दरवाज़े को हौले-से भेड़कर वह अन्दर आया और इशारा पाते ही कुर्सी पर बैठ गया। चालू फ़ाइल को एहतियातन वहीं बन्द कर मैंने नीचे सरका दिया। इस दरम्यान एक मिनट की ख़ामोशी रही। एक अबूझ-सी राहत समेटकर मैं कुर्सी के पिछवाड़े पर झूल गया और आश्वस्ति टटोलती निगाह से उसके हाव-भाव परखने लगा।
‘‘तो तुम्हारे हिसाब से केस हिट करने लायक है?’’
‘‘एकदम साब, सोचने जैसा कुछ है ही नहीं।’’
आँखों में आँखें डालकर उसने यक़ीन से गर्दन हिलाई और कहते हुए हल्की-सी चपत टेबल के काँच पर जड़ दी।
इस काम में जिसे ‘गट फीलिंग’ कहते हैं, वह मुझे आ चुकी थी मगर एक परीक्षार्थी का-सा अन्दरूनी डर फिर भी बना हुआ था। मैं उसी पर नकेल डालने की जुगत में था, ‘‘अच्छा, कितने की ज़ब्ती हो जाएगी?’’
बेहिसाबी रोकड़ा और दूसरी चल सम्पत्तियों की ज़ब्ती पूरे मिशन की कामयाबी की जान थी इसलिए मैं उसी पर चढ़कर मॉक-फेंसिंग आजमा रहा था। झूठ-फ़रेब करने में कोई कितना ही उस्ताद बन ले मगर हर पेशेवर मुख़बिर इस सवाल का जवाब देने से कतराता है क्योंकि इससे उसकी रोज़ी-रोटी ही नहीं, साख-प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है। सीधे-सीधे। एवजी में कोई दलील काम नहीं करती है। इसलिए निमिष भर को वह झिझका। एक अलिखित क़ायदे के मुताबिक़ रत्ती-भर से ज़्यादा की झिझक मेहनत से बनाए आपके ढाँचे को भुरभुरा कर सकती है-शक़ की वजह से। इसलिए भटकती पुतलियों को दबोचकर उसने लम्बी साँस खींची।
‘‘करोड़ से कम नहीं होगी।’’
‘‘तुम्हारा दिमाग़ ठीक है…करोड़ से ऊपर तो हमारे यहाँ सारे ही केस होते हैं, सवाल है, कितने करोड़?’’ मैंने उसे खारिज-सा करते हुए धमकाया।
‘‘दो-ढाई तो समझो होई जाएगी, नसीब ने साथ दिया तो चार-पाँच भी हो सकती है।’’ उसने गोकि बिखरे पत्ते समेटे।
‘‘हम नसीब पर कुछ नहीं छोड़ते पठान भाई…इतनी बड़ी दुनिया में इतने बड़े-बड़े मुर्गे खुले घूम रहे हैं…किसे पकड़ना है यह नसीब नहीं, नज़र और समझ की बिना पर तय होना चाहिए…’’
‘‘फिर भी साब, नसीब तो समझो होना ही हुआ।’’ उसने मेरी बात बीच में पकड़ ली। उसकी बातों में ‘समझो’ तकियाकलाम की तरह रहता है।
‘‘ठीक है ठीक है, तुम नसीब की नहीं काम की बात पर आओ।’’
‘‘वो तो साब मैंने पैलेई बतला दी है।’’
पहले उसने जो बतलाया था…वह अपनी नवीनता के कारण काफ़ी कौतूहल भरा लगा था। हर दूसरे-तीसरे छापे में बिल्डरों और ज्वैलर्स की धर-पकड़ करते हुए मैं ख़ासा ऊब गया था। हमारा निदेशक बार-बार दुहाई देता कि गये दस बरसों में दुनिया के कारोबार का नक़्शा बदल गया है मगर हम अपनी आरामपरस्ती में फँसे पड़े हैं। चार लोगों की हमारी टीम ने डेढ़-सौ से ज़्यादा कारोबारों की छँटनी की थी मगर याद नहीं पड़ता कि ‘फलों का थोक व्यापार’ उसमें था या नहीं।
उसने जब सुझाया तो पहली प्रतिक्रिया में खारिज करते हुए मैंने तल्ख़ी ली थी कि विभाग के इतने बुरे दिन भी नहीं आये हैं कि धनिए-पुदीने वालों पर भी छापा मारें।
‘‘धनिया-पुदीना और सेब-सन्तरों में फ़र्क़ है साब।’’
‘‘क्या फ़र्क़ है भाई?’’
‘‘पचास लाख की आबादी के इस शहर में हर रोज़ ढाई-तीन लाख का धनिया बिकता है और तीस-पैंतीस लाख के फल…फिर फ्रूट्स खानेवाला तबका कौन-सा है ये तो आप बख़ूबी जानते हैं।’’
मैं अचानक रुका। उसकी दलील में आँकड़े नहीं, मानवीय व्यवहार की गहरी समझ थी। एक चौखटे में फँसी सोच के तहत मैं मन-ही-मन मोटा-मोटी हिसाब लगाने लगा कि हर रोज़ के तीस लाख के बाज़ार में आठ लाख का हिस्सा रखनेवाले एक थोक व्यापारी की साल भर में कितनी कमाई होती होगी…पच्चीस करोड़ की सालाना बिक्री के हिसाब से छह साल की हो गयी सौ करोड़ से ऊपर। जिस ट्रेड को आज तक हाथ नहीं लगाया गया उसका तो सारा कारोबार ही बेहिसाबी होगा। उसने आगे बताया कि आम को लोग भले उसके स्वाद के कारण फलों का बादशाह कहते हों मगर व्यापारियों को यह मुनाफ़े की वजह से बादशाह लगता है। हर सीज़न की शुरुआत केरल के सिन्दूरी आमों से होती है, फिर रत्नागिरी और जूनागढ़ के अल्फांसो और हापुस आते हैं, आख़िर में सोने पर सुगन्ध उत्तर-भारत के दशहरी और लँगड़ा की होती है। सारा ट्रेड कमीशन के आधार पर चलता है जिसकी तयशुदा दर छह प्रतिशत है…मगर यह तो सिक्के का दिखावटी पहलू है : बड़े-बड़े थोक व्यापारी किसानों के आम नहीं, बाग के बाग ख़रीद लेते हैं…कभी-कभी तो अगले 5-7 सालों के लिए। अपने उत्पाद की क़ीमत तय किये जाने में किसान के साथ जो छल किया जाता है उसकी नज़ीर भी उसने मुझे दिखा दी थी। यह देखकर मैं हक्का-बक्का रह गया कि एक तौलिए के भीतर हाथ की उँगलियाँ घुमाकर व्यापारियों की कार्टल ‘प्रतियोगिता’ के सिद्धान्त की कैसे धज्जियाँ उड़ाती चली जाती है।
मैं वापस उसकी तरफ़ लौटा।
‘‘कितने पार्टनर हैं?’’
‘‘तीन हैं, तीनों भाई।’’
‘‘ठिकाने कितने रहेंगे?’’
‘‘समझो तीन हो गये बँगले, एक बाप का, एक मार्किट-ऑफ़िस, एक गोदाम।’’
वह मन ही मन सोचते हुए गिनाने लग गया।
‘‘यानी छह।’’
‘‘सात समझो, साला भी है एक, बड़े वाले का। मामू कहते हैं।’’
‘‘बाप एक्टिव है?’’
‘‘एक्टिव तो नहीं है मगर इन तीनों को पैदा करने का कसूरवार तो है ही…’’
काम की बात के बीच थोड़ी चुटकी मुझे सुहाती है। वह जानता है।
‘‘कसूरवार है तो इस बुढ़ापे में बँगलों को छोड़कर उस फ़्लैट में क्या कर रहा है?’’
‘‘इन सिन्धियों का घर या शक्ल देखकर आप इनकी हैसियत के बारे में अन्दाज़ा नहीं लगा सकते हैं…ये जो दिखते हैं उसके अलावा कुछ भी हो सकते हैं।’’ अपनी बात मनवाने के लिए पठान अक्सर ऐसे शगूफ़े छोड़ने लगता। लगभग यही बात उसने एक मारवाड़ी के सन्दर्भ में कही थी। आप बहस कीजिए और मुद्दे से हाथ धो बैठिए।
अपने निदेशक को विश्वास में लेकर चौथे दिन मैंने उस निशाने को ‘साध’ लिया था। बस दो एहतियात अपनी तरफ़ से और बरते, एक तो इस खिलाड़ी न.1 के साथ इस बाज़ार के खिलाड़ी नं. 2 को भी उसी दिन शिकार बनाया और दूसरे, दोनों के बही-खाते लिखनेवाले मुनीमों को भी वही इज़्ज़त बख्शी जो उनके आक़ाओं को। दोनों घरानों से कोई पौने चार करोड़ की ज़ब्ती हुई थी जो अपेक्षा से कहीं कम थी मगर दूसरे घराने के एक भागीदार के यहाँ से मिली कुल जमा इक्यावन लाख की नकदी ने किसी तात्कालिक मलाल से बरी कर दिया था। निर्वासित पिता और मामू को ‘कवर’ करने की हिदायत बड़े काम आयी : पिता के यहाँ से एक ऐसी ‘चोपड़ी’ मिल गयी जिसमें हिसाबी कमीशन को क्रमशः घटाने को एक कला का दर्जा दे रखा था, मामू के यहाँ से तो तीन बेनामी खाते ही मिल गये जिनसे निकाली राशि उसी बैंक में ‘फिक्स’ कर रखी थी। हमारी मामूली बदसलूकी से मामू टूट गया और बिना कोताही किये ‘कॉआपरेट’ करने लगा।
खिलाड़ी नं. 2 की जानकारी मैंने अपने कम्प्यूटर से ही जुटाई थी मगर काग़ज़ पर पठान को मुखबिर के तौर पर डाल दिया ताकि उसका अतिरिक्त ‘उत्साहवर्धन’ हो सके। महीने भर बाद उसे पचास-पचास हज़ार का अन्तरिम इनाम भी दिलवा दिया। रकम पकड़ाने के बाद मैंने उसे आड़े हाथ ले धरा ‘‘जीवतराम (खिलाड़ी नं. 2) ने मेरी लाज बचा ली वरना पठान तुम तो मुझे ले डूबे थे।’’
‘‘क्यों साब क्या हुआ?’’
