प्रिया भाई ओमा शर्मा जी,
फोन करता हूं, घंटी बजती है आप फोन उठाते नहीं। इतनी उतावली में तो मैंने कभी राजेन्द्र यादव या कुन्दन सिंह परिहार या सेवाराम त्रिपाठी को भी फोन नहीं किया।
तो सुनिये, आप कथाकार ही नहीं, एक बढ़िया गोताखोर भी हैं। गहर पानी डूबकर आप यह जो मोती लेकर आये हैं- स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा ‘वो गुजरा जमाना’, यह विश्व-साहित्य का एक बेशकीमती मोती है। स्टीफन स्वाइग को अनेक कहानियों का हिंदी में अनुवाद हुआ है। आम पाठकों को बीच वे एक लोकप्रिय किस्सागो रहे हैं। ‘एक अनजान औरत का खत’ जैसी कहानी तो एक समय हिंद पाकेट बुक्स ने उत्तर भारत के घर-घर में पहुंचा दी थी, लेकिन उनके निबंधों, रेखाचित्रों और आत्मकथा की ओर उतना ध्यान नहीं गया है। हिंदी का समकालीन दृश्य इस लिहाज से एक हद तक निराश भी करता है। हमारे कविगण तो विदेशी जमीन के असाधारण कवियों को जब-तब अनुवाद के लिए उठाते रहे हैं, पर आज के सृजनात्मक गद्यकारों ने विश्व-साहित्य की अनूठी गद्य-कृतियों के अनुवाद के काम से जैसे अब मुंह फेर लिया है। आश्चर्य होता है कि इसी भाग में कभी प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, रांगेय राघव, अज्ञेय, अमृतराय, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर जैसे हमारे वरिष्ठ कथाकारों ने विश्व-साहित्य की कुछ विलक्षण गद्य-कृतियों के एक गहरी प्रतिबद्धता के साथ अनुवाद किये हैं। आज जाने कहां चली गई वह परम्परा। मराठी, गुजराती, बांगला आदि भाषाओं में तो आज भी उनका बड़े-से-बड़ा कथाकार विश्व-साहित्य की असाधारण कृतियों के अनुवाद के काम को अपने स्वयं के लेखन के मुकाबले दोयम दर्जे का काम नहीं मानता, लेकिन हिंदी के वर्तमान कथा-जगत की स्थिति विचित्र है। खैर, ऐसे में स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा का आप द्वारा किया गया यह अनुवाद हिन्दी की एक गौरवशाली परम्परा की याद दिलाता है।
ऐसा कहा जाता है कि महान कृतियों के अनुवाद के लिए मन के भीतर उतनी ही उदात्तता की भावना होना चाहिए। बिना भातर एक गहरी शांति, स्पेस और निस्तब्धता के ऐसी कृतियों के अंदरूनी संसार से आप एकमेव हो ही नहीं सकते। यह कहना नाकाफी होगा की आपका यह अनुवाद हिंदी में सर्वश्रेष्ठ अनुवाद की एक मिसाल है। मुझे यह अनुवाद पढ़ते हुए लगा कि मैं बीथोवन की कोई सिंफनी सुन रहा हूं या चाइकोवस्की के ‘पेथेटिक’ की एक उदास धुन ने मेरे समूचे वजूद को, जिजीविषा की उत्तेजना और अवसाद के ठंडेपन में भिगो दिया है। यदि अनुवाद किसी धंधेबाजी की विवशता के तहत नहीं, एक आनंद की भावना के साथ किया गया हो तो कृति का चयन ही अनुवादक के व्यक्तित्व का परिचय होत है। इस अनुवाद में भाषा ऐसी है जैसे किसी झरने से शब्दों की लड़ियां फूट रही हों। मूल भाषा के समानान्तर अपनी भाषा के मुहावरे को पहचानने की आपकी क्षमता, एक कृति में कई वर्ष तक रमे रहने का धेर्य और लगन सभी कुछ काबिले तारीफ है।
