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लाल्टू : अदब से मुठभेड़(अकार-42)

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

साहित्य की विभिन्न विधाओं में साक्षात्कार एक नव्य-विधा है। वैसे तकरीबन सभी परंपराओं में, खास तौर पर मुद्रण के आविष्कार के पहले, गुरु-शिष्य संवाद शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है; ग्रीक विद्वानों ने तो संवाद की कला को बौद्धिक शिखर तक पहुंचा दिया था। भारतीय परंपराओं में शास्त्रार्थ भी परस्पर संवाद के तरीके थे। पर वह साक्षात्कार नहीं कहला सकते।

जब से मुद्रण की शुरूआत हुई है, लगभग तभी से साक्षात्कार लिए जाते रहे हैं। आजकल पत्र-पत्रिकाओं से लेकर टी.वी. चैनल और डॉक्यूमेन्ट्री फिल्मों तक हर माध्यम में साक्षात्कार आम बात है। सार्वजनिक रूप से अपनी बातों को सबके सामने रखना और नए ख्यालों का सूत्रपात करना – इसके लिए साक्षात्कार अहम तरीका है। कई युवा लेखक कवि  अपनी रचनाओं के साथ साक्षात्कार छपवाना चाहते हैं, ताकि उन्हें आकांक्षित यश मिल सके। पर आम तौर से वरिष्ठ या प्रतिष्ठित लोगों के साक्षात्कार ही लिए जाते हैं। यह वरिष्ठता या प्रतिष्ठा किसी भी क्षेत्र में हो सकती है – खेलकूद, फिल्म, विज्ञान, कला आदि की तरह साहित्य में भी। जे.डी. सालिंजर, सैमुएल बेकेट जैसे कोई की बड़े रचनाकार साक्षात्कार  देने से मना करते रहे हैं। कई और, जैसे- व्लादीमीर नाबोकोव, आदि साक्षात्कार के लिए सहमत हो जाते हैं, पर बातचीत पर पूरा नियंत्रण बनाए रखते हैं। ऐसे रचनाकार आम तौर पर पहले से तैयार सवालों के जवाब देते हैं और अच्छी तरह संपादन के बाद ही सामग्री के प्रकाशन की अनुमति देते हैं। इनसे अलग मारगरीत दूरास जैसी नामी शख्सियत साक्षात्कारों का फायदा उठाते हुए आम पाठकों से संवाद कायम करने की कोशिश करते हैं।