‘‘पूछते हो क्या हुआ? नकदी की कितनी बढ़-चढ़कर उम्मीद बँधा रहे थे…तुम्हारे खिलाड़ी नं. 1 के यहाँ से सवा पाँच लाख मिले हैं बस।’’ मैं गुस्से में था, लताड़ रोक नहीं पाया।
‘‘आपका गुस्सा वाजिब है साब मगर मैं कुछ कहूँ तो मानेंगे?’’ उसकी आँखों में मोहलत की गुहार थी।
‘‘चलो अब यह भी सही, बताओ,’’ मैंने सख़्त बेरुख़ी में टाला।
‘‘रवेतीराम के यहाँ आपने किसी मैथ्यूज़ को इन्चार्ज रखा था?’’
‘‘हाँ, हाँ, पार्टी नम्बर तीन में।’’
‘‘वहाँ गड़बड़ हो गयी।’’
‘‘मतलब?’’
‘‘स्टेट बैंक का एक लॉकर ऑपरेट ही नहीं हुआ…मतलब ऑपरेट तो किया मगर बिना खोले ही छोड़ दिया…’’ अपने बचाव से उसने मुझे छलनी कर दिया। मैथ्यूज़ के प्रति कोई भाव उजागर किये बग़ैर मेरे भीतर ख़ून उबलने लगा…अक्सर मेरे कमरे में सुबह की चाय पीता है, जब देखो तब सर सर कहता है फिर भी…डायन का पुल्लिंग क्या होगा…हरामी।
‘‘अच्छा!’’ निष्कवच होकर मेरी आँखें फटी थीं।
‘‘जाने दो साब, थोड़ी-बहुत ऊँच-नीच तो होती रहती है।’’
रिवायत के मुताबिक़ अगले तीन-चार महीने उसे मेरे दफ़्तर की शक्ल नहीं देखनी थी। इस दरम्यान बरामद सारे काग़ज़ात के गट्ठर से मुझे कर-चोरी की एक ऐसी मूल्यांकित रिपोर्ट लिखनी थी जो मिशन की कामयाबी को सौ-गुना बढ़ाकर सिद्ध करते हुए भी सल्वाडोर डाली की चित्रकारी याद दिला दे। रिपोर्ट पूरी होने के ठीक दो रोज़ पहले उसका फ़ोन आ गया। अपनी नस्ल के नाम को रोशन करती गर्मजोशी से वह बताने लगा कि साब ‘‘ऐसी चीज़ हाथ लगी है कि समझो दिल खुश हो जाएगा।’’
‘‘यार तीन महीने से क़ायदे से एक रात नहीं सोया हूँ और तुम दूसरी क़ब्र में ठेल रहे हो।’’ मेरी आवाज़ मुरझाई हुई थी।
‘‘आप देखोगे तो कमल से खिल जाओगे।’’ उसके जोश की जुम्बिश जारी थी।
‘‘इस कमल को इस बार तुम चन्द्रा साहब के सरोवर में खिलाओ पठान।’’
मैं किसी भी क़ीमत उसके फुसलाने में नहीं आना चाहता था। यूँ, हर बार एक नया मुर्ग़ा पकड़ने की आदिम इच्छा ख़ून के बहाव में शामिल रहती थी, मगर पौने तीन साल से वही पंचनामा बनवाते, कैवटीज़ ढूँढ़ते और सच-झूठ के मनोगत औज़ारों से धन्नासेठों को धराशायी करते काफ़ी ऊब भी होने लगी थी। सोने-जागने की असामान्यता और खाने-पीने की अनियमितता ने अजीब तरह से तोंदियल और नतीजतन ‘हवाबाज़’ बना छोड़ा था। मोर्चे पर आक्रमण करने के इस मजबूर दस्ते में हम आठ लोग थे इसलिए हर हफ़्ते ही किसी-न-किसी की ‘बारात’ निकलती थी। यह भी ख़ूब होता कि एक बारात से लौटे नहीं और उधर दूसरी में भागना पड़ रहा है। मगर उस दुनिया में हम प्रसन्न-सुखी थे तो इसलिए कि एक क़िस्म के परपीड़ा-सुख को सलीके से बगल में दबोचने के बावजूद, बेडौल ही सही मगर न्याय के एक नामुराद से बच्चे को हम अपने तईं हर रोज़ डिलीवर होते देखते थे। पठान थोड़ी देर झिझका था क्योंकि अक्सर तो मैं स्वयं उसे ‘कुछ नया’ लाने को प्रोम्प्ट करता था और फिर भी मेहनत से सुझाए उसके पाँच-सात प्रपोजल्स में एकाध को ही तवज्जो देता।
‘‘नहीं साब, देना तो समझो आपको ही है, चाहे महीना और लग जाए…’’ उसका इतना विश्वास ही काफ़ी था मगर उसके अगले पाँच लफ़्जों ने पिघला ही दिया…‘‘ साब, आपके हाथों में बरक्कत है…’’
किसी विदग्ध लती की तरह एक पखवाड़े के भीतर ही मैं उसके साथ मामले की निटी-ग्रिटीज़ में उतरता जा रहा था।
यह एक हड्डियों के डॉक्टरों का गैंग था जो ट्रौमा अस्पताल चलाता था। पाँच समवयस्क डॉक्टरों की भागेदारी जिसकी रहनुमाई डॉक्टर आकाश जोशी के सुपुर्द थी। ‘ऑपरेशन’ की काग़ज़ाती तसल्ली के लिए ज़रूरी बातें वहाँ पहले से ही मौजूद थीं : क्रीम कलर की छह मंज़िला भव्य इमारत के अन्दर-बाहर के फ़ोटोग्राफ्स, सभी भागीदार डॉक्टरों का साँझा नोट-पैड, सभी डॉक्टरों के घर के पते और मोबाइल नम्बर, उनके द्वारा इस्तेमाल की जानेवाली चमाचम गाड़ियाँ…
‘‘मगर धन-चोरी का तरीक़ा क्या है?’’ मैंने मुद्दा कसा।
‘‘तरीक़ा तो जी बड़ा सीधा है। ट्रौमा के केसिज को हाथ लगाने में दूसरे अस्थि-विशेषज्ञ डरते हैं। इसके यहाँ एक डॉक्टर हैं, मित्रा।बंगाली है। उसका भाई पुलिस में है। उसके कारण मित्रा पुलिस को सँभाल लेता है और जमकर वसूलता है। यह काम समझो कोई 10-12 साल से हो रहा है। ज़्यादातर बेहिसाबी। मगर पिछले चार-पाँच साल से डॉक्टर जोशी ने घुटने बदलने (नी-रिपलेसमेंट) की शल्य चिकित्सा में ख़ूब नाम और नामा कमाया है…रोज़ के दो घुटने ऑपरेट करता है, एक सुबह, एक शाम। हरेक का डेढ़ लाख लेता है।
‘‘यानी साल के तीन सौ दिन भी गिनो तो नौ करोड़ की बिक्री (डॉक्टरों के सन्दर्भ में बिक्री शब्द कहते मैं इसके अटपटे प्रयोग पर हँसा)…इमप्लांट समेत कितने ही ख़र्चे डालो, तीन करोड़ से ऊपर का मुनाफ़ा तो बैठेगा ही।’’ मेरे कारोबारी ज़ेहन ने अपनी चिड़िया की आँख साधी।
‘‘बेशक, तीन नहीं तो, ढाई तो समझो कहीं नहीं गया।’’ गर्दन को एक झटके से उसने सरकाया।
वैसे ख़ूब लम्बी-चौड़ी हाँक ले मगर चलो, कुछ तो ‘फीगर्स फोबिया’ इसे है।
‘‘पठान, इस शहर में क्या इतने बेवकूफ़ लोग हैं जो अपनी गाढ़ी कमाई को आधे दिन के इलाज में ऐसे उड़ा देंगे? साले हर चीज़ में तो डिस्काउंट और वटाव माँगते हैं…आइ डोंट थिंक बॉस विल डाइजैस्ट और एग्री टू इट’’ मुँह बिचकाकर मैंने उसे आदतन खारिज करना चाहा। मगर उसकी जवाबी कार्रवाई ने मेरे शक़ का पलीता कर दिया।
इन्फोसिस में कार्यरत अपने काल्पनिक चाचा के घुटने के आरोपण के सिलसिले में वह डॉक्टर आकाश जोशी की घसीट लिखावट में सम्भावित खर्चे का हस्ताक्षरित पर्चा मुझे दिखा रहा था। एक मार्मिक आशुकथा के सहारे, इलाज करवाकर बाहर निकल रहे क़स्बाई मरीज के बिल की फ़ोटोकॉपी उसने अलग से करवा ली थी। मेरे सामने सब कुछ दिन के उजाले-सा उज्ज्वल था, या इतनी रोशनी तो दे ही रहा था कि डॉक्टर जोशी के खड़े किये अँधेरे चुहचुहा जाएँ। अब कोई गुंजाइश नहीं थी।
और वाक़ई, हमारी कार्रवाई के बाद कोई गुंजाइश रही भी नहीं। नक़दी ज़रूर हमारी अपेक्षा से कम मिली मगर उसकी एवज़ में बेहिसाबी चल-अचल सम्पत्ति के ऐसे दस्तावेज़ मिल गये कि मिशन के चयन और सफलता की ख़ूब वाहवाही हो गयी।
मिशन की एक मज़ेदार बात डॉक्टर आकाश जोशी के बचपन की सरेआम वापसी थी : वार्ड बॉइज और नर्सों के सामने अपनी मालिकी का मुलम्मा उतार वह बार-बार मेरे घुटने पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगता और ‘‘मैंने तो कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, मैंने तो कभी चींटी भी नहीं मारी…’’ की सुबकियाँ भरता जाता। बहुत जल्द वह गुत्थी मेरे हाथ लग गयी जो उसके पाँव तले की ज़मीन को इस क़दर पोला किये दे रही थी: उसके चेम्बर से एक कम-उम्र और यक़ीनन ख़ूबसूरत हसीना के साथ उसकी रंगीनी पर मुहर लगाती ख़तो-किताबत और चन्द तस्वीरें। यानी तस्वीरे-बुतां और ख़ातूनों के ख़त मरने से पहले ही! कौन बचाएगा तुझे मेरे मियाँ मजनू जोशी!