हर बड़ी किताब अपनी एक अद्वितीय दुनिया लेकर हम तक आती है। कहना न होगा कि स्वाइग की यह आत्मकथा सर्वाधिक चर्चित कृतियों में से एक रही है। बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध के उधल-पुथल के समय से गुजरते हुए स्वाइग एक खो गई दुनिया की कहानी कहते हैं। अपनी ही नहीं, एक पूरे युग की कहानी। स्वयं को तो उन्होंने इसमें भरसक ओट में किया हुआ है। अपनी भूमिका में जैसे वे शुरू में ही इस बात को स्पष्ट कर देते हैं- ‘अपनी शख्सियत को इतनी अहमियत मैंने कभी नहीं दी कि दूसरों को अपनी जिंदगी की कहानी सुनाने लग जाऊं। एक पीढ़ी के हिस्से जितनी घटनाएं, हादसे और विपत्तियां आ सकती हैं, उससे बेइन्तहा ज्यादा जब सामने से गुजरी, तब मैं उस किताब को शुरू करने का साहस जुटा पाया, जिसका प्रमुख किरदार या कहें धुरी, मैं खुद हूं। सारे चित्र वक्त ने दिये हैं, उनके इर्द-गिर्द जो शब्द हैं, बस वही मेरे हैं। दरअसल यह मेरी नियति की कहानी नहीं, बल्कि उस पूर दौर का बखान है, जिसके नसीब में तारीख के किसी भी दौर से ज्यादा बदनसीबी का बोझ लिखा था।’ आप इन पंक्तियों को पढ़ते हैं और सोचते रह जाते हैं। क्या किसी भी युग का कोई भी चित्र ऐसा होता है, जिसे हम वस्तुनिष्ठ चित्र कह सकें? या आप घटनाओं और परिस्थितियों से गुजरते हैं और अपने कोण से युग को देखते हैं? स्टीफन स्वाइग एक खास समय के एक खास मिजाज के लेखक थे। बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध की उथल-पुथल को उनका मन जिस तरह से देख रहा था, वही उन्होंने यहां दर्ज किया है। सवाल यह है कि क्या ब्रेख्त या थामस मान उस समय का वृतान्त लिखेंगे तब भी क्या वह इसी तरह का होगा। महत्त्वपूर्ण शायद यह है कि एक संवेदनशील मन अपने युग में किन बातों को रेखांकित कर रहा है, किस दिशा में वह जाता है।
बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध के वे दशक कैसे थे, जब उन्नीसवीं सदी का एख अपेक्षाकृत स्थिर और भविष्य के सपनों से भरा समय बीसवीं सदी में आकर दम तोड़ने लगा था। वे प्रारंभिक दशक ही 19वीं सदी के वैज्ञानिक तर्कवाद और प्रगति के मिथक को लेकर एक संवेदनशील मन के भीतर उठते आत्म-संशय के दशक थे। पूंजीवादी देशों की आपसी होड़, पहले विश्व युद्ध के गहराते बादल, सैन्य शक्तियां, तंत्र और राज्य व्यवस्थाओं की असीम ताकत, आर्थिक मंदी, भुखमरी, राष्ट्रवाद का भयावह जहर, जातीय और नस्ली घृणायें, अधिनायकवादी सत्तायें, झूठ का विशाल प्रचार-तंत्र, जातियों के सामूहिक अपमान, उत्पीड़न, दमन और संहार की विशाल योजनाएं। और इसी सबसे गुजरते हुए एक कलाकार मन का भौतिक और मानसिक निर्वासन। मनुष्य की अन्तःचेतना के भीतर के नये तनाव, सतही यथार्थवाद का अतिक्रमण और अवचेतन की एक भयावह और बेचैन दुनिया। स्टीफन स्वाइग की यह महाकाव्यात्मक आत्मकथा बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध के लगभग समूचे फलक को समेट लेती है।
युग जब करवट लेते हैं तो संक्रमण के दबाव सबसे ज्यादा शायद एक संवेदनशील कलाकार का मन झेलता है। इस आत्मकथा के कितने-कितने पहलू और विडम्बनाएं हैं, जिन पर ठहर कर बात की जानी चाहिए। स्टीफन स्वाइग एक गहरे नौस्टेलजिया और खोती हुई दुनिया के लेखक हैं। स्मृति उनकी समूची मनोरचना का एक केंद्रीय तत्व था। कहानियों में भी उनके सभी प्रमुख पात्र खत्म हो चुकी दुनिया में समय की पुनर्रचना ही करते हैं। मुझे लगता है कि आत्मकथा में भी वे जैसे किसी पात्र की जगह स्वयं को खड़ा कर द रहे हैं। यूं उनके ज्यादातर पात्र कहीं-न-कहीं उनके ‘आल्टर ईगो’ ही हैं। स्वाइग ने यूरोप की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी कहे जाने वाले शहर वियना में अपनी आंखे खोली थीं। उनकी यह आत्मकथा हमें काफी विस्तार से और तमाम तरह के विवरणों के साथ यह बताती है कि ‘19वीं सदी में यूरोप का शायद ही कोई और शहर होगा जो संस्कृति और कला के प्रति दीवानगी की इस हद तक समर्पित था। नागरिक जीवन की एक सुनिश्चित शैली बंधी बंधाई लीक पर सदियों से चल रही थी। चारों तरफ सुकून, सुरक्षा और आराम था।