्जरी की जाती। एबी भी नाराज था क्योंकि उसके लिए तो मेरे मोटे-पतले होने से उसे कोई वास्ता ही नहीं था। एबी ने कभी मुझसे नहीं पूछा कि मुझे उसका क्या अच्छा लगता है। वह एक बेहद आत्मविश्वासी पुरूष है और बहुत विश्वसनीय भी। उसके साथ बस एक ही दिक्कत है कि वह अपने कारोबार में अभी तक जम नहीं पाया है। इंजीनियरिंग किया है उसने। चाहता तो नौकरी कर सकता था मगर नहीं, स्टार्ट-अप ही करना है। सब इतना आसान होता है? एक-एक आइडिया पर पता नहीं कितने आई-आईटियन जुटे पड़े होते हैं। पूरी टीम बनानी होती है। कोई ऐसे ही आपको फंड दे देगा? मार्किटिंग के अपने झंझट! लेकिन जिसकी फितरत में जिन्दगी जीना लिखा हो वह कारोबार में सफल या कामयाब होके जिन्दगी के उन बड़े मकसदों में तो इजाफा नहीं कर सकता जिन पर उसने पहले ही कब्जा कर लिया है। ये बात मैं उसकी महानता कि बखान के लिए नहीं कह रही हूँ बल्कि उसकी जोखिम उठाने की फितरत के लिहाज से कह रही हूँ। और जो मेरी फितरत से कितना उलटा और बेमेल पड़ता है! और उसकी यही बात मुझे सबसे ज्यादा लुभाती है। यहां बैठकर उन सारी डिटेल्स में जाना गैर-जरूरी है जो ऐसे उन्मादी संबंध का नतीजा होता है।

 

