विद्यात्र लिखिता याडसो ललाटेक्षरमालिका
देवज्ञस्तां पठेदव्यक्तं होशनिर्मल चक्षुषा…
(सर्वल्ली)
(सृष्टि रचियता ब्रह्मा ने सब जीवों का नसीब उनके ललाट पर खोद दिया है, कोई पारखी निगाह ज्योतिषी ही उसे पढ़ सकता है)
जिला भंडारा से खत! वहां मेरा कौन है? कहीं वैष्णो देवी या भभूति बाबा के नाम पर चलाए जा रहे गुमराह अभियान की लंपट पकड़ से निजात पाने के लिए किसी ‘एक और’ मासूम शिकार ने तो नहीं लिखा। दाम और दंड की कनफोड़ डुगडुगी बजाती हुई एक चिट्ठी तो हर महीने आ ही जाती है। फलां ने बाबा के नाम पर इतने पर्चे छपवाए तो कैसे उसे विदेश यात्रा का योग मिला… फलां ने मां के प्रचार की चिट्ठी रद्दी में सरका दी तो कैसे स्कूटर हादसे में उसकी टांग चली गई। आजिज आ गया हूं और सच कहूं अपनी तमाम विवेकशीलता और दृष्टिकोण के बावजूद इन खतों से अब भी कहीं कोई कंपन करवट ले उठता है। असफलताओं और हताशाओं ने कितना पिदाया है मुझे। कहीं इसकी वजह…वो तो भला हो लोक सेवा आयोग का जिसने छब्बीस की उम्र खिसकने से पहले, यकीनन कुछ रहम खाकर, डूबते को तिनके का सहारा दे दिया। कितने ही दिन-महीने अखबार मेरे लिए, अखबार न होकर रोजगार समाचार बना रहा है और डाकिया कोई संभाव्य देवदूत।
और एक दिन जब यह नियुक्ति पत्र लाया था तो मंटो की ‘खोल दो’ कहानी मेरे अंदर कैसे भभक पड़ी थी।
अपरिचित चिट्ठियों से डर मुझे यूं ही नहीं लगता है।
लेकिन ‘कंसल’ के स्थान पर ‘अंकल’ का संबोधन!
जो डर किसी सुनसान अंधेरे की तरह आतंकित कर रहा था, किसी सुनहली गुनगुनी धूप-सा बिखर गया। तो यह आदित्य है यानी आदित्य नारायण सतपती, एम.ए. के दिनों का मेरा उड़िया दोस्त। लेकिन संभलपुर के बजाय वह भंडारा में क्या कर रहा है? चार साल से भी ऊपर हो आए मुझे एम.ए. किए हुए। इतना ही वक्त सतपती को हो गया होगा दिल्ली छोड़े। खैर,चिट्ठी पढ़ता हूं।
अभी पता लग जाएगा।
‘‘न कुल्ला, न दातुन, न टट्टी, न पेशाब, बस आते ही चिट्ठियों में लग गया। गिका कहीं उड़ी जा रही हैं, हमतेऊ ज्यादा जरूली हैं’’
मां ने पानी का गिलास थमाते हुए कहा।
ठीक बात थी। अभी मैंने अपने फीते भी नहीं खोले थे। अपना लंबोदर बैग खाने की मेज पर पटककर फ्रिज की तरफ बढ़ गया था जो घर में पत्रों का ऐतिहासिक दबड़ा था। नागपुर की अकादमी में चली रही राजकीय ट्रेनिंग से सप्ताहांत पलायन का यह एक और उत्सव था। अचरज की बात थी कि ऐच्छिक अवकाश जैसी चीज भी प्रशिक्षार्थियों को स्वेच्छा या सुविधा से नहीं मिल सकती थी; आंध्र प्रदेशी सोमा शेखर रेड्डी को नक्सली धमकियों का सहारा था तो पंजाब के गुरमीत सिंह को उग्रवादियों से राहत मिलती थी।
मुझे सहारा दिया ‘लड़की देखने’ ने।
‘‘अरे मम्मी, नागपुर से आ रहे हैं तो अपनी गर्ल-फ्रैंड से तार करवाकर चले होंगे।’’
ये मणि भाभी थीं। सुबह-सुबह अपने बैंक जाने की तैयारी में।
अपनी ज्यादती का अहसास होते ही मैं सहजता ओढ़ते हुए सबकी तरफ देखकर खिल उठा, ‘‘मां, जरा चाय बनाओ।’’
मां जब तक चाय लाती, मैं सतपती का खत पढ़ चुका था।वह रेलवे में पी.डब्लू.आई सरीखे काम रहा था, तीन बरस से। शादी कर ली थी और ढाई साल की बेटी चंद्रिका का पिता बन चुका था। सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था। ससुर मध्य रेलवे में उच्च अधिकारी हैं। आजकल डेपुटेशन पर। पत्नी कम ही पढ़ी-लिखी है और घर पर ही रहती है। मुझे पत्र लिखने की सोच ही रहा था काफी दिनों से, लेकिन टलता जा रहा था। कुछ रोज के लिए पत्नी मैके चली गई थी। पत्र पुराने पते पर ही लिखा, क्योंकि मैं कहीं भी हूं, मुझ तक तो वह पहुंच ही जाएगा। प्रशान्त भाई का रिजर्व बैंक में प्रमोशन आ गया है। एकाध वर्ष यहीं और कट जाए तो फिर उड़ीसा की सोची जाए। लिखा था अपने बारे में काफी कुछ लिख चुका है। अब मैं खत मिलने पर उसे अपनी ताजा स्थिति से अवगत कराऊं। शादी वगैरह हो गई क्या? डी-स्कूल जाना होता है क्या…
डी-स्कूल यानी दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स। बहुत कुछ अविस्मरणीय जुड़ा है इस ‘स्कूल’ से। सर्वोत्तम क्लब का जैसे पासपोर्ट हमारे हाथ लग गया था। ये वही तो जगह थी जिसमें जगदीश भगवती, अमर्त्य सेन, राजकृष्णा, सुखमय चक्रवर्ती जैसे दिग्गजों की परछाइयां अब भी नजर आती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय का नहीं, पूरे भारतवर्ष का एक गौरवशाली प्रतीक। लन्दन स्कूल की तर्ज पर वी.के.आर.वी राव द्वारा स्थापित यकीनन एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान।
लेकिन शुरू में कितना खिंचा-खिंचा, अलगाव-सा रहा था। कितनी मुश्किल पढ़ाई और कितना बेगाना माहौल। जिसे देखो वही अंग्रेजी बघार रहा है। उसे चाहे जाने दो, लेकिन यह गिरोह प्रवृत्ति क्यों? कोई बाहर से अकेला आया हो तो वो क्या करे। शुरू के दिनों में डी-स्कूल के फाटक में घुसते ही जो उत्कृष्टता-बोध घर करने लगता था, वही क्लास में तलछट पर दरका दिए जाने पर एक दुर्गम हीनताबोध में रूपांतरित हो जाता था। हिंदू, स्टीफन, श्रीराम और हंसराज कॉलेजों की ऐसी दमक थी कि अन्य सभी दोयम और रबूद घोषित कर दिए जाते थे। लेडी श्रीराम भी शायद उन्हीं में था।
उसी मानसिकता में जब आदित्य को भी पाया तो एक नैसर्गिक मैत्रीभाव उगते ही पुख्ता हो उठा था।
‘‘मैं रविंशा कॉलेज कटक से’’ उसने कहा।
‘‘मैं श्यामलाल कॉलेज दिल्ली से’’ मैंने जोड़ा।
यह उन्हीं दिनों की बात है जब हिन्दू कालेज से आए राकेश गोस्वामी ने स्टीफन के मयंक रतूड़ी को अपने परिचय में सगर्व कहा था, ‘‘मेरे पिताजी सोशियॉलाजी के प्रोफेसर हैं’’
‘‘कौन?’’
‘‘तुम नहीं जानते’’
‘‘नहीं’’
‘‘प्रोफेसर दिनेश गोस्वामी’’
‘‘अबे प्रोफेसर है तो क्या झांट कूटेगा!”
मैं और आदित्य ठीक पीछे की सीट पर थे। आदित्य और राकेश बस इतना ही जान पाए कि राकेश को ‘स्नब’ कर दिया। पंचलाइन के निकलते ही मेरी हँसी छूट भागी। इसी बाबत मयंक से दोस्ती की पूरी गुजाइश दिखी जो साकार भी हुई। उस दिन यह भी लग गया कि डी-स्कूल की जिन दीवारों को हमने पवित्रता से परे की पवित्रता का दर्जा दिया हुआ है, उस पर भी किसी भदेस रंगरेज ने कूचियां फिराई हुई हैं।
अपने डगमगाते मनोबल को इस वाकये ने बड़ी नाजुकी से संभाल दिया था।
मयंक को तो इसी दिन से ‘पहाड़ी’ का सर्वनाम नवाज दिया गया था।
पूरे हींग-कुलीन माहौल में अपने जैसे ‘देसियों’ की अलग जगह बनने लगी थी।
एक पखवाड़े के बाद मेरा नामकरण ‘अंकल’ कर दिया गया।
संदर्भ था उसी दिन रिलीज हुई ‘खलनायक’ फिल्म के प्लाजा में प्रथम शो का समूह दर्शन।
बस स्टॉप पर ही आते हुए वाहन को देखकर एक कमसिन ने मुझसे पूछा, ‘‘अंकल ये बस कनॉट प्लेस जाएगी?’’