साक्षात्कार से मिलती-जुलती विधाएं संस्मरण और आत्मकथा की हैं। पर इनमें व्यक्ति अकेले अपनी बात रखता है। पर साक्षात्कार संवाद की विधा है। ऐसा हो सकता है कि साक्षात्कार में ऐसी बहुत सारी बातें सामने आएं जो आत्मकथा में नहीं आ सकतीं। साहित्यकार या कलाकार किसी भी विधा में औपचारिक रूप से प्रशिक्षित हों, यह जरूरी नहीं, पर अधिकतर बड़े रचनाकारों को इतिहास, राजनीति समाजशास्त्र और विज्ञान तक की अच्छी समझ होती है। इसलिए साक्षात्कार के जरिए हम उनकी बौद्धिक पहुंच को जान पाते हैं और साथ ही उनका कहा महत्वपूर्ण दस्तावेज बन जाता है। एक नजरिया यह भी है, बकौल हुसैन ‘दुनिया में जितना कुछ है-विज्ञान, संगीत, नृत्य, तकनीकी, व्यापार या जो कुछ भी, उस सबका निचोड़ है कला’। पर इस कथन में अहं ज्यादा है और सार कम। पर यह तो कहा ही जा सकता है कि साहित्यकार या कलाकार के साक्षात्कार के जरिए भी पाठक उनकी कृतियों तक पहुंचता है। सामान्य पाठक के लिए साक्षात्कार को पढ़कर मोहभंग की स्थिति भी आ सकती है, पर प्रबुद्ध पाठक को लिए रचनाकार  को जानना अक्सर ऐसा अनुभव होता है जो उसे सतह से ऊपर किसी हकीकी धरातल तक ले जाता है। अक्सर अखबारों या पत्रिकाओं में नपे-तुले से साक्षात्कार आते हैं, जिनसे किसी समकालीन संदर्भ में रचनाकार को देख पाने में आसानी होती है। पर लंबे साक्षात्कार अगर सही ढंग से लिए जाएं तो उनसे एक संपूर्ण अनुभव मिलता है। खास तौर पर रचनाकारों से साक्षात्कार लेने वाले अगर खुद अदबकार हों तो यह उम्मीद वाजिब है कि उनके सवालों में आम लोगों से अलग कोई बात होगी जिससे नए बौद्धिक और अहसासों के आयाम खुलेंगे। ओमा शर्मा की ‘अदब से मुठभेड़’  ऐसे लंबे साक्षात्कारों का संग्रह है। ओमा शर्मा अपनी भूमिका में बतलाते हैं कि उनको ‘पेरिस रिव्यू’  के साक्षात्कारों की परंपरा से प्रेरणा मिली है और वे रचनाकारों के रचना-जगत में जाने को ‘उकसाने’ लायक और ‘उन कृतियों से जड़े उनके अंतर-जगत में झांकने’  लायक साक्षात्कार पाठकों को देना चाहते हैं। वे साक्षात्कार-दाता और साक्षात्कार-कर्ता के बीच आदर या स्तुति भाव से बच कर ‘लेखकीय मंशाओं की निशानदेही’ करना चाहते हैं। ‘पेरिस रिव्यू’ फ्रांस की राजधानी पेरिस से शुरू हुई (1953) और बाद में न्यूयॉर्क से (1973) अंग्रेजी में प्रकाशित पत्रिका है, जो अब मुख्यतः साक्षात्कारों के लिए जानी जाती है। इसमें पहले पश्चिमी भाषाओं के दिग्गज बड़े रचनाकारों के, और अब दीगर और मुल्कों की भाषाओं के भी, साहित्यिक काम के अलावा, ‘राइटर्स ऐट वर्क’ नामक श्रृंखला में साक्षात्कार प्रकाशित होते रहते हैं। इसके एक संस्थापक पीटर माथीसेन ने यह माना है कि वह अमेरिकी गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. में काम करता था और अपनी खुफिया गतिविधियों को छिपाने के लिए उसने इस पत्रिका का काम संभाला था। पर इसका पत्रिका के स्तर और विचारधारा पर कोई भी प्रभाव शायद कितना रहा है, यह कहना कठिन है।

ओमा शर्मा के साक्षात्कार पांच समकालीन चिंतकों, राजेन्द्र यादव, प्रियंवद, मन्नू भंडारी, मकबूल फिदा हुसैन और शिवमूर्ति के साथ मुठभेड़ हैं। इनमें राजेन्द्र यादव और हुसैन अब हमारे साथ नहीं है, प्रियंवद पांचों में सबसे युवतर हैं और हुसैन के अलावा बाकी सभी साहित्य लेखक हैं। हुसैन का कलाकार होते हए भी साहित्य से गहरा रिश्ता रहा है।