लाख घरेलू पचड़ों और निजी कुंठाओं के बीच मैं कभी सोच नहीं सकती थी कि मैं,गुरप्रीत कौरां, उम्र के दूसरे दौर में इस तरह के भंवर से गुजरूंगी। पहले मुझे अपराध-बोध हुआ फिर पाप-बोध, शर्म भी आयी लेकिन उस सबकी आखिरी मंजिल मेरी भीतरी खुशी और संतोष ही थे। एक बार मेरे मन में आया कि अपनी नीरस या बोरिंग जिन्दगी के चलते ऊपर वाले ने मेरे जीवन को इतने अनजान सुख का स्वाद चखा दिया है तो शुक्र मनाओ और अब वापस आ जाओ। मैंने उस तरफ एक संगीन पहल भी की। मैंने एबी से मिलना बन्द कर दिया जबकि इसका हम दोनों के बीच या परिवार से जुड़ा कोई कारण नहीं था। ये सिर्फ और सिर्फ मेरे भीतर की आवाज थी। मैंने उसके फोन उठाने बन्द कर दिये। वह रास्ते में सामने आकर मिल-बैठकर किसी अदृश्य समस्या, गलती ,परेशानी, चूक या दिक्कत के निदान पर चर्चा करना चाहता। लेकिन मैं अपने निर्णय पर अटल थी। यह मुश्किल था, मैं फिर-फिर कर अपने मोबाइल में उसका नाम फ्लैश होने की चाह में देखती ताकि उसे काट सकूँ। मेरे इस सख्त बेरुख रवैये ने उसको जतला दिया कि ऑवर गेम इज ओवर। पहला हफ्ता मुश्किल था, दूसरा थोड़ा कम मुश्किल मगर तीसरे-चौथे हफ्तों तक वह मेरी यादों से लगभग गायब सा हो गया था। ‘लगभग’ इसलिए कि…अब जाने दो किसलिए। मैं दफ्तर में अपने को और ज्यादा खपाने लगी लेकिन एक रोज मैं दफ्तर पहुंची ही थी कि काम करते-करते मैं अपनी कुर्सी पर ही फेंट हो गयी। सारे दफ्तर में हड़कंप मच गया। मेरे बॉस से लेकर ब्रांच मैनेजर तक सभी सेवा में हाजिर थे। हमारे पैनल के एक फिजीशियन को तुरंत बुला लिया गया, जिसने मेरा मुआयना किया। उसे बात समझ में आ गयी कि मेरा ब्लड-प्रेशर भयंकर ढंग से गिर गया था। मेरी एक सहयोगी, कविता ने इस बीच सुखजीत को फोन कर दिया था जो घंटे भर में वहां पहुंच भी गया। ब्लड-प्रेशर, चाहे बहुत कम हो या बहुत ज्यादा, आज के जमाने में कोई समस्या नहीं रह गया। मैंने डॉक्टर की सुझाई गोलियां खाईं और घर आ गई। पूरे दिन घर पर आराम किया मगर शाम को मुझे फिर लगभग वैसी ही सिंकिंग फीलिंग होने लगी जैसी सुबह दफ्तर में हुई थी। हां, इस बार मगर होश नहीं खोया था। सुखजीत ने मुझे बढ़िया कॉफी बनाकर पिलाई और बड़े दिनों बाद, अपनी धूमिल होती याददाश्त के सहारे कहूँ तो शायद पहली बार, अपने दोनों हाथों से मेरी दोनों हथेलियों को आहिस्ते से दबोचा। उस हालत में भी उफ्फ, मेरे भीतर दो अलग हथेलियों का फर्क पता नहीं कैसे कौंध आया। रात को मैं खूब गहरी नींद सोई होंगी क्योंकि जब मैं उठी तो दिन काफी चढ़ आया था। मैं एकदम तरोताजा थी। मेरी तीमारदारी में लगे होने के बावजूद सुखजीत तरोताजा लग रहा था। मैं अकेले बैठकर घर पर क्या करती। मुझे लग ही नहीं रहा था कि कल दो बार मेरा बी.पी. कम हुआ होगा। सुखजीत ने मना भी किया था लेकिन मैंने उसकी बात नहीं मानी और तैयार होने लगी। मैं अभी तैयार हो ही रही थी कि मेरे पेट में जोर का दर्द हुआ और मैं लगभग कराह उठी। सुखजीत तुरंत मुझे नर्सिंग होम ले गया। इमरजेंसी वार्ड में ही मेरे जरूरी मुआइने कर लिये गये। तब तक मेरी हालत वैसे ही सुधर गई थी। मैं और सुखजीत घर लौट आये। मैं बिस्तर पर लेटे उसे अपनी तीमारदारी में जुटा देखती रही। परमू और परनीत ने आकर उसे और ज्यादा सुकून भरा बना दिया। मैंने आराम से खाना खाया, टी.वी देखा और अपने सोने के समय सो गयी। आधी रात के किसी वक्त मेरी नींद खुली और फिर एक अजीब किस्म की बेचैनी मेरे भीतर रेंगने लगी। मैं आंख खोलना चाह रही थी लेकिन मेरी आंखें थीं कि खुल ही नहीं रही थीं। मैंने सुखजीत को आवाज दी और हॉस्पीटल चलने के लिए कराही-बुदबुदायी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ है, या हो रहा है? लेकिन इन तीन दिनों के चक्कर ने मेरा ये डर पुख्ता कर दिया था कि कुछ बड़ी गड़बड़ हो चुकी है। मुझे गहन चिकित्सा कक्ष में दाखिल कराया गया और वहां उपस्थित सभी विशेषज्ञ बारी-बारी मेरी जांच में लग गये। यानी दिल, आंख, गायनिक, न्यूरो… सब अपनी-अपनी तरह से मामले की पड़ताल में जुट गये। मेरा दिमाग चेतन था, बस बाकी शरीर मेरे बस के बाहर हो गया था। ऐसी हालत में मृत्यु इतनी करीब लगती है कि जीने की इच्छा फड़फड़ाने लगती है। और जानते हो, मेरे भीतर के किसी कोने से कौन सी तड़प मुझ तक आ रही थी? सिर्फ और सिर्फ एबी की। उसका साथ, उसके साथ गुजारा वक्त… जिस्मानी-रूहानी… वह सब जिसने मेरे भीतर नई जान फूंक डाली थी। खैर, किये गये सारे टेस्टों की रिपोर्टों से जो स्थापित हुआ, कैन यू बिलीव, वो यह कि मुझे दरअसल कोई बीमारी नहीं है! मुझे पता नहीं कहां से उस लोकगीत की पंक्ति याद आ गयी ‘नबजिया नब्ज क्या देखै, मुझे दिल की बीमारी है’ जो मैंने अरसा पहले देखे किसी स्वांग में कहीं सुना था। मुझे अभी हॉस्पीटल में ही एहतियातन दो रोज और रहना था हालांकि मैं अपने को बिल्कुल भला-चंगा महसूस कर रही थी। सुखजीत हरदम मेरे साथ रहता था और दफ्तर के लोग तो खैर सुबह-शाम चक्कर लगाते ही थे। लेकिन मैं किससे क्या कहती थी कि मुझे कैसा लग रहा है?

आखिरे दिन सुबह ग्यारह बजे के लगभग मुझे मौका मिला और मैं अपने कमरे से बाहर रिसेप्शन की तरफ घूमने चली गयी। कमरे में बैठे सुखजीत को मैंने यही कहा कि मैं थोड़ा टहलना चाहती हूँ क्योंकि पड़े-पड़े जी उकता गया। मैंने वहीं से एबी को फोन किया कि मैं कहां हूँ और कैसी हूँ। वह बल्लियों उछल पड़ा। तुरंत आना चाहता था और मैं उसे देखना भी चाहती थी लेकिन कमरे में बैठे सुखजीत के पहरे का क्या करती? मैंने कमरे में आकर सुखजीत को बताया कि अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ और वह अपने दफ्तर चला जाये, मैं लंच करके सोउंगी और हम शाम को डिसचार्ज  ले लेंगे।