इससे पहले कि मैं उसके प्रश्न के आपत्तिजनक भाग पर सोच पाता, मुंह से निकल गया ‘‘हां’’
उस दिन के बाद से विनय कुमार कंसल को ‘अंकल’ ने सर्टिफिकेटों के सिवाय सभी जगहों से धकेल दिया था। शुरू में जरूर कुछ असुविधा लगी। मन में खयाल भी आया कि मैं भी औरों की ‘चिलम’, ‘ढक्कन’, ‘घंटू’ या ‘आड़ू’ जैसे ‘सम्मान’ परोसूंगा लेकिन बात कुछ बन नहीं पाई। एक-दो महीने में ही मैं ‘अंकल’ के साथ कंफर्टेबल हो गया था। कोई कहता, ‘‘साले अंकल, कल क्यों नहीं आया’’ या ‘‘अंकल, ज्यादा चुतियापा मत कर, चल’’ तो मुझे कुछ भी अटपटा नहीं लगता।
वैसे भी मेरे टकलू होने की शुरुआत तो हो ही चुकी थी।
हां, सतपती ने मुझे विनय कहना बहुत देर बाद छोड़ा। वह भी मेरे कहने पर क्योंकि घर पर ‘विन्नी’ तथा डी-स्कूल में ‘अंकल’ मेरे अवचेतन से इस कदर चस्पां हो गए थे कि ‘विनय’ के लिए जगह ही नहीं बचती थी।
बस टीचर्स अपवाद थे।
हम दोनों प्रगति मैदान एक प्रदर्शनी देखने जा रहे थे। माल रोड से ही ‘मुद्रिका’ पकड़नी थी।
‘बाई साब ये बस प्रगति मैदान जाएगा?’ पायदान से आगे चढ़कर, खाली-सी बस में अपनी टूटी-फूटी हिन्दी के सहारे सतपती ने कडंक्टर से पूछा।
‘‘किसी को बताइयो नई’’
अपने कागज पर कुछ काट-पीट करते कंडक्टर ने बिना नजरें उठाए कहा।
मैंने उसे दो रुपये थमा दिए और लोट-पोट हँसने लगा। सतपती भौंचक और ठगा-सा था। उतरते ही जब मैंने उसे सूत्र समझाया तो पूरी भड़ास के साथ बोला, ‘‘साला बहुत चूतिया था’’ हमारे साथ रहकर उसे इस शब्द की सार्वभौमिकता का ज्ञान हो चुका था। बेवकूफ, ठुस्स या गंवार से ऊपर की चीज होता है यह …
‘‘चूतिया नहीं जाट था, वह भी हरियाणवी।’’ मैंने समझाया।
लौटते वक्त हम अपनी बस के इंतजार में ही थे कि तभी कुछ झिझकते हुए वह बोला ‘‘विनय एक कॉइन…’’
मैं दहल उठा।
महीने से भी ऊपर हुए परिचय के दौरान उसे वही आधी बाजू की हरी कमीज और भदमैली चप्पलें पहनते देख मुझे उसकी तंगहाली का अहसास तो हो रहा था पर यह ज्ञान कदाचित नहीं था कि वह इस कदर फप्फस है।
बांय-बांय करती असहजता के बावजूद मैंने पांच का एक नोट उसकी हथेली में चिपका दिया। ‘‘नो-नो एक कॉइन विल डू’’
प्रतिरोध में कहीं आत्मसम्मान भी घुला हुआ था लेकिन जरूरत उस पर भारी पड़ रही थी।
‘‘कीप इट’’
कहकर मैं बिना देखे ही आई हुई एक बस में घुस गया।
उसके बाद एक-दो रोज सतपती मिलने पर असहज-सा हो जाता। उसे लग रहा था कि बहुत जल्द ही मेरे समक्ष निर्वस्त्र हो गया था।
कक्षाएं सुबह 9.20 से प्रारंभ होकर दोपहर 1.10 तक चलती थीं। तीन बजे के बाद रतन टाटा लाइब्रेरी (जिसे सभी लोग आर.टी.एल कहते थे) में जमने वालों को पोटुओं पर गिना जा सकता था।
सतपती हमेशा दिखता था।
ऐसे ही एक रोज हम कैंटीन के बजाय पानसिंह की गुमटी पर चाय पी रहे थे।
तभी उसने खुलासा किया था।
उसके परिवार में मां के अलावा एक छोटी बहन और है,गांव में। दोनों घर-बाहर में मजदूरी करके, बांस के छबड़े-डलिया बनाकर गुजारा करते हैं। पिता भी मजदूर थे, भूमिहीन मजदूर, लेकिन उसके दो बरस का होते ही वे चल बसे। कोई जान नहीं पाया उन्हें क्या हुआ था। मां का कहना है उन्हें पीलिया था। सम्पत्ति के नाम पर गांव के सिमाने पर बनी चालीस-पचास झोंपड़ियों में एक उसकी भी है। शुरू में वह भी गांव में मजदूरी करता था लेकिन कुछ दिनों बाद वह पड़ोसी बड़े गांव में भी जाने लगा। यहां पर एक स्कूल भी था। वहीं से उसने पढ़ना शुरू किया।
दूर के रिश्तेदारों में एक प्रशांत भाई थे जो उसे पढ़ने के लिए खूब उकसाते थे। मां ने कह दिया, ‘‘बेटा, रोटी के लिए मैं तुझसे आसरा नहीं रखती पर पढ़ाई के लिए तू मुझसे उम्मीद मत रखना।’’ इसका नतीजा यह हुआ कि प्रारंभिक दौर में ही उसे कई मर्तबा एक ही क्लास में कई प्रयास करने पड़ गए। स्कूल की फीस दस या बारह पैसा हुआ करती थी, लेकिन उसे भी भरना किसी विपत्ति से कम नहीं लगता था।
दस रोज भूखा रहकर भी लगता था महीना कितनी जल्दी आ जाता है। किसी गांववाले की शादी-बारात में भरपेट भोजन होता था। एक-दो अध्यापक सहृदय थे, लेकिन जहां अधिसंख्य छात्र उसके जैसी ही स्थिति में हों तो कौन अध्यापक किस-किस की मदद करता।
आठवीं तक की पढ़ाई उसे सबसे मुश्किल लगी, क्योंकि उसके बाद एक तो वह शारीरिक रूप से अधिक श्रम करने लायक हो गया था। दूसरे, प्रशांत भाई के प्रयासों से उसकी फीस माफ की जाने लगी थी। नौवीं के बाद प्रशांत भाई ने उसे संभलपुर के स्कूल में डलवा दिया था। अपने से छोटी कक्षाओं के बच्चों को ट्यूशन देकर वह तभी अपना खर्च निकालने लगा था। 12वीं में साइंस स्ट्रीम में रहने का कारण ट्यूशंस ही थे। प्रशांत भाई उससे तीन-चार साल बड़े थे और स्कूल में ही नहीं, जिले में भी प्रथम आते थे। पिछले साल ही रिजर्व बैंक ज्वॉयन किया है उन्होंने। जे.एन.यू से एम.फिल करने के बाद। उन्होंने ही जैसे उसके करियर की लकीर अपने कदमों से खींची है। बारहवीं में रैंक होल्डर होने के बावजूद उन्होंने ही बी.एस.सी के बजाय उसे बी.ए.आनर्स करने का सुझाव दिया था।
कटक के रविंशा कॉलिज में दाखिला मिल गया तो फिर उन्होंने ही डी-स्कूल के शौर्य से उसे परिचित करवाया था। अर्थशास्त्र का शायद ही कोई नोबेल लौरियेट हो जो कभी न कभी वहां भाषण देने न आया हो, उन्होंने बताया था।
प्रशांत भाई की अपनी स्थिति भी कोई ठीक नहीं थी, मगर वह बहुत हिम्मती आदमी हैं और दूसरों को भी हिम्मत देते हैं। रविंशा कॉलिज में न सिर्फ उसकी फीस माफ रही, बल्कि वजीफा भी मिलता था, जिसकी बचत से वह दिल्ली आ पाया।
यहां भी प्रशांत भाई ने ही ग्वॉयर हॉल (हॉस्टल) के अपने एक उड़िया मित्र का उसे गेस्ट बनवा दिया है, लेकिन आज स्थिति यह है कि सिर छुपाने को छत तो उसे मिल गई है, मगर हर शाम, खाने के लिए उसे कुछ ‘जुगाड़’ करना पड़ता है। इसमें शामिल है अपने पुराने और हमदम पेशे-ट्यूशंस की खोज…
इतना कहकर वह एकदम उठ खड़ा हुआ ‘‘विनय, मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया है, पर तुम किसी को नहीं बताओेगे, मुझे उम्मीद है। यह ठीक है कि मैं अपने समय और जीवन से युद्ध कर रहा हूं, पता नहीं क्या अंजाम हो लेकिन मैं सफल होकर ही रहूंगा। यह मेरा कठिन समय है मगर हर स्याह रात सूर्योदय तक ही तो रहती है।’’
उसके हौसले और साफगोई का मैं उसी वक्त कायल हो गया था। गांव से चलकर डी-स्कूल आने का मेरा ग्राफ मुझे बेहद संघर्षपूर्ण लगता था लेकिन सतपती के जीवन के सम्मुख वह बहुत ही बौना और आरामदायक लगने लगा था।
मणि भाभी को विश्वास में लेकर मैंने उनसे सतपती के लिए सौ रुपये मांगे थे जो उन्होंने सतही तकल्लुफ के बिना ही दे दिए थे। इधर पहाड़ी और अरुण नागपाल ने मिलकर उसके लिए किसी से ढाई सौ रुपये मासिक का इंतजाम करवा दिया था। वह उसके मैसादि के खर्चे का ‘पोत’ पूरा करा देता था।
हां, वह सब होते-होते कोई छः-एक महीने तो निकल ही गए थे।
दिसंबर के आखिर तक दिल्ली में सर्दी अपने यौवन पर आ चढ़ती है। आर.टी.एल. के तमाम खिड़की-दरवाजे बंद रखने पर भी अध्ययन कक्ष इतना विराट तो था ही कि अपने मेहमानों को दो-दो स्वैटर पहनवा दे। सतपती के पास था एक घिसा हुआ मैरून रंग का आधा स्वैटर और वही आधी बाजू की हरी धारीदार कमीज।
मगर सतपती डटा रहता।
नववर्ष के रोज भी मैंने उसे अपनी ‘उसी’ सीट पर जमा पाया जो तब तक उसकी ‘पैट’ हो चुकी थी। उसी दिन मैंने ज्योति भटनागर को उसकी सीट पर, झुककर बातें करते देखा था।
अपने गैंग के व्याकरण के हिसाब से ज्योति क्लास की सबसे ‘तर माल’ थी। 36-24-36 की लुभावनी आकृति। सेक्सी, सांवला रंग। ठीक-ठाक नैन नक्श। ऊपर से अमीर।
सतपती बेटा तर माल खाओ और तर जाओ!
सतपती ने लेकिन हर बार जिरह करने पर यही बताया कि उन दोनों के बीच ऐसा-वैसा कुछ भी नहीं है।
‘‘लेकिन हमारे गुट में पांचों में क्या तू ही सबसे स्मार्ट है?’’