मुख़बिर के लिहाज़ से पठान मेरा मुँह लगा था मगर हमारे आपसी ताल्लुक़ात पेशेवर ही थे। दुनिया-जहान के राज़ बटोरकर जब वह मुझसे मिलना चाहता तो मैं उसे किसी नये रेस्तराँ, पार्क या स्टेशन पर आने को कहता, न कि दफ़्तर या घर। फ़ोन पर उसे अपना या मेरा नाम लेने की मनाही थी, मेरे साथ किये उसके केसिज के हिसाब से मैं उसे एक संख्या पकड़ा देता था जो उसकी तात्कालिक पहचान का काम करती। किसी मुख़बिर को हमारा फ़ोन करना तो उसूलन ही नहीं बनता था क्योंकि निजी तौर पर हमने अविश्वास की यह घुट्टी पी रखी थी कि ‘‘वंस एन इन्फोरमेंट, आल्वेज़ एन इन्फोरमेंट।’’ आर्थिक विषमताएँ पाटने के रास्ते संसाधन जुटाने की राज्य की घोषित नीति के हम हरावल पुर्जे थे तो पठान की बिरादरी मानव के सामाजिक व्यवहार से उत्पन्न एक कुटिल पूँजीवादी लुब्रीकेंट। उसका इनाम तो ज़ाहिर था मगर हमारा हासिल वह भटकती ईगो थी जो अपने सम्भावित शिकारों के बीच रात को शराब की पार्टियों में बाइज़्ज़त न्यौते जाने अथवा स्थानीय क्लब की तैराक़ी प्रतियोगिता में ‘अतिथि विशेष’ बना दिये जाने पर पर्याप्त तृप्त महसूस करती थी।
बहरहाल, डॉक्टर जोशी के सफल ‘ऑपरेशन’ के बाद मैंने उसे घर बुलाया और ब्लैक लेबल खोल दी। उसने तौबा में कान पकड़ते हुए माफ़ी चाही ‘‘साब आपने इस क़ाबिल समझा, शुक्रिया। मैं नहीं पीता…इस्लाम में शराब पीना कुफ्र है।’’
अकेले पीने की मेरी आदत नहीं रही। बोतल एक तरफ़ सरका ही रहा था कि उसने मेरे घुटने पकड़ लिये और नौसिखिया अन्दाज़ में मिन्नत करने लगा, ‘‘साब, यह दूसरा कुफ्र तो मत करवाइए…आप बाक़ायदा लें…इस्लाम में किसी को शराब पीते हुए देखना क़ाबिले-गुनाह नहीं है।’’
मज़हब पर कसी इस फुरफुरी चुटकी के साथ भरे आदमख़ोर ठहाके का मैंने भी साथ दिया।
‘‘आज आपकी सिगरेट अलबत्ता ज़रूर पीऊँगा।’’ नवाज़ी इज़्ज़त ने स्नेहिल अधिकार ले लिया था।
सिगरेट का कश वह कन्नी उँगली के बीच दबाकर खींचता और थोड़ी-थोड़ी देर बाद चुटकी बजाकर राख झाड़ता।
शराब के घूँटों के साथ तबादलों और प्रोन्नतियों को लेकर रोज़ किये जानेवाले विलम्बित आलाप और विमर्श आज नदारद थे। न क्रिकेट का मौसम था और न ही उस पर बात हो सकती थी। कुछ देर हम अपने साझा शिकारों और उनकी ख़ासियतों पर बात करते रहे। गये तीन बरस में मेरे हाथों घायल ग्यारह शिकारों में छह पठान की मेहरबानी थे (तीन मैंने खुद-ब-खुद यानी ‘सुओ मोटो’ तैयार किये थे और दो में दो अलग-अलग मुख़बिर थे)। यानी पठान और मेरी ख़ासी जुगलबन्दी थी। मगर त्रासदी देखिए कि उसकी किसी ज़ाती चीज़ की मुझे शायद ही कोई जानकारी थी। आज उसके भीतर कुछ पिघल रहा था…
‘‘इस धन्धे में कभी नहीं आता अगर शर्राफ़ ने उस रोज़ मुझे साढ़े चार सौ एडवांस दे दिये होते। मैं उसके यहाँ डेढ़ हज़ार रुपये महीने की नौकरी पर था। मुख्य काम था सहकारी बैंक में चैक जमा कराना, रोकड़ा निकालना और तयशुदा पार्टियों से वसूली करने जाना। पगार मिलने में अभी आठ दिन थे। बरसात के दिन थे। बहन छत से फिसल गिरी थी और कूल्हे खिसकने का इलाज कराने दवाख़ाने में दाख़िल थी। पड़ोस के गल्ले में फ़ोन करवाकर अब्बा ने साढ़े चार सौ का इन्तज़ाम करने को बोला था। अब आप ये समझो कि बाइस दिन की तो उस पर मेरी पगार चढ़ी हुई थी और आधा घंटा पहले ही मैं खुद ढाई लाख निकालकर लाया था। मगर वह टस से मस नहीं हुआ। ज़हर का घूँट पीकर रह गया। मौक़ा हाथ आते ही मैंने वह नौकरी छोड़ दी और ट्रांसपोर्ट की दलाली करने लगा। जगह-जगह धक्के खाकर मैं आठ-दस ट्रांसपोर्टरों को काम दिलवाता और आन पड़ने पर उनके छुटपुट काम भी कर देता। उन्हीं दिनों अब्बा को हाऊसिंग बोर्ड का मकान अलॉट हो गया जिसके लिए बारह हज़ार पेशगी देनी थी। तीन हज़ार की जिम्मेवारी अब्बा ने मुझ पर डाल दी मगर मुझसे वह भी न बने। बेवजह ब्याज चढ़ गयी। दस जगह ठोकर खाकर इन्तज़ाम तो हुआ मगर एक कड़वाहट भीतर जम गयी…कि तंगी में कोई सगा नहीं होता…कि पैसे का दरियादिली से समझो कोई वास्ता ही नहीं। मैंने वह धन्धा भी छोड़ दिया और एक तेल मिल में काम करने लगा। छह महीने बाद वह मिल बन्द हो गयी। बीच में पता नहीं कितनी जगह धक्के खाने के बाद एक शेयर दलाल के यहाँ टँग लिया। थोड़े दिनों बाद ही आपके विभाग ने उसके यहाँ छापा मारा था, वह भी दोपहर ढाई बजे जब मार्किट की रिंग बन्द हो चुकी थी। एक राजपुरोहित साब थे उसके इन्चार्ज़। पता नहीं अब कहाँ होंगे क्योंकि इस बात को कुछ नहीं तो समझो पन्द्रह साल तो हो ही गये। सेठ ने मुझे बतौर साक्षी रखवा दिया जिससे मुझे आपके विभाग की ताक़त और तौर-तरीक़ों का पता चला। सारी कार्यवाही में पता नहीं उन्होंने मुझमें क्या देखा कि बड़े नामालूम ढंग से मुझे अपने दफ़्तर आकर मिलने की दावत दे दी।
बस, वह दिन है और आज का दिन। इतने दिनों सेठ लोगों से खायी ज़िल्लत, इतने दिनों हर मुमकिन बेगार में खुद को जोतने का नतीजा, समझो मेरा सरमाया बन गया। हिसाबी-बेहिसाबी का फ़र्क़ तो मुझे ज़्यादा नहीं पता था मगर यह ख़ूब जानता था कि हर कामयाब धन्धे की बुनियाद चोरी पर टिकी होती है। वैसे तो हर आदमी अपनी तरह और हालात के मुताबिक़ चोरी करने को आमादा रहता है मगर इतने दिनों की बेपनाह ठोकरों ने इतना इल्म दे दिया है कि ख़बर हो जाती है कि मुक्तलिफ़ कारोबारों की कमज़ोर नसें कहाँ होती हैं और उन्हें कैसे कुरेदा जा सकता है…देखा जाए तो सरकार ने भी तो आपको इसी काम के लिए रख छोड़ा है…’’
‘‘बेशक, बेशक।’’ गोकि किसी स्वप्न से जागकर मैं बड़बड़ाया।
उसके ‘रख छोड़ा है’ के वाहियात प्रयोग के बावजूद तभी मुझे अहसास हुआ कि अपने पसन्दीदा पेय को मैं कितनी शर्मनाक रफ़्तार से पी रहा था। एक लम्बा घूँट खींचकर मैंने दूसरा पैग बनाया और उसके लिए सूप मँगवाया जिसे, जल्दी ख़त्म करने के फेर में वह बारी-बारी से प्लेट में डालकर सुड़कने लगा था।
बात का सिरा जोड़ने के इन्तज़ार में मैंने एक और लम्बा घूँट खींचा और सहारे का कन्धा बदलकर पाँव फैला दिये, ‘‘यार पठान तुम्हारी तत्काल झूठ गढ़ने की क़ाबिलियित का मैं बहुत मुरीद हूँ…सही कहूँ तो इस मामले में तुमसे बहुत सीखा है मैंने…कैसे कर लेते हो…?’’