थोड़ी ऊपरी जिद के बाद सुखजीत मान गया।

मुझे पता नहीं लगा कि कब एबी कमरे में आया था। लेकिन लंच के बाद जब मैं अपनी आधी-अधूरी नींद से जागी तो वह चुपचाप कुर्सी पर इतमीनान से बैठा मुझे तक रहा था। ‘अरे तुम कब आये?’ मैं अचरज से चहकी और लगभग उठ बैठी। उसने पास आकर फिर अपने उन्हीं खुरदरे बलिष्ठ हाथों से मेरी हथेलियां पकड़ी और मुझे अपने सीने से लगा लिया। तुम यकीन नहीं करोगे कि मैं किस तरह रूदन से चीख पड़ी थी! शायद आर्तनाद इसी को कहते हैं। उसने घबराकर कमरे को अन्दर से बन्द किया ताकि कोई अटेंडेंट हमें इस हालत में न देख सके। उस मिलन में कितनी ठंडक, कितना सुकून और कैसी पवित्रता थी, ये मैं बता नहीं सकती। जैसे कुदरत की किताब का कोई सफा मेरे सामने खुलता जा रहा था। उस आवेग की खुमारी में मैं क्या-क्या और कितनी देर बड़बड़ाती रही, मुझे खबर नहीं। मैं जैसे बड़े दिनों अपने भीतर घुमड़ते फैसले की कई सीढ़ियां चढ़ चुकी थी।

*                       *

 

दो-तीन दिन बाद मैंने दफ्तर ज्वाइन कर लिया। किसी बीमार को अपने मित्रों, सहयोगियों की परवाह करना बड़ा संबल देती है, मैंने जाना। मैं उन सब के प्रति आभारी थी। हालांकि यह सब मेरी असलियत से एकदम बेमेल था। अस्पताल की तमाम व्यवस्था मेरी उस बीमारी के ईलाज के लिए बेमतलब हो गयी थी और तब मुझे भीतर तक अहसास हुआ कि वह, यानी एबी, मेरे जीवन के लिए कितना जरूरी है। आखिर मेरे डर क्या थे? मैं क्यों उससे बचना चाह रही थी? कम से कम सुखजीत के लिए तो नहीं ही। हां, परमू और परनीत ही सिर्फ मेरे जेहन में थे लेकिन अब वे बड़े हो रहे थे और मेरे भीतर कहीं विश्वास जग रहा था कि मैं उन्हें अपने पक्ष में कर लूंगी। वह मगर बाद की बात थी। दफ्तर में शुरू के कुछ दिन सहयोगियों ने पूरी गर्मजोशी और परवाह दिखाई। लंच के बाद या दफ्तर छूटने से पहले जब-तब एबी मिलने आ जाया करता था और अक्सर वही मुझे मेरे घर के नजदीक छोड़ दिया करता था। उस कमबख्त को पता नहीं कैसे खबर लग गयी थी कि मुझे उसकी पसीने की गन्ध और हथेलियों की छुअन मिसमिसा देती है। इसलिए मौका मिलते ही जरूर कुछ ऐसा करता… कि मेरी रूह खिल उठती। सुखजीत का हीरों के निर्यात का कारोबार उबरकर ही नहीं दे रहा था कि अचानक एक बड़े यूरोपीयन कस्टमर ने उसकी फर्म को बारह करोड़ का चूना लगा दिया। हम लोगों की माली हालत खराब नहीं थी लेकिन इतने बड़े नुकसान को झेलने लायक भी नहीं थी। जो भी हो इस कारण एबी के लिए मेरे जीवन में और स्पेस निकल आया था और मैं उसे अपनी तरह पूरे आनंद से जी रही थी। ये सिलसिला यूं ही चलता रहता मगर दफ्तर में पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि मुझे गहरा झटका लगा। इस ऑफिस के ज्वाइन करने के कुछ दिनों बाद ही मेरी एक दोस्त बनी थी, कविता। कविता खरे । वह थोड़ी संकोची और चुपचाप रहनेवाली थी। वेरी ग्रेसफुल। हम लोगों के लंच-क्लब में वह एक जरूरी उपस्थिति थी। पता नहीं कैसे वह मेरी अन्तरंग होने लगी और मैं उसके साथ अपनी जीवन की वे सब बातें भी सांझा करने लगी जिन्हें ऊपरी तौर से प्रायवेसी कहा जाता है। शायद इसलिए कि अपनी सास के बर्ताव और सुखजीत के नकारेपन से मैं आजिज आ चुकी थी। कोई लाख कहे कि पाँच-दस साल बाद पति-पत्नी एक दूसरे की नाजायज या बेजा हरकतों की अनदेखी करने  लगते हैं मगर मैं सोचती हूँ कि जो चीजें चुभतीं हैं तो उसकी चुभन हमें हरदम ही सालती है। उनकी कोई आदत नहीं पड़ती। कविता खुद अपनी कुछ निजी बातें मुझसे बांटती थी इसलिए हमारी दोस्ती में बड़ा याराना था। मेरे पिछले बर्थडे पर उसने मुझे माइकल कोर्स का बैग दिया था। कह सकते हैं हम एक-दूसरे के पंचिंग बैग थे। लेकिन मैंने देखा कि अब वह मुझसे कटती जा रही थी और वही नहीं, दूसरी लेडीज … जो मेरे उतने करीब नहीं थीं मगर जिनसे मेरा हलो-हाय वाला संबंध था, भी मुझसे कतराने लगीं। मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि मैंने ऐसा क्या किया है? पहले मैंने इसे उसके थोड़ा-बहुत मूडी होने के कारण जाने दिया लेकिन उससे चीजों पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। जब मुझसे नहीं रहा गया तो मैं एक दिन उसके पास गई और उसको बताया कि मुझे उससे कुछ बात करनी है। वह अपनी सीट से उठकर मुझे हॉल के दूसरे कोने में ले गयी और ‘बोल क्या बात करनी है?’ जड़ा। मैंने कहा कि ऐसी कोई खास बात नहीं है, मैं देख रही हूँ कि कोई मुझसे सीधे मुंह बात नहीं कर रहा है… और दूसरे कोई से मुझे फर्क भी नहीं पड़ता है मगर …तू… तू ही मुझसे बात नहीं कर रही है। क्या मैंने कुछ किया है? मैंरे यूं उसे सीधे कनफ्रंट करने पर उसने कुछ सेकेंड सोचने में लगाये मगर बहुत जल्द ही जो मन में था, निकल आया।

