ओमा शर्मा मूलतः कथाकार हैं लेकिन ‘साहित्य का समकोण’ में उनकी पच्चीस सामयिक टिप्पणियों के अतिरिक्त डायरी के कुछ पन्ने तथा ‘हस्तक्षेप’ के अन्तर्गत कुछ स्फुट विचार संग्रहित हैं। किस्सागो होने का लाभ यह रहा कि कला, कल्पना, अनुभव और स्मृति के सहारे ओमा जी अपने इन लघु लेखों को पठनीय, प्रभावी और दिलचस्प बना सके हैं। संभवतः इसका एक कारण यह भी रहा कि उन्होंने विवरणों को अनावश्यक स्फीति से बचाए रखा। कथाकार होने के नाते वे जानते हैं कि भाषा और शिल्प, संवेदना के सच्चे वाहक हैं। रचना का सौन्दर्य भी इन्हीं में निहित है। अपनी इस सोच को ‘पक चुके हैं जो, सड़ेंगे’ शीर्षक निबन्ध में उन्होंने विस्तार दिया है। अनुभव, सृजन की पृष्ठभूमि में बीज-स्वरूप रहता है, किन्तु सत्ता फिर भी कला की ही चलती है। रचना के गर्भ में यथार्थ की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता, लेकिन सृजनात्मकता के दौरान कला कई बार अनुभव और मर्यादाओं को रोंदने से भी परहेज नहीं करती। यहीं समकालीन लेखन से बेखबर अकादमिक किस्म के उन महाविद्यालयीन प्राध्यापकों और उनके चेलों की भी खूब खबर ली गई है जिनके पास असहमति का स्वर अक्सर नहीं होता।
‘साहित्य का समकोण’ में सन 1996 से 2003 के बीच विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ओमाजी के लेख हैं। कुछ अखबारों में छपी खबरों और कुछ आस-पास घटी घटनाओं से उपजी प्रतिक्रिया-स्वरूप। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे तात्कालिक महत्तव की अखबारी प्रतिक्रियाएं मात्र हैं। घटनात्मकता से उपजे विचारों के पीछे जो गहन चिंतन और व्यापक दृष्टि है, उससे ये निबन्ध समय और काल की सीमा लांघ सार्वभौमिक और सर्वकलिक हो गए हैं। इसका एक कारण शायद यह भी है कि जीवन-मूल्य कभी बासी नहीं होते।
‘किताब घर और किताब गोदाम’ में भारतीय पुस्तकालयों की दुर्दशा, वहां पसरी अव्यवस्था, कार्य-संस्कृति और सदव्यवहार का उल्लेख है। दरअसल, इसका सीधा संबंध कार्य-संस्कृति और राष्ट्रीय चरित्र से है जिसका हमारे यहां सर्वथा अभाव है। हम किताबों के पन्ने फाड़कर और उन्हें गायब कर प्रसन्न होते हैं। ऐसा कर हम कितने जिज्ञासुओं को वंचित कर रहे हैं, इसका जरा भी अहसास नहीं होता हमें। ग्रंथपालों की रुचि ग्रंथालय के रख-रखाव में कम और अपनी वेतन-वृद्धि और अवकाश की सुविधा बढ़ाने में अधिक होती है। कोई देश भौतिक उपलब्धियों से महान नहीं होता, वह महान होता है वहां के नागरिकों के चरित्र से।
आत्म-कथा लेखक के पक्ष-विपक्ष में विद्वानों द्वारा इधर खूब लिखा जा रहा है। आत्मकथा की सीमा, शक्ति और सच्चाई को लेकर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। आत्म-कथा लेखन के इतने आयाम हैं और इतने पेंच कि उनके सम्बन्ध में लम्बी बहस की जा सकती है। ओमाजी ने आत्म-कथा लेखन के बारे में कतिपय विचारोत्तेजक मुद्दे उठाए हैं। इधर आत्म-स्वीकृतियां लिखने का चलन जोरों पर है। आत्म-कथा लिखर साहित्यकार स्वयं को सच्चा, साहसी, ईमानदार और पारदर्शी सिद्ध करने में लगा है। यश-कामना और जीते-जी अपना ताजमहल खड़ा करने की लालसा भी कहीं इसमें इसमें निहित है। लेखक ने सवाल उठाया है कि ‘सच’ के