ओमा शर्मा की कहानी ‘भविष्यदृष्टा’ दो-तीन साल पहले जब छपी तो उसने अचानक ध्यान आकृष्ट किया। वह एक अलग जमीन की, अलग अन्दाज की कहानी थी। अनुभवों की कई-कई परतें वह खोलती थी। अन्तर्विरोधों और विडम्बनाओं के नए स्तरों का पता देती थी। लेकिन इससे भी ज्यादा खींचने वाली बात डी-स्कूल का वह ‘एम्बिएंस’ था जो हिन्दी कहानी में पहली बार बुना गया। यह दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स था, लंदन स्कूल ऑफ इकानॉमिक्स के स्तर का। दिल्ली विश्वविद्यालय की क्रीम यहां पढ़ती है। यह एक ऐसी जगह है जहां सपने रूमानी नहीं ठोस होते हैं और उनकी सुलभता नहीं होती। कहानी परत दर परत हमारी इकानॉमी के विकासशील, आधुनिकतावादी रूपक और उससे जुड़ी स्पृहाओं के तमाम उप रूपकों को खोलती जाती है। भाग्य और श्रम, अवसर और संकल्प, पिछड़ेपन और आधुनिकता पर इन दिनों यदि कोई अग्रणी-टिप्पणी हो सकती है तो शायद भविष्यदृष्टा की तरह ही हो सकती है।
कहानी का शुरुआती सीन ही घमासान है, छोटी-छोटी विडम्बनाओं से लथपथ। एक ओर भाग्य रेखा और ज्योतिष की बात , दूसरी ओर बाबाओं की मुक्तिदाता चिट्ठियों का आवन-जावन, उसी सीन में चिट्ठी का आना, भाभी की ठिठोली, सतपती का खत और कहानी का पहला सिरा शुरूः एकदम तेज रफ्तार ओपिनिंग सीन। यही खींचता है। इसी ने खींचा होगा शायद। इन दिनों लिखी जा रही स्लोमोशन की डिप्रेसिव कहानियों के बाच डिप्रेसिन को भी थोड़े खिलंदड़े अन्दाज में पेश करती यह कहानी अतिनाटकीयता वाली कहानियों पर भारी दिखती है।
सतपती, एक फंसा हुआ चरित्र, गरीबी और विकास के बीच, भाग्य रेखाओं और इकानॉमी के बीच, आप कहानी के आखिर तक पहुंचते-पहुंचते पाएंगे कि लेखक हताश हो लिखने लगता हैः सत्तर-बहत्तर वर्ष पूर्व निर्मित एक पचास साठ मंजिला इमारत को इंग्लैंड में विस्फोट से ध्वस्त करते दिखाया गया था। उसके रखरखाव का खर्चा लागत से भई ज्यादा पड़ रहा था। इमारत गिराने की तरकीब तकनीक अद्भुत थी, पूरी इमारत अपने आगे-पीछे या दायें-बायें नहीं गिर रही थी बल्कि अपने ही ढांचे में समायी जा रही थी। गोया वह कोई रेतील बिल होः यह सतपती का जीवन है जो गिर रहा है। इकानॉमिक्स के महलॉनोबिस मॉडल में आकर भी सतपती का जीवन अपने ऊपर ही गिरता है लेकिन सतपती निराशा से परे बहुत दूर कहीं निकल चुका है, मानों जीवन का सत्य उसके पास हो। बेटी चन्द्रिका की कुंडली में ‘भद्र योग’ ‘राजयोग’ दोनों बन रहे हैं। उधर एपिलैप्सी का दौरा पड़ रहा है। पत्नी को यही रोग रहा है। शादी की तो ससुर ने इसीलिए की। चुपके से जरूरतमंद सतपती से डी-स्कूल से निकलने के बाद जहां और लोग समाज और सत्ता चलाने के काम में लगे वहीं सतपती कुंडली ज्योतिष के भीतर घुस गया। ज्योतिष ने उसके जीवन को आसान कर दिया। सतपती इस कहानी का घाव है, मानो डी-स्कूल का घाव हो। डी-स्कूल भविष्यदृष्टा ही नहीं, भविष्य बनाने वाला है। ज्योतिष अचानक जगह कैसे बना लेती है यह डी-स्कूल जैसे भविष्यदृष्टा को पता नहीं, आह! सतपती गरीबी का चिह्न है जो किसी तरह मेहनत करके अग्रणी जमात में आना चाहता है, डी-स्कूल में दाखिला मुश्किल होता है। दिमाग चाहिए। दिमाग के लिए सेंट-स्टीफेंस या हिन्दू कालेज चाहिए, उसके लिए घर की ताकत चाहिए, नहीं तो नहीं, तो भी अपवाद एकाध घुस आते हैं। घुस आते हैं मगर सलामत निकल नहीं पाते। अपनी उच्चतर शिक्षा की भीतरी अन्तर्वस्तु पर इतना करारा व्यंग्य करने वाली कहानी कम से कम इस लेखक ने नहीं पढ़ी लेकिन इतना कहना इस कहानी के महत्व को कम करके देखना होगा अरे! यह तो विकास के पूरे नेहरू- महलॉनोबिस मॉडल के सुराखों पर घोर दर्दनाक टिप्पणी की तरह है भाई। पूरा राष्ट्रीय विकास का रूपक सतपती के ‘फंसाव’ में फंसा है। लेकिन सतपती फंसकर भी फंसा नहीं दिखता। वह इस टीस से बहुत परे निकल गया है। पाठक इस टीस को महसूस करता है। यह विडम्बना है। कहानी में बेहद फास्ट किन्तु सटीक तानों-बानों, अद्भुत सच्चे डिटेल्स में तनी बंधी इस कहानी पर इधर की दर्जनों अभिमानी कहानियां कुर्बान हैं। अन्तर्विरोधों की ऐसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म पकड़ कि दूसरी कहानियां पानी भरें। पता नहीं कैसे एक नया लेखक अचानक ही ऐसी कहानी लिख डालता है जो उसके लिए ही नहीं, उसके समकालीनों के लिए एकदम अचूक और सकल हो उठती है। लेकिन सिर्फ एक जैसे पहलौठी का बच्चा!