गहराते सुरूर में ऊपरी तौर पर नागवार लगनेवाले इस आरोप में छापों से पहले की जानेवाली ज़रूरी टोही हरक़तों (रिकॉनिसंस जिसे ‘रैकी’ कहने का चलन था) का तजुर्बा था। वह अर्राता हुआ गोकि शेर की माँद में हाथ डाल देता था। मैं यथासम्भव अनचीन्हा-सा उसके दायरे में डोलता रहता-इत्तफ़ाक़न भी किसी परिचित से टकराए जाने की सम्भावना से खुद को बचाते हुए।
‘‘सर, ज़रा एक मिनट हल्का हो आऊँ।’’ उँगली के इशारे से पठान ने अपनी थुलथुल काया को अचकचाकर सीधा किया।
‘‘सामने राइट को है।’’ मैंने इशारे से समझाया।
* * *
वह एक बिल्डर का केस था। श्री पैराडाइज़ बिल्डर्स का। सम्भावित ग्राहक बनकर वह किसी फ़्लैट का इस बारीकी से मुआयना करता मानो कल से आकर रहने लगेगा।
‘‘किचिन में काम करवाना पड़ेगा…करवा देंगे ना…भैया ऐसा है मेरे सेठ के साथ उसकी बूढ़ी माँ रहती है जिसे एलर्जिक अस्थमा है इसलिए कैमिस्ट शॉप नज़दीक चाहिए…इसके सामनेवाला रिहाइशी है या इन्वैस्टर का है, सुनसान में तो नहीं रहना पड़ेगा…’’ इमारत का मुआइना करते हुए वह सख़्तमिजाजी से बकता जाता। बिल्डर से क़ीमत तय होने के बाद वह दस्तावेज़ी और ‘ऑन’ में दी जानेवाली राशि का हिसाब बिल्डर से ही लिखवाता।
‘‘ऑन का प्रतिशत पचास से साठ या सत्तर हो सकता है मालिक’’ कहकर वह जेब में पड़े माइक्रोटेप को चालू कर देता।
किसी जीनियस शिल्पी की तरह अपने मक़सद में वह यूँ एकाग्र हो जाता कि मेरी मौजूदगी को भी भुला देता।
‘‘साठ तक आराम से हो जाएगा।’’
‘‘फिर ठीक है…वो क्या है सेठ कि अपने एक्सपोर्ट के चक्कर में मालिक लोग तो लन्दन-फ्रांस घूमते रहते हैं, उनका सारा हिसाब मुझे सँभालना पड़ता है मगर माफ़ करना, पैसे के मामले में एक रुपये की हेर-फेर ज़ायका बिगाड़ देती है…मुझे आप यहाँ इस सत्रह लाख का ब्रेक-अप करके दे दो’’ कहकर वहीं पड़ा काग़ज़ उसने उसकी कलम के नीचे सरका दिया। बिल्डर ने 7 डी और 10 सी को ऊपर-नीचे लिखकर लाइन खींची और उसके नीचे 17 लिख दिया। आँख में बाल दबाए पठान के लिए यह नाकाफ़ी था। वह उठा और उसके सामने अध-झुका होकर मासूमियत से दरयाफ़्त करने लगा :
‘‘7 डी माने?’’
‘‘अरे यह भी नहीं पता, सात डी यानी दस्तावेज़ सात लाख का।’’
‘‘और 10 सी?’’
‘‘दस लाख कैश रहेगा।’’
‘‘यह हिसाब 5-12 का नहीं हो सकता मालिक।’’
‘‘भाई, हमारे यहाँ सात के आसपास के दस्तावेज़ हो रहे हैं, आपको दिक़्क़त है तो पाँच का करवा देंगे।’’
‘‘मेहरबानी मालिक, मैं हफ़्ते-दस रोज़ में आपसे कॉन्टैक्ट कर लूँगा।’’ कहकर पठान उठ लिया। मगर भूल-सुधार सी करता बिल्डर बोला :‘‘आपका नाम?’’
‘‘राजन।’’
‘‘मोबाइल है?’’
‘‘छोटा आदमी हूँ, साब, क्यों मज़ाक़ करते हैं।’’ पठान की यह परिचित पगडंडी थी। वह जानता था कि शक़ को ज़हर बनते देर नहीं लगती है। ‘शिकार’ अब क्या वार कर सकता है?…वह मालिक का नाम-पता या टेलीफ़ोन पूछ सकता था। नाम-पते की पुष्टि करने की फुर्सत चाहे न हो मगर टेलीफ़ोन तो कोई भी खड़ूस घुमा सकता था। इसका तोड़ उसके पास था : वह अपने घर के फ़ोन का ऐसी आपात स्थिति के लिए उपयोग करता। मगर पहली कोशिश ऐसी नौबत न आने देने की होती। इसलिए वह तुरन्त प्रति-आक्रमण कर बैठता।
‘‘मालिक आप तो ऐसे सुनवाई कर रहे हैं जैसे हम तिहाड़ से छूटे हों।’’
बात निपटाकर वह नज़दीक के पान के गल्ले पर सिगरेट सुलगाता और कुटिलता से हँसकर कहता, ‘‘कोई गुंजाइश साब?’’
काग़ज़ की लिखावट को उद्घाटित करती बिल्डर की आवाज़ का साक्ष्य ‘पैराडाइज़’ की ख़ुशहाली की मुकम्मल पोल खोल रहा था।
‘‘नहीं, कुछ नहीं।’’ अपनी तसल्ली और ख़ुशी पर काबू रखते हुए मैं हामी भरता।
मगर किशनचन्द लक्ष्मणदास ज्वैलरी डिज़ाइनर के मामले में झूठ के तरीक़े ने हमें दूसरी ज़िन्दगी दी थी। एक निष्कासित कारिन्दे की मार्फ़त उसके दो नम्बरी तौर-तरीक़ों की ब्यौरेवार तफ़सील पठान ने पहले ही मुहैया करा दी थी। शिकायतों के पुलिन्दे को ‘ऑपरेशन’ में तब्दील करने से पहले मिलान के लिहाज से हम पहली मंज़िल पर उसके दफ़्तर की घुमावदार सीढ़ियाँ चढ़नेवाले ही थे कि पास आ रहे आदमी से हमने किशनचन्द लक्ष्मणदास की ताक़ीद कर दी जो बदक़िस्मती से वह खुद था।
‘‘जी आप?’’ मेरी ज़मीन खिसक गयी।
वह साथ-साथ चढ़ता रहा। दरबान ने उसे देखते ही दरवाज़ा खोल डाला और हमें भीतर धकेल-सा दिया।
‘‘जी मैं किशन…मगर आप?’’
‘‘हम एयरटैल से हैं।’’ पठान ने बचाव में कूद लगाई।
‘‘मगर मैं तो एयरटैल का कस्टमर नहीं हूँ।’’ संशय के उसी तेज़ाबी तेवर ने हमें बर्खास्त किया।
‘‘नहीं हैं तभी तो आपके पास आये हैं।’’ पठान ने नर्मी ओढ़ी।
‘‘आपको मेरा नाम-पता कहाँ से मिला?’’
कमबख़्त सूत भर गुंजाइश नहीं दे रहा था।
‘‘हम कस्टमर केअर से हैं…अच्छे या सम्भावित ग्राहकों की ख़बर रखते हैं।’’
मरहम लगाते हुए पठान मिन्नत की मुद्रा में आ गया।
अपने-अपने मॉनीटर्स पर पैवस्त सभी लोगों की निगाहें अब तक हम पर एकाग्र हो चुकी थीं।
‘‘आपका आई कार्ड या कार्ड होगा?’’
मेरी साँस रुक गयी।
क्या करेगा अब पठान? किस घड़ी चले थे घर से। यह केस तो हो गया चौपट।
साले कैसे-कैसे दुष्ट लोग हैं दुनिया में…
‘‘आई कार्ड और कार्ड तो हम अपने सेल्सवालों को इशू करते हैं।’’
क्या दूर की कौड़ी लाया है पट्ठा! मगर हे भगवान, यह काम कर जाए।
‘‘तो जो काम आप करने आये हैं यह सेल्सवालों का नहीं है?’’
अबे हरामी, निमोलियों का नाश्ता करके आ रहा है क्या?
‘‘आपने बजा फरमाया…यह काम मेनली तो उन्हीं का है मगर कस्टमर केअर वालों को तो ओवरऑल देखना ही पड़ता है…आप जानते होंगे कि सैल कम्पनियों में कितना कम्पटीशन हो गया है।’’ पठान ने चिरौरी की। वह बात को वृहत फलक पर ले जाकर टूटे तारे की तरह गुम कर देना चाह रहा था।
तभी, ‘होम कॉलिंग’ को फ्लैश करता मेरा मोबाइल जिंगलबैल की धुन टेरने लगा। मैंने तपाक़ से हरा बटन दबा दिया : ‘‘हाँ सर, हम मार्किट में ही हैं…सात-आठ कस्टमर विज़िट किये हैं। रेस्पॉन्स तो अच्छा ही है…आना पड़ेगा, ठीक है सर, बाक़ी आफ़्टरनून में कर लेंगे…ओ के सर, आते हैं…’’ मेरे एकालाप पर पत्नी सन्न होकर ‘‘क्या बकवास किए जा रहे हो’’ की लाचारी कुनमुनाती रही मगर उसे ज़्यादा मौक़ा दिए बग़ैर मैं उस औज़ार का दम घोंट चुका था ताकि वह फिर से सान्ता क्लौज को न पुकारने लग जाए। टोहगिरी करते वक़्त हमारे मोबाइल अमूमन गूँगी हालत में ही रहते थे। आज ग़लती हो गयी थी, मगर ग़लती भी तिनके का सहारा बनकर आ गयी थी। यही तो इस पेशे की विचित्र गति है।
जान छुड़ाकर हम बाहर आये तो कन्नी उँगली में फँसाकर सिगरेट का कश खींचते हुए पठान ने चेताया, ‘‘साब इस केस में समझो देर करना ठीक नहीं…इसकी जान-पहचान में ज़रूर किसी के कोई छापा पड़ चुका है वरना कोई आर्टिस्टिक दिमाग़ इतना एलर्ट नहीं हो सकता।’’
उसी केस में, निदेशक गंगाधर जांगिड़ के सामने दर्ज झूठ ने सारी समस्या ही सुलझा दी थी।
‘‘फार्म हाउस का पता कर लिया है?’’