पंकज जैसे तराजू लेकर बैठा था।
‘‘नहीं तो’’
‘‘तो बता फिर क्या है तुझमें जो…’’
‘‘मैं क्या कह सकता हूं, वैसे जब कुछ है ही नहीं तो…’’
कहकर वह जान छुड़ाने की कोशिश करता।
हम सब जानते थे कि दोनों के बीच कुछ भी नहीं था, शायद कुछ हो भी नहीं सकता था लेकिन इसी बहाने मितभाषी सतपती की टांग खींचने में कोई बुराई नहीं लगती थी। ज्योति के गुदगुदे कोणों-त्रिकोणों से मसखरी करने का शायद सतपती एक नायाब माध्यम था।
पूरे वर्ष न तो उसने क्लास में कोई प्रश्न पूछा था और भागती-सी ‘हलो’ से ज्यादा किसी लड़की से बात भी नहीं की थी। इसके बावजूद वह हमारे जैसे लुक्का-छिनाल गैंग का हिस्सा था, यही बात सभी को चकित करती थी। लेकिन यह सच था।
एम.ए प्रीवियस का रिजल्ट काफी चौंकानेवाला था।
स्टीफन-हिन्दू से प्रथम श्रेणी से बी.ए किए कई धुरंधर तीसरे खाने चित्त पड़े थे।
हम लोग ठीक-ठाक पास थे।
पहाड़ी की प्रथम श्रेणी थी।
बस सतपती लुढ़क गया था।
ज्योति ने टॉप किया था।
‘‘कितना ही टॉप कर ले, आएगी तो नीचे ही।’’
भड़ास, तहेदिल से अरुण के मुंह से निकली थी।
‘‘यार ये तो एक नीच ट्रेजडी हो गई।’’ यह पहाड़ी था।
‘‘डोंट वरी, आई विल फाइट बैक।’’
हमारे सामूहिक अफसोस पर सतपती ने दिलेरी दिखाई थी।
और मैं तो अच्छी तरह मानने लगा था कि सतपती भरपूर दिलेर है। एक वर्ष रहकर वह डी-स्कूल की संस्कृति से एक्लैमिटाइज्ड हो ही गया था। अंतिम वर्ष वाले भी बहुत लोग प्रीवियस के कई पर्चों को अमूमन दोहराते ही थे–बेहतर प्राप्तांकों के लिए। कोई एक, तो कोई दो। क्या हुआ, सतपती चारों परचे दे देगा? पहाड़ी और अरुण का किया हुआ इंतजाम भी एक वर्ष और खींचा जा सकता था। गोपनीयता की शर्त पर उसने मुझे यह भी बता दिया था कि नतीजों से पहले ही उसे नजदीक मुखर्जी नगर में ही एक ट्यूशन मिल गई थी। बी.ए की। अतः अब वह ज्यादा दत्तचित्त होकर पढ़ सकेगा। हां, यह जरूर है कि कुछ चीजें बिला वजह स्थगित हो जाएंगी। जब आपकी लड़ाई ही समय के खिलाफ हो तो समय खोना उन जरूरी मोहरों को खोना हो सकता है जो अंततः उसके अंजाम को ही बेमानी सिद्ध कर दें।
सतपती पर इसका असर साफ था। वही लैक्चर हॉल, वही कुर्सियां, वही परचे और वही अध्यापक। जो चीज पहले एक मीठी घुट्टी लगती थी, इस बार एक कड़वी दवा से भी बदतर दिखती थी, लेकिन मकसद भी तो सामने था। सनद थी कि डी-स्कूल से पढ़ा प्रशासन, शोध और शिक्षा यानी किसी भी जगत की आखिरी हदों तक पहुंचने का माद्दा रखता है। उसके लिए सब कुछ जैसे पकी पकाई खीर की तरह आता है और वह सब तब, जब वह उच्च शिक्षा के लिए विदेश नहीं जा रहा है।
हां, उसे डी-स्कूल की रगड़ाई तो बर्दाश्त करनी पड़ेगी।
सोना आग से गुजरकर ही तो गहना बनता है।
ये सब बातें जितना हर कोई जानता था, उतना ही सतपती भी। इसलिए सत्र खुलते ही उसने आर.टी.एल में फिर से चौकड़ी जमानी चालू कर दी। उससे वहीं खुसर-पसर बतियाते पता लगा था कि ज्योति ने अपने पिछले साल के नोट्स उसे दे दिए हैं और अपनी तरफ से पूरे सहयोग का आश्वासन भी।
‘‘पूरे सहयोग का’’ अरुण ने शब्दों को खींचकर कहा।
‘‘ओ कम ऑन
’’ कहकर वह ब्लश कर गया।
‘‘तेरी इसी अदा पर तो वह मरती होगी।’’ यह मैं था।
बगल में बैठे एक खडूस पाठक ने ‘एक्सक्यूज मी’ कहकर हमारी बातों पर वहीं पूर्ण विराम लगा दिया।
इन दिनों आर.टी.एल ही सतपती से मिलने का विश्वसनीय स्थली बन गई थी क्योंकि इधर वह अपनी कक्षाओं में रहता और उधर हम लोग अपनी में। किसी भी प्रोफेसर के लेक्चर को ‘बंक’ करने की हमारी सामर्थ्य नहीं थी क्योंकि वही चीज किसी पुस्तक या जर्नल से पढ़ने का अर्थ था पूरे दिन का सफाया और फिर भी बात ‘उतनी’ नहीं बन पाती थी।
लेकिन तमाम मेहनत और एकाग्रता के साथ-साथ हमें यह बहुत साफ दिख रहा था कि हम सही जगह पर हैं। इसलिए हौसले शायद ही कभी नाबुलंद हुए हों।
सतपती अवश्य कुछ मुर्झाया-मुर्झाया दिखता था।
‘‘इस बैच के छात्र अपने जैसे नहीं हैं।’’ उसने महीने भर बाद नतीजतन कहा।
पीछे छूट जाने के बाद भी वह अपना तादात्म्य हमारे साथ बिठाता था।
‘‘सभी बैचिज एक से होते हैं आदित्य, द लॉ ऑफ एवरेजिज इज देयर एवरीव्हेयर। उन्नीस-बीस का कोई फर्क हो तो हो…’’
‘‘उन्नीस-बीस का नहीं, बहुत ज्यादा का फर्क है’’ वह अडिग था।
‘‘हां, एक फर्क तो यही है कि…ज्योति या उसके ‘टक्कर’ का माल इसमें नहीं है’’
पहाड़ी ने चुस्की ली।
‘‘तुम लोग हमेशा गलत समझते हो।’’ वह खिन्न हो उठा।
‘‘नहीं यार मैं तो मजाक…’’
पहाड़ी ने तुरंत पल्टी खाई।
‘‘अब यार तुझे पूरे बैच से क्या लेना, तुझे तो पढ़ना है ना… और फिर हम लोग तो यहीं हैं ना…’’ अरुण ने हौले से हस्तक्षेप किया। ‘दैट आई नो’ उसके शब्द कुछ अनकहे से थे।
बाद में अरुण ने पहाड़ी को समझाया था कि ज्योति को लेकर वह उसे ‘टीज’ न किया करे क्योंकि लगता है ज्योति को लेकर सतपती बहुत ‘टची’ हो उठता है।
वैसे भी कहां राजा भोज कहां गंगू तेली!
दशहरे की पाक्षिक छुट्टियां चल रही थीं। आर.टी.एल जाने के लिए मैं डी-स्कूल में प्रवेश करनेवाला ही था कि पानसिंह की गुमटी से झटका खाकर एक आवाज मुझ तक पहुंची, ‘अंकल’।
यह सतपती था।
मेरे पूरे होशो-हवास में वह पहली बार मुझे ‘अंकल’ बोला था। दो रोज पहले ही इस मामले में हमारी बात हुई थी।
‘‘चाय पीनी है?’’ मैं मुड़ा तो हाथ का अंगूठा अपने मुंह की तरफ इंगित कर उसने पूछा।
‘‘पी लेते हैं’’
चाय खत्म होने को थी।
मैंने देखा वह कुछ कहना चाहते हुए भी नहीं बोल रहा है।
‘‘कोई खास बात?’’ मैंने दो टूक पूछा।
‘‘खास तो है, पर सोचता हूं पूछूं कि नहीं…’’
इस सस्पैंस पर मुझे कड़क होकर कहना ही पड़ा, ‘‘क्या बात है, बोल ना’’
कुछ क्षणों के लिए उसके चेहरे पर एक मातमी संगीनियत पसर गई या जो पहले से बैठी थी और भभक गई।
मैं भी निःशब्द रहा। कुछ प्रतीक्षारत-सा। पता नहीं क्या हुआ इसे?
‘‘गांव से लैटर आया है’’ बमुश्किल कुछ शब्द निकले।
‘‘क्या?’’
‘‘गांव में आग लगने से कई घर नष्ट हो गए हैं…हमारा भी…मां ने कहलवाया है कि या तो मैं वापस आ जाऊं या कुछ इंतजाम करवा दूं।’’
‘‘…’’
‘‘…’’
‘‘अंकल, क्या कुछ हैल्प हो सकती है?’’
आवाज में निरीह भाव रिस रहा था।
पांव का अंगूठा जबरन जमीन से मिट्टी खुरचने में लगा था।
आंखें, न मिलने के प्रयास में इधर-उधर भटक रही थीं।
‘‘क्यों नहीं यार, लेकिन यार मेरी हालत भी तू जानता ही है…सौ पचास से ज्यादा…’’
मैंने पूरे सहयोग और स्पष्ट भाव से कहा।
‘‘इससे ही काफी हो जाएगा।’’
कहकर उसने अपनी जेब से एक कागज निकालकर मेरे आगे कर दिया।
कोई 20-25 नाम थे।
‘‘द लिस्ट बिगिंस विद यू’’ शब्दों में अनचीन्हा सुकून सना था।
पहाड़ी, अरुण और पंकज के भी नाम थे। ज्योति भी थी, हालांकि काफी नीचे।
देर रात तक कशमकश कर लिस्ट बनाई गई लगती थी।
कुछ रोज बाद, मौका मिलने पर, उसकी अनुपस्थिति में जब मैंने अपनी चौकड़ी में बात चलाई तो पहाड़ी मुझ पर बिफर पड़ा।
‘‘अंकल, तुझे जो हैल्प करनी है कर दे, वी आर नॉट गोइंग टू डिश आउट ए सिंगल पैनी…’’ पहाड़ी का एकदम क्रूर और निर्णायक रुख।
‘‘गांव में उसका घर जलकर राख हो गया है!’’