यह रोचक बात है कि राजेन्द्र यादव से बातचीत की शुरूआत में ओमा शर्मा संस्मरणों का जिक्र करते हैं और राजेन्द्र यादव अपने परिचित अंदाज में बतलाते हैं कि रचनाकार का अपने समय के व्यक्तियों, घटनाओं के साथ गहरा सरोकार होता है। यह साक्षात्कार की अच्छी शुरूआत है। साक्षात्कार गंभीरता से लिया गया हो तो एक अलग विधा के रूप में इसकी आधुनिक पहचान सामने आती है। इसलिए बातचीत में पश्चिम में साक्षात्कार की नव्य-परंपरा के साथ हमारे यहां इसके मौजूदा हाल की तुलना का सवाल उठना वाजिब है। राजेन्द्र यादव सही करते हैं कि हमारे यहां आत्मकथा पश्चिम की ‘कन्फेशनल’ रचनाओं की तरह परिपक्व स्तर तक नहीं पहुंच पाई है, हालांकि मराठी दलित साहित्य इसका अपवाद है। राजेन्द्र यादव बिल्कुल निशाने पर तीर मारते हुए यौनिकता का उल्लेख करते हैं कि अपने बारे में आप यौन-प्रसंगों को लिख भी दें,तो भी, दूसरों के बारे में, खास तौर पर पारिवारिक संबंधों से जुड़े लोगों पर नहीं लिख सकते। यहां तक कि उपन्यास में लिख कर भी उसे प्रकाशित  न करने की मजबूरी का जिक्र वे करते हैं, “क्योंकि वही लिबिडो वाला मामला है… ‘सारा आकाश’ की तरह यह भी मेरे एक घनिष्ट मित्र के बिहेवियर पर आधारित है।” वैसे राजेन्द्र यादव ‘हंस’  पत्रिका में या अन्यत्र (‘होना/सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ’, ‘आदमी की निगाह में औरत’) में  काफी खुल कर बातें करते रहे हैं, पर साक्षात्कार देते हुए चौकन्ने थे; ओमा ने भूमिका में लिखा है- ‘बातचीत के प्रारंभ में वे थोड़े शंकित थे। जानना चाहते थे कि आखिर मैं उनसे क्या चाहता हूं। इसलिए टेप को ऑन करने से रोका। मैंने समझाया कि…पश्चिम में ऐसे कितने उदाहरण नुमायां हैं जहां लेखक के रसोइये या ड्राइवर तक ने… पूर्व हाकिम के बारे में अपने निरीक्षण दर्ज किये हैं। मेरी मंशा शायद उन्हें कहीं जंच गई और मैंने…टेप ऑन कर दिया।’ अगर व्यक्ति आश्वस्त हो जाए कि उसकी बातों को सही तरह से समझा जाएगा, तो यह साक्षात्कारों में ही पता चलता है कि आदमी सचमुच कितनी दूर तक जा सकता है। राजेन्द्र यादव अपने सर्जनात्मक लेखन में यौनिकता पर ऐसी छलांग नहीं मार पाए हैं जितनी कि इस्मत चुगताई या मंटो आदि ने कर दिखाया, और साक्षात्कार में इस बात को वे खुल कर मान भी लेते हैं कि वे अपनी रचनाओं में यौनिकता पर एक हद तक ही लिख सकते थे।

राजेन्द्र यादव के साक्षात्कार में एक और बात चौंकाने वाली है, वह यह कि उनके लिए हिंदी में रेणु के अलावा कोई बड़ा लेखक नहीं है (दूसरे बड़े रचनाकारों की विशेषताओं का उल्लेख वे करते हैं, पर बहुत पढ़ने लायक वे रेणु को ही मानते हैं), उनके आदर्श दोस्तोव्स्की, चेखव और टॉल्सटॉय हैं या बाद के रचनाकारों में स्टीफन स्वाइग हैं।

प्रियंवद से अपनी बातचीत में ओमा साहित्य के सवालों पर सामान्य स्तर पर रुक गए हैं, जबकि प्रियंवद इस सवाल पर कि ‘कौन सा इतिहास?’  यह कहते हुए कि ‘मेरी दिलचस्पी इतिहास के उबाऊ राजनैतिक घटना-चक्र में नहीं होती…’, बातचीत को गंभीर बहस का स्वरूप देते हैं। ओमा के सवालों में उत्तर-आधुनिक विरोधाभास हैं, जबकि प्रियंवद के जवाब साफ और स्पष्ट हैं। यह भी रोचक है कि यौनिकता जैसी बातों पर जिस तरह राजेन्द्र यादव से कहलाना आसान लगता है, प्रियंवद से उतना ही कठिन। हालांकि अपनी रचनाओं में प्रियंवद ज्यादा खुलकर बातें कह पाये हैं।