फ़ाइल में मेरी लिखी मेरी टिप्पणी और फ्लैग किये दस्तावेज़ों को ध्यान से पढ़ने के बाद जांगिड़ साब ने पूरे गुरु-गाम्भीर्य के साथ, नज़दीक के चश्मे से निगाह उठाकर मुझे तौलते हुए दरयाफ़्त की।
‘‘यस सर, वहाँ एक सर्वे टीम रखी है।’’
‘‘डज़ ही हैव ए कीप?’’
जांगिड़ की यह स्थायी गाँठ थी कि अनाप-शनाप पैसेवालों की जेब में रखैल का न होना इन्सानी फितरत के बेमेल पड़ता है…‘‘यू सी, द अदर वोमन इज द नेच्यूरल सैंक्टूअरि ऑफ बिग बिजनैस…हमें नहीं ख़बर तो यह उसकी होशियारी कम, हमारी टोही कोशिशों की नाकामी ज़्यादा है…’’
उन पर जैसे भगवान ओशो सवार हो जाते। न बताए जाने पर वह केस को मुल्तवी करते हुए कहते, ‘‘फाइंड आउट, देअर इज़ नो हरी।’’ और हम ‘यस सर’ की पूँछ हिलाकर कसमसाकर निकल पड़ते : सच्ची-झूठी की रखैल पैदा करने!
मैं कोई आधी-अधूरी रखैल खड़ी करने ही वाला था कि पठान ने पुख़्ता यक़ीन की सहजता से जड़ा (मुझे ताज़्ज़ुब रहा कि अँग्रेज़ी में ख़ासा पैदल दिखने के बाद उसने जांगिड़ की बात कैसे लपक ली!)।
‘‘दो हैं न साब।’’
‘‘दो!’’ अपने यक़ीन की इस क़दर पुख़्तगी में जांगिड़ बेयक़ीनी से उछल पड़े!
‘‘हाँ साब, एक बाप की है, एक बेटे की।’’ पठान ने ऐसे कहा मानो वे दोनों सबूतन बाहर खड़ी इन्तज़ार कर रही थीं।
‘‘अइ शाबाश!’’
इन्सानी फितरत के इस दो टूक और समतामूलक खुलासे ने जांगिड़ की बाँछें खिला दीं।
अब केस अकस्मात ही इतना मज़बूत हो गया था कि दूसरे सबूत बेमानी हो गये थे।
बाद में जब मैंने पठान से पूछा तो तौबा में बारी-बारी से दोनों कान लवें छूकर बोला, ‘‘वो तो साब मैंने ऐसे ही बोल दिया था।’’
‘‘ऐसे ही मतलब?’’ धीमी होते हुए भी मेरी आवाज़ कड़क थी।
‘‘ऐसे ही समझो खाली-पीली।’’ वह दाँत निपोरकर हिनहिनाया।
‘‘तू मरवाएगा।’’
पहली बार उसके लिए मेरे मुँह से ‘तू’ सम्बोधन फिसल गया।
मैं कभी उन बेअदब बिरादरानों में नहीं रहा जो उम्र में अपने हर छोटे और दो-चार बरस बड़े को फ़ख्र से ‘तू’ दाग देते हैं… इस गुमान से कि ‘विक्टिम’ के प्रति वे कितने स्नेह और नज़दीकी का जज़्बा रखते हैं।
‘‘तौबा मेरी…आप यह देखिए साब कि केस के बारे में आप ख़ूब जानते-समझते थे और बड़े साब को रखैल चाहिए थी…तो इसमें ग़लत या झूठ क्या है?’’ वह नब्बे डिग्री कोण पर सामने अपना पंजा छितराकर मुझे कनविंस कर रहा था। फिर अपनी आवाज़ की पिच को अचानक धीमे करके बेशर्मी से बोला, ‘‘एक बात बताइए साब…शादी के बाद किसी ने दुल्हन की छातियों की शिकायत की है क्या?’’
‘‘व्हाट बुलशिट!’’ मैंने नरमी से हँसकर उसे चलता किया।
* * *
एक अबूझ तसल्ली से वापस लौटकर सामने पकौड़ों और दो-तीन तरह के नमकीनों की ताज़ा खेप देखकर पठान ने मनुहार से पिघलकर ताना दिया, ‘‘क्या साब, घर भी जाने देंगे कि नहीं।’’
सभी प्लेटों से कुछ-न-कुछ उदरस्थ करने में अलबत्ता उसने ज़्यादा तकल्लुफ़ नहीं किया।
मुझे ही लगने लगा मानो पकौड़ों के मोल मैंने उससे जवाब माँगा है। पहले तो उसने आसमान की तरफ़ इशारा करके ‘‘सब ऊपर वाले की दुआ समझो’’ कहकर शराफ़तन बचना चाहा मगर अगला घूँट भरते न भरते मैंने देखा कि वह किसी निश्चित यक़ीन से फूले जा रहा है। अपनी तसल्ली के लिहाज़ से बोला, ‘‘आपका गिलास खाली हो रहा है, इसे तो भरिए?’’
आधे मिनट में एक ‘स्माल’ के साथ सोडा-पानी मिक्स करके मैंने सामान्य रफ़्तार पकड़ी तो किसी पैगम्बर की सी भंगिमा ओढ़कर बोला, ‘‘पता नहीं साब…कभी सोचा नहीं…हमारी ज़ाती ज़िन्दगियों के तज़ुर्बे ही हमारी फ़ितरत तय करते हैं। बड़े दिनों तक ट्रकों के भाड़े की दलाली में ईमानदारी ने मुझे इतनी और ऐसी पटकियाँ खिलाईं कि क्या पूछिए। मैं क़ायदे से आधे टके पर काम करूँ तो व्यापारियों को ज़्यादा लगता मगर पुलिसिए और मुंसीपल्टी के नाम का रोज़ दो-ढाई सौ झपट लूँ तो उन्हें कोई एतराज नहीं। हक़ीक़त बात ये है कि सच बोल के ज़मीर तो सुकून से रहता है मगर दुनियादारी के ख़ामियाज़े इस पर भारी पड़ते हैं। गाँव के मैदानी स्कूल में मेरे साथ एक लड़का पढ़ता था, चमन। हमारी तरह ही फ़ाकेहाल मगर रहता बड़ी साफ़-सफ़ाई से था। मास्साब उसी से लोटे में हैंडपम्प का पानी मँगवाते। एक दिन चमचमाते लोटे में जब वह ठंडा-ठंडा पानी लेकर आया तो मास्साब ने उसकी दरयाफ़्त कर दी :
‘‘ले आया?’’
उनकी आँखें किसी घात लगाये चीते-सी नापाक थीं।
चमन की समझ न पड़े कि माजरा क्या है। क्या कहे?
‘‘?’’
‘‘थूक डाल दिया था।’’
अपने गुबार को मास्साब ज़्यादा देर नहीं रोक पाये।
‘‘ना मास्साब!’’
बेनूर होते जा रहे मासूम ने सफ़ाई में गर्दन हिलाई।
मगर एक बलिष्ठ हथेली ने तभी चमन के बाएँ गाल और कान की खपच्चें बिखेर दीं। भरे लोटे के साथ वह औंधे मुँह जाकर गिरा। हालत इतनी ख़स्ता कि रोने लायक हौसला भी नहीं बटोर पा रहा था।
दरअसल उसकी पीठ पीछे किसी ने इस ‘सच’ से मास्साब के कान भर दिये थे। चमन क़सम खाकर मना करता रहा कि इल्ज़ाम सच नहीं है। उसकी बेतरह धुनाई करते जा रहे मास्साब ने इस बिना पर अपने ब्रेक लगाए, ‘‘ठीक है, आज नहीं थूका मगर सच बता…पहले कभी थूका था…ध्यान रखियो…सच बोलेगा तो मैं छोड़ भी दूँगा… पर झूठ बोलेगा तो तेरी ख़ैर नहीं…’
सच या झूठ मगर चमन ने गुनाह कबूल कर लिया।
मगर मास्साब ने सरासर वादाख़िलाफ़ी की : उन्होने चमन को जमकर सूँता और स्कूल से निकलवा दिया।
आप यह देखिए कि सच की राह के ज़रा से वाकये ने एक अच्छे-ख़ासे बच्चे की ज़िन्दगी बदल दी। देहात भर में मची ख़बर की खिल्ली ने उसके बाप को सन्न कर दिया। तीसरे रोज़ चमन गाँव से भाग गया जो फिर कभी नहीं लौटा। सुनने में यही आया कि कुछ दिनों उसने गुमटियों पर चाय के बर्तन माँजे, जेबें काटीं और दो-चार बार पुलिस हिरासत में रहने के बाद होते-होते शहर में,सच या झूठ, जिस्मानी कारोबार का दल्ला बन गया।
चमन और स्कूल को छोड़िए, मेरी अपनी ज़िन्दगी में कितने वाकए और हादसे हुए कि सच से यक़ीन उठ गया। हमारी दुनिया में इतनी कूवत नहीं है कि वह सच को एक हक़ीक़त की तरह पचा ले…दूसरों के नाजायज़ ताल्लुक़ात की तरह वह उसमें एक मालूमाती दिलचस्पी तो रखती है मगर बर्दाश्त नहीं करती है। सच कहूँ, सच इस दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है। कितनी तो इसकी बैसाखियाँ हैं…आप हिन्दी में क्या कहते हैं… समय-सापेक्ष, व्यक्ति-सापेक्ष, परिस्थिति-सापेक्ष, नीयत-सापेक्ष…”
मैंने उससे क्या पूछा था और पट्ठे ने कहाँ ले जा पटका। बहरहाल अपनी दुनिया के काले-सफेद और खुरदरे झूठों से परे मुझे खुद इन्सानी फ़ितरत में पैवस्त ऐसे चिकने और बेरंग झूठों की याद ताज़ा हो आयी थी जो कड़वे सचों से ज़्यादा घातक और मारक रहे थे। स्कूल में वी. के. गुप्ता भौतिकी पढ़ाते थे। अपेक्षाकृत जवान-से दिखते और हँसमुख। विषय में दुरुस्त। बढ़-चढ़कर सवाल पूछने को प्रेरित करते ‘‘मुझे लगना चाहिए मैं कद्दू-बैंगनों को नहीं, समझदारों को पढ़ा रहा हूँ,’’ वे जैसे चुनौती फेंकते। भला हो उस सीनियर का जिसने वक़्त रहते चेता दिया, ‘‘कभी इस चक्कर में मत पड़ना…समझ में न आये तो घर पर दो घंटे एक्स्ट्रा लगा लेना या किसी साथी से पूछ लेना…अपने पढ़ाए पर सवाल किये जाने से गुप्ताजी को एलर्जी है…प्रैक्टीकल्स तो हमेशा इनके ही पास रहने हैं।’’
और सालाना नतीजे वाक़ई इसके गवाह थे।
मगर पठान के फ़लसफ़े में दो ईंटें जोड़ने की बजाय मैंने बात का रुख बदला, ‘‘मगर मियाँ ज़मील अहमद पठान, मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि तुम सच की पैरवी कर रहे हो या झूठ की?’’