मैंने पहाड़ी को ठंडा कम, अपनी संवेदनाएं अधिक प्रकट करते हुए कहा।
‘‘सो व्हाट?’’
‘‘सो व्हाट का क्या मतलब यार, सतपती अपना याड़ी तो रहा ही है’’
‘‘याड़ी है अंकल, तभी तो हमने हमेशा उसके लिए सोचा है। तूने मुझे कभी नहीं बताया, लेकिन मुझे पता है तू भी उसकी मदद करता रहा है। दैट इज सो गुड ऑफ यू। बट नाउ ही इज टेकिंग अस फॉर ए राइड… वी हैव ऑवर लिमिटेशंस…’’ वह जैसे कुछ कहते-कहते झल्लाहट में रुक गया।
मैं जैसे किसी दलदल में फंस गया था। मेरी नीयत तो साफ थी मगर पहाड़ी की बात भी कुछ-कुछ जंच रही थी। पहाड़ी का यह वाक्य कि ‘पता नहीं इस आग वाली बात में कितना सच कितना झूठ है’ मुझे खराब नहीं लगी।
हमने तय किया कि इस बाबत आगे कोई बात नहीं होगी।
कुछ दिनों सतपती डी-स्कूल में नहीं दिखा, लेकिन जब मिला, तब विषय संबंधी छुटपुट स्पष्टीकरणों के अलावा हमारे बीच कोई बात नहीं हुई।
आखिरी दशक के पूर्वांद्ध की फरवरी की एक शाम थी।
अमरीकी अर्थशास्त्री गॉलब्रैथ का अभिभाषण हुआ था। तब हम सभी ने खूब मस्त होकर ठहाके लगाए थे।लेक्चर थिएटर के बाहर एक कोने में आठ-दस लोग घेरा बनाकर चाय के साथ गपिया रहे थे।
‘‘गॉलब्रैथ को तो अब गाल बजाना बंद कर देना चाहिए।’’
‘‘क्यों भई क्यों?’’
‘‘बुड्ढा कोई नई बात तो करता नहीं है, ‘एफल्यूएंट सोसाइटी’ के बाद बताओ इसने कोई ढंग का आर्टिकल भी लिखा हो…’’
‘‘अब देखो पहले बात करता था पूंजीवाद और समाजवाद के एकीकरण की, द ग्रेट थ्योरी ऑफ कनवरजैंस…देख लो आज क्या हो रहा है…’’
‘‘भई, थ्यौरी इज थ्यौरी, इट कैन गो रांग’’
‘‘यही तो आपत्ति है कि हमारा अर्थशास्त्र गेम थ्यौरी और फलां थ्यौरी बनकर रह गया है…जीवन से जुड़ना तो इसे प्रागेतिहासिक लगता है…हर किसी स्थापना की नींव में ही हमेशा हवाई मान्यताएं…’’
‘‘कुछ हद तक अपने महलॉनोबिस भी…’’
‘‘कहां महलॉनोबिस जैसा थियौरिस्ट और कहां खाली गपड़चौथ करने वाला गॉलब्रेथ…’’
‘‘हां, महलॉनोबिस भी…लेकिन उसकी स्थापनाएं गलत नहीं थीं…नेहरू ने उनके क्रियान्वयन के लिए जो ढांचा चुना, वही उन पर भारी पड़ गया…’’
‘‘ये तुम्हारी स्थापना नहीं मान्यता है…’’
‘‘तुम कुछ भी समझो। वैसे भी आज के अर्थशास्त्र ने दोनों के बीच कोई फर्क कहां छोड़ा है…जो आप स्थापित करना चाहते हैं, उसे पहले ही मान लो और फिर एक खूबसूरत मॉडल के जरिए उसे सांख्यिकी के अंजर-पंजर से ढांप दो’’
किसी भी नामी-गिरामी हस्ती के अभिभाषण के बाद इस तरह की खट्टी-मीठी डकारें अक्सर ही ली जाती थीं।
सतपती ऐसी किसी भी बहस का भागीदार न होते हुए भी पूरा रस लेता था।
शायद इन्हीं क्षणों में वह डी-स्कूल द्वारा उसे टिपाई गई घिनौनी नाकामी के दंश को झेलने की शक्ति तलाशता था। यही उसका जीवट था।
लेकिन इस वर्ष के नतीजों ने फिर से हमें स्तब्ध और झकझोर दिया।
सतपती किसी भी परचे में पास नहीं था। उधर पहाड़ी ने खूब नंबर खींचे थे। अरुण के डॉट चालीस फीसदी थे लेकिन इससे पहले ही वह प्रशासनिक सेवा का नियुक्तिपत्र ले चुका था। मेरा नतीजा भी खराब ही था क्योंकि कॉलिज प्रवक्ता बनने का मेरा सपना एक प्रतिशत नंबर कम होने की वजह से पूरा नहीं हो सकता था। हां, रिसर्च वगैरह में जरूर कहीं खप सकता था।
लेकिन सतपती वह अब क्या करेगा? होशियार भी है, मेहनती भी इतना। फिर भी ये हश्र? पूरा तब्सिरा करने के बाद हमें यही कहकर सब्र करना पड़ा कि हर साल डी-स्कूल जिन दो- चार अच्छे-अच्छों को ठिकाने लगता है, तो सतपती को भी लगा दिया।
पूअर फैलो, और क्या?
उन दिनों के बाद से जिंदगी रुकी हो, यह कौन कहेगा। बल्कि उसके बाद तो उसकी रफ्तार और फांय-फांय हो गई थी। पहाड़ी उच्चतर शिक्षा के लिए इंडियाना विश्वविद्यालय चला गया था। अरुण को मणिपुर कैडर मिला था और पंकज ने एक ही झटके में तीन-तीन बैंकों को क्वालीफाई करने के बाद स्टेट बैंक ज्वॉइन कर लिया था। मुझे एक बड़े संस्थापन में शोध-सहायक की नौकरी मिल गई थी जिसकी मेज-कुर्सी-पुस्तकालय का पूरा उपयोग मैंने सिविल सेवा परीक्षा के लिए किया था और घिस-घिसकर उस मुकाम तक पहुंच भी गया।
प्रारंभिक प्रशिक्षण के लिए जगह मिली थी नागपुर।
सतपती का उन दिनों के बाद से कुछ पता नहीं था।
अजब संयोग यानी सतपती से बाकायदा मुलाकात हो सकेगी! भंडारा तो वहां से नजदीक ही है। खत बंद करते-करते एक पुलकित भाव मुझमें प्रवेश कर चुका था। मैंने दिल्ली से ही उसे जवाब दे मारा। नागपुर अकादमी का अपना पता भी। सख्त हिदायत दी थी कि अपने रेलवे में होने का फायदा उठाकर यथाशीघ्र मिल ले। मजा आएगा। खूब बातें करेंगे।
और सच, मेरी अपेक्षाओं पर वह एकदम खरा उतरा। नागपुर वापसी के दूसरे रोज ही पट्ठा सामने था। वैसे ही गर्मजोशी और ‘सतपती’ खिलखिलाकर (दो-चार और उड़िया मित्रों से मिलने के बाद आज कह सकता हूं, जरूर इसका स्रोत वहां की जमीन ही होगी।) वैसा ही सांवला रंग। चेहरा पहले की बजाय भरा हुआ। पेट थुलथुल होने की अदृश्य तैयारी में। जूतों के चमड़े को देखकर ही लग गया था कि या तो सरकारी हैं या सस्ते स्थानीय।
समाचारों और सूचनाओं की अलमस्त अदला-बदली के बाद हम फिर-फिर कर डी-स्कूल और उससे जुड़ी हर शै पर अपनी चोंच चिकनाते रहे।
‘‘अपने गैंग का कोई मिलता है कभी?’’
‘‘अरे मिलना तो दूर, अब तो चिट्ठी-पत्री भी नहीं होती। मेरा तो तुम जानते हो वही स्थाई पता है, लेकिन जब साले दूसरे ही नहीं लिखते तो और क्या हो सकता है लगता है सब अपनी बीवियों में मस्त हो गए।’’
‘‘वक्त हमारा सब कुछ बदल डालता है और कैसे बदल डालता है, इसका भी आभास नहीं लगने देता है…अब मुझे ही लो…’’
‘‘हां यार, डी-स्कूल के बाद तुमने क्या-क्या किया, ये मैं पहले ही पूछना चाह रहा था?’’
मेरे पूछने पर, बताने से पहले, उसने बहुत दूर अंतरिक्ष को देखने जैसा भाव दिया। मन ही मन एक दो बार-शायद ‘कहां से शुरू करूं’ जैसा प्रयत्न किया।
मुझे उकसाना पड़ा। ‘‘बताओ-बताओ’’
‘‘डी-स्कूल ने जितना मुझे दिया, शायद उतना ले भी लिया। प्रशांतभाई ने वहां का अद्भुत सपना मेरे अंदर जगा दिया था और जब वहां मेरा एडमिशन हो गया तो एवरेस्ट शिखर पर चढ़ने पर तेनसिंह को हुई खुशी को मैंने महसूस किया था।रविंशा कॉलिज के प्रिंसिपल छोटाराय साहब ने मेरी पीठ पर हाथ फिराकर शाबाशी दी थी। पिछले पांच वर्षों में डी-स्कूल जाने वाला मैं पहला छात्र था। पहाड़ी, अरुण, पंकज और तुम्हारे जैसे दोस्त मिले…एक से एक महान और सादगी पूर्ण अध्यापक…कितना निश्छल और कम्पटीटिव माहौल…।
‘‘ज्योति भटनागर जैसी दोस्त!’’
उसकी संगीन होती फहरिस्त को मैंने कतर के हल्का किया।
‘‘हां ज्योति भटनागर भी।’’
उसने बिना संतुलन खोए स्वीकार किया।
यह मेरे लिए ‘न्यूज’ थी।
मैं सोच रहा था कि वह मेरी मसखरी को हर बार की तरह अपनी टांग खिंचाई के रूप में ही लेकर एक तरफ छिटक देगा।
‘‘तो क्या तुम दोनों बीच वाकई कुछ था?’’