मुझे लगता है कि इस तरह के स्थिर समाज कलाकारों और बौद्धिकों की एक खास तरह की मनोरचना बनाते हैं और उन्हें बाहर के राजनीतिक घटनाक्रमों के प्रति किसी हद तक उदासीन करते चले जाते हैं। कला की दुनिया में ही जब आपका समूचा समर्पण हो जाता है तो यह कला एक बड़ी सीमा तक आपको बाकी चीजों से काटती भी चली जाती है। स्टीफन स्वाइग जब रिल्के, रोदां या हौफमंसथाल जैसे कला के प्रति सम्पूर्ण समर्पित और बाकी संसार के प्रति उदासीन, अपने समय के कलाकारों के चित्र खिंचते हैं तो कहीं यह बात बड़े स्पष्ट तरीके से रेखांकित हो जाती है। वहां जीवन का सब कुछ जैसे कला की उपासना में ही दांव पर लग गया है। यह शायद उस दौर का एक केंद्रीय मूल्य था। वे एक जगह लिखते भी हैं कि ‘19वीं सदी के ढलते वर्षों का वह माहौल इस कदर अनुकूल था कि शहर के जर्रे-जर्रे में कला की गंध बसती थी।’ पूरा दौर अराजनीतिक था। कला ही जब पूरी जिंदगी का मकसद और निचोड़ हो जाती है, तो जिंदगी जैसे किसी खास योजना के तहत कला से अपना बदला चुकाती है, इसकी मिसाल यह आत्म-वृतान्त है। बीसवीं सदी का पहला विश्वयुद्ध हुआ और देखते ही देखते आस्ट्रिया का यह सुकून भरा हैबसबर्ग साम्राज्य भरभरा कर गिर पड़ा। यद्यपि स्टीफन स्वाइग ने अपनी इस आत्मकथा में कई तरीक से इस बात को कहना चाहा है कि उन्हें एक ठहरी हुई सामन्ती व्यवस्था के प्रति कोई मोह नहीं था और प्रथम विशव युद्ध के दौरान जब वह सदियों पुरानी जीवन शैली ढह गई तो उन्होंने इस विराट क्रमभंगता को एक नई उम्मीद के साथ देखा था। उन्हें बदलते हुए युग में शांति और प्रगति के किसी यूरोपीय स्वप्न के पूरे होने की उम्मीद थी।
यही स्टीफन स्वाइग के जीवन का एख दिलचस्प विरोधाभास है, जिसे देखा जाना चाहिए। वे मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और शांति के पुजारी थे लेकिन अपने समूचे लेखन में उन्होने मनुष्य की इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता को परिभाषित नहीं किया। इससे जुड़ी समस्याओं की तरफ उनका ध्यान नहीं था। मनुष्य की गरिमा को खत्म करने वाला अधिनायकवाद एक राजनीतिक सच्चाई है और उसका प्रतिरोध राजनीतिक प्रतिशक्ति बनकर ही किया जा सकता था। लेकिन यह बात कहीं स्वाइग के लेखन से स्पष्ट नहीं होती। स्वाइग के यहां इस प्रश्न का भी कोई उत्तर नहीं है कि शांति की चाहना करने वाली भेड़ों को खूंखार भेड़ियों के जबड़ों में जाने से कैसे बचाया जा सकत है? स्वाइग किसी भी राजनीतिक विचारधारा से परहेज करते थे, किसी भूमिगत दस्ते के सदस्य नहीं बने, उनके पास कोई ठोस एक्शन प्रोग्राम नहीं था। हां, एक अमूर्त और उदास किस्म का मानवतावाद था जो उनकी तमाम कहानियों में प्रकट होता है। यह एक खूंखार समय के खौफ को तो चित्रित करता है लेकिन उसके प्रतिरोध की ताकतों को अनदेखा कर देता है। स्वाइग का स्वभाव ऐसा था कि वे प्रतिरोध की कठोर, कर्कश और खुरदुरी जमीन की ओर जा ही नहीं सकते थे। उनके देखते ही देखते पहले महायुद्ध से पहले का सुनिश्चित, सुरक्षित, ठहरा हुआ संसार ध्वस्त हो गया। बची रह गई सिर्फ उस संसार की यादें।