ठीक इस वजह से ओमा की अन्य कहानियों को हम उतना जमाऊ नहीं पाते। विडम्बनाओं के लोकेशन वहां भी हैं। ओमा की पैनी नजर विकास की विडम्बनाओं को हर बार बेहद गहरे पकड़ती है। चरित्र अचानक आपके सामने अपने समूचे उलझाव में प्रकट हो जाते हैं। जीवन इकहरा नहीं है और इस उलझे-पुलझे जीवन में चरित्र भी एक जैसे नहीं। न वे प्रेडिक्टेविल हैं। ‘काई’ के स्कूली अध्यापक जिन्हें नायक बड़े रूमानी अन्दाज में मिलने जाता है, बड़े होशियार और मतलबी निकलते हैं। गांव का सारा बचपने वाला रूमान काफूर हो जाता है। गांव बदल जाता है। ‘जनम’ को होम्योपैथ का जीवन इस कदर उलझा किस्सा है और वह एकदम विचित्र ही है तो भी उसकी अन्त में गुहार कि ‘मुदगल साहब आप अपनी यूनिट में कुछ काम पर रखवा लीजिए’ …एक अकेले आदमी की गहरी टीस लिये है जो शादी नहीं कर सका है, जो ब्रह्म कुमारियों के आश्रम में सेवा करता है, यूनिट में विधवाओं के काम को सुनकर या क्या वह चौथा जनम लेना चाहता है! ‘शुभारंभ’ में भी दफ्तर में ईमानदार छवि और चुपके से रिश्वत लेने का शुभारंभ करते दीक्षित साहब हैं। ‘झोंका’ में भी अधेड़ आकर्षण कथा है। बस यूं ही, ‘कंडोलेंस विजिट’ के निगम साहब का चरित्र ठहरे हुए ब्यूरोक्रेट का है जो मातहतों से काम लेता रहता है लेकिन जिसके पास कंडोलेंस का एक शब्द नहीं होता।
विडम्बना को अचानक ही कहानी की नोंक बना डालने में माहिर ओमा दरअसल चरित्र अध्ययन के विशेषज्ञ हैं, एक से एक जटिलता भरे चरित्र हैं उसके यहां। वे उनका बनना-बिगड़ना कहानी में लगातार परस्यू करते हैं और फिर एक बिन्दु पर आकर मानो चरित्र के समस्त अन्तर्विरोधों, विडम्बनाओं को उघाड़ देते हैं लेकिन इस काम में वे बेहद सजगता और निर्लिप्तता बरतते हैं। भावुकता का एक क्षण भी वे नहीं बनने देते, न बहुत कशाघात ही करते हैं, जीवन जैसा जहां मिला वैसा ही वे कहते हैं।
ओमा की इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि हिन्दी में एक नया वयस्क हस्ताक्षर आ रहा है। वह गहरी पकड़ रखता है। कथा कथन और जीवन अुभवों के संयोजन में, वह कथा की शैली के प्रभाव के प्रति भी जागरूक है। उसके पास सुदीर्घ चरित्र हैं, जटिल, उलझाव भरे। भविष्यदृष्टा तो ओमा की समकालीन कथाओं में एक उपलब्धि ही नही जा सकती है।
लेकिन ओमा की लघु कथाएं नहीं जमतीं। वे ‘लघु’ के कथाकार लगते भी नहीं। उनके पास किस्से हैं। लम्बे और दिलचस्प। वे दीर्घ के कथाकार हैं। उन्हें किसी लम्बे काम पर हाथ आजमाना चाहिए।
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