केन सारो वीवा
अनुवाद: ओमा शर्मा
कहते हैं, वक्त ने ही इंसान को भिखारी बनाया है। आसपास के गली, नुक्कड़ों या यातायात की कतारों में अपनी सूखी हथेलियों में भीख का कटोरा लटकाए भिखारी तो आपने देखे ही होंगे। इनकी एक जमात आजकल दफ्तरों या हवाई-अड्डों के लांजों में भी पैठ कर गई है। ये लोग साफ-सुथरे और अच्छे-खासे दिखते हैं। हां, इनकी खाली जेबें मदद के लिए दुआओं से जरूर भरी होती हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि ये लोग अपनी कल्पना के परिन्दों को कागज पर उतारने की कला जानते तो कितने ही कामयाब कहानीकार बन जाते। किसी सिद्धहस्त मनोचिकित्सक की तरह इन्हें मालूम होता है कि किसी अपार समूह में कौन व्यक्ति ‘दाता’ किस्म का है।
उस रोज अपनी उड़ान पकड़ने के लिए मैं थोड़ा जल्दी ही हवाई-अड्डे पर पहुंच गया था। लेकिन वहां पता लगा कि उड़ान स्थगित हो गई है और काफी विलंब से जाएगी। मैंने सोचा, कुछ सैर-सपाटा ही कर लिया जाए। हवाई-अड्डे के प्रस्थान लाउंज में तिल रखने की जगह नहीं थी। वहां आए सभी स्त्री-पुरुष अपनी चटर-पटर में व्यस्त थे। ऊपर से लाउडस्पीकरों का बेसुरा संगीत फूट रहा था। कोई वहां कापी-किताब बेचने में लगा था तो कोई जूते पालिश करने की गुहार कर रहा था।
मैं अपनी ही धुन में मगन बैठा था। मुझे यह भी नहीं मालूम था कि मेरे सामने कौन आ बैठा है। लेकिन जब उसने थोड़ा खंखारा या खंखारने की कोशिश की तो मेरा ध्यान टूटा और मैं उसे देखने लगा।
“मेरा नाम लेंडा है,’’
उसने बेझिझक परिचय के लिए अपना सीधा हाथ बढ़़ाकर कहा। मैंने अनिच्छा में अपना हाथ बढ़े हुए हाथ की तरफ किया। वह एक बार फिर खांस पड़ा और कुछ देर तक खर्र-खर्र करता रहा।
मैंने लक्ष्य किया, उसके बाएं हाथ में एक पार्सल था।
“माफ करना भाई… मुझे पिछले पंद्रह वर्षों से छाती में दर्द रहता है” वह बोला।
“तब तो तुम किसी डॉक्टर को दिखाओ’’ मैंने हमदर्दी जताई।
“क्या बताऊं साब, बहुत दिखाया। बीसियों को दिखाया। कितने ही तो अस्पतालों का पानी पी चुका हूं।
मैंने सोचा, उसने कम से कम दो-तीन डॉक्टरों को तो दिखाया ही होगा।
“और मजेदार बात ये है कि अस्पतालों की बड़ी-बड़ी मशीनों को भी मेरी छाती में कुछ भी गड़बड़ नहीं दिखती है…‘’
“तब तो शायद आप बीमार नहीं हैं”
मैंने यह सोचकर कहा कि हो सकता है, उसे कोई वहम ही हो।
“मुझे एक चीनी स्नायु-छेदक से इलाज करवाने का मशवरा भी दिया गया। मैं उसके पास गया भी। उसने अपनी सुडयों से मेरी छाती और बाजुओं को छलनी करके रख दिया, लेकिन बीमारी का धेले भर भी उपचार नहीं कर पाया। हारकर, अंत में मैं एक हकीम के पास गया।‘’
“और उससे भी आपका इलाज नहीं हुआ?”
“आप जानना चाहते हैं कि उससे क्या हुआ?”
