‘भविष्यदृष्टा’ की कहानियों में एक विदग्ध वाचालता है। यह कहना थोड़ा कठिन है कि ओमा किस्सागोई पर कितना भरोसा करते हैं, लेकिन उनके यहां इसके विकास की पूरी सम्भावना झलकती है। ओमा पाखण्ड और बनावटी जीवन पद्धति का विपक्ष निर्मित करते हैं। ‘कण्डोलैंस विजिट’ में शोक शहरी औपचारिकता का उपकरण बन गया है। ‘झोंका’ नष्ट होती नैसर्गिकता के बीच थोड़ी-सी ऊष्मा को रेखांकित करती है। ‘मैं’ के भीतर छिपे अन्तर्विरोधों पर रचना मीठी मार लगाती है। कहने को तो ‘काई’ समय के साथ बदलते मूल्यों पर टिप्पणी है लेकिन पर्याप्त नहीं। सतपाल सिंह पुराने स्कूल, पुराने अध्यापकों से मिलकर एक तरह से ध्वस्त होता है। उसे आदर्शों के आलोक में चमकती स्मृतियां भुतैली लगने लगती हैं। उसे आदर्शों के आलोक में चमकती स्मृतियां भुतैली लगने लगती हैं। शिक्षा में गिरावट और ‘ज्ञाननिधान’ लगने वाले अध्यापकों का वर्तमान रूप सतपाल को दुख देता है। उसका प्रिय अध्यापक अपने किसी ‘केस’ को उसकी मदद से दुरुस्त करवाना चाहता है। स्पष्ट है कि कहानी का ‘विचार’ नया नहीं है। ओमा की विदग्ध वाचालता यहां डगमगाती है और कहानी रोचक विवरणों के साथ समाप्त हो जाती है। ‘मर्ज’ के मामूजान का चरित्र लेखक ने पूरी कुशलता से उकेरा है। ऐसे चरित्रों पर एक जमाने में भगवतीचरण वर्मा ने खूब लिखा था। जो है उसे छिपाना और जो नहीं है उसे व्यक्त करना, उस मानसिकता को ओमा ने समझा है। जीवन रस को बेस्वाद करता अर्थशास्त्र ही वास्तविक रोग है। ‘भविष्यदृष्टा’ लम्बी कहानी है और सतपती के माध्यम से यथार्थ के साथ नियति का लीलाभाव पाठक को आकर्षिक करता है। इसमें चरित्रों की वर्गचेतना का उदघाटन अनायास होता है, जो उनकी मानसिक उथल-पुथल का भी आभास है। जब सारे भद्रयोग और राजयोग जमींदोज होते हैं तो ओमा यह अर्थपूर्ण टिप्पणी करते हैं, ‘पूरी इमारत अपने आगे-पीछे या दायें-बायें नहीं गिर रही थी बल्कि अपने ही ढांचे में समाये जा रही थी।’ कहानी कल्पनाओं के धूल-धूसरित होने की आख्या है। ‘शुभारम्भ’ में ओमा का मूल रचनात्मक स्वर है। घूस की संस्कृति का श्रीगणेश! ‘शुभारम्भ’ स्वयं सघन व्यंग्य है। नोटों की गड्डी के ब्रीफकेस में समा जाने तक जो उहापोह चली वह एक शातिर सम्भ्रान्त का प्रामाणिक विवरण है। धीरे-धीरे दुस्साहस यूं ही पांव पसारता है और व्यक्ति नैतिकता के विरोधी पाले में खड़ा हो जाता है। अर्थात- ‘मणीलाल दरवाजा भेड़कर निकला ही होगा कि नोटों का वह मनहूस पिटारा मेरी लरजती पसीजी उंगलियों में सरक आया और किसी करिश्मे की तरह गीता के शलोकों का स्मरण दिलाता हुआ मेरे ब्रीफकेस में समा गया।’ ‘दिव्य दुष्टता’ से भरे तन्त्र पर एक बढ़िया कहानी। ‘जनम’ कहानी पुराने ढंग की है। जब जीवन में कोई पक्षधरता नहीं होती तब कोई भी एक जन्म में कई जन्म जी सकता है। मात्र अनुभव के नाम पर यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरण करनेवालों का एक रूप है ‘जनम’ का होम्योपैथ डॉक्टर। न किये पर पछतावा न छोड़ने की चिन्ता। अलग तरह से देखें तो बिना किसी व्यापक सामाजिक स्वप्न के केवल जीते रहनेवालों का प्रतिनिधि चरित्र यहां दिखता है। कोई चाहे तो इसे मस्त मलंग भी कह सकता है। ‘नवजन्माः कुछ हादसे’ और ‘वजूद का बोझः तीन कहानियां’ छोटी कहानियां का जोड़ है। छोटी यानी लघु कहानियां। मार्मिक और प्रासंगिक। कन्या शिशु की सामाजिक स्थिति पर ‘नवजन्मा’ के प्रसंग विचलित करते हैं। ओमा शर्मा की शक्ति हैं विवरण और व्यंग्य। अभी उनको इनका प्रखर प्रयोग करना है। भविष्यदृष्टा की रचनाएं बताती हैं कि ओमा कहानी में छिपी कहानी तलाशने का प्रयास कम करते हैं। उनकी कोशिश दिख रही सच्चाइयों का नया संस्करण बनाने की है। यह स्पष्ट है कि सामाजिक विडम्बनाओं पर उनकी गहरी पकड़ है। … और हां, मर्ज और डॉक्टर उनकी कई कहानियों में उमड़ते-घमड़ते हैं…स्थायी भाव की तरह।
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