मन्नू भंडारी से साक्षात्कार में विडंबनाओं की बहुतायत है। एक ओर तो हम स्त्री मन्नू को देखते हैं, स्त्री जो पुरुष राजेन्द्र से उत्पीड़ित है, दूसरी ओर उससे बात करते हुए कोई उदासीन व्यक्ति नहीं, बल्कि अपनी पूरी वर्चस्ववादी मानसिकता के साथ पुरुष है, जिसको साक्षात्कार देते हुए स्त्री रचनाकार को सचेत और सावधान रहना है। अपने तमाम गंभीर और पक्षों को गहराई से सामने रखने की कोशिश करते हुए भी इस साक्षात्कार में मन्नू भंडारी ओमा का शिकार बनती दिखती हैं। चूंकि राजेन्द्र यादव का साक्षात्कार पहले आ चुका है, पाठक इस बात से वाकिफ है कि राजेन्द्र यादव बड़े रचनाकार ही नहीं, सचेत और जागरुक चिंतक थे, जिनसे समकालीन गंभीर मसलों पर बातचीत हो सकती है, पर मन्नू से साहित्य या विचारधाराओं से इतर यह बात ज्यादा मुखर होकर सामने आती है कि राजेन्द्र यादव के साथ घर बसाते हुए वे कितनी असहाय और अकेली पड़ गई थीं। यहाँ साक्षात्कार लेने वाली की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह व्यक्ति के परिचित पक्षों से अलग उन बातों को उजागर करे, जिनके बारे में हम कम जानते हैं। राजेन्द्र यादव के साक्षात्कार में हमें ऐसा कम दिखता है। हिंदी का आम पाठक जैसी पुरुष-प्रधान मानसिकता के साथ जीता है, उसे मन्नू भंडारी से साक्षात्कार में रचनाकार मन्नू की जगह एक पिटी हुई स्त्री ही ज्यादा दिखेगी और वह इसे पढ़कर मुस्कराएगा, या वह दयालु प्रवृत्ति का हो तो बेचारी कह कर आगे बढ़ जाएगा। आखिरी सवाल में तो हद ही हो जाती है जब बिलकुल पूर्व नियोजित तरीके से ओमा मन्नू से पूछते हैं कि अपने जीवन पर एक नजर डालने पर ऐसा कोई काम जो… छूट दिए जाने पर नहीं करेंगी… और मन्नू कह बैठती हैं ‘राजेन्द्र यादव से विवाह…’। यहां कहा जा सकता है कि इस एक साक्षात्कार में ओमा कुछ हद तक असफल या कमजोर हैं। अगर कोई पूछे कि इसमें गलत क्या है कि इस सवाल से साक्षात्कार का अंत हो, तो सचमुच कोई जवाब नहीं दिया जा सकता, पर क्या लिंग आधारित किसी पूर्वग्रह को शब्दों से सही-सही बखाना जा सकता है!