कहकर वह फिर से खांसा और अस्फुट हंसने लगा।
‘उससे क्या हुआ’ का जवाब पाने के लिए मैं बेशक बेताब हो उठा।
मेरी उड़ान कितने विलंब से है, इसका मुझे ख्याल ही नहीं आया। पहली बार मैंने लेंडा पर अपनी भरपूर निगाह डाली। उसका कद छोटा और चेहरा मांसल था। सिर के बाल बेतरतीबी से गुंथे पड़े थे। चेहरे की दाढ़ी में तांबई रंग घुलने लगा था। मुटैले चेहरे पर छोटी-छोटी आंखें अंदर धंसी लग रही थीं। कमीज का कालर तो गंदा था ही, पसीने के कारण वह भीगी और सिलवटी भी हो रही थी।
“मैं आपको बताऊं, पिछले दस वर्षों में मैं कम से कम नब्बे हकीमों से तो मिल ही चुका होऊंगा। उनमें से जो मुझे सबसे मजेदार लगा, वह सरहद के उस पार रहता था। टोगो गणराज्य का वह बहुत ही नामी व्यक्ति था। नाम था फगामुंडोली। मैं और मां जब उससे मिलने उसके गांव पहुंचे, तो पूरे चौबीस घंटे तक तो हमें बाहर प्रतीक्षा कराई गई”
“क्यों? क्यों?’’
“हमें बताया गया कि जब तक पीकर वह पूरा धुत्त नहीं हो जाएगा, हमें नहीं देखेगा।‘’
“लेकिन वह ऐसा क्यों करता था?’’
“कहा जाता था कि उसकी तिलिस्मी शक्तियां तब तक जाग्रत नहीं होती थीं जब तक वह शालीन या अपने होशो-हवास में रहता था। खैर जी, हम क्या कर सकते थे। गांव के बाहर डेरा डाले पड़े रहे। बमुश्किल रात कटी। अगले दिन सुबह हुई, लेकिन व्यर्थ गई। करीब शाम को जाकर हमें उसके पास जाने दिया गया। फगामुंडोली सामने कुर्सी पर बैठा कोई स्थानीय बीयर पीने में मसरूफ था। पीछे खड़े उसके चेले-चपाटे एक विशाल ढोल को पीटने में जुटे हुए थे। उसने मुझे अपने सामने बैठने को कहा। मैं जैसे ही बैठा, एक भरपूर डकार उसने मेरे मुंह पर उंडेल दी। मैंने जब उसे अपना रोग बताया तो उसने एक गाय की पूंछ से मेरा सिर पकड़ लिया। गाय की एक और पूंछ का तना मेरे सीने पर रखकर फिर से एक डकार मारी और बोला-
‘लड़के, तेरे गांव के किसी ओझा ने तुझ पर काला जादू कर रखा है’
उसके स्वर में चिंता थी।
रोग शिनाख्त करने की उसकी काबीलियत पर मुझे बरबस ही यकीन हो आया। मैंने अब तक इतने सारे हकीमों-डॉक्टरों को दिखाया था लेकिन इस तरह की व्याधा की बात किसी ने नहीं बताई थी। न तो स्नायु-छेदन और न यूरोप की चिकित्सा पद्धति मेरे रोग का उपचार कर पा रही थी, लिहाजा मुझे उस पर एतबार करना पड़ा। या यूं कहूं कि अपनी सेहत की खातिर मुझे उसमें एक उम्मीद की किरण दिखने लगी।
‘तुम्हारे घर की छत में किसी इंसान का मांस रखा हुआ है, अगर तुम्हारा इलाज मुकम्मल तरीके से करना है तो मुझे जाकर उसे हटाना पड़ेगा…’ उसने आगे कहा।
सच कहता हूं, मुझे उसकी कथा में इतना रस आने लगा कि मैं अपनी उड़ान की और देरी से छूटने की कामना करने लगा। वहां लाउंज में हो रहे शोर-शराबे की तो मुझे खबर ही नहीं थी।
उसके बाद लेंडा ने अपने बाएं हाथ में रखे पार्सल से एक फोटो मेरे सामने रखते हुए कहा, “यह उस रोज का फोटो है, जब मैं फगामुंडोली से उसके गांव में पहली बार मिला था”
मैंने उस तस्वीर को देखा। उसमें एक तगड़ा-सा बूढ़ा था जिसके अच्छी-खासी दाढ़ी-मूंछें थीं। उसने अजीब सतरंगी कपड़े पहन रखे थे, आंखें चढ़ी हुई थीं। साथ में बीयर की बोतल खुली रखी थी। हाथ में बालों की झाड़ू पकड़ रखी थी।
मैं अभी तस्वीर को निहार ही रहा था कि लेंडा ने अपनी कहानी आगे सरकाई:
“उसके बाद एक–डेढ़ दिन के कमरतोड़ सफर के बाद हम सब अपने गांव आए। जैसे ही गांव पहुंचे, फगामुंडोली मेरे घर की छत से कुछ खोजने में जुट गया। वहां से एक पोटली निकालकर मुझे दिखाकर उसने कहा कि यही वह इंसानी मांस है जो किसी काले जादूगर ने मेरे यहां छिपाकर मुझ पर टोटका किया हुआ था। मेरी आंखों के सामने ही उसने उसे खाना शुरू कर दिया और उसका एक टुकड़ा मुझे भी पेश करने लगा। पर मेरे बस का उसे खाना कहां था? मैंने उससे पूछा कि क्या उस मांस के टुकड़े के नमूने को मैं अपने पास रख सकता हूं। उसने रजामंदी दे दी। फिर उसने कहा कि इस काले जादू के असर को खत्म करने के लिए वह अपनी शक्ति से किसी ओझा को बुलाएगा जो अपने जादू से सब कुछ सामान्य कर देगा”
“इस बीच वह मेरे घर में पसर गया और टनों के हिसाब से बीयर गटकने लगा। तीन दिन यूं ही निकल जाने के बाद उसने सूचित किया कि उसने एक ओझा को आने का निर्देश दे दिया है और वह उसी रात पहुंचने वाला है। उस रात को नाचता-गाता एक ओझा प्रकट भी हो गया। उसकी दोनों भुजाएं ताबीजों से लदी पड़ी थीं। उसे देखकर मेरे तो छक्के छूटने लगे। गांव के और लोगों की भी यही हालत हो रही थी।
“मेरे पास आते-आते उसने ताबीजों का एक पुलिंदा मुझे पकड़ा दिया। ऐसा लगा, जैसे वह पहले से मुझे जानता हो। मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम। वो कोई हमारे गांव का बाशिंदा नहीं था। और अपने पूरे होशो-हवास में मैंने उसे जिन्दगी में पहले कभी नहीं देखा था। फिर उसने मुझ पर ऐसा विश्वास क्यों जताया? मैं कायल हो गया कि वह शख्स यकीनन जादुई शक्तियों को अपने में साधे हुए है।
उस रात जब वो गांव में सबके सामने नाचा था, उसका फोटो मेरे पास है। ये लो!”
लेंडा ने इतना कहा और एक फोटो मुझे थमा दिया। इससे पहले मैंने किसी ओझा-वोझा को नहीं देखा था। फोटो देखकर मुझे मजा आया ।
“कहीं मैं आपका समय तो जाया नहीं कर रहा हूं?’’ लेंडा ने पूछा ।
“कतई नहीं….उड़ान स्थगित हो गई है और तुम्हारी दास्तान तो मुझे बड़ी मजेदार लग रही है”’ मैं बोला।
“ओझा ने जब वो ताबीज मुझे थमा दिए, तो फगामुंडोली ने चीख लगाई-‘फिंगो, शुरू हो जा!’ उसकी पुकार से ही मैंने जाना कि ओझा का नाम फिंगो है। फिॅंगो ने कई सारे चांटे तड़ातड़ मेरे मुंह पर रसीद किए। फिर मेरी छाती पर भी वार किया। इसके बाद कई ताबीज मेरे गले में पहनाकर बताया कि अब मेरा निदान हो गया है। मुझे बड़ी ठंडक पहुंची कि चलो, बीमारी कटी। मैंने खुशी-खुशी उसे दस हजार नैरा (नाइजीरिया की मुद्रा) और एक रेडियो बतौर इनाम दे डाला। हालांकि इस चक्कर में मेरी अभी तक जमा तमाम पूंजी तो स्वाहा हो ही गई, एक-दो खेत और तमाम मवशी भी बेचने पड़ गए।
फगामुंडोली और फिंगों की खबर पूरे गांव में आग की तरह फैल गई। अब जो कोई बीमार था या काले जादू से पीडि़त था, उनकी शरण में जाने लगा। फगामुंडोली छककर बीयर पीता और वह दिनों-दिन अमीर होने लगा। हरेक ग्राहक-मरीज से वह एक गाय और तीन हजार नैरा वसूल करता।
गांव के एक आदमी कजाबूगा ने उसकी फीस न दिए जाने के कारण अपनी बेटी को ही फगामुंडोली को भेंट कर दिया। चारागर ने खुशी-खुशी शादी कर ली। क्षयरोगी उगेमा ने रकम अदा न किए जाने की एवज में अपना बैल उसे समर्पित कर दिया। वह बैल इतना सुंदर था कि उस पर फगामुंडोली के नए-नए ससुर कजाबूगा का दिल आ गया और उसने एक गाय देकर फगामुंडोली से उस बैल की बदली कर ली ।