मेरे अंतस के ठहरे हुए आशंकित डर में जैसे कुछ हलचल हुई।
ज्योति अपने से हरफनमौला बेहतर थी, लेकिन कोई अपने से दोयम उसे उड़ा ले जाए, यह भी तो सर्वथा अनुचित था।
‘‘था भी और नहीं भी,’’ अपनी हँसी को थोड़ा रिलीज करके उसने वापस खींच लिया। फिर बोला, ‘‘लेकिन, आज सोचता हूं, बहुत कुछ हो सकता था।’’
‘‘कैसे’ मैं मुद्दे तक पहुंचना चाह रहा था। उत्सुक और एकटक सुन रहा था।
‘‘वह बहुत ही समझदार लड़की थी… बहुत ही समझदार।’’
‘‘अब असली बात पर भी आएगा?’’
‘‘प्रथम वर्ष में फ्लंक होने के बाद एक दिन उसने मुझे रोककर कहा था कि अपने टॉप करने की उसे उतनी खुशी नहीं हुई, जितना मेरे फेल होने का दुःख। मैं हैरत में आ गया कि जिस लड़की से ‘हैलो हाय’ के अलावा एक शब्द का आदान-प्रदान न हुआ हो, वह कैसे इतनी तरल भावना से सोच सकती है। लेकिन उसी ने बताया कि वह हमारे गुट में मेरी मौजूदगी को बहुत चुपचापी से लक्ष्य करती रही है। वह इसी बात की कायल थी कि एक नंबर के भदेसों के साथ रहकर भी मेरे मुंह से कभी टुच्ची बात नहीं निकली। दूसरे क्लासमेट्स भी, जिक्र आने पर, मेरे बारे में अच्छी राय ही देते थे। तुम्हें मालूम नहीं होगा, अपने क्लास नोट्स भी उसने अपने घर यानी ग्रेटर कैलाश बुलाकर दिए थे। उसका घर, बाप रे, क्या आलीशान था? उसे देखकर मैंने सोचा था कि पांच सितारा होटल भी शायद और क्या होते होंगे। उसके पिता फौज से बिग्रेडियर रिटायर होकर दो- चार बड़ी कंपनियों के सलाहकार हो गए थे। मां कपड़ों के निर्यात की एक बड़ी फर्म चला रही थी। एकमात्र बड़ा भाई, अमेरिका में कानून की पढ़ाई करने के बाद वहीं किसी मशहूर फर्म के लिए काम कर रहा था। डी-स्कूल में वह जितनी मितभाषी थी, अपने घर पर उतनी ही गर्मजोश और बातूनी। उसकी पहल को देखकर कई बार मैंने अपनी किस्मत को धन्यवाद किया। डी-स्कूल आना मानो उसके सान्निध्य में सार्थक हो गया। पता नहीं क्या सोचकर उसने मुझे दिलासा दी थी कि डी-स्कूल ही दुनिया में सब कुछ नहीं है। मैं विश्वविद्यालय से लॉ कर सकता हूं, जिसके बाद किसी भी सीनियर वकील के साथ काम मिल जाएगा”
“मैं उसके स्नेह से विवश होकर ‘उस तरफ’ जाने न जाने की ऊहापोह में ही था कि तभी गांव में आग लगने का हादसा हो गया। तुम लोग तो किसी कारणवश कुछ नहीं कर पाए थे, पर मैं इतना मजबूर था कि ज्योति का ही सहारा…उसने बिना कोई सवाल किए तीन हजार मुझे थमा दिए जो उस विपदा से निबटने के लिए पर्याप्त थे…
उसके बाद अंकल, मुझे अर्थशास्त्र जैसे विषय में रुचि कम, संशय अधिक होने लगा। मुझे पता नहीं क्यों और कैसे लगने लगा कि उपभोक्ता, विक्रेता और अर्थव्यवस्था के जिन मॉडल्स और समीकरणों को इकॉनामैट्रिक्स के जरिए डी-स्कूल हमें सिखा रहा था, उनमें कितनी मूलभूत गड़बड़ है, झूठ है? जिन समीकरणों की ओट में मुझे गांव में अपनी जली हुई झोंपड़ी दिखती थी, हो सकता है, ज्योति या पहाड़ी को उसमें, उसी समय योजना आयोग दिखता हो…और हो सकता है दोनों ही अपनी जगह ठीक हों… तो फिर ये माजरा क्या है?
मैं मानता भी था कि इस मानसिक बुनावट में एक घातक कच्चापन है लेकिन अपनी हालत को जब मैं ज्योति के साथ रखकर देखता तो यही लगता कि तकदीर या किस्मत नाम की भी कोई चीज होती है जो हम सबकी जिंदगी ही नहीं, जिंदगी के आगे-पीछे को भी तय कर देती है।
तुमने देखा होगा, मैं कितनी निष्ठा और लगन के साथ पढ़ता था। दूसरे वर्ष में तो मुझे डी-स्कूल की कार्यपद्धति की भी काफी कुछ खबर हो गई थी(कम लिखो, समीकरणों में बात करो) लेकिन उस ढलान की रपटन ने न मुझे सांस लेने दी, न सीधा होने दिया…नतीजा तो वही होना ही था, जो हुआ…’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’
मैंने गहरी सांस ली और ऐसे पूछा जैसे कोई परी-कथा सुन रहा था।
‘‘प्रशांतभाई को जब पता लगा तो बहुत दुखी हुए थे। उन्हीं दिनों मध्य रेलवे में तरह-तरह की रिक्तताओं का बड़ा विज्ञापन उन्होंने देखा था। अर्हता थी बारहवीं में विज्ञान विषयों में कम से कम 50 प्रतिशत अंक। बस, भरवा दिया। हां, साक्षात्कार के समय मध्य रेलवे में ही उच्चासीन उड़िया अफसर से परिचय निकाला गया। फॉर योर इन्फॉरमेशन, वही मेरे ससुर हैं। मानसी नाम है पत्नी का। शादी का सारा खर्चा उन्होंने ही उठाया था।’’
इतना कुछ बोलने के बाद भी मुझे लगा सतपती कुछ कहते-कहते रुक गया है।
मैं भी कुछ नहीं बोला, मुंह लटकाए देखता भर रहा।
कुछ सोचकर वह फिर बोला ‘‘आई थिंक आई शुड नॉट टैल यू दिस…’’
पता नहीं क्या पहेली बुझा रहा है। नहीं ही बताना है तो भूमिका क्यों बांध रहा है।
‘‘आई विल नॉट प्रैस…ऑल अपटू यू,’’
मैंने सामान्य होकर उसे सहज करने के लिए कहा।
हॉस्टल बॉय दोपहर बाद वाली चाय ले आया था। कमरे में कप एक ही था। अपनी चाय मैंने गिलास में भरवा ली।
मैं तो चुप था ही, पर उसने भी मौन साध लिया।
चाय की सुड़क-सुड़क बहुत भारी होकर कमरे की निःशब्दता बींध रहा थी।
‘‘चलो तुम्हें अपना कैम्पस दिखाता हूं।’’
मेरे सुझाव ने जैसे बहुत सुलहपूर्ण मार्ग निकाल लिया था।
सीढ़ियों से नीचे उतरकर हम लाइब्रेरी की तरफ मुड़े ही थे कि चुप्पी तोड़ते हुए उसी ने पूछा, ‘‘अंकल तुम्हारी जन्मतिथि क्या है?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘बताओ तो’’
‘‘ग्यारह जून…तुम्हारी’’
‘‘बीस फरवरी’’
यहां तक की अदला-बदली में कोई बुराई नहीं थी। दोस्तों को यह पता रहे तो अच्छा ही है।
‘‘तुम अपना आयडल किसे मानते हो?’’
‘‘वैसे तो कई हो जाएंगे, लेकिन किसी एक का नाम लूं तो वह होंगे महात्मा गांधी।’’
मैंने उत्तर तो दिया, लेकिन समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या सूत्र भिड़ा रहा है।
‘‘होंगे ही।’’ उसने किसी दिव्य ज्ञान के विश्वास से कहा।
‘‘अबे बस कर, बहुत हो गया’’
दरअसल उसके उत्तर में मुझे किसी फूहड़ टोटके की बू से अधिक कुछ नहीं लगा था।
‘‘ग्यारह जून ही बताया था न एक एक और एक कितने होते हैं, दो ना और गांधीजी का जन्मदिवस क्या है, दो …अक्टूबर।’’ मेरी खीज पर उसने तर्क कसा।
उससे भिड़ने की यहां काफी गुंजाइश थी लेकिन मेरा कतई मूड नहीं था।
‘‘तेरी जन्मतिथि के अंकों का योग भी तो दो ही बनता है…गांधीजी तेरे आदर्श नहीं हैं क्या?’’
उसी के शस्त्र से खेलने पर मुझे अपनी प्रगल्भता पर गुमान हो आया।
‘‘योग तो दो ही बनता है, लेकिन साथ में जीरो आने से सारी गड़बड़ हो रही है।’’
लो, अब कुछ नहीं तो यही शगूफा। खैर, बचकर कहां जाएगा?
लाइब्रेरी से पहले एक सूखी हुई नाली थी जिस पर एक पुलिया बनी थी।
साफ सफील देखकर हम वहीं बैठ गए।
‘‘क्या गड़बड़ हो रही है भाई…तेरा जितना कठिन वक्त था, गुजर गया। नौकरी मिल गई। घर है, परिवार है…और यूं देखो तो कुछ न कुछ तो जिंदगी भर लगा ही रहता है।’’
मुझे लगा मैंने अपने अनुभव से पार जाकर कुछ कहा है। मेरे जवाब पर प्रतिक्रिया के बजाय वह बोला, ‘‘वो बाद में…पहले तुम अपनी जन्मतिथि के अंकों का योग करो। 11 जून, 1972 ही है ना। कितना हुआ 27 यानी नौ। अब गांधीजी की जन्मतिथि लो, 2 अक्तूबर, 1869 ही है ना। कितना हुआ 27 यानी नौ।’’
मैं यकीन नहीं करना चाहता था लेकिन उसके तर्क ने फिर भी मुझे निष्कवच-सा कर दिया। बिना किसी पूर्व सूचना के मेरे और गांधीजी के बीच उसने जो सूत्र बांधा था, वह कितना ही बीरबल की खीर हो, उतना बेसिर-पैर नहीं था जितना मैं सोच सकता था।
‘‘तो तुम क्या ज्योतिष वगैरह को मानते हो?’’