‘हर कोई मुझसे पूछता है कि मैं तेरी खास दोस्त हूँ तो उन्हें बताऊं कि गैरी ये सब क्या कर रही है, क्यों कर रही है?’

‘किस बारे में? क्या कर रही हूँ मैं?’

मेरी हैरत बेबस ज्यादा थी।

‘अब इतनी भी भोली मत बनो, कितने लोगों ने तुम्हें अखिल के साथ देखा है।’

‘अरे देखा है तो क्या मैंने कोई चोरी की है? तुम तो जानती हो…’

‘जानती हूँ, लेकिन सवाल तो लोग मुझसे करते हैं।’

‘जो तुमसे सवाल पूछे, उसे मेरे पास भेज दो, लेकिन तुम्हारा अपना क्या है? तुम क्यों…’

‘अरे, मेरा क्या होगा। मैंने तो बावजूद इसके तुमसे दोस्ती रखी है।’

‘बावजूद? किसके बावजूद?’

और तब मुझे अहसास हुआ कि मैं किससे, क्या सवाल कर रही हूँ!

किसी का प्यार में होना बहुत लोगों के भीतर …और सबसे ज्यादा आपके दोस्तों के भीतर… गहरी जलन पैदा कर सकता है!

और कहने को ये बम्बई थी, जो कब की मुम्बई हो गयी थी।

तुम पूछ रहे थे न कि मुझे अकेलापन क्यों लगता है, उसकी वजह यही है। कभी कभी एक दोस्त को यूं खो देना सौ के बराबर सा होता है।

घर में तो मैं अकेली थी ही, अब दफ्तर में भी अकेली हो गई।

हमारा प्यार में होना हमारे अकेलेपन को सहनीय जरूर बना देता होगा लेकिन वह उसकी एवज नहीं होता।

 

*                       *

 

यह बहुत पुरानी बात नहीं है। उसके बाद मैं जब एबी से मिली तो उसे अपने मन की बात बता दी। पता नहीं क्यों जो चीजें मुझे परेशान करती हैं बहुत देर तक मेरे भीतर नहीं रह पातीं। उसने ध्यान से सुना और मनुहार के साथ सिगरेट के धुएँ की तरह उन्हें उड़ाते हुए बोला, ‘फ… ऑफ देम।’ मैं जानती थी कि इस मामले में अपने अलावा मैं अगर किसी के प्रति जवाबदेह हूँ तो वह है मेरा परिवार। लेकिन जब काम-काज की जगह पर आप किसी लांक्षन या अकेलेपन के अहसास के साथ कभी खुश नहीं रह सकते। अगले दिन रविवार की छुट्टी थी। बच्चे घर आए हुए  थे। हालांकि दोनों ही अपनी-अपनी दुनियाओं में मुब्तिला थे। मैंने बच्चों के साथ गुरूद्वारे जाने का प्लान बना लिया। बच्चे जब छोटे थे तो सुखजीत के साथ हम महीने में दो-तीन बार चले जाया करते थे। अब तो पता नहीं कितना अरसा हो गया था। मैं बड़ी देर तक वाहेगुरू के दरबार में बैठ अपनी आगे की जिन्दगी और बच्चों के लिए दुआ मांगने लगी। शाम के वक्त में ‘दुखभंजन तेरा नाम जी’ का गाया जा रहा था जिसका एक-एक पद मेरे रोंगटे खड़े कर दे रहा था। जब चीजें अपने हाथ से छूटने लगें तो और किया भी क्या जा सकता है।

 

सप्ताह के पहले दिन मेरा दफ्तर जाने का मन नहीं कर रहा था। तबियत अजीब तरह से खिंची-खिंची हो रही थी। जैसे रूह पर कोई मनहूसियत तारी हो गयी हो। सुखजीत की अपनी परेशानी थी। मैं उसे और क्या तंग करती? मन में आ रहा था नौकरी छोड़ दूं लेकिन पिछले दस-बारह वर्षों में इसी के कारण तो मैं अपना संतुलन जैसा बचा पाई थी। मेरे पास कुछ विकल्प होता तो शायद आज ही इस्तीफा भेज देती। आखिर ऐसे लोगों के बीच क्या मुंह दिखाना जो बेमतलब आप से जलते हों? फिर भी मैं तैयार होने लगी और बिल्डिंग के नीचे टैक्सी का इंतजार कर ही रही थी की एबी का फोन आ गया। मेरे मन में सबसे पहले यही आया कि क्या कोई इमरजेंसी आन पड़ी है? क्या उसे कुछ हो गया होगा?