जब तक फगामुंडोली गांव में रहा, उसने जमकर ऐश उड़ाई। जितने भी जानवर उसे अपनी फीस से बतौर मिले थे, सभी चट कर डाले। साथ में छककर बीयर तो वह पीता ही था। उसका नाम आसपास के इलाके में भी होने लगा और दूसरे गांव वाले भी अब उसे उपचार स्वरूप बुलाने लगे ।
उधर मेरी तबियत में उन्नीस-बीस का भी फर्क नहीं पड़ रहा था। मेरी छाती का दर्द कायम था। गांव के अन्य मरीजों का भी यही मत था। उगेमा तो बेकाबू हो गया था क्योंकि उसका मर्ज तो गया नहीं, उल्टे उसे अपना प्यारा बैल और हाथ से गंवाना पड़ा। उसके परिजन सीधे फगामुंडोली से बैल मांगने चले गए लेकिन फगामुंडोली ने उन्हें दो टूक बोल दिया कि बैल को तो वह कब का हजम कर चुका है इसलिए लौटाने का तो सवाल ही नहीं उठता। उधर उगेमा के लोगों ने उसी बैल को कजाबूगा के ओसारे में बंधा पाया तो उन्हें कुछ समझ नहीं आया कि यह माजरा क्या है। फगामुंडोली यदि उस बैल को मारकर खा गया था, तो फिर कजाबूगा के यहां कैसे प्रगट हो सकता था! कजाबूगा बैल को न लौटाने पर अड़ा हुआ था। हौले-हौले दोनों पक्षों में पूरी तनातनी हो गई। कजाबूगा ने उगेमा के परिवार को साफ-साफ समझाया कि वो अपना लफड़ा फगामुंडोली से सुलटाए। उसने तो यह बैल किसी से अपनी गाय की एवज में लिया है। उसने यह घुड़की भी दी कि वह मर मिटेगा, लेकिन बैल वापस नहीं करेगा।
इस बीच फगामुंडोली दूसरे गांव में कूच कर गया।‘’
इस मोड़ पर आकर लेंडा ने उसांस ली और एक और फोटो मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोला, “ये उस बैल का फोटो है जिसे उगेमा ने फगामुंडोली को दिया था।”
मैंने तस्वीर को गौर से देखा। बैल वाकई खूबसूरत था। थोड़ी देर लेंडा चुप खड़ा रहा। उसे शायद अच्छा लग रहा था कि मैं उस तस्वीर को पूरी रुचि के साथ निहार रहा हूं।
“जब उगेमा के परिवार को पता लगा कि उनके साथ फरेब हुआ है तो वे सीधे आपराधिक जांच विभाग पहुंचे ओर फगामुंडोली के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी। विभाग के दो अन्वेषकों ने फगामुंडोली को एक पड़ोसी गांव में ही धर दबोचा। उन अन्वेषकों में एक का नाम था बिंगो और दूसरे का नाम था लुंगा। वे फगा के सामने ऐसे पेश हुए, जैसे उसकी काबीलियत के जरूरतमंद थे।
“और एक बार फिर वही कहानी दुहराई जाने लगी जो मेरे साथ हो चुकी थी। यानी, उसने उनकी छतों से इंसानी मांस हटाने की पेशकश की। सबके सामने फिर उसे वह खाने भी लगा ।
‘क्या यह आदमी का मांस है, फगामुंडोली!’ बिंगो ने पूछा ।
“और क्या नहीं!’
“इसका मतलब है, तुम आदमी का मांस खाते हो!’ यह प्रश्न लूंगा का था ।
“हां, हां भाई, अपने मरीजों के लिए यह सब भी करना पड़ता है”
“लेकिन ये इंसानी मांस तुम लाते कहां से हो? बिंगो ने पूछा।
“हमेशा अपने मरीजों की छतों से”
“लेकिन वहां रखता कौन है?”
“काला जादूगर!… तुम्हें नहीं पता, ये लोग कितने दुष्ट होते हैं?…मैं जरा बीयर पी लूं…इन काले जादूगरों के नाम से ही मेरा गला सूखने लगता है।“
“जितनी मर्जी बीयर पीयो फगामुंडोली… तुमने जितना भी मांस खाया है तभी तो हजम हो पाएगा !’