मेरे मुंह से बेसाख्ता बस यही निकला।
‘‘मानता नहीं, जानता भी हूं, अपने हिसाब से कुछ-कुछ, दूसरों के हिसाब से ठीक-ठाक।’’
‘‘तुम इसके चक्कर में कैसे आ गए यार…कहां डी-स्कूल का पढ़ा अर्थशास्त्र और कहां ज्योतिष… व्हाट इज द कनैक्शन मैन…’’ मैंने सरसरी चुटकी ली।
‘‘कनैक्शन भी शायद डी-स्कूल ही रहा है। मैं तुम्हें बता रहा था ना कि दूसरे वर्ष में खुद और दुनिया के अर्थशास्त्र को लेकर मैं एक निश्चित मोहभंग की गिरफ्त में आ गया था…मैंने बताया था कि मुखर्जी नगर में मैं एक ट्यूशन पढ़ाने जाता था ताकि डी-स्कूल के लिए अपना इंतजाम सुदृढ़ बना रहे। लड़की का नाम दिव्या था। पिता का नाम दुष्यन्त कुमार। पढ़ाने में तो खैर मुझे बोरियत होती थी लेकिन मैं कौन सा शौकिया पढ़ा रहा था। दुष्यन्त कुमार ज्योतिष में गहन रुचि रखते थे। दिव्या को पढ़ाने के बाद हम लोग रोज ही ज्योतिष पर ढेर सारी बातें करते। अब देखूं तो लगता है कि आपको ज्योतिष में रुचि होगी या नहीं, यह भी आपकी कुंडली से निर्धारित होता है, लेकिन तुम ये मान सकते हो कि दुष्यन्त कुमारजी ने ही मेरे रुझान को इस तरफ किया और दुष्यन्त कुमारजी तक पहुंचने के लिए डी स्कूल ही जिम्मेदार था। उन्होंने ही पहली बार मेरी जन्मकुंडली बनाई थी और तभी भविष्यवाणी कर दी थी कि मेरी नौकरी और शादी लगभग साथ-साथ होंगे, सूर्य और शुक्र के एक ही भाव में रहने के कारण…हल्के इशारे से ही उन्होंने बताया था कि तब तक शनि की मेरी अवस्था ‘शुभ’ नहीं चल रही थी।
तभी से प्री-ऑर्डेंड या भाग्य जैसी चीज पर मेरा भरोसा बढ़ने लगा। अब पिछले चार सालों में तो काफी कुछ पता चल गया है। ज्ञान, अनुभव और अंतर्बोध का ज्योतिष में बहुत महत्त्व है,लेकिन आई टैल यू वन थिंग… एस्ट्रालॉजी इज मोर परफैक्ट ए साइंस दैन इकॉनोमिक्स…’’
अंग्रेजी में कहा अंतिम वाक्य किसी फलसफे की तरह नहीं, एक साकार जीवन रस की तरह टपका था–भावभंगिमा की पिच का गीयर एकदम आगे बदलकर।
यह एक ऐसा मुद्दा था जिसमें अपनी नई भदेस मंडली यानी मुझ समेत सोमा शेखर रेड्डी, गुरमीत सिंह, पीयूष जैन और अशोक दहिया की अगाध दिलचस्पी थी। थी या मला-मलाया ज्योतिषी हॉस्टल में उपलब्ध होने से हो गई, नहीं कह सकता। सभी अभी तक परंपरागत अर्थ में कुंवारे थे और एक सम्मानित नौकरी के शेर पर सवार होकर ‘सुंदर, मेधावी, अमीर और पारिवारिक’ के चौखटे में गढ़ी एक अदद कन्या बाजार में न मिल पाने के कारण एक ‘आनरेबल एग्जिट’ के लिए आमादा हो रहे थे। इसीलिए ज्योतिष शरणम् गच्छामि हो रहा था।
और सचमुच, सतपती ने हमारी पूरी मंडली पर अपनी जादुई सामर्थ्य के झंडे गाड़ दिए। जन्म तिथि, जन्म समय और जन्म स्थान, बस इन्हीं तीन चीजों के सहारे पहले वह ‘जो हो चुका है’ पर बारीक टिप्पणी करता, हरेक की मनोवृत्ति और मनोदशा के बारे में विशिष्ट बातें कहता, उसके बाद ‘आगे क्या होगा’ पर हस्तरेखाओं का पूरक सहारा बनाकर अपनी बेबाक राय देता। उसने यह भी स्वीकारोक्ति की कि उसकी भविष्यवाणी हो सकता है, पूरी तरह सच न निकले, क्योंकि ज्योतिष एक मुकम्मल विज्ञान होते हुए भी पूर्ण से कुछ कम जानकारी की खुराक पर ही चलता है। जैसे किसी शहर के अक्षांश-रेखांश एक ही होते हैं, जबकि शहर का भूगोल काफी फैला होता है, वगैरह-वगैरह।
शाम बहुत पहले जा चुकी थी। अपने भंडारा लौटने का अल्टीमेटम वह बहुत पहले ही दे चुका था। हम दोनों ही होते तो वह कब का निकल चुका होता मगर यहां तो वह अफसरों की सेवा करने का ‘पुण्य’ कमा रहा था।
मैस में जो बचा-खुचा खाना था खाया लिया गया।
अभी तक दरअसल उसने बातें भी बहुत सार्वजनिक तौर पर ही की थीं जबकि हर कोई चाह रहा था कि पारिवारिक और निजी सूचनाओं के आधार पर वह प्रत्येक से सिर्फ निजी बातें करे और यह सब रात देर को ही संभव था। दिन भर तो योगा-पीटी से लेकर कंप्यूटर में जुटे रहना पड़ता था, बजरबट्टू कोर्स डायरेक्टर की तल्ख निगाहों की प्रतिछाया में।
इसीलिए ‘रुको यार चले जाना’ हो रहा था।
‘मैं किसी और दिन आ जाऊंगा…एंड वैरी शार्टली’ कहकर उसने हमें आश्वस्त किया।
लेकिन उस माहौल में मैंने यह भी लक्ष्य किया कि एक प्रतिष्ठित सेवा के इतने सारे अफसरों की संगत कहीं न कहीं उसके अहम को भी सहला रही थी। दोपहर को आकर अभिनंदन से खुश होकर जब मुझसे लिपटा था, तब एक गूढ़ वाक्य बोला था, ‘‘यू हैव डन डी-स्कूल प्राउड’’।
मैं चुप ही रहा था लेकिन एक नाकामयाब डी-स्कूली होने के उसके संत्रास को शिराओं ने महसूस कर लिया था।
स्टेशन के लिए मैं उसे ऑटो तक छोड़ने जा रहा था।
‘‘रुक जाता यार एक रात यहां। क्या फर्क पड़ता। मस्ती करते। पता है, रात को हॉस्टल में बी.एफ का भी इंतजाम हो जाता है।’’ मैंने अन्यमनस्क चुटकी ली।
‘‘नहीं अंकल, रात को मेरा घर पहुंचना जरूरी होता है।’’
‘‘इतने आदर्श पिता और निष्ठावान पति…’’
‘‘नहीं अंकल, वो बात नहीं है’’
कहकर वह रुक गया। ऐसे ही जैसे हॉस्टल में कुछ कहते-कहते रुक गया था, लेकिन पल भर में ही मुझे उसकी आवाज सुनाई दे गई।
‘‘तुम ऐपीलैप्सी के बारे में जानते हो?’’
उसने जैसे शब्दों को पकड़- पकड़कर छोड़ा।
मैंने बस प्रश्नाकुल मुद्रा में चलते-चलते उसे देखा।
‘‘ऐपीलैप्सी यानी मिरगी…मेरी वाइफ को वही है’’
कहते-कहते उसके गले में जैसे फांस आ गई।
मेरे कदम किसी झटके में रुक गए।
जैसे काठ मार गया हो उन्हें।
‘स्टेशन’ कहकर, बिना किसी पूर्वानुमान के मैं भी उसके साथ तभी आकर रुके ऑटो में दाखिल कर गया।
मेरी जुबान जैसे तालू से चिपक गई थी।
मुझे पता नहीं क्यों ख्याल आया कि इस शख्स को, जिसे मैं डी-स्कूल के दिनों से जानता हूँ, जो आज लगभग पूरा दिन मेरे साथ रहा है, मैं जानता ही नहीं हूं।
लेकिन शीघ्र ही मैं उसकी मनःस्थिति की भयावहता अनुभव करने लगा। कुछ कहते ही नहीं बन रहा था। यारों द्वारा उसे देर करा दिए जाने पर जुगुप्सा उमड़ने लगी।
हिम्मत जुटाकर सामान्य-सा बनकर, मैंने दौड़ते ऑटो में ही उसकी तरफ गर्दन फेरी।
वह एकटक बाहर ताक रहा था, साइड के दांतों से निचले होंठ की परत उधेड़ता हुआ। यकीनन यही बात उसकी जुबान पर दोपहर भी आते-आते रह गई थी।
उसकी जन्मतिथि में आई ‘जीरो की गड़बड़’ का रहस्य भी कहीं यही तो नहीं, सोचा।
भंडारा की तरफ की ट्रेन आने में थोड़ा टाइम था। मैं इतना विचलित था कि चुप था। कुछ उबरकर ‘चाय पीओगे’ निकाला तो उसके ‘चलो’ ने साथ देने में ज्यादा हिचक नहीं की।
मेरे वजूद पर छाए बोझ से शायद वह इत्तफाक करने लगा था। तभी तो चुप्पी तोड़ते हुए बोला, ‘‘शादी से पहले ही…बल्कि बचपन से ही उसे यह रोग है। मुझे तब पता चला, जब उसके पेट को तीन महीने हो गए थे। पहले महीने में ही हो गया था। मेरी नौकरी को लगे छह-एक महीने हो गए थे। अप्रैल के आखिरी दिन थे। मौसम में थोड़ी घुटन सी थी। शाम का समय था। मैं ट्रैक से लौटा ही था कि किचिन के डिब्बों की भड़म-भड़म के साथ एक धम्म सी आवाज सी हुई। मैंने लपककर देखा… मानसी उल्टे मुंह पड़ी थी। एक आंख के नीचे, किसी कोने की रगड़ से खरोंच आई थी। पूरा शरीर लकड़ी की तरह खिंचा हुआ। मैंने सीधा करके पानी के छींटे मारे, लेकिन उसका चेहरा किसी मृतक-सा भावहीन बना रहा। ऊपर से आंखें खुली हुईं।
मैंने सोचा जरूर हार्ट-अटैक पड़ा है। लेकिन नाड़ी में गति सामान्य थी। थोड़ी देर में ही उसके मुंह से थूक बाहर आने लगा। गर्दन एक तरफ खिंचने लगी। शरीर किसी अनियंत्रित शक्ति के प्रकोप तले अकड़ता और शिथिल होता गया। प्रैगनेंसी के आरंभिक दौर में हर स्त्री को उल्टी-मतली जैसी परेशानी रहती ही है, यह मैं जानता था। आहिस्ते उसे उठाकर बिस्तर पर डाला और एक गीले कपड़े से चेहरे-माथे को सहलाने लगा…’’
मैंने देखा सतपती उस दृश्य को उसकी एक-एक बारीकी से उजागर कर रहा था, जैसे वह फिर से उसके मुकाबिल हो। ‘पूरा शरीर लकड़ी की तरह खिंचा हुआ’ जब कहा तो उसकी सीधी भुजा झटके में अकड़ ही गई थी।
‘‘कोई आधा घंटे बाद जब वह सामान्य हुई और अपने को मेरी जांघों पर पाकर कुछ सशंकित देखने लगी तो मैंने प्यार से मुस्कराकर पूछा,‘‘कण होइथिला (क्या हुआ था)?’’