‘‘पता नहीं साब…मैं दोनों को ज़िन्दगी के बरक्स, सिक्के के दो पहलुओं की तरह देखता हूँ, अलहदा करके नहीं…’’
मियाँ, तुम इतने बड़े फ़िलॉसफ़र नहीं हो जितना बने जा रहे हो।
‘‘अमाँ सच-झूठ के दरम्यान इतना घपला भी नहीं है कि दोनों में फ़र्क़ ही न हो सके।’’ मुझे सख़्ती से कहना पड़ा।
एक बार फिर उसने कन्धे का सहारा बदला और खुजली की हाजत में तर्जनी उँगली कान में डालकर झनझना दी। एक पकौड़े को एक बार में आधे से ज़्यादा गड़प किया और किसी पोशीदा चाल को दबाती मुस्कराहट में बोला, ‘‘उसे जाने दीजिए। फ़िलहाल आप यह बताइए कि आप मेरी काबिलियत कितनी समझते हैं…बताइए, बताइए…’’
‘‘क़ाबिलियत की तुममें क्या कमी है, अच्छे-अच्छों की ऐसी-तैसी कर देते हो…’’
‘‘मज़ाक़ नहीं सर, सच बताइए।’’ उसका कौतूहल कुछ दर्ज करने को बेताब था।
‘‘बहुत पहले तुम्हीं ने कहा था…तुम चौथी पास हो…’’ स्मृति के अँधेरे बस्ते से मेरे हाथ जो लगा, निकाल खींचा।
‘‘जी हाँ, कहा था और अब कह रहा हूँ कि मैं ग्रेज्युएट हूँ, एमए प्रीवियस का फार्म भी भरा था मगर हालात नहीं बन पाये…बी.ए. में मेरे पास हिस्ट्री, सोशियोलॉजी और इकॉनॉमिक्स थे…’’
मेरा तीसरा पैग ख़त्म हो गया था मगर उसके खुलासे ने सुरूर ढीला कर दिया। एक रील मेरे भीतर रिवाइंड होकर दौड़ने लगी…उसका बेढंगे कपड़ों में घूमना-फिरना, कन्नी उँगली में दबाकर सिगरेट पीना, किसी अँग्रेज़ी लफ़्ज़ के समक्ष हिन्दुस्तानी में उसका मतलब पूछना, दूसरों के जरायम धन्धों की धर-पकड़ के लिए मुझे फुसलाते रहना और, अभी-अभी उसके बताए वे सभी दोयम-कमतर काम… जो किसी पढ़े-लिखे की सोच और ग़ैरत में शामिल नहीं हो सकते थे। एक पल को ज़ेहन में यह ख़याल खटके बग़ैर नहीं रह सका कि पठान के ‘केस’ में मेरी ‘रैकी’ कितनी बुरी तरह ‘ऑफ टारगेट’ हो गयी है। यह कम बड़ा सदमा नहीं था। शायद उसे भी लगा कि अपने बारे में ऐसी बात छिपाकर उसने क्या फ़िज़ूल का गैप खड़ा कर लिया है।
भीतर से ‘डिनर रेडी’ का सन्देश आया तो पठान हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ।
घर से बाहर निकलकर उसे विदा करने की छूट मुझे नहीं थी। अधखुले दरवाज़े पर किसी चूहे की तरह उसने दाएँ-बाएँ झाँका और चला गया–इस उम्मीद में कि उसे फ़ोन पर मेरे ‘सात नम्बर’ पुकारे जाने का इन्तज़ार रहेगा।
मगर मैंने उसे ‘हाँ भाई सात नम्बर’ टहेलता फ़ोन नहीं किया। मैं पल-पल अपने तबादले का इन्तज़ार कर रहा था। तीन साल से दिन-रात छापे मारते-मारते मेरी हालत स्टड फार्म के उस घोड़े जैसी हो गयी थी जिसके ‘काम’ को दूसरे बड़े रश्क़ से देखते हैं मगर एक तात्कालिक आनन्द के बावजूद अपने कर्म से वह इतना ऊब-उकता चुका होता है कि दिन-रात ‘उसी’ से पलायन करने की सोचता रहता है…गधा बनकर बोझा ढोने में ज़िन्दगी खपाना भी जिसे बेहतर लगता हो।
मगर एक दुपहरिया वह खटके से मेरे चेम्बर में घुस आया। बेमने से मैंने उसे बैठने का इशारा किया। वह मेरी सर्दमिज़ाजी भाँप गया था इसलिए दोहरे उत्साह से चहककर मुझे सहलाने में लगा था।
क्यों इस मुर्दे में जान डालने में लगा है ख़ुदगर्ज…कितना ही कर ले, अब तेरी दाल नहीं गलेगी…अवर हनीमून इज़ ओवर!पीरियड।
‘‘आपने ऐसा ‘केस’ नहीं किया होगा।’’
‘‘अच्छा, ऐसा नहीं किया होगा तो कैसा किया होगा?’’
एक अदद उबासी खींचकर मैंने चटखारा लिया…तो जनाब फरमा रहे हैं कि अभी तक हम घास छीलते रहे हैं?
‘‘आपका दिल खुश हो जाएगा।’’
वह अपनी लेन में घुसने को आमादा हो रहा था।
‘‘पठान, इस वक़्त यह जगह ऐसी बात करने को मुनासिब नहीं है…तुम्हें बताना है तो छह बजे के बाद आना।’’
मेरे द्वारा बेतकल्लुफ पर कतर दिये जाने के बावजूद वह ‘सॉरी सर’ गिड़गिड़ाने लगा और शाम को आने का हुक्म सर पर ओढ़े चला गया।
जब आम खाने ही नहीं हैं तो पेड़ क्या गिनने?
मगर ठीक छह बजे वह उसी तरह दबे पाँव चेम्बर में घुस आया। इस दरम्यान मैंने अपना मन और पुख़्ता कर लिया था कि बिना मोहलत दिये उसे टरका देना है। इसलिए उसके कायदे से बैठने से पहले ही मैंने दाग दिया, ‘‘तुम जानते तो हो पठान कि मेरे ट्रांसफर का बस आजकल-आजकल हो रहा है…क्या फ़ायदा कि केस करने की वजह से किसी को चार्ज देने में डिले हो जाए।’’
‘‘आप केस को एक नज़र देख लो…जितना हो सके डेवलप कर लो…बाक़ी जैसी ऊपरवाले की मर्ज़ी…’’ कहते हुए उसने हाथ ऊपर उठाया।
ऐसी जायज़ अर्ज़ी पर बेरुख़ी में सुनते हुए भी मुझे ‘चलो बताओ’ की रियायत देनी पड़ गयी।
उसने उचककर एक पुलिन्दा मेरी नज़र कर दिया।
ज़्यादातर चीज़ें अभद्र-सी लिखावट में सिलसिलेवार ढंग से लिखी गयी थीं। पढ़ते हुए मेरे चेहरे पर ज़रा भी शिकन आने अथवा पेज पलटते वक़्त वह हौले-से अयाचित कमीपूर्ति करता जाता।
नाम:जावेद अहमद सिद्दीक़ी। बीवियाँ तीन। बँगले चार (एक पुश्तैनी जिसमें विधवा माँ रहती है और जहाँ जावेद दूसरे-चौथे रोज़ आता-जाता है)। बेटे सात, पाँच शादी-शुदा। आठ दुकानें चमनपुरा बाज़ार में, पाँच नवाबगंज में। ‘सुकून’ सुपर मार्किट में आधे की भागेदारी। नीलमबाग से थोड़ा आगे पाँच हज़ार गज़ का प्लॉट जिसमें एक बिल्डर के साथ मिलकर फ़्लैट्स-दुकानें बनाने का काम शुरू होनेवाला है। तीन पेट्रोल पम्प (दो शहर में, एक हाइवे पर)। तीन टैंकर और बाईस ट्रक। निजी वाहनों में तीन लांसर, दो होंडासिटी, दो कॉलिस, तीन सेंट्रो और एक टाटा सूमो…’’
‘‘कोई काम ऐसा भी है जो यह नहीं करता है।’’
मैंने तँज कसा…क्या पता मुझे मोहरा बनाने के लिए ही इतना बड़ा चुग्गा डाल रहा है।
‘‘तभी तो।’’ मेरा मंतव्य समझे बग़ैर उसने अधीरता से जड़ा।
‘‘यार लानत है हमारे जैसे चश्मपोशों को जिन्हें शहर के ऐसे माफ़िया अहमक़ की ख़बर तक नहीं…’’
मैं अब भी उसके ‘क़िला-ए-तसव्वुर’ को गिराने में लगा था।
‘‘ज़्यादातर चीज़ें तो बेनामी हैं…फिर साब आप लोग हमारी बस्ती-मोहल्लों में आते कहाँ हैं? आप तो वहाँ घिन और गन्दगी ही देखते आये हैं…और आपका भी क्या क़सूर जब पुलिस भी किसी मुहिम के दौरान ही हाज़री बजाती है…बिजलीवाला रीडिंग लेने नहीं जाता…’’
वह अपनी बात बढ़ाता ही जा रहा था कि मैंने टोका, ‘‘अमाँ तुमने हमारी वकत मीटर रीडर जितनी कर दी?’’