“बिल्कुल नहीं!’ कहकर फगा ने लंबा घूंट भरा।
“लेकिन तुम्हें यह मालूम है कि ये ओझा लोग इंसानी मांस लाते कहां से हैं?”
“अजी ये तो पैदाइशी दुष्ट और हत्यारे होते हैं”
“लेकिन फगा तुम किसी ऐसे ओझा को जानते हो?’
“क्यों नहीं, मेरा ही आदमी है–- फिंगो। उससे बढि़या ओझा कौन होगा? लाजवाब चीज है वो”
“और उसे मालूम है कि इंसानी मांस कैसे लिया जाता है?”
“अजी उसे नहीं मालूम होगा, तो किसे होगा? अपने गुर में वह अव्वलों में शुमारा जाता है। तुम पर तो दुरात्मा का असर है, मैं उससे कहकर तुम्हें निजात दिलवाऊंगा”
ऐसा कहकर उसने सीटी बजाई, जिससे फिंगो बाहर आ गया। उसने इस बात की पुष्टि की कि फगामुंडोली इंसानी मांस खाता है। उसने पूछताछ के दौरान यह भी बताया कि ओझा लोग अक्सर अपने मरीज का ही मांस निकालकर खा जाते है। उससे जब यह पूछा गया कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ओझाओं में गिने जाने के कारण क्या वह भी नरभक्षण करता है तो उसने खुद को इस बुराई से बरी रखने की बात कही ।
“लगातार पूछताछ के बाद उसने कबूल किया कि वह कोई ओझा-वोझा नहीं है बल्कि फगामुंडोली का पालतू नौकर है। फगामुंडोली भी चारागर नहीं है और न ही उसके उपचार से आज तक कोई ठीक हुआ है। उसने यहां तक कह डाला कि उसकी पगार देने में फगामुंडोली नियमित नहीं रहता है। साथ ही फगा जो खाता है, वह आदमी का नहीं, गाय का मांस होता है”
अन्वेषकों ने यह सब खुलासा होते ही फगामुंडोली को अपनी गिरफ्त में ले लिया ।
एक बार फिर लेंडा ने एक और फोटो मेरी तरफ बढ़ाया जिसमें फगा को दो सादी वर्दी वाले सिपाही पकड़कर ले जाते दिख रहे थे।
मैं तस्वीर को यूं ही देखता रहा और लेंडा मुझे ।
“फगा को अदालत ले जाया गया जहां मजिस्ट्रेट ने उसे छह महीने की कैद सुनाई। इस कोर्ट-कचहरी के चक्कर में फगा ने जो भी कुछ कमाया था, फूंक डाला । हां, इस बवाल में मुझे जरूर लेने के देने पड़ गए‘’
अपनी कहानी सुनाने के बाद लेंडा जोर से खांस उठा।
मुझे उस पर बड़ा तरस आया ।
उसी समय उड़ान के लिए घोषणा हुई तो मैं उठ खड़ा हुआ।
लेंडा के फोटो को मैंने उसे पकड़ाना चाहा, तो उसने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया ।
“क्यों?’’
“मुझे उनकी जरूरत नहीं है। इन्हें देखकर शायद तुम्हें मेरे दुर्भाग्य और आदमी की आदमी पर की गई निर्दयता का स्मरण हो”
“लेकिन मैं इनका करूंगा क्या?’’
कहकर मैंने वे फोटो उसे पकड़ा ही दिए।
“थैंक यू… लेकिन साब मेरी छाती के दर्द से छुटकारे लिए कुछ पैसों का जुगाड़ हो सकेगा?”
