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योगेन्द्र आहूजा: अदाब से मुठभेड़ (कथादेश, जुलाई, 2016)

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

शायद ऐसा कोई आकलन या सर्वेक्षण कभी नहीं हुआ कि साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा कौन सी है?  इसका निर्धारण करना वाकई बहुत मुश्किल है, अनावश्यक भी। फिर भी, शायद बिना विवाद के, या बिना अधिक विवाद के, कहा जा सकता है कि पत्र पत्रिकाओं में जो चीजें सबसे पहले पढ़ी जाती हैं, वे होते हैं इन्टरव्यूज। उनके बाद शायद संस्मरण। यहां हमारे मन में प्रश्न उठता है: क्या साहित्य के मायने ही संवाद नहीं हैं? जैसा मुक्तिबोध कहते हैं- साहित्य हमेशा अन्य से संवाद है, और एक सर्जक की, उसके कर्म की पहली और बुनियादी जरूरत है ‘अन्य’  तक  पहुंचना, अपने ‘आत्म’ की घेरेबंदी तोड़कर। लेखक का सत्य अपने में स्वायत्त और आत्मतुष्ट नहीं होता, वह हमेशा दूसरे तक पहुंचकर ही परिपूर्ति हासिल करता है। अगर साहित्य अपने में संवाद  है, चाहे तीखी बहस के रूप में हो या आत्मीय वार्तालाप के तो साहित्यकार से अलग से वन टू वन संवाद… उसकी आवश्यकता क्यों अनुभव की जाती है? लेखकों और कलाकारों की जिंदगियों के ब्यौरों, परिवेश, आग्रहों, चिंताओं, नफरतों, लगावों… इनके अलावा उनकी सृजन प्रक्रिया, वैचारिकी, अंतर्विरोधों और रचनाओं के अंतर्तत्वों को जानने-समझने के लिए साक्षात्कारों का महत्व असंदिग्ध है… लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं। रचनायें हमेशा किन्हीं सवालों की उपज होती हैं और पाठक को भी केवल सवाल देती हैं। ऐसा नहीं कि लेखक की रचनाओं में जो सवाल होते हैं, उसके साक्षात्कार में हमें उनका कोई जवाब मिल पाता है। लेकिन वे लेखक के साथ मिलकर उन सवालों को और साफ करने की एक कोशिश होते हैं- और इस कोशिश में वे कभी कभी आलोचना से भी आगे जाकर, और उससे कहीं अधिक, कहीं गहराई से, और कहीं अधिक सारगर्भिता के साथ रचनाओं के मंतव्य को और रचनाकार के अंतर को उजागर करने लगते हैं। मगर क्या हर साक्षात्कार या कोई भी साक्षात्कार?

‘अदब से मुठभेड़’, इस किताब में हमारे वक्त के पांच महत्त्वपूर्ण रचनाकारों – चार साहित्यकार और एक कलाकार- से ओमा शर्मा जी के अलग अलग लिए गये साक्षात्कार संकलित हैं। राजेन्द्र यादव, प्रियंवद, मन्नू भंडारी, हुसैन साहब और शिवमूर्ति। मगर यह किताब केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि ये व्