‘‘वो बात नहीं है साब…जो ताक़त और रुतबा आपके विभाग के हाथ है, और किसी के पास कहाँ? पैसा इन्सान की सारी करतूतों का समझो जोड़ भी है और निचोड़ भी। पैसे के बग़ैर धर्म का भी गुज़ारा नहीं होता, पैसा ईमान डिगाता ही है…और आप लोग आदमी के हलक़ से समझो इसी को निकाल लेते हो। कमा ले कोई जितना चाहे हिसाबी-बेहिसाबी पैसा…खा तो वह सकता नहीं है, बस उड़ा सकता है, मगर कितना? आख़िर में तो वह बीवी के गहने-ज़ेवर बनवाएगा, पुश्तों के इन्तज़ामात में ज़मीन-जायदाद बनाएगा, लॉकर-एफ.डी. में रखेगा…’’
‘‘रखैलों पर उड़ाएगा ?’’
मेरे ज़ेहन में जांगिड़ साब आ खड़े हुए।
‘‘बेशक, रखैलों पर भी उड़ाएगा’’
‘पर’ पर ज़ोर देकर उसने मेरी बात दोहराई।
‘‘तो तीन बीवियों के बावजूद जावेद यह शौक़ फरमाता है या नहीं?’’
‘‘क्यों नहीं साब, क्या वह इन्सान नहीं है?’’
मेरी चुहल पर पठान भी बराबर जुगलबन्दी करने लगा।
‘‘ऐसे ही जैसे किशनचन्द लक्ष्मणदास की थी या सचमुच की?’’
मेरे चटखारे की नब्ज़ पर पोटुओं से अपना टेंटुआ पकड़कर वह पिघल पड़ा।
‘‘अल्ला क़सम साब! लो, वो तो मैं भूल ही गया था…एक स्कूल भी तो है इसके…उसकी प्रिंसिपल…कई साल से है। आपको तो पता ही होगा कि स्कूल से बढ़िया आजकल कोई धन्धा नहीं। मनमाफिक फीस लो, बिल्डिंग के नाम पर डोनेशन लूटो, उधर सरकारी ग्रांट्स अलैदा…और ख़र्चे के नाम पर थोड़ा-बहुत बिजली-पानी और स्टाफ-टीचर्स की तन्खाहें…उसमें मनमानी कटौती, जिस मर्ज़ी को लगाओ-हटाओ या अपनी ‘प्रिंसिपल’ बना लो…’’
विभागीय निस्संगता के उस दौर में रिवार्ड की एक फ़ाइल जांगिड़ साहब की स्वीकृति के लिए लेकर गया तो उन्होंने बुरी ख़बर दे मारी : विभाग के अखिल भारतीय तबादलों की नयी नीति आ रही थी जिसके तहत इस वर्ष कोई तबादला नहीं होना था, सिवाय शिकायत अथवा अनुकम्पाशील मामलों के जिनमें मेरी गिनती नहीं थी।परियाप्त लम्बी पारी के कारण मेरे ज़ाहिर आलस्य को भाँपकर उन्होंने अपनी तरह से मुझे खूब झिंझोड़ा–मुख्यतः एक सफल छापेबाज़ होने के मेरे पोशीदा अहम् को सहलाते हुए। ऐसी हालत में हफ़्ता-दस दिन यूँ ही निकालने के बाद मैंने जावेद अहमद सिद्दीक़ी का केस उनके समक्ष रख दिया। उसका नेटवर्क, तौर-तरीका और कारोबारी विविधता देखकर वे लगभग उछल पड़े। टारगेट हिट करने के लिए हर सुरमई रंग वहाँ पहले से ही मौजूद था मगर उनकी अतिरिक्त तसल्ली का सबब कुछ और ही निकला :
‘‘एक प्रवर्तन संस्था के तौर पर इतने बरसों काम करते हुए हमने कभी इस नज़रिए से नहीं सोचा मगर पिछले तीन-चार छापों के बाद कई संगठनों ने हम पर आरोप लगाया है–और मैं समझता हूँ कि आरोप बेबुनियाद नहीं है–कि हम अपनी दादागिरी सब पर चला लेते हैं, सिवाय एक ख़ास कम्युनिटी के…आई थिंक इफ़ वी आर इम्पार्शल, लेट्स लुक लाइक वन…’’
इससे ज़्यादा ग्रीन सिग्नल की दरकार नहीं थी कि मुझे क्या करना है। उल्टे, मुझे एक भीतरी तसल्ली थी कि केस के ‘सही’ होने की बाबत मुझे निदेशक के सामने कोई खसखसा जस्टीफिकेशन गढ़ने से निजात रहेगी।
जावेद की जड़ों की तहक़ीक़ात करना मेरे अभी तक के अभियानों का सबसे कसैला अनुभव था। दूसरे कारोबारी शिकारों में बखूबी आजमाया मेरा हर हथकंडा यहाँ मुँह की खा रहा था। मैं पस्त-हालत (यानी बेनहाया और हवाई चप्पलें चढ़ाए) में कूरियर बॉय बनकर जाता तो तंग गलियों के उस गन्दले चक्रव्यूह में निठल्ले बैठे-घूमते लड़के मेरी ऐसी सुनवाई करने लगते कि जान पर बन आती। मैं दफ़्तर से दूर किसी पी.सी.ओ. बूथ से ग्राहक बनकर ‘अस्सला वालेकुम’ से शुरुआत करता तो दूसरे ही पल चौराहे पर अपनी माँ-बहन की इज़्ज़त नीलाम कर दिये जाने की बजबजाती धमकी बर्दाश्त करता। उसकी आवाजाही को ट्रैक करना तो नामुमकिन ही था। पता नहीं क्यों उसे रक्तचाप की शिकायत नहीं थी वरना आसपास के पार्कों में सुबह-सुबह स्पोर्ट्स गीयर में दो हफ़्ते ब्रिस्क वॉक करते किसी एक दिन तो मैं उससे टकराता। भला हो ‘प्रिंसिपल साहिबा’ का जिनकी दरियादिली ने मुझे बस फेल होने से रोक दिया।
बहरहाल, मैं इस बात को बहुत अच्छी तरह समझ गया था कि दफ़्तरी काम-काज के सिलसिले में लोग क्यों अवसादग्रस्त हो जाते हैं।
जानकारी के आपसी लेन-देन और आगे की रणनीति तय करने की जगह इस बार शहर की बड़ी लायब्रेरी थी जिसके भीमकाय हॉल में दोपहर को अममून सन्नाटा रहता था।
एकाध किताब बगल में दबाकर हम मज़े से ज़रूरी खुसपुस कर सकते थे।
‘‘अमाँ किस दोज़ख़ में फँसा दिया तुमने पठान।’’ दो हफ़्तों की पिसायी के बाद मैंने अपनी कोफ़्त निकाली।
‘‘दोज़ख़ नहीं साब, समझो रिवार्ड केस है…आपके हल्ले हो जाएँगे।’’
वह ठंडक से आश्वस्त करता।
‘‘जान तो बच जाएगी ना।’’
किसी निरंकुश के भीतर एक कोने में ठहरे डर की तरह मैं अपना पोस्ट-ऑपरेशन डर उस पर उगलता।
‘‘आज तक कभी हुआ है क्या?’’
‘‘तुम यह बताओ कि इतनी सारी जानकारी तुमने कैसे हासिल कर ली?’’
यह उसके राज़ की तहक़ीक़ात नहीं, टोहगिरी के जोखिम रास्तों मुझे मिले फफोलों की कसक थी।
‘‘आपको जोखिम ज़्यादा लगते हैं क्योंकि आप कौम से बाहर के हैं। कौम के भीतर कुछ-न-कुछ तो चलता ही रहता है…शादी-ब्याह के चर्चे, बिरादरी-रिश्तेदारी की बातें। फिर इसके एक लड़के के यहाँ मेरे साले की लड़की मुलाज़िम है…जिस आदमी की लाखों की ज़मीन इसने दहशत के दम पर कौड़ियों के मोल हड़प ली, वह मेरी ख़ाला के यहाँ किसी का रिश्ता लेकर आया था…’’
मुझे यक़ीन आने लगा था फिर भी पूछे बग़ैर नहीं रहा, ‘‘कोई ज़ाती मामला तो नहीं?’’
दरअसल ज़ाती समीकरण चीज़ों को इतना तोड़-मरोड़ डालते थे कि ‘सही’ टारगेट की शिनाख़्त मुश्किल पेश करती थी…हर निष्कासित कर्मचारी, नाराज़ भागीदार और त्रस्त लेनदार हमारी मार्फ़त ‘हिसाब’ चुकता करने को बौराया रहता था (सिवाय उन चन्द ‘मित्रों’ के जिनकी राष्ट्रीयता की भावना ज़्यादा उदात्त क़िस्म की थी)।
‘‘एकदम नहीं साब…आपके काम की तरह मेरे काम में ज़ाती बात कुछ नहीं होती है। अल्लाह के फ़ज़ल से किसी चीज़ की कमी नहीं है…आप जैसे मेहरबानों का साया है। मेरे मुसलमान होने के ख़्याल से आपके मन में यह शक़ आ रहा हो तो बता दूँ कि मैं अपने कारोबार में ऐसी किसी तकसीम को पनाह नहीं देता…पैसे का कोई धर्म नहीं होता साब और वैसे समझो तो सभी धर्मों का धर्म ही पैसा है। छोटा आदमी हूँ साब मगर एक बात जानता हूँ कि ज़्यादा पैसा गुनाह की बिना के बग़ैर नहीं जुड़ सकता और जुड़ भी जाए तो गुनाह की मोरी में ले जाए बग़ैर नहीं बख़्शता…’’
यह बात तूने ख़ूब कही मेरे गफ़्फ़ार ख़ान! पूछा जाए कुछ, मगर जवाब ऐसा तगड़ा-सा मार दो कि पूछनेवाला ढूँढ़ता रह जाए।
तो तुम भी बड़ों की सोहबत उठाने लगे हो मियाँ बकरुद्दीन!