प्रस्थान लाउंज में लगा लाउडस्पीकर यात्रियों के लिए अंतिम कॉल का ऐलान कर रहा था। लाउंज में पूरी सरगर्मी थी।
लेंडा मेरे आगे लाचारी में खड़ा छाती में सिर गड़ाकर खुर्र-खुर्र किए जा रहा था ।
मैंने अपना बटुआ निकाला। उसमें दो-सौ नैरा थे। मैंने सब निकालकर उसे थमा दिए। उसने पूरी कृतज्ञता से उन्हें स्वीकारा और ऊपर वाले से मेरे लिए अनेक दुआएं मांगने लगा। मेरी यात्रा सुखद, सुरक्षित और संपन्न होने की भी उसने कामना की।
इसके साथ ही हमने एक-दूसरे को अलविदा किया ।
यान ने जैसे ही हवा में कुलांच भरी तभी मुझे यकबयक ख्याल आया कि मुझे किसी नए-नवेले भिखारी ने उल्लू बना दिया है। उससे मैंने जो भी सुना और महसूस किया, निश्चय ही कोई मनगढ़ंत किस्सा था, वरना लेंडा के पास वे फोटो कहां से आते! पूरे घटनाक्रम का सचित्र रिकार्ड रखने की फुर्सत उसके पास कैसे आई! उसे क्या पता था कि इलाज की प्रक्रिया में जो कुछ हो रहा था, किसी को सुनाना पड़ेगा। इसी तरह उसकी नब्बे से भी ज्यादा हकीमों से मिलने वाली बात आंखों में धूल डालती लगी ।
मुझे बड़े विश्वसनीय ढंग से ठग लिया गया था। जाहिर है, मुझे भिखारियों का इतना संज्ञान नहीं था, जितना मैं समझता था।
लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि लेंडा ने जो भी कमाई मुझसे की, उसके लिए कड़ी मेहनत की थी। ऐसी कहानी गढ़ने के लिए कुछ पारिश्रमिक तो होना ही चाहिए। वह मुझे कैसे बेवकूफ बनाकर चला गया, मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ा। मुझे खुद पर हंसी आई।
जब मैं अपनी यात्रा से वापस लौटा, तो लेंडा अभी भी हवाई अड्डे पर था… अपने एक मासूम शिकार के करीब बैठा हुआ। वह एक औरत थी। उसके हाथ में अभी भी फोटो का एक गुच्छा था। मुझे देखकर उसकी खांसी छूटने लग गई। मुझसे और मेरी नजरों से छुपने के लिए वह कोशिश कर रहा था।
मुझे पता था, एक रोज मैं उस पर कहानी लिखूंगा ही, इसलिए उस घटना को मैंने कच्चे माल की तरह सहेज लिया था। दरअसल हर कथाकार अपनी कहानी और वाचक का एक सेक्रेटरी के सिवा कुछ होता भी नहीं है।
कुछ समय बाद ही मैंने उस पर अपनी कहानी लिख मारी और उसे प्रकाशित कराने के लिए संपादकों और प्रकाशकों के दरवाजों पर ठोकरें खाता फिरता रहा हूं। हर बार ही वह डाक से लौट आती है। और जब भी ऐसा होता मुझे लेंडा की चालाकियों पर गिला जरूर होता है। उसे तो अपनी कहानी पर तत्काल ही पारितोषिक मिल गया और एक मैं हूं जो अभी भी यूं ही भटक रहा हूं।
हो सकता है, किसी दिन…..
केन सारो वीवा:
सारो वीवा का जन्म 1941 में बोरी, नाईजीरिया में हुआ था। हालांकि उनकी पहली किताब सन 1983 में छपी थी लेकिन अपनी व्यंग्य रचना ‘साजावॉय: एक सड़ी अंग्रेजी का उपन्यास’(1985) के प्रकाशन ने उन्हें विशेष ख्याति दिलवाई। 1985 से लेकर 1990 तक उन्होंने एक कामयाब टी.वी. सीरियल भी लिखा। सन 1990 में ही वह ओगानी लोगों की जीवन रक्षा के लिए चलाए जा रहे आंदोलन के अध्यक्ष बने। तेल कंपनियों और सैनिक सरकार द्वारा उनके लोगों को प्रताडि़त किए जाने की ओर उन्होंने दुनिया का ध्यान आकर्षित कराया। नतीजतन सन 1993 में उन्हें कारावास झेलना पड़ा जिसके आधार पर उन्होंने ‘एक माह, एक दिन: कारावास डायरी’ (1995) लिखी। मई 1994 में आठ अन्य नेताओं समेत उन्हें पुन: हिरासत में ले लिया गया और उन पर कत्ल का मुकदमा चलाया गया, जिसमें दो नवंबर 1995 को उन्हें ‘दोषी’ करार दिया गया। तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबावों के बावजूद, दस नवंबर 1995 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। उन्हें अपनी जान अपने लेखन के कारण नहीं, अपने लोगों की जान की रक्षा के लिए चलाई जा रही मुहिम में सक्रियता के कारण गंवानी पड़ी ।
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