लेकिन स्मृतियों का महत्व भी कम कर नहीं आंका जा सकता। एक एक समूचे युग के खो जाने का दंश, किन्हीं महान आदर्शों के टूटने की आवाजें एक अनचीन्हा विषाद भी एक कलाकार मन के प्रतिरोध को रचता है। स्वाइग की इस आत्मकथा में प्रतिकार का सात्विक रोष और हिलोरे लेती हुई वेदना हर जगह है। वे उस सब कुछ को देख रहे और समेट रहे हैं जो अदेखा रह गया, जो स्मृतियों से पुंछ जाएगा और आने वाली पीढ़ियों के लिए कतई बिला जाएगा। स्मृतियों का यह खाता जैसे चक्रवात में फंसे किसी पक्षी की कातर पुकार है। लेखक एक रक्त-रंजित संसार को किसी दुःस्वप्न की तरह आगे की पीढ़ियों के लिए संचित करता है, ताकि सनद रहे– मनुष्य त्रास और विपदाओं को भूल जाने के लिए अभिशप्त है। कला मनुष्य के इसी अभिशाप के विरुद्ध एक कार्रवाई है। ब्राजील में 1942 में स्टीफन स्वाइग ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या के उन क्षणों से पहले शायद उनके मन में कहीं यह तोष भी रहा होगा कि उहोंने शब्द को उसका नैतिक दाय सौंप दिया है।
सवाल उठता है कि स्टीफन स्वाइग जैसा लेखक जब आत्महत्या करता है तो क्या उसे महज एक सतत नैराशय, अपमान, उत्पीड़न, आत्म-ग्लानि, विस्थापन, अकेलेपन और भयावह व्यर्थताबोध का एक अनिवार्य प्रतिफलन माना जाना चाहिए या इस आत्महत्या को किसी और रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए। यह सच है कि निर्वासन और भटकन किसी भी व्यक्ति के जीवन की एक महान विपदा है। एक लेखक के लिए तो यह और भी मुश्किल स्थिति है क्योंकि उससे न केवल उसकी धरती छूट गई है, बल्कि उसकी भाषा, उसका समाज, उसके पाठक और उसकी उत्प्रेरणाएं भी पीछे छूट गई हैं। उसकी भीतरी दुनिया ही निर्वासित हो गई है। कई बार भीतर का यह ध्वंस लेखक को भयावह रूप से आक्रामक भी बनाता रहा है लेकिन स्वाइग ऐसे लेखक थे, जिनके व्यक्तित्व का आक्रामकता से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था। वे जिस सुनिश्चित, मानक, शांत और स्थिर दुनिया द्वारा गढ़े गए थे, उसमें आत्मानुशासन शायद सबसे बड़ा मूल्य है। वे निर्वासित थे और जब सुदूर देश ब्राजील में अपनी यह आत्मकथा लिख रहे थे, तब वियना में नाजी लोग उनकी पुस्तकें जला रहे थे। वे वियना की उस खो चुकी कलात्मक और बौद्धिक दुनिया के बरक्स जर्मनी की एक जल्लाद दुनिया को देख रहे थे। एक ऐसी दुनिया, जिसका बहुविधता, गहराई, विस्तार और सुन्दरता से कोई नाता नहीं था। उस दुनिया में और अधिक जीने की इच्छा स्वाइग के मन में समाप्त हो गई होगी। शायद उनकी अपने आप से बहुत ज्यादा की अपेक्षाएं थीं। वे उस दुनिया में पले थे जहां खुशहाल रहना और अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को एक सर्वाधिक कीमती मूल्य मानकर जीना संभव था। वे अब एक ऐसी दुनिया में आ फंसे थे जहां बुराई के प्रतिरोध के लिए, अपनी स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिए दूसरों के साथ लामबंद होना जरूरी था। स्वाइग की किसी भी समामूहिक प्रयत्न या कार्रवाई में आस्था नहीं थी। यह शायद उनके जीवन का चरम संकट था। ब्राजील में 22 फरवरी 1942 को जब उन्होंने अपनी पत्नी के साथ अपने जीवन का अंत किया तो उनके इस कदम पर यूरोप में तीव्र प्रतिक्रियाएं हुई। अन्य लोगों के साथ साथ थामस मान जैसे लेखक ने स्वाइग की इस आत्महत्या की कठोर आलोचना की। मान के शब्द थे- ‘स्वाइग अपने कर्तव्य से चूक गए हैं। उनके अहम ने उनके समकालीनों को नीचा दिखाया है और इसका फायदा ‘दुश्मनों’ को मिलेगा।’ लेकिन सवाल फिर वही है कि क्या किसी आत्महत्या का अंतिम अर्थ निकाला जा सकता है?