डरा हुआ इंसान पता नहीं कितने डरों को खोज लेता है।

 

लेकिन इस उम्मीद के विपरीत उसकी आवाज चहकती हुई सी थी। वह मुझे हुक्म दे रहा था कि मैं दफ्तर जाने के लिए टैक्सी न पकड़ूं, बल्कि अपने टावर के नजदीक कैफे कॉफी डे के पास इंतजार करूँ, जहां वह पंद्रह-बीस मिनट में पहुंचने वाला था। मैंने किसी कहानी में पढ़ा था कि कैसे हमारा अवचेतन बहुत कारगर ढंग से काम करता है…और अभी-अभी… दफ्तर को लेकर यह मेरे सामने साबित भी हो रहा था! पिछले दिनों मेरे अस्पताल जाने के कारण तबियत को लेकर कोई लम्बा-चौड़ा स्पष्टीकरण देने की जरूरत ही नहीं थी।

कैन यू बिलीव, मैं देर तक इंतज़ार करने से भी डर रही थी! कैफे कॉफी डे पर वह मुझे इंतजार करता मिला, जो अपने आप में खुश होने वाली बात थी। उसने मुझे गाड़ी में बिठाकर हथेलियों और होठों की छुअन के बाद कहा कि हम लोग माल्शेज घाट जा रहे हैं।

वहां क्या है? क्यों?

मैंने पूछा तो उसने चुप कराते हुए कहा ‘बस देखना’।

‘मगर ऐसे ताबड़तोड़ प्रोग्राम की वजह?’