ओमा शर्मा की हिम्मत और उनके हुनर का बेहतर अंदाजा उनके हुसैन के साक्षात्कार में दिखता है। हुसैन की शख्सियत के कई जटिल पहलुओं को वे सामने लाने में सफल रहे हैं। अगर कभी इन पांच साक्षात्कारों पर कोई गंभीर शोध हो तो सबसे अधिक हुसैन के साक्षात्कार को पढ़ा जाएगा। इसकी वजह यह है कि एक ओर तो कला की शुद्धता पर उनका जोर है, दूसरी ओर जीवन के अनुभवों पर भी वह जोर देते हैं- ‘और वैसे दस हजार साल तक आप सरोद बजाते रहिए, तब भी उससे कुछ निकलने वाला नहीं है। जो जीवन के बारे में सोचता है और किसी रूप में अभिव्यक्त करता है, वही कलाकार है। …वो किसी चीज का मुहताज नहीं, जिसको जीने का हुनर आता है… आप यदि जीना नहीं सीखे हैं तो कुछ भी नहीं कर सकते’। साथ ही यह भी – ‘लोग कहते हैं कि कला जिंदगी से प्रेरित-प्रभावित होती है, कलाकार अपने आस-पास से उठाता है, यह सब बकवास है। दुनिया को देखकर आप चित्र बनाएंगे तो वह ज्यादा दिन नहीं चलेगा।’  अपने समकालीन पर उनको कुछ नहीं कहना, बाजार पर अपनी पकड़ से वह पूरी तरह संतुष्ट और ग्लानिमुक्त हैं। और इस साक्षात्कार में आखिरी सवाल-जवाब सचमुच बढ़िया हैं, जिसमें हुसैन अपनी सबसे खूबसूरत कृति अपने ‘बच्चों’ को कहते हैं। पर साथ ही इसमें वह पुरुष कलाकार उजागर होता है, जिसने स्त्री को बच्चा पैदा करने और घर संभालने वाली मशीन की तरह इस्तेमाल किया। हर सफल स्वार्थी पुरुष की तरह प्रसंगवश अपनी सफलता का श्रेय वे पत्नी को देते हैं, तब नहीं जब कला पर बात होती है, पर तब जब कला से इतर बात होती है। हम यह जान पाते हैं कि एक इंसान जो किसी एक संकट में विपन्न है, वही दूसरे संकट में उत्पीड़क है। अपने उत्पीड़न को सही ठहराने के लिए उसके पास सारे बौद्धिक औजार हैं- अपनी श्रेष्ठता, सृजन का मायावी अध्यात्म, कला को जीवन से अलग ठहराते हुए भई कला में जीवन को माना जाना, और आखिर में सभई कमजोरियों से बचाने वाला – ऊपर वाला। आखिर क्या स्त्री ‘जीवन के बारे में’ नहीं सोचती? तो उसकी कला कहां गई? स्त्री के बारे में हुसैन की सोच तकलीफ देती है- ‘स्त्रियां दो तरह की होती हैं, वे जो सुंदर हैं, या जो सुंदर नहीं होती हैं।’ हुसैन का बार बार इस तरह कहना कि ‘क्रिएटिव पावर से जो होता है, वही टिकता है’ एक तरह का आतंक पैदा करता  है, पर साथ ही यह इस बात को नजर अंदाज करता है कि क्रिएटिव पावर शून्य में नहीं पैदा होता। संयोग की बात होती है कि किसी कलाकार या साहित्यकार को औरों का सहयोग मिल जाए, नहीं तो जिन्दगी की कशमकश से कितने लोग बच पाते हैं। यह दुखदायी है कि लोक को समर्पित विष्णु चिंचालकर (गुरुजी) जैसे अद्भुत चितेरे के बारे में भी हुसैन का रवैया यह था कि ‘आप ऐसे नाम मत गिनाइए। इनसे कुछ नहीं होने वाला… बड़ा विजन चाहिए होता है।’ यह विडम्बना ही है कि आम दुनियावी लोगों से ‘गांधी, बुद्ध, महावीर’  को अलग करते हैं, और गुरूजी को सामान्य मानते हैं। सच यह है कि जैसे अपनी कृतियों में हुसैन पहचाने जाते हैं, वैसे ही गुरूजी भी अपनी हर कृति में खास पहचान लिए आते हैं, यह अलग बात है कि उनकी दुनिया आम लोगों की थी, हुसैन की दुनिया से अलग गरीब और दरकिनार किये गए लोग। हुसैन की जिन तस्वीरों को लेकर संघ परिवार के लोगों ने बखेड़ा खड़ा किया था, उन के बारे में पूछते हुए ओमा शर्मा फिर एक बार यह दिखा जाते हैं कि ऐसे विषयों पर कहीं न कहीं उनके पूर्वग्रह सामने आ जाते हैं। हालांकि पुस्तक की भूमिका में वे कहते हैं कि ‘बारहा’ ‘प्रोवोक’  करने को ‘प्रोब’ करने की तरह इस्तेमाल में लिया गया है। उनका सवाल ‘आर्टिस्टिक लाइसेंस’  को गलत ढंग से पेश करता है और स्वाभाविक है कि हुसैन भड़क गए, पर ओमा अपने हुनर से उनको यह समझाते हुए कि संघियों से अलग इस मामले में उनकी(हुसैन की) बात लोगों तक पहुंचनी चाहिए, वापस बातचीत पर ले आये। शिवमूर्ति का साक्षात्कार भी उन जैसा ही है, सरल, साफ, अपनी परिधि में सीमित पर सीमा के अंदर ईमानदार। इसमें ऐसा विशेष कुछ नहीं है जो चौंकाता हो- लीक के समर्पित रचनाकार से लीक से बंधा साक्षात्कार, लेखक के बारे आम समझ, ‘स्वतंत्रचेता तो वह हो ही, पर उसके जेहन में दूसरों के भले की भावना भी चाहिए।’  कुछ बातें, जैसे बिना टिकट रेल यात्राओं पर उनकी बेबाकी ऐसी है कि पढ़कर उनके प्रति स्नेह उपजता है।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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