‘‘मोते बअुए (ये मुझे होता है)’’
‘‘कण हुए (क्या होता है)?’’
‘‘मुं जाणि नीं (मुझे नहीं पता)’’
उसने भी तब बात को आयी-गयी कर दिया लेकिन जब भंडारा रेलवे डिस्पेंसरी की डॉक्टर को ‘जो-जो देखा’, हुआ बताया तो उसने यही कहा, ‘‘आप इनके मम्मी-पापा को बुला लाइए, तभी कुछ पक्के तौर पर कहा जा सकता है।’’
‘‘लेकिन क्या हुआ है डॉक्टर साब, क्या प्राब्लम है?’’
‘‘ये तो तभी कहा जा सकता है, जब पूरी केस हिस्ट्री का पता लग जाए’’
‘‘मुझे लगा मैंने डॉक्टर से फालतू में ही पूछा। वह केस को और जटिल बना रही थी। उस थोड़ी देर के हादसे के सिवाय मानसी का सब कुछ सामान्य था।
लेकिन मैंने अपने ससुर साहब से बात की तो उन्होंने यही कहा, ‘मै कल पहुंचता हूं।’
डॉक्टर के पास जाने की नौबत ही नहीं आई। उन्होंने साफ स्वीकार किया, ‘‘बेटा, मानसी को बचपन से ही दो-चार महीने में ऐसा दौरा पड़ता है। इसे ऐपीलैप्सी या मिरगी कहते हैं। बहुत इलाज करवाया है। ऑल इंडिया से लेकर हरिद्वार के वैद्य-हकीमों तक का। कम हुआ है, लेकिन गया नहीं। बहुत से डॉक्टरों ने हमें यही समझाया कि शादी होने के बाद, कई मर्तबा इसका स्वतः निदान हो जाता है…तुमको डार्क में रखा हो, ऐसा नहीं है। हमारा जो फर्ज था, किया। बाकी किस्मत से कौन लड़ सकता है…”
जब उन्होंने सब कुछ साफ-साफ बता दिया तो उसे जरा भी छलावे-भाव ने नहीं डसा। ‘किस्मत’ को लेकर ज्योतिष में वह बहुत समझ-समझा चुका था। अभी तक की पूरी जिंदगी खुद गवाह थी। मानसी के पिता ने इंटरव्यू में मदद नहीं की होती तो, डी-स्कूल का छिका-पिटा वह, किसी भी लायक रह गया था? प्रशांत भाई ने खूब मार्गदर्शन किया लेकिन शादी हो जाने के बाद वो भी काफी बेगाने-से हो गए थे। वैसे भी कब तक सहारा देते। मां अभी भी घिसट-घिसटकर बहन का पेट पाल रही थी–मेरी चार पैसे की नौकरी लगने की मासूम उम्मीद में।’’
मानसी के पिता को कभी दोषी नहीं मान सकता है सतपती।
उसने अपनी बातों को ट्रेन में चढ़ने की जल्दी के कारण नहीं समेटा। उल्टे मुझसे कहा है कि अभी ट्रेन छूटने में दसेक मिनट हैं। मैं जा सकता हूं। घंटे भर में तो भंडारा आ ही जाना है। स्टेशन पर ही क्वार्टर है, फिर आऊंगा।
भंडारा और नागपुर से नजदीक और क्या होगा।
कितना अच्छा रहा, जो आज मुलाकात हो गई। चलो।
सतपती के इस घटनापूर्ण आने-जाने को कई सप्ताह हो गए थे।
रविंशा कॉलिज और श्यामलाल कॉलेज के ‘उत्पादों’ के रूप में हुए आपसी परिचय के समय से ही इन चार सालों के अनिश्चित अंतराल के बावजूद वह मुझे हमेशा अपना-सा लगा है। बीस बरस बाद मिलता, तब भी संभवतः वही नैकट्य भाव रहता।
उसे छोड़कर जब हॉस्टल के अपने बिस्तर पर, एक तूफान के गुजर जाने की शांति से, खेस तानने लगा तो इसी भाव ने मुझे ओढ़ा…न बदकिस्मती ने इसका पल्लू छोड़ा है और न इसने अपने जीवट का।
कोई डेढ़ेक महीना हो चुका था। अपनी मंडली उसे फिर से बुलाने के लिए कई बार आग्रह कर चुकी थी। चारों उसके मुरीद थे। उनके बारे में जो ज्योतिषिय निष्कर्ष सतपती ने दिए थे, और भी कई ज्ञानियों ने दिए थे। उन्हें यह बात भी कम अपील नहीं करती थी कि जहां व्यावसायिक ज्योतिषी अपनी ‘पेट पूजा’ के लिए सच्चा-झूठा बोलते हैं या बोल सकते हैं, सतपती के साथ वैसा कुछ भी नहीं है। वह एकदम निष्कपट है और ज्योतिष में तो यही दुष्प्राप्य होता है।
ऐसे ही शाम का वक्त था। बैडमिंटन खेलने जाने के लिए हम अपने जूते-जांघिए तान चुके थे। तभी सतपती आ गया। उसकी तीन वर्षीय बेटी भी साथ थी। पिछली बार मैंने उससे कहा था कि कोई तीनेक महीने में नागपुर प्रशिक्षण पूरा हो जाएगा। पोस्टिंग? देखो कहां मिलती है!
लेकिन भविष्य में संपर्क बनाए रखने के लिए हम कटिबद्ध हो चुके थे।
उसकी बेटी चंद्रिका संकुची, झेंपी होकर अपने पापा के दोस्त के ‘घर’ को बहुत ही अजनबी पा रही थी–न आंटी, न बच्चे, न सोफा, न टीवी।
‘‘तुम यार इस समय…थोड़ी देर बाद भागने की बात करोगे?’’ मैंने स्मृति के साक्ष्य कहा।
‘‘नो नो डॉट वरी…मैं रात को भी यहीं रुकूंगा, तभी तो बेटी को भी साथ लाया हूं। आजकल भंडारा में घर से कुछ लोग आए हुए हैं। मुझे शहर से कुछ सामान-समून भी लेना था तो सोचा…’’
मंडली खुश हो गई।
शाम की ‘‘बैडी’ भी मिस नहीं होगी।
मंडली चंद्रिका को लेकर कोर्ट की तरफ जाने लगी तो सतपती ने गुहारा, ‘‘अंकलकु हइराण करिबु नाहिं (अंकल को तंग नहीं करना।)’’
एक काम चलाऊ कैंटीन पास ही थी जिसमें शाम के वक्त ही कुछ रौनक होती थी।
‘‘जरा ध्यान से…हम लोग अभी आते हैं,’’ मैंने जैन को कहा।
‘‘ओ डोंट यू वरी पार्टनर…सारे लोग इकट्ठे थोड़े खेलेंगे।’’
उनके जाने के बाद सतपती ने अपने हाथों में संभाले भदमैले झोले से कुछ कागज-पत्रक निकाले और थमाते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी जन्मपत्री बनाई है, ये लो।’’
‘‘क्या कहता है तुम्हारा ज्योतिष मेरे बारे में?’’
मैंने ऊपर से हँसकर, अंतस से आशंकित होकर पूछा।
‘‘तुम्हारे साथ जो चीजें देर से हो रही हैं, जैसे देर से सिविल सेवा में आना या विवाह, उसका कारण है तुम्हारी लग्न राशि में चंद्रमा के साथ-साथ मंगल का बैठना…चन्द्रमा के कारण तुम्हारी इच्छाएं या शुभकामनाएं सिद्ध तो होती हैं, लेकिन मंगल इसमें अड़चन डाल देता है। लकीली, चंद्रमा बली है, इससे काम बिगड़ता नहीं’’
‘‘अच्छा।’’
मैं और कहता भी क्या।
बस सुनने को समर्पित हो रहा था… देखो क्या कहती है अपनी किस्मत…
‘‘मंगल एक पापी पुरुष-ग्रह है, जबकि चंद्रमा एक शुभ-स्त्री। चंद्रमा मन का ग्रह होता है, इसलिए अंकल तुम्हारे अंदर मनोभावों, संवदेनाओं और कल्पना शक्ति की कमी नहीं रहेगी। चंद्रमा कर्क राशि का स्वामी है। जातक की कुंडली के विभिन्न स्थानों यानी घरों में होने से इसका असर भी अलग-अलग हो जाता है। कुंडली के पहले, चौथे, सातवें और दसवें ग्रह बहुत शक्तिशाली होते हैं। तुम्हारी कुंडली में, ये देखो… तीन जगह तो वही ग्रह विराजमान हैं जो उनके स्वामी हैं और एक जगह–दसवें में, बैठा है राशि का समग्रह… इसलिए सब कुछ शुभ ही होता है…’’
‘‘पता नहीं यार, मुझे तो शायद ही कोई चीज बिना पापड़ बेले मिली हो’’
मैंने गहरी सांस खींचकर उसके प्रारूप से अपनी मामूली असहमति दिखाई।
‘‘वह इसलिए है कि तुम्हारे बारहवें ग्रह यानी द्वादश में बुध के साथ-साथ शनि भी उपस्थित है, जहां से वह चौथे और नौवें स्थान को द्विपाद दृष्टि से देख रहा है। अब चौथा ग्रह निर्धारित करता है शिक्षा और पारिवारिक सम्मिलन और नौवां ग्रह तय करता है धन-धान्य और पितृसुख। इस कारण, अब तुम इस केंद्रीय सेवा के लिए घर से बाहर आ गए हो, तो वापस परिवार के साथ रहने की कम संभावना है, अभी तुम्हें दिल्ली पोस्टिंग मिल भी गई तो सरकारी क्वार्टर में रहने की प्रबल संभावना है…’’
अपनी ज्योतिष की शब्दावली में वह पता नहीं क्या-क्या घोषणाएं और भविष्यवाणी किए जा रहा था। कभी कुंडली वाले कागज को फिर से देख कुछ गिनने लगता और कभी हाथ की रेखाओं को गौर से देख अपने निष्कर्षों का अपने तईं तारतम्य बिठाता। अपने झोले से पंचांग भी एकाध बार निकाला जिसमें अगले-पिछले सौ-सौ सालों की समय सारणी बनी हुई थी। भारत के छोटे-बड़े चार-पांच सौ स्थलों के अक्षांश-रेखांश भी दिए गए थे, वहां होने वाले सूर्योदय के समय के साथ।
‘‘गुरु ये बताओ, शादी का क्या है?’’