‘वजह कुछ नहीं, सुबह उठा तो देखा आज मौसम ऐसा है जिसके लिए माल्शेज घाट बने हैं’।

मुझे उस पर यकीन था क्योंकि जब-जब मैं उसके साथ किसी लोंग ड्राइव पर गई थी, एक नये आसमान में ही झांक कर लौटी थी। मुम्बई में हल्की बारिश हो रही थी। उसने गाड़ी का रेडियो चालू किया तो लगा कायनात हमारे साथ हमारे मंसूबों को अंजाम देने में लगी है क्योंकि पहला गाना जो बजा, मुझे आज भी याद है, वो था ‘क्या मौसम है… चल कहीं दूर निकल जायें।’ एबी बहुत अच्छी गाड़ी चलाता है…ही जस्ट लव्स टू बी ऑन द व्हील्स… हालांकि इसी कारण एक बार वह मरते-मरते बचा था(और इसी कारण तो मेरी उससे मुलाकात हो पाई!)। डेढ़-दो घण्टे का सफर हमने गाना सुनते, बकार्डी और  बीयर पीते और बीच-बीच में एक दूसरे से…।       माल्शेज घाटों में मुम्बई के दूसरे हिल स्टेशनों के मुकाबले लोगों की आवाजाही कम रहती है। इसका कारण वहां ठहरने की व्यवस्था तो है ही, रास्ता भी बहुत अधकचरा है। जो छुटपुट ढाबे या रेस्तरां बने हैं, वे खासे बेरौनक रहते हैं। ऐसे में कोई देढ़-दो घण्टे मशक्कत करके क्यों आयेगा? उन सबको एक तरफ छोड़ एबी मुझे एक झरने के पास ले गया जो बहुत ऊंचा नहीं था लेकिन उसका पानी का गिरान बड़ा लोचदार और भरा-भरा था। उसकी सबसे मोटी धार दीवार से डेढ़ मीटर दूर एक मोटी परत की तरह ऐसे गिर रही थी कि दीवार के साथ बिना भीगे खड़ा हुआ जा सकता था। मुझे पता था कि मेरे पास कपड़ों की दूसरी जोड़ी नहीं है लेकिन एबी के साथ रहकर मैं जान चुकी थी कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम लोगों ने दस-पन्द्रह मिनट ही उस झरने का लुत्फ लिया होगा कि एबी ने मुझे आगे चलने के लिए पुकारा। झरने के पास से पहाड़ी के दूसरी तरफ एक पचास-साठ मीटर लंबी दो-तरफा खुली टनल बनी हुई थी। हम लोग टनल में घुस गये। टनल के भीतर का रास्ता कच्चा और ऊबड़-खाबड़ था। टनल हालांकि दोनों तरफ से खुली थी लेकिन वहां बीचोबीच पहुंचकर एक डरावना सा अंधेरा हो गया था। पूरे रास्ते में इधर-उधर घास की बेतरतीबी पसरी थी। परखच्चे उड़ी दीवार पर एक नामुराद आशिक ने उषा नाम की लड़की को अपने अमर प्रेम का इजहार कर छोड़ा था। हमारे अलावा कोई आदमजाद वहां था ही नहीं। मेरे डर को पढ़ते हुए एबी ने रूककर मुझे अपने आगोश  में ले लिया और देर तक अपनी चुम्बनों की बारिश करता रहा। मैं जैसे आधे घण्टे के भीतर दूसरी बार नहा चुकी थी। मैं अपने डर से मुक्त होकर संतुष्टि के ऐसे अहसास से भर उठी जैसे मुझे किसी का कभी खौफ था ही नहीं। टनल का दूसरा छोर जिस अंडाकार पहाड़ों की घाटी में खुलता था उसे देखकर भीतर तक मन प्रफुल्ल हो उठा। प्रकृति किस तरह अपनी विराटता में सौंदर्य लिये शांत बैठी होती है, इसे सिर्फ जांबाज विरले ही समझ सकते हैं। टनल के बाहर घाटी में खुलते छोर से एक पतला सा रास्ता बीच में डंठलनुमा बने एक पथरीले टापू की तरफ जा रहा था। एबी ने अपने बांयें हाथ की हथेली से मेरी कलाई को कसके पकड़ लिया और उस डंठल के दूसरे कोने की तरफ मुझ ले जाने लगा। धीरे-धीरे। बारिश के कारण नीचे का पथरीला रास्ता गीला था। और ज्यादातर जगह तो रास्ता था ही नहीं। अलसाये पड़े पत्थरों के ऊपर जैसे-तैसे चढ़कर या चौपायों की तरह सरककर आगे बढ़ना पड़ रहा था। मैंने लगभग भीख सी मांगते हुए एबी को कहा कि मुझे बहुत ज्यादा डर लग रहा है, प्लीज रहने दो, लेकिन उसने पूरा अनसुना करते हुए अपना आगे का सफर जारी रखा। उस डंठल के छोर पर एक पथरीला उभार था जो अपने ऊपर के दो फीट हिस्से में सपाट था। एबी ने मुझसे वहीं पर जाने को कहा और मेरे पैरों को अपने कंधों की सपोर्ट से मदद भी कर दी। पत्थर के कोई छः फीट नीचे ढलती सीढ़ी के पास खड़ा होकर वह मुझे देखने लगा। मैंने पत्थर के उस दो फीट इलाके पर जब अपने को खड़ा किया तो डरते हुए भी एक उल्लास से भर उठी! पूरी घाटी का सौंदर्य, अपने सांद्र रूप में सृजन के आदिम रहस्य की तरह मुझे संबोधित था—अनगढ़, बेआवाज और अपने में मुतमईन। लम्बे-लम्बे पेड़ों की बढ़वार बहुत नीचे खतम हो चुकी थी और सामने पहाड़ी की हरियाली अपनी बेशुमार रंगीली भंगिमाओं में मेरे सामने पसरी थी। कहीं मोगरे की परचम फैली थी तो कहीं रजनी-गंधा की। ऐसा दृश्य जब आँखों की जद में न समा सके तो बखान में कैसे समाएगा? कोहरा, नहीं, ये तो रेंगते-मस्ताते बादल थे जो अपनी हल्की छूअन से मुझे गीला किये जा रहे थे। कोई हवा का झोंका चलता तो मेरी कंपकंपी छूट जाती। हवा कुछ और तेज होती तो वह मुझे डेढ़ सौ फीट नीचे पटक देती लेकिन एबी ने मुझे कौल दे रखा था कि अगर मैं गिरी तो वह मुझे नीचे से लपक लेगा। सोचती हूँ कि मैं वाकई फिसल जाती तो क्या मेरी इस भरी-पूरी काया को वह संभाल लेता? शायद नहीं। लेकिन उसके भरोसे ने मानो मेरे भीतर को इस नजारे को देखने की सुपारी दे रखी थी। हो सकता है वह पहले कभी आया हो (या किसी के साथ आया हो!) लेकिन उससे क्या फर्क पड़ता है? यहां तो उसे इसी में सूकून मिल रहा था कि मैं प्रकृति के सुनसान, विराट और अद्भुत सौंदर्य के एक-एक कतरे के आश्चर्य में कैसे मगन हो रही हूँ। कुछ देर बाद खड़े होकर ही मैंने दोनों हाथ ऐसे फैला दिये जैसे उस सबको मैं अपने में जज़्ब कर लुंगी। एकाएक जब मेरी नजर सामने से हटकर नीचे की तरफ आयी तो मैंने देखा वहां एबी नहीं था! इससे पहले कि किसी डर का अहसास मुझे कौंचता, उसने हस्बेमामूल सरकाया ‘मैं भी आ रहा हूँ’ और वह पथरीले चढ़ाव से लिपटते हुए वहां आ भी गया। दो लोगों के लिए वह जगह सचमुच नाकाफी थी। लेकिन हम दो कहां थे? उसे पता नहीं कहां से ‘टाइटेनिक’ वाला पोज बनाने की सूझी! उफ्फ, प्रकृति के अपार सौंदर्य के बीचोबीच मेरी रूह किस रोमांच से भर उठी थी। हममें से किसी का जरा भी संतुलन बिगड़ जाता तो हम सैकड़ों फिट नीचे दर्रे में जा पड़ते। बड़े दिनों तक शायद हमारे जिस्मों की किसी को खबर तक नहीं लगती क्योंकि हमें तो यहां किसी ने आते हुए भी नहीं देखा था। मैंने एबी के साथ अपने जीवन की कितनी सारी सीमाएं लांघी थीं, कितने वर्जित इलाकों को रौंदा था लेकिन उस दिन जो महसूस किया, मसखरी लेते हुए कहूँ, तो यह उसका क्लाइमैक्स है। यानी अब तक का… क्योंकि हर बार तो मैयार बड़ा हो जाता था।