काम की बात पर आने के लिए बात बदलनी पड़ी।
‘‘ऐसा है, एस.आर.पी. पूरी मिल गयी तो अगले महीने के पहले हफ़्ते हिट करने का इरादा है। तुम किसी तरह पता लगाओ कि उन दिनों जावेद कहीं बाहर तो नहीं जानेवाला है।’’
मेरी अपेक्षानुसार उसने काम की गम्भीरता पर कान दिये।
‘‘समझो पता लग गया।’’
उसने बाज़ी पूरी होने के इत्मीनान से कहा।
‘‘तो समझो प्रिंसिपल साहिबा आ गयीं लपेट में…गो इस कार्रवाई का नाम ‘ऑपरेशन प्रिंसिपल’ कर देते हैं…’’
मगर टोहगिरी की राह में कुछ हफ़्तों की मेरी दिलतोड़ मेहनत और पठान की सूचनाएँ धरी-की-धरी रह गयीं। लायब्रेरी में की गयी मुलाक़ात के तीसरे रोज़ शहर में लूटपाट, आगजनी, अपराध और हत्याओं का ऐसा एकतरफ़ा विस्फोट हुआ कि आँखों को यक़ीन न हो। दक्षिणपन्थी हिन्दुओं के नियोजित जत्थों ने राज्य संस्था की मदद और साँठ-गाँठ से राज्य भर में नृशंसता का ऐसा तांडव रचा कि किताबों में पढ़े दूसरे विश्व-युद्ध के वक़्त के थर्रा देनेवाले मनहूस फ़ासी दिन भड़भड़ाकर ताज़ा हो गये। आदमी-औरत, बच्चे-बूढ़े, अमीर-ग़रीब, सभी को हुल्लड़ दस्तों ने खरगोश-मेमनों की तरह लाचार हालत में हलाक़ करने में कोई भेदभाव नहीं बरता…किसी को बाहर से कमरा बन्द करके फूँक दिया गया तो किसी को शिकारी कुत्तों की मानिंद दुरदुराकर ज़िबह कर दिया गया। परिवार के परिवार ही नहीं, बस्तियों की बस्तियाँ भट्ठों की तरह कालिख उगलकर श्मशान बन रही थीं। तकनीकी और प्रबन्धन की एक से एक नयी जानकारी, अस्तित्व और पहचान के संकट से हिन्दुत्व को उबारने में झोंक दी जा रही थी। ग्लोबलाइजेशन के मजबूत दावों के तहत हो रही सूचना क्रान्ति, रातों-रात शहर को यातना शिविर बन जाने से नहीं रोक पायी। हैवानियत के इस वीभत्स जश्न में अधिसंख्य ग़ैर-मुस्लिम आबादी दर्शक भर नहीं थी, बाक़ायदा या बेक़ायदा वह उसमें शरीक़ थी। अख़बार वह उस बर्बरता की इन्तहा पर शर्मसार होने की गरज़ से नहीं, अपनी जीत का ‘आँकड़ा’ जानने की परपीड़न इच्छा से ज़्यादा पढ़ती थी।
ख़बरों से भरे उस दुपहरिया अख़बार में ही मैंने अजीब तरह से चुभती तकलीफ़ से पढ़ा कि जावेद को भी उसकी पैदाइश की सज़ा दे दी गयी थी…तीन लड़कों समेत परिवार में आठ लोग मौत के घाट उतार दिये गये थे। उसके कारोबारी नुक़सान की तो अटकल लगानी भी फिज़ूल थी क्योंकि अभी जहाँ बेनामीदारों की फ़ेहरिस्त बनाई जानी थी वहीं ज़रूरी नामदार ही ग़ायब हो गये। फिलहाल तो उसके नौ ट्रक और चार निजी कारों के लावारिस कंकाल ही हिन्दुओं की विजय-स्मृति बने पड़े थे। जंगली वहशत की तीन-चार रोज़ चली हुकूमत के बाद, यानी बहुसंख्यकों द्वारा मुसलमानों को ‘सबक़’ सिखा देने के तीन-चार रोज़ बाद-मार-काट की सामूहिक दास्तानों में कमी तो हुई मगर इन्हीं तीन-चार दिनों ने सैकड़ों बरसों की सभ्यता ख़ारिज कर दी थी। उसके कई महीनों तक राहत शिविरों के हज़ारों बेघर, बेज़ार और अभिशप्त, नारकीय ज़िन्दगी बख़्श दिये जाने (बख़्शा किसने था, वे तो बस छूट गये थे) पर ख़ुद को खुशक़िस्मत समझते रहे। तंगी और गन्दगी में रहकर एकजुटता पनपती है, इस फ़लसफ़े के तहत अल्पसंख्यकों द्वारा प्रति-आक्रमण कर दिये जाने के डर से हिन्दू समाज के शेरों की नींद अलबत्ता फिर भी उड़ी हुई थी। यह कयास तो वाजिब भी था कि नेस्तनाबूद कर दिये जाने के अल्पसांख्यिक डर और कौम से ली जा रही बेवजह क़ुरबानी ने मुसलमानों को ज़ाहिरन बिरादरेपन में बाँध दिया था।
तीन-चार महीने से पठान की कोई ख़बर नहीं थी। मेरे भीतर वक़्त-बेवक़्त यह ख़याल फिर-फिरकर चला जाता कि उन्मादियों ने कहीं उसे भी तो ठिकाने नहीं लगा दिया…आख़िर हाईकोर्ट के जज, विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर और खुद पुलिस के अफ़सरान सत्ता-तन्त्र में अपनी उपस्थिति रखे जाने के बावजूद अपनी पैदाइश के ख़िलाफ़ कुछ भी न कर पाने को मजबूर हो गये थे। ऐसे सामाजिक झंझावात के दौर में अपना दफ़्तरी ‘फ़र्ज़’ जैसा टुच्चा काम करने का सवाल ही नहीं था। जावेद अहमद सिद्दीक़ी और उसके परिवार के साथ जो हुआ उससे मोटे तौर पर अफ़सोस हुआ था मगर ऐसे घाघ और कपटी व्यक्ति को अपना शिकार न बनाए जाने की अन्दरूनी राहत भी थी।
मगर कोई छह महीने बाद, लायब्रेरी के उसी हॉल में पठान की ‘नमस्ते साब’ ने एक शनिवार मुझे चौंका दिया।
‘‘तुम यहाँ…अरे…कैसे हो…फ़ोन करके हालचाल तो बता देते…’’
बेकाबू होकर मेरे मुँह से सवालों की झड़ी गिरने लगी। उसे ज़िन्दा और साबुत हाल देखना पूरी तरह गले नहीं उतरा था।
‘‘अल्ला के फ़ज़ल से सलामत हूँ साब, समझो कोई नुक़सान भी नहीं। मस्ज़िद पास ही है मेरे घर के…’’
उसने मुझे बताया कि हर शनिवार इस लायब्रेरी में आने की मेरी आदत के चलते वह कई शनिवारों से मुझे पकड़ना चाह रहा था मगर हो ही नहीं पाया।
‘‘तो मोबाइल कर दिया होता।’’ मैंने आत्मीय नाराज़गी जताई।
‘‘नहीं साब आजकल मोबाइल का भी कुछ ठिकाना नहीं…हमारी कौम तो वैसे भी शक के निशाने पर रहती है।’’ लाचारगी से उसकी आवाज़ निकली।
लायब्रेरी के पिछवाड़े की गुमटी पर खड़े-खड़े ही चाय की सुड़की भरते वक़्त मेरी आवाज़ बोझिल थी।
‘‘बहुत बुरा हुआ पठान…नहीं होना चाहिए था।’’
मैं जैसे कहीं-न-कहीं ‘हत्यारी’ कौम के अहसास से दबा था।
‘‘अरे जाने दो साब…क्या अच्छा क्या बुरा…’’
कहना होगा उसने काफ़ी नुनखुरेपन से मुझे कतर दिया। उसकी कौम पर ढाए क़हरों के जख़्म ज़ेहन में न होते तो बुरा लग सकता था, मगर आज नहीं लगा।
‘‘ ‘ऑपरेशन प्रिंसिपल’ तो खटाई में ही गया…बेचारे के साथ देखिए आतताइयों ने क्या नहीं कर डाला…’’
सारी उथल-पुथल के मद्दे-नज़र मैं भरसक मरहम तलाशने में लगा था।
‘‘वो तो है मगर चारों तरफ़ से जो ‘रिलीफ़’ आ रही है, उसे भी तो उसी के लोग हथिया रहे हैं…ग़रीब तो समझो इसमें भी मर रिया है…’’
देश-विदेश की सरकारी, ग़ैर-सरकारी संस्थाओं से आनेवाली सहायता की ख़बरें अख़बारों में आती रहती थीं। किसी सरकारी योजना के तहत उसके आबंटन में जो भेदभाव या घपला होता है, उससे मैं वाकिफ़ था।
किसी भी तरह के प्रतिवाद का मौक़ा पठान ने नहीं दिया, ‘‘और फिर साब जो प्रोपर्टीज़ बेनामीदारों के हाथ महफ़ूज़ हैं, जो पैसा बैंकों के लॉकर्स और एफडीज़ में सेफ पड़ा है…जो इनकम बेहिसाबी खातों में दर्ज़ है उसके बरक्स इस्लामिक रिलीफ़ कमेटी या दूसरी किसी एजेंसी की मदद का क्या मोल है…‘हमको’ यह सब थोड़े ही देखने का होता है…कि दंगे-फसाद में क्या हुआ…यह तो समझो बीमा कम्पनी वाले देखेंगे…हमारे मुल्क में यह सब तो चलता ही रहता है। आपका अभी मूड नहीं हो तो कुछ दिन और रुक लेते हैं…’’
पठान के ‘धर्म’ को मैंने मन-ही-मन सलाम किया और गिलास पटककर गहरी आश्वस्ति में उठ खड़ा हुआ।
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