स्वाइग की इस अद्भुत आत्मकथा को पढ़ते हुए एक बात हर पन्ने पर महसूस होती है। एक कलाकार जब अपने युग का वृत्तान्त लिखता है तो उसका काम किसी इतिहासकार, समाजशास्त्री या मनोवैज्ञानिक की तरह का नहीं होता। समय से उसके रिश्ते नितान्त भिन्न तरह के होते हैं। वह इतिहास का नहीं, स्मृति का जीवन रचता है। आप कला में एक बीते हुए समय को दोबारा निर्मित होते देखते हो और विगत वहां अपने समूचे रहस्यों, कसक, इच्छाओं, वेदनाओं और कचोटों के साथ उभरता है। यह बीता हुआ सारा समय जैसे किसी स्वप्न की तरह होता है जिसके आशय परत-दर-परत हमारे वर्तमान में खुलते जाते हैं। वहां घटनाओं और हादसों की चट्टानों के नीचे दबे हुए मनुष्य के धड़कते हुए मन की लय को हम अब भी सुन सकते हैं। यह एक रोमांच भी देता है और भीतर एक कातर अनुभूति भी जगाता है कि हमने उसे खो दिया। स्वाइग को इस आत्मवृत्तान्त में लंदन, पेरिस, वियना की स्पंदित दुनिया है, रिल्के, रोदां, हॉफमंस्थाल, रोमा रोलां, बनार्ड शॉ, गोर्की, एच.जी. वेल्स जैसे बीसियों शिखर कलाकारों के अद्भुत व्यक्तित्व और उनके अछूते पहलू हैं। वे लोग जो अब दोबारा नहीं होंगे। पूरी आत्मकथा सैकड़ों लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, चित्रकारों, संगीतकारों की हलचलों से भरी हुई है। स्वाइग के लिए जैसे, बाहर के जीवन की सारी उथल-पुथल और विनाश के बरक्स कला एक अश्वर एकान्त है, उपासना है, अगाध प्रेम और अटल आस्था है, कोई विराट स्वप्न और कोई अछुई पवित्रता है। वह समूचे जीवन कार्म का पर्याय बन गयी है। वे जैसे झूठ और बर्बरता के एक कसे जाते हुए शिकंजे में आखिरी दम तक अपनी इस जिजीविषा को बनाए रखना चाहते हैं। इस आत्मकथ्य को पढ़ते हुए यह बात भी एक नए सिरे से हम अनुभव करते हैं कि मनुष्य के जीवन में कुछ विशेष परिस्थितियों में जन्मे मनोभाव जैसे मैत्री, समर्पण, भय, जिल्लत, अकेलापन, हताशा, घिराव, बेचैनी, विलगाव और निरूपायता केवल शब्दकोश के शब्द नहीं हैं। कलाकार इन शब्दों के शरीरों में हर बार एक नए सिरे से अपने अर्थ भरता है। मनुष्य की जिजीविषा और विडम्बना से भरी इस आत्मकथा और भी दूसरे तमाम पहलुओं पर विचार किए जाने की गुंजाइश है।
यह पत्र अभी पूरा नहीं हुआ है, लेकिन हर पत्र को कहीं न कहीं समाप्त करना पड़ता है।
ओमा जी, और एक बात यह कि आपने कमाल की प्रतिबद्धता और धीरज के साथ यह बड़ा काम अंजाम दिया है। स्वाइग का गद्य केवल विवरणात्मक नहीं, उसमें एक काव्यात्मक सघनता भी है। ऐसे इंटेस गद्य को अपनी भाषा में आपने बखूबी साधा है। अनुवाद की भाषा इतनी गंगा-जमुनी, मुहावरेदार, सहज और रवानी से भरी हुई है कि यह मूलकृति को हिंदी में लगभग पुनर्सृजित करने जैसा हो गया है। असंख्य पाद-टिप्पणियों को लिखने में आपने कितनी मेहनत की होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। पुस्तक के अंत में लेखक जीवन-वृत्त भी आपने बड़ी गहरी अन्तर्दृष्टि के साथ लिखा है। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हमारा समकालीन साहित्यिक परिदृश्य आपके इस अनुवाद को अनदेखा कर देगा। हमारे इस दृश्य में अभी भी बहुत सारी उम्मीद बची हुई है और असाधारण कृतियों के अनाम पाठक जाने कहां-कहां से अवतरित हो जाते हैं। अभी और भी बहुत कुछ लिखना था पर वह फिर कभी। फइलहाल, इस अत्यंत महत्तवपूर्ण काम के लिए आपको हार्दिक बधाई।
Leave a Reply