लौटते वक्त पता नहीं यह खयाल मेरे भीतर कैसे आया कि एक व्यक्ति बिना कुछ स्वार्थ के किसी को कैसे इतना आनंद दे सकता है… नहीं, आनंद देने की कोशिश में खुद कितना आनंदित हो सकता है।

सुबह में किसी मानसिकता में थी और शाम तक क्या महसूस कर चुकी थी।

अब तय करने को कुछ बाकी नहीं था, संशय खतम हो चुका था’।

 

वेटर ने आकर किसी नये ऑर्डर की जब फरियाद की तो जैसे मेरा भी तारतम्य टूटा। कई दिनों पहले किये गये तजुर्बे को बताते हुए भी, अपने बखान के सहारे गैरी जैसे उसी वायवीय दुनिया में ले जा चुकी थी।

मैं हिचकिचाया और गैरी की तरफ देख प्रश्नांकित हुआ।

‘सो व्हाट इज द डील नाउ’

‘क्या मतलब?’

‘पहला तो यही कि क्या पीना खाना है और दूसरा ये कि… आगे क्या?’

‘पीना-खाना कुछ नहीं है, घर जाना है। वैसे भी देर हो गई है और रही बात ‘उसकी’ … तो अगले हफ्ते बांदरा कोर्ट में हम एक कागजी औपचारिकता निभायेंगे और फिर…’

कहते हुए वह रुक गई, मानो सोचने के ब्रेक के लिए।

‘कितना जीवन तो ऐसे ही जाया हो गया…मैं इसे और जाया नहीं होने दूंगी’

इस बार वह जैसे खुद से कुछ कहती लग रही थी।

 

मैंने हवा में कुछ घसीट मरने के अंदाज में वेटर को इशारा किया तो वह ‘यस सर’ कह कर चला गया।

 

‘बहुत बड़ा कलेजा है तुम्हारा गैरी। कगार पर बहुत सारे लोग होते हैं लेकिन हिम्मत विरले ही कर पाते हैं’।

मैंने कहा तो उसने तुरंत जोड़ाः ‘ये हिम्मत की नहीं, कनविक्शन की बात है’।

‘कनविक्शन अपनी जगह है लेकिन बच्चे या परिवार के दूसरे लोग…’

‘तुम ठीक कह रहे हो लेकिन दूसरे लोगों में सबसे ज्यादा तो बच्चों की ही बात है… तो अब वे बड़े हो गये हैं। मैं उनकी मां हूँ और रहूँगी। अभी तो वे बोर्डिंग में हैं, छुट्टियों में आयेंगे तो मिलूंगी… समझाउंगी तो वे समझ जाएंगे’

‘और सुखजीत, उसे खबर है’

मैं जैसे अपने मध्यवर्गीय खोल रफू करने लगा था।

‘तू भी न कभी-कभी पागलों सी बातें करता है… घर में आपके स्पाउज के साथ ऐसा-वैसा कुछ चल रहा हो तो उसे पता नहीं लगेगा?’

‘हां तो उसे पता लगा, तो क्या हुआ?’

‘उसकी कभी हिम्मत ही नहीं पड़ी मुझसे ये बात छेड़ने की। मुझे अच्छा लगता गर वो मुझसे सवाल करता, बीबी हूँ उसकी… लेकिन पता नहीं। खैर हो सकता है उसकी मजबूरियां हों। हाँ, जब बात उड़ते-उड़ते मेरी मां तक पहुंची तो उसने आकर समझाने कि कोशिश की, मैंने उसकी हर बात गलत कर दी तो उसने एबी को कोसना शुरू कर दिया। मैंने मम्मी से कहा, मम्मी उसके लिए कुछ मत कहो… आपकी आधी बद्दुआएं तो मुझे ही लग पड़नी हैं’

उसके बाद मुझे कोई गुंजाइश ही नहीं लगी।

 

बिल सेटल करने के बाद जब ही मरीन ड्राइव की तरफ निकले तो अंदाजा ही नहीं था कि रात इतनी घिर आई है, हालांकि इस जगह की जगमग हरदम दिलकश लगती है। लॉबी में लगे पोस्टर को देखकर पता चला कि इस सप्ताह वहाँ जापनीज़ खाने का उत्सव चल रहा था। फिर कभी सही। बूँदा-बांदी के कारण पीली रोशनी सहेजती सड़क ने आइनाघर का मिजाज औढ़ रखा था।

टैक्सी में बैठने से पहले गैरी ने मुझे फिर याद दिलाया ‘…अगले मंगलवार को है, बांदरा में। गवाहों में तेरा नाम भी है, ध्यान रखना’।

*                              *

 

लेकिन अगला मंगलवार तो बहुत दूर की बात थी, अगले दिन सुबह-सुबह गैरी ने फोन पर बताया कि सुखजीत को दिल का दौरा पड़ा है। रात को ही उसे नर्सिंग होम ले जाना पड़ा लेकिन पता नहीं क्या होगा। मैं चाहते हुए भी बॉम्बे हॉस्पीटल नहीं जा सकता था क्योंकि पूरे दिन मुझे कंपनियों के सेक्रेटरियों, मैनेजिंग डायरेक्टरों और हाई कोर्ट के एडवोकेट के साथ मिलकर कागजात तैयार कर देने थे।

