बहुत कुछ कछुआ गति से ही ‘वो गुजरा जमाना’ पढ़ रहा था। पर न चाहते हुए भी कल रात बारह बजे उसके अंतिम परिच्छेद और आपका आकलन ‘स्टीफन स्वाइगः एक परिप्रेक्ष्य’ को पढ़ गया। वाकई ऐसी महान आत्मकृति जो आत्मावलोकन का अनध उदाहरण हो, को खैरबाद कहना मन में गहरी कसक पैदा करता है। आप भी इस अन्नय रचना से जितने वक्त जुड़े रहकर एक पूरी सदी का विस्तार समेट सके, वह भी एक शिखर उपलब्धि ही कही जाएगी।
मैं दिल से चाहता था ‘वो गुजरा जमाना’ जीवनी साहित्य पढ़ने की नीयत से आखिरी कलाम हो मगर क्या करूं यह जबरन धकियाती ही चली गई और हर रौ के अंत की तरह इसका भी पटाक्षेप हुआ। बेशक मैं यह मानता हूं कि बिना शर्त- ‘परकाय-प्रवेश’ के बिना इसे इसकी सपूर्णता में सामने रखना किसी तरह मुमकिन नहीं था। आप क्या मैं भी स्वाइग के आत्मघात के बारे में तब क्या जानता था? बल्कि आपका तो तब तक इस दुनिया में आगमन भी नहीं हुआ था जब यह जीवनी लिखने वाला भी इस दुनिया को अलविदा कह गया था। मेरी यादों के कैशौर्य के सबसे स्वर्णिम दिन थे जब द्वितीय महायुद्ध शुरू होकर अपनी विभीषिका की पूर्णता की ओर बढ़ रहा था। वह दिन होली, रात दिवाली वाले दिन थे। बाहर की दुनिया और खासतौर से यूरोप किस तरह धू-धू करके जल रहा था, इसका गुमान होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। आज यह सोचकर गहरा क्षोभ होता है कि जब मैं और मेरे सभी समवयस्क किसी तरह के भी दुनियावी संकटों आतंकों से बेखबर होकर एक उच्छल तरंगवती नदी की मानिन्द खिलखिलाते बह रहे थे तो दुनिया के एक हिस्से में ‘What maternity to woman war to man’ कहने वाले इस सरसब्ज जमीन पर आग उगल रहे थे और लाखों निर्दोषों-निरीहों को गैस चैम्बर्स में धकेल रहे थे। हमारा दिल-ओ-जान से चाहे जाने वाला ‘स्वाइग’ आत्मघात की मानसिकता में जी रहा था, क्योंकि वह ऐसी विषैली दुनिया को (ऐसी) दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?- कहकर अलग हो जाने में ही मुक्ति अनुभव करता था।
आपने ‘स्वाइग’ की जीवनी का अनुवाद नहीं किया है, बल्कि आधी सदी की दुनिया के इतिहास समाज और भौगोलिक आलोकन को रूपायित किया है। गहरी आत्मप्रेरणा, अन्तर्व्यापी दृष्टि और संवेदना के उच्चतम सोपान की समग्रता के अभाव में अनन्त तक फैले विश्वव्यापी व्यूह में प्रवेश तरना असम्भव था। काश! इस दुनिया में कुछ और भी ऐसी कुछ ही विभूतियां आज दिन नापैद न हुई होती जिन पर आप जैसे संयत और बलिष्ठ हाथों को कलम पकड़कर उनको समग्रता में रेखांकित करने का विचार सूझता और हमे किसी ‘दूसरे स्वाइग’ से भी साक्षात्कार करने का अवसर उपलब्ध होता। क्या यही मान लेना चाहिए कि स्वाइग प्रजाति का वंश बढ़ गया है?
आपके ‘परिप्रेक्ष्य’ से मुझे यह आश्वासन तो कहीं बहुत गहराई तक मिलता है कि जो भी हो आप जिस मनस्वी मनीषा से जड़ तक जुड़े हैं, उसे अभी छोड़ नहीं देंगे, हिन्दी को समृद्ध करने वाली कुछ अन्य रचनाओं की आत्माओं से भी साक्षात्कार कराएंगे। किसी भी प्रथम श्रेणी के मौलिक लेखन से यह काम नहीं होगा कि आप ‘स्वाइग’ द्वारा प्रणित अन्य जीवनियों को भी अपने खास ढंग से प्रस्तुत करें।
मित्र! आप जिस मेधा के धनी हैं, उसकी निकटता अनुभव करते हुए मैं यह कहने का दम भर सकता हूं कि आप जो भी लिखेंगे उसके पीछ अथाह रचनाशीलता का दम-खम होगा। मैं आपकी कलम का मुरीद हुआ। चाहूंगा कि हर शब्द की ध्वनि मुझ तक निर्बाध आने दें। आज सत्तर साल की उम्र में ‘राग पर्व’ छीज चुका है, पर शब्द की मंत्रविद्वता से स्वयं को आच्छन रखना चाहता हूं। बस शर्त यही है कि उसका वशीकरण झूठा न हो।
हां! क्या यह सम्भव है कि ‘स्वाइग’ की अन्य जीवनियां जो उसकी स्वयं की आत्मकथा जितनी ही तगड़ी हैं- कहीं से पा सकने का सुयोग हो सकता है? यदि वह हिन्दी अनुवाद में हैं तो क्या उनमें ‘वो गुजरा जमाना’ से आधी भी जान है?
बहरहाल, एक दुख देने वाले प्रकरण का रसप्लावन में अन्त हुआ। यह दो विरोधी धराएं लगभग वही हैं ‘यह खलिश कहां से होती जो जिगर के पार होता।’
आपके निमित्त दुर्लभ स्वास्थ्य की कामना करता हूं जिससे कि आप डॉ. रामविलास शर्मा की तरह हरक्यूलियन टास्क से भिड़े रहें।
स्नेही एवं शुभेच्छु
यात्री
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