उम्र के गलत तरफ धकियाए जाने का भाव बहुत दिल से था।
‘‘एक साल में हो जानी चाहिए’’
उसने कुछ गणना करके बताया।
मेरे मन में आया कहूं ‘‘महाराज, इसे थोड़ा जल्दी करने का कोई उपाय!’’
लेकिन कहा, ‘‘और कुछ?’’
‘‘मैंने कहा न, तुम्हारे साथ अच्छी चीजों के विलंब से होने का योग है। तुम्हारी होने वाली पत्नी सुंदर तो होगी ही, 99वें प्रतिशत संभावना है कि वर्किंग भी हो। उसके दो भाई होने चाहिए। वह साइंस ग्रेजुएट होगी और तुम्हारे बच्चे भी देर से होंगे, लेकिन मेधावी होंगे…’’
मुझे लगा उसने मेरे और मेरी चिंताओं बारे में काफी कुछ बता दिया है। उसकी किसी भी बात को असत्य मानने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी।
‘‘और डी-स्कूल की याद आती है कभी?’’
मुझे समझ नहीं आया कि खुली हुई कुंडली के समक्ष ही मैंने यह प्रश्न क्यों कर डाला? संभवतः ज्योतिष से भीगी हुई धुंध को छांटने के लिए या सतपती से उन गुनगुने दिनों की मीठी बातें करने के लिए जिनसे मैं आज तक नहीं अघाया।
‘‘ऑफ कोर्स, ऑफ कोर्स…डी-स्कूल में हुई घोर असफलता के बावजूद मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मेरी जिंदगी का वही सबसे ऊंचा मुकाम रहा है। वहीं मैंने जिंदगी को एक विशाल पैमाने पर उसकी तमाम उत्कृष्टताओं के साथ देखा था…मेरे अंदर उस वक्त की सुनहली यादों का आवेग अक्सर हिलोरें मारता है और मैं छटपटा जाता हूं, इन फैक्ट…तुम्हें भी खत मैंने इसीलिए लिखा था कि…’’
अपनी बात की दिशा को कुछ मोड़-सा देने की खातिर उसने अपना वाक्य भी अधूरा लटका दिया।
थोड़ा हिल-खिसककर दीवार पर लेट गया और बाएं कान पर हथेली से टेक लगाकर बोला, ‘‘अंकल ईमानदारी से कहूं तो डी-स्कूल आज भी मेरे सपनों में बसता है। ज्योतिष ही मेरा जीवन-धर्म हो चुका है, लेकिन कुछ भी डी-स्कूल को मुझसे नहीं छीन सकता…और देखना ये सपना जरूर साकार होगा। मुझे पूरा यकीन है कि चन्द्रिका डी-स्कूल से पढ़कर निकलेगी। यह सब मैंने उसकी जन्मकुंडली में देखा है। तुम्हारी तरह उसका भी चंद्र ग्रह बहुत बली है। प्रथम भाव में। और वहां से चौथे घर में आश्रय मिला है बुध को। चौथे घर से शिक्षा तय होती है और बुध एक ऐसा ग्रह है, जो शुभ के साथ शुभ और पापी के साथ पापी हो जाता है। इसलिए चंद्रमा के प्रभाव में यह शुभ फल देगा…पता है यह पैदा भी सोमवार को हुई थी…इसीलिए इसका नाम मैंने चंद्रिका रखा। मेरे लिए तो यह अभी से सौभाग्यशाली हो रही है…पे कमीशन एरियर्स मुझे इसके जन्मदिन पर मिले। इसके नाना को इरकॉन में डैपूटेशन उसी महीने मिला, जब वह पैदा हुई थी। पता है हमारा भविष्य हमारे नक्षत्रों और ग्रहों के साथ-साथ परिवार के ग्रहों-नक्षत्रों से भी असरग्रस्त होता है…ज्योतिष में यह गैर-विवादास्पद बात है…
अंकल, मैंने तो फैसला कर लिया है, अब जो कुछ है, यही है। दूसरा बच्चा नहीं करना है। अपनी नौकरी भी छोटी है। इसी को जितनी उत्तम परवरिश दे सकता हूं, दूंगा…मैं नहीं चाहता ये कभी उन बीहड़ अड़चनों को फेस करे, जो मैंने कीं…’’
चन्द्रिका को नीचे गए थोड़ा समय हो गया था। उसे उससे मिलने की चिंता हो आई तो हम नीचे चले गए। बैच की कुछ लड़कियां चन्द्रिका का मन बहला रही थीं, अपने-अपने बाल भाव के साथ।
डिनर के बाद मंडली सतपती को लेकर बैठ गई।
यह दौर करीब दो बजे तक चला।
चन्द्रिका कब की सो चुकी थी।
‘‘पापा…आ!’’
अंधेरे में उठी तीखी चीख ने उठा दिया।
मैंने स्विच बोर्ड तक घबराते हुए लाइट जलाई।
एक अजीब दृश्य सामने था।
चन्द्रिका किसी बुरी तरह झिंझोड़े गए शिकार की तरह सतपती की छाती से चिपकी पड़ी थी। बुरी तरह भयाक्रांत और निरीह-सी। जैसे कोई जानवर पीछा कर रहा हो।
‘‘हेई देख, सेइठि पारा, पारा बसिदि (वो देखो-कबूतर, कबूतर बैठा है)”
लड़की ने भय से ही दरवाजे की तरफ इशारा किया।
‘‘पुअ किदि नाहिं, कोउठि नांहि (बेटा कुछ नहीं है, कहीं कुछ नहीं है)”
पीठ थपथपाते हुए उसने आश्वस्त किया।
‘‘ना, अदि-अदि, हेई सेइठि बसिछि (नहीं है है, वो देखो वहां बैठे हैं)”
लड़की ने बिना ध्यान दिए ही कहा और फिर से दुबक गई। थोड़ी देर चिपके रहने के बाद वह फिर बिदककर बोली, ‘‘देख-देख, तुम उपरे केते पिंपुडि बसिदंति मोते तलकु ओन्हेइदिअ’’ (देखो-देखो तुम्हारे ऊपर कितनी चींटियां चढ़ीं हैं, उतारो मुझे) कहकर वह नीचे खिसकने के लिए दम लगाने लगी, लेकिन नीचे देखते ही चीखी, ‘‘हेई देख केते बड़ मुषा मीते कामुड़िबाकु आसुदि (वो देखो कितना बड़ा चूहा मुझे काटने आ रहा है)”
यह क्रम कोई आधा घंटे चला।
फिर वह उसकी गोद में पड़ी-पड़ी सो गई। हमने कमरे की रोशनी को जलते ही रहने दिया। सुबह जब हम उठे तो वह पूरी मासूमियत से सोई पड़ी थी।
‘‘पहले भी ऐसा कभी हुआ है?’’ चाय पीते-पीते मैंने पूछा।
‘‘नैवर!’’ गहराई आंखों से मुंह उमेठते हुए उसने कहा।
‘‘शायद नई जगह आई है, इसलिए’’
‘‘हो सकता है’’
‘‘लेकिन डॉक्टर को दिखा देंगे’’
‘‘हां, ये ठीक रहेगा’’
डॉ. कुलकर्णी हम दोनों को बाहर बिठाकर बड़ी देर तक लड़की का मुआइना करते रहे। अकेले ही। रात की घटना की जानकारी इसकी वजह थी। वह मुझे भंडारा जैसी जगह पर रहने के फायदे-नुकसान गिनाता रहा। यह भी कि किस तरह ज्योतिष के कारण उसकी दफ्तरी जिंदगी आसान हो गई है। बड़े-बड़े अफसर उसे अपने यहां बुलाते हैं। पे कमीशन के ऐरियर्स के एक बड़े हिस्से का उपयोग उसने एक फ्रिज खरीदने में किया है, बाकी से चन्द्रिका के लिए यू.टी.आई. की राजलक्ष्मी योजना के कुछ शेयर। प्रशांत भाई का कटक जाना एकदम कम हो गया है।
चन्द्रिका की कुंडली में भद्रयोग और राजयोग दोनों बन रहे हैं।
डॉक्टर काफी टाइम ले रहा है।
डॉक्टर कुलकर्णी बाहर निकले तो हम दोनों उचककर खड़े हो गए।
इससे पहले कि हम कुछ पूछें, हमें संबोधित करते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘चन्द्रिका की फैमिली में क्या किसी को एपीलैप्सी है?’’
उसके बाद क्या हुआ? छोड़िए।
हां, एक-दो वर्ष पहले टेलीविजन पर दिखाया गया एक समाचार फिर-फिर कर याद आने लगा।
सत्तर-बहत्तर वर्ष पूर्व निर्मित एक पचास-साठ मंजिला इमारत को इंग्लैंड में विस्फोट से ध्वस्त करते दिखाया गया था। उसके रख-रखाव का खर्चा लागत से भी ज्यादा पड़ रहा था। इमारत गिराने की तरकीब-तकनीक एकदम अद्भुत थी। पूरी इमारत अपने आगे-पीछे या दाएं-बाएं नहीं गिर रही थी बल्कि अपने ही ढांचे में समाए जा रही थी।
गोया वह कोई रेतीला बिल हो।
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