‘वो गुजरा जमाना’ उन अर्थों में लेखक की आत्मकथा नहीं है जिनमें हम आत्मकथाओं को देखने के आदि हैं। इस पुस्तक की मूल दृष्टि मजलूम राष्ट्रों और निरपराध नागरिकों पर युद्ध थोपने के विरूद्ध संगठित बौद्धिक शक्ति का संचार करके मानवीय सांस्कृतिक मोर्चे के पुनर्जागरण की लेखकीय महत्वाकांक्षा है। बिना युद्ध की घोषणाओं के युद्ध, यातना शिविर, अनवरत उत्पीड़न, डकैतियां, निर्दोष शहरों-गांवों पर बमबारी मानवता को आक्रांत किये हुए हैं और स्टीफन स्वाइग ने अपने यहूदी मूल के कारण जो भी इसके चलते भोगा, वह इतना त्रासद और भयावह था कि उस जैसे संवेदनशील व्यक्ति और महानतम लेखक को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा। अपनी मृत्यु की ‘घोषणा’ में स्वाइग ने अपने जीवन की समग्र पीड़ा को इन शब्दों में व्यक्त किया हैः ‘जिंदगी के साठवें सावन के बाद, फिर से नई शुरुआत करने के लिए बेहिसाब ऊर्जा चाहिए होती है। मेरे पास जो थी वह बरसों-बरस बेघर भटकने में खर्च हो गई।’ यह रक्तपिपासु, फासीवादी और विश्व विजय का सपना देखने वाली हिटलरी ताकतों द्वारा दिये गए जख्मों का नतीजा था। स्वाइग के जीवन काल में इजराइल का विचार मजाक भर था। वह कभी फिलस्तीन की धरती पर नही गया था। उसकी भाषा हिब्रू नहीं, जर्मन थी। फिर भी उसे इसलिए बेघर और प्रताड़ित किया गया क्योंकि वह जन्म से यहूदी था।
स्वाइग की लेखकीय कलात्मकता का ही यह कमाल है कि इस ‘जीवनी’ में से उसका व्यक्तिगत जीवन पूरी तरह खामोश और लगभग गायब है। यह सायास और सचेतन है। यही इसे मानवीय सरोकारों के प्रति अधिक संवेदनशील और सार्थक बनाता है। युवतर वय से ही वह विश्वविख्यात लेखकों की रचनाओं, विचारों और व्यक्तित्वों से भली-भांति परिचित था। अपने वक्त पर किताबों और शख्सियतों के पड़ने वाले प्रभाव और उनकी गैरमौजूदगी के कारणों की पड़ताल में वह हमेशा अग्रसर रहा है। और इसी लक्ष्य दृष्टि के चलते उसने डिकन्स, बाल्जाक, रोमा रोलां, टॉल्सटॉय, फ्रायड,दोस्तोवस्की, नीत्शे, वेरहारन जैसे महान लेखकों की जीवनियां लिखीं जिनमें अद्भुत मानव-चेतना अंतर्निहित है। अपने हर रचनात्मक काम को वह किसी वास्तविक चीज तक पहुंचने का खाका मानता था। यही रचनात्मकता उसके लिए आने वाले वास्तविक काम की तैयारी भी थी। इस दौरान बनते विरोध पक्ष को वह अपनी कामयाबी मानता था।
‘हमें तो जिंदगी ने ताउम्र छकाया। अपनी जड़ों से कट गए, हर मंजिल के बाद नई शुरुआत करनी पड़ी… किसी अज्ञात रहस्यमयी ताकत की कठपुतली बने रहे। आराम और सुरक्षा के लिए हमारे बचपन के सपने रहे हैं।’ बचपन की अपनी सुरक्षा में भी स्वाइग ने मानवीय विवेक को अपनी पूरी संवेदना में महसूस किया था। ‘धर्म’ की रूढ़ियों ने उसे कभी नहीं जकड़ा। फिर भी वह बेहतरीन ढंग से जानता रहा था कि सुरक्षा के हर खोल के नीचे बहुत-सी विध्वंसकारी शक्तियों का ‘अंडरवर्ल्ड’ मौजूद रहता है। वियना के लोगों का ‘जियो और जीने दो’ का उसूल मानवीय सरोकारों को इतना व्यापक बनाता था कि बालों का सफेद होना तक व्यक्ति को मर्यादित करता था। किंतु यह विडंबना है कि जब यही व्यक्ति अपनी इस ‘आत्मकथा’ को लिखने बैठा तो उसके पास कुछ नहीं था- कागज और कलम को छोड़कर कोई किताब, मित्रों के पत्र या नोट्स जैसा भी कुछ नहीं। उसके लिए मानव जीवन नारकीय हो चुका था, लेकिन संसार तब भी जीने लायक था। यह बहुत दयनीय स्थिति थी कि स्वाइग जैसा व्यक्ति युद्ध और युद्धोत्तर वर्षों की गहन थकान के चलते शांति और सुकून तलाश करता हुआ, दूर-दूर भटकता रहे लेकिन उसी से हमेशा वंचित रहे। इसी कठिन यात्रा से दौरान उसने यह अनुभव किया कि विज्ञान जैसा दूसरा अभिशाप मानव जीवन के लिए है ही नहीं, जिसने मनुष्य को उसके वर्तमान से पल भर के लिए भी अलग होने की मनाही कर रखी है।
इतने जबरदस्त सरोकारों की पुस्तक को तलाश कर, उसकी व्यापक चिंताओं और ऐतिहासक संदर्भों को खोज निकालना और उसका अनुवाद कर डालना ओमा शर्मा के श्रम और इच्छाशक्ति का प्रमाण है। इसी बाच हिंदी में प्रचलित ‘ज्विग’ संबोधन को ओमा ने ‘स्वाइग’ बना दिया। ‘दूसरे विश्वयुद्ध से उत्पन्न अनिश्चितकालीन भयावह स्थितियों के चलते खुद को बचाए रखने के लिए उसने अपनी ऊर्जा को सृजन के शैतान के हवाले कर रखा था।’ स्वाइग पर ओमा की यह टिप्पणी उसके ‘टेक्स्ट’ के अंतरंग पाठ के लिए ललकारती है।
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