‘‘भविष्यदृष्टा’ चर्चित कहानीकार ओमा शर्मा का कहानी संग्रह है जिसका हिंदी जगत में पर्याप्त स्वागत हुआ है। संग्रह की कहानियां पढ़ते हुए ठीक वैसा ही महसूस किया जैसा कि रचनाकार ने ‘परिशिष्टः आंच के बाच आस्था’ में लिखा है कि, ‘जीवन की बढ़ती जटिलताओं के बीच पर्याप्त सादगी से प्रवेश किया जा सकता है’। संग्रह की नौ कहानियों की कथावस्तु में पर्याप्त विविधता तो है ही, अपने आख्यान और शिल्प में भी ये महत्वपूर्ण हैं।’
पहली और शीर्षक कहानी ‘शुभारंभ’ में एक ऐसे ईमानदार और आदर्शवादी अधिकारी का अंतर्द्वंद्व उभरकर आया है, जो पहली बार रिश्वत लेता है। शिव और अशिव के दीर्घ द्वंद्व के बीच पनपा अपराधबोध आखिरकार खत्म हो जाता है। कथानायक के शब्दों में, ‘मणीलाल दरवाजा भेड़कर निकला ही होगा कि नोटों का वह मनहूस पिटारा मेरी लरजती पसीजी उंगलियों में सरक आया और किसी करिश्मे की तरह गीता के श्लोकों का स्मरण दिलाता हुआ मेरे ब्रीफकेस में समा गया।’ ‘जनम’ कहानी ट्रेन की यात्रा में कथानायक और सहयात्री होमियोपैथी डॉक्टर के वार्तालाप पर आधारित है। जीवन और जगत के अनेक दार्शनिक प्रश्नों को उद्घाटित करती यह कहानी रोचक और कुतूहल से भी परिपूर्ण है।
‘भविष्यदृष्टा’ में कथानायक के सहपाठी आदित्य नारायण सतपती का जीवन संघर्ष हमारी संवेदना को झकझोर कर रख देता है। एक नाटकीय घटनाक्रम से प्रारंभ कहानी फ्लैशबैक में पर्त दर पर्त सतपती के जीवन संघर्ष को बया करती हुई संवेदना के चरम बिंदु तक हमें ले जाती है। डी-स्कूल यानी ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकानॉमिक्स’ का वातावरण, छात्र जीवन की मौज-मस्तियां, पढ़ाई, प्रेम-व्रेम और इन सबके बीच सतपती की निर्धनता, अभावग्रस्तता में मित्रों का सहयोग, क्लासमेट ज्योति का निश्छल अनुराग अंततः रेलवे में एक साधारण-सी नौकरी, वह भी अपने होने वाले श्वसुर की सिफारिश पर। पत्नी को मिरगी की बीमारी-फलस्वरूप उसकी बच्ची का भी इस रोग से प्रभावित होना। ज्योतिष ज्ञान के कारण दूसरों का भविष्यदृष्टा सतपती अपने व्यक्तिगत जीवन में कितने दुःख और संघर्ष का भोक्ता है, बावजूद जीवन से उसे कोई भी शिकायत नहीं है। इस सबको बहुत संवेदना के साथ ओमा शर्मा ने रेखांकित किया है।
‘नवजन्माः कुछ हादसे’ कथ्य और शिल्प की नूतनता के साथ चार लघुकथाएं हैं, नवजात बेटी के पिता द्वारा अपने मित्रों को फोन पर पिता बनने की सूचना दी जाती है। उधर से बधाई के बजाय उत्तर आधुनिक समाज के मित्रों द्वारा भी उसे क्या-क्या सुनना पड़ता है, यहीं इन लघुकथाओं की विषयवस्तु है। ‘मर्ज’ दिल्ली जैसे महानगर में में साधारण से नौकरपेशा ‘मामूजान’ की कहानी है। अपने भांजे के एडमीशन की जद्दोजहद अभावग्रस्तता और उस पर अचानक मुसीबत बनकर आई दिल की बीमारी। उसके अजीज मित्र गोविल साहब का सहयोग और भाग्य पर आस्था। इन सबके महीन ताने-बाने से बुनी कहानी हमारे मर्म को स्पर्श करती है। यह कहानी सिद्ध करती है कि ओमा शर्मा जिस चरित्र और परिवेश को प्रस्तुत करते हैं, उसमें गहराई तक डूबकर एक नाटककार की तरह उन्हें दृश्य बना देते हैं, मात्र सूच्य नहीं। ‘काई’ एक लंबी कहानी है। कहानी की शुरुआत कथानक आयकर उपायुक्त के अपने स्कूल, जहाँ उसने लगभग बीस वर्ष पूर्व पढ़ाई की थी, में पहुंचने से होती है। प्रिंसिपल और अपने अध्यापकों के साथ वार्तालाप और अपने छात्र जीवन की स्मृतियों में आवाजाही के बीच बहुत रोचक और बतरस शैली में यह कहानी आज की शिक्षा व्यवस्था में व्यवसायीकरण, मूल्यों के क्षरण और भ्रष्टाचार को पर्त दर पर्त उघाड़ती चलती है। रचनाकार ने स्कूल के वातावरण का कितना सजीव चित्र किया है। “श्यामू ने स्कूल के बारे में पहले ही बता दिया था कि आजकल तिलक राम, अरे वोई गणित वारौ, पैंसीपल है गोय। है तो बामन पर पैसन के कारण सुनता बनियों की है। मैनेजमेंट में कैइ आदमी वई के हैं। पिछले तीन-चार साल में चार-पांच मास्टर ‘लगवा’ दिए हैं- एक लाख के रेट से। अपने गांव के भूदेव और भीम सिंह, जो सारे (साले) दीहाओं की तरह जूतियां चटकाते फिरते थे, यई मारै आजकल मास्टरजी बने फिरै हैं, मौज है गई सासकेन की। पांयपैड़ (नजदीक) भी बिना स्कूटर के ना चलैं और ससुर नौं समझैं जैसे लियाकत से नौकरी मिली हो, अब तो ईमानदारी की बात है, बस धींगामस्ती होती है। एक मास्टर पढ़ाने को तैयार नहीं है। पहले फिर भी दो-चार पढ़ाते थे, अब तो सब झंरा न्यौते की तरह ट्यूशन पीटैं हैं, तुम्हारे मन में भौत है न जाने की, तो हो आओ। कर लो तसल्ली।”
‘वजूद का बोझः तीन कहानियां’ शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह एक कहानी न होकर तीन लघुकथाएं हैं। ‘एकः संकट का संपर्क’ नववर्ष की डायरी में एक कालम को भरने से शरू होती है। एक-एक कर आत्मीय मित्र, सहकर्मी याद आते हैं, पर ऐसा कोई भी नजर नहीं आता, जो संकट में काम आ सके और अंततः वहां उसने लिखा, “किसी को नहीं।” ‘चौरासीलाखवा जन्म’, एक विचार प्रधान लघुकथा है, जिसके माध्यम से कहानीकार यह कहना चाहता है कि, “प्रकृति ने एक जीव को दूसरे का आहार या आश्रित क्यों कर बनाया। प्रकृति यदि मां है तो वह न्याय की किस कलम के तहत एक जीव को दूसरे की जान लेने पर आमादा कर सकती है।” कदाचित यही बात मुष्यों पर भी लागू होती है, जब कथानायक टी.वी. पर इथियोपिया के सूखे से पीड़ित कंकाल स्त्री-पुरुष, बोस्नियां के युद्ध में अंग-भंग बूढ़े और बच्चे देखता है अथवा उसे अपने आस-पास पैंतालिस डिग्री तापमान में डामर की सड़क पर भीख मांगते बच्चे, दिन भर काम में खटने के बावजूद अपने शराबी पति से पिटती कामवाली अथवा सद्यः जन्मा बच्चे को सूप में रखकर भीख मांगती औरत दिखाई देती है। ये सारे दृश्य कहानीकार को कहीं न कहीं यह सोचने पर विवश कर देते हैं कि कदाचित शोषक और शोषित के बाच आज भी वही संबंध हैं, जो जंगल में शेर और हिरन के बीच होता है। फिर भी इंसान आखिर सभी योनियों में श्रेष्ठ क्यों? इन कहानियों के माध्यम से कहानीकार जीवन के अनेक ऐसे दार्शनिक प्रश्नों से भी टकराता चलता है। ‘झोंका’ में शादीशुदा, दो बच्चों के पिता तीस-बत्तीस वर्षीय कथानायक का अपने से लगभग दस वर्ष छोटी युवती के प्रति आकर्षण का वर्णन है, जो उसे व्यायाम केंद्र पर दिखाई देती है। एकाध बार युवती द्वारा उसे देखकर मुस्कराने, ‘हलो’ और ‘हाउ आर यू’ को कथानायक ‘प्यार-व्यार’ समझने की गलती कर बैठता है। कहानीकार ने स्त्रियों के प्रति पुरुषों की देहासक्ति का बड़े ही रोचक और मनोवैज्ञानिक ढंग से चित्रण किया है, साथ ही स्त्री मनोविज्ञान की जटिलता का भी। कथानायक का एक उद्धरण है, “लड़कियों की इसी जटिलता से मुझे चिढ़ है। जो उनमें रुचि लेगा, उसके प्रति तो हो जाएंगी तटस्थ और बेरुख, और जो उन्हें नजरअंदाज करे, उसके लिए करेंगी सांगोपांग समर्पण।” ‘कंडोलैंस विजिट’ में एक ऐसे कर्तव्यपरायण कर्मचारी का वर्णन है, जो अपने अधिकारी ‘निगम साहब’ के लिए अत्यंत उपयोगी है। सहज, सरल, कर्तव्यपरायण, विनम्र और सेवाभावी ‘सोनकर’ जितना कार्यालय में आज्ञाकारी है, उतना ही अपने अधिकारी के व्यक्तिगत कार्यों में भी, लेकिन उसी ‘सोनकर’ की मां का जब देहांत हो जाता है, तब ‘निगम साहब’ को संवेदना के दो शब्द व्यक्त करने की भी याद नहीं रहती और अंततः जब वे कंडोलैंस विजिट करते भी हैं तो कुछ ऐसे कार्यों के लिए, जिन्हें ‘सोनकर’ से संपन्न कराना है। लेखक के शब्दों में ‘सरकारी कामकाज के चलते आदमी में भवनाएं, संवेदनाएं असमय ही दम तोड़ देती हैं।’ कार्यालय का वातावरण अधिकारियों, कर्मचारियों का आपसी व्यवहार, चापलूसी, ट्रांसफर, पोस्टिंग आदि वर्णनों के बीच जड़ होती मानवीय संवेदना कहानी को जीवंत बनाती है।
ओमा शर्मा की कहानियां पढ़ते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि उनकी कहानियां शिल्प के आतंक से रहित हैं। भाषा की सादगी के बावजूद वे हमारे अंतःकरण को झकझोरने में सक्षम हैं। पात्र और उनका चरित्र-चित्रण ऐसा है, गोया हम इन पात्रों के सुख, दुःख और उनके जीवन-संघर्ष में शामिल हों। पठनीयता, संप्रेषणीयता और कुतूहल इन कहानियों की अतिरिक्त विशेषता है।
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