नाम पर लिखे जाने वाले अधिकांश आत्म-कथ्य पीने-पिलाने और यौन-सम्बंधों तक ही सीमित क्यों हैं? ‘मुड़-मुड़ कर देखता हूं’ (राजेन्द्र यादव), ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ (मेत्रैयी पुष्पा), ‘द कम्पनी ऑफ वुमन’ (खुशवंत सिंह), ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ (कृष्णा अग्निहोत्री), ‘द्विखण्डित’ (तसलीमा नसरीन) आदि का अधिकांश भाग स्त्री-पुरुष सम्बंधों को लेकर है। इन आत्मकथाओं में वह उदात्तता, तटस्थता और व्यापकता क्यों नहीं है जो ‘सत्य के प्रयोग’ (महात्मा गांधी), ‘द वर्ल्ड ऑफ यसटर-डे’ (स्टीफन स्वाइग), ‘मेरा बचपन’, ‘जीवन की राहों पर’, तथा ‘मेरे विश्वविद्यालय’ (गोर्की) एवं विविरपारा कोनतरला (मार्क्वेज) में है? लेखकीय चालाकी है? लेखकीय आत्म-कथाओं में रचना-कर्म, रचना प्रक्रिया और रचनाशीलता के क्रमिक विकास जैसे मुद्दों की गहराई से पड़ताल के प्रयास क्यों नहीं होते? सफलताओं-असफलताओं और सन्तोष-असन्तोष का विश्लेषण क्यों नहीं होता? आत्म-कथा में अनुभूति की प्रामाणिकता का जिक्र करते हुए लेखक ने कहा है कि गल्प के यथार्थ और आत्म-कथा के यथार्थ में अन्तर है। दलित आत्म-कथाओं में अनुभव की प्रामाणिकता भले ही हो, कलात्मकता का अभाव तो उनमें है ही।
एक अहम प्रश्न उन औपन्यासिक कृतियों को लेकर भी किया गया है जिनमें न सिलसिलेवार कथा-वस्तु होती है, न जिनका कोई सामाजिक सरोकार। केवल घटनाविहीन जीवन, जिसमें नायक अकेला कुछ सोचता रहता है। कुछ उपन्यासों में तो यह सोचना भी ठीक से नहीं होता। सम्प्रेषण के स्तर पर वे जटिल होते हैं। उदाहरण-स्वरूप ओमाजी ने विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को कोट किया है। वरिष्ठ रचनाकारों के ऐसे अमूर्त-से उपन्यासों की जब कुछ क्षेत्रों में खूब या प्रायोजित चर्चा होती है तो सामान्य पाठक इन चर्चाओं से प्रभावित, भ्रमित और आतंकित होकर उन्हें पढ़ने की कवायद करता है, ताकि उसे मूर्ख या नासमझ न मान लिया जाए। लेकिन हाथ तब भी उसके कुछ नहीं आता।
हालांकि ‘डायरी’ साहित्य की मान्य विधा नहीं है, मगर इधर डायरियां खूब लिखी जा रही हैं। पूर्व में डायरियां प्रायः निजी जीवन या दैनंदिन की सामान्य-असामान्य घटनाओं को लेकर लिखी जाती थीं और एक तरह से निजी सम्पत्ति होती थीं। लेकिन अब डायरियां दिनचर्या से हटकर साहित्य और समाज के अहम मुद्दे उठा रही हैं। उनमें वैचारिकता बढ़ी है। अब डायरियां छिपाकर रखने की चीज नहीं हैं। उनका रचाव इतने बढ़िया ढंग से हो रहा है कि उनसे गुजरना एक अलग दुनिया में प्रवेश करना है। पिछले दिनों मंगलेश डबराल, रमेशचन्द्र शाह, शशांक आदि की डायरियां इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। डायरियां स्वयं को जानने-समझने और विश्लेषित करने का अच्छा माध्यम भी हैं। ओमाजी ने डायरी के जरिए गुजरात भूकम्प त्रासदी, गोधरा काण्ड तथा स्टीफन स्वाइग आदि के लेखन के बारे में चिंतनपरक टिप्पणियां की हैं।
कुल मिलाकर ‘साहित्य का समकोण’ ऐसा विचारमूलक दस्तावेज है जो समकालीन विसंगतियों से रूबरू कराते हुए हमें नये सिरे से सोचने पर विवश करता है।
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