कामकाज के बीच ही पता नहीं कैसे एक धुकधुकी मेरे भीतर लगी हुई थी।

रात नौ बजे के करीब दफ्तर में बैठे मैंने अपने मोबाइल में देखा कि शाम के चार बजकर बत्तीस मिनट पर गैरी का मैसेज था, ‘ही इज नो मोर।’

मेरे पांव की जमीन खिसक गयी।

उनके आपस के बीच जो भी था — या नहीं था — वो एक तरफ लेकिन मुझे वहां गैरी के साथ इस वक्त होना चाहिए था।

मैं दौड़कर बॉम्बे हॉस्पीटल पहुंचा लेकिन पता चला तब तक वे लोग उसे घर ले जा चुके थे।

मेरे पास उसके घर का पता भी नहीं था।

जैसे-तैसे पता करके मैं लपक कर वहाँ जा पहुंचा।

कई घर वालों को अभी वहां पहुंचना था।

अंत्येष्टि अगले दिन होनी थी।

 

शायद कई घंटों के रुदन ने गैरी के चेहरे को अजीब तरह से शुष्क कर डाला था। मैं सहमकर उसके करीब सांत्वना देने पहुंचा तो वह मुझसे लिपटकर सिसकने लगी। उसकी बड़बड़ाहट में बस इतना ही मुझ तक पहुंचा … आई डिड नॉट डिजर्व दिस, आई डिड नॉट डिजर्व दिस’

 

मैं वहां गैरी के अलावा वहाँ किसी को नहीं जानता था।

लेकिन एक चेहरे को देखकर लगा कि अरे, ये कहीं राकेश बंसल… मगर यहां कैसे?

मगर वह राकेश बंसल नहीं, एबी था।

मेरा दिमाग एक बार फिर झनझना गया।

मगर ज्यादा कुछ सोचने का वक्त नहीं था।

*                                 *

 

क्या करेगी गैरी अब? मैं उस आने वाले मंगलवार के लिए खुद को तैयार कर रहा था लेकिन पता नहीं कितने मंगलवार निकल गये और गैरी का कोई फोन नहीं आया। उसके फोन को तो छोड़ो, उसने न मेरे मैसेज के जवाब दिये, न फोन उठाया। जब दो-तीन महीने गुजर गये तो एक दिन मैं उसके दफ्तर ही जा पहुंचा। वह अभी भी अवसाद में थी। ऐसे में सांत्वना के बोल मुझे बड़े फिजूल लगते हैं। खालिस मौन उसके लिए पर्याप्त होता है। मैंने बस ‘सॉरी’ कहा और उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गया। कुछ अन्तराल बाद उसने ही पूछा, ‘चाय पिएगा?’ मैंने बिना कहे ‘हां’ में गर्दन हिला दी।

‘क्या पहले सुखजीत को ऐसी कोई शिकायत थी? मतलब कोई कार्डियक प्रॉब्लम’ उसने बिना कहे ‘ना’ में मुंह बिचका दिया।

मैंने भी आगे कुछ नहीं कहा और चला आया।

गैरी अब किसी भी सोशल मीडिया पर नहीं थी।

 

मैं अक्सर सोचता, पता नहीं उसका जीवन कैसा चल रहा होगा?

 

जब एक अरसा और गुजर गया तब मुझमें ये पूछने की हिम्मत आयी कि गैरी और एबी के बांद्रा वाले ‘उस’ प्लान का क्या हुआ।

गैरी ने फीकी हंसी हंसते हुए कहा ‘अब बांदरा का कोई प्लान नहीं है’।

‘अब न सही, मैं सोचता था…’

मैंने दरयाफ्त की।

गैरी ने एक लम्बी सांस भरी और बोली ‘सलिल अब वह प्लान कभी  मैटीरियलाइज नहीं होगा।

‘क्यों? अब तो सुखजीत भी नहीं है?’

‘एगजेक्टली, इसीलिए… कि अब सुखजीत नहीं है। मैं अपने बच्चों को कभी नहीं छोड़ सकती। पता नहीं यार मुझे क्या हो गया था… यू नो, सन चौरासी के दंगों में हमारे पड़ोस में एक सरदारों का परिवार रहता था। उनके  दो बच्चे थे। सरदारजी को तो दंगाइयों ने जिबह कर दिया लेकिन, रब दा शुकर, वह औरत और बच्चे बच गये। एक बच्चा नौ साल का था और एक ग्यारह का। लेकिन जानते हो वो औरत, मुझे उसका नाम भी याद है, कुलविंदर, साल भर के भीतर-भीतर अपने किसी मोने प्रेमी के साथ भाग गयी थी। मैंने उन बच्चों की हालत देखी थी। वो ठीक है कि गुरूद्वारे ने उन्हें संभाल लिया लेकिन जब भी उन बच्चों को देखती, उस औरत के बारे में सोचकर दहल जाती। शायद आठ साल की थी मैं तब। मैं उन्हें भूल गयी थी लेकिन पता नहीं कैसे वो नौ साल के और ग्यारह साल के बच्चों के चेहरे पिछले दिनों से मेरी याद में आ गए।

 

चाय ले’

 

**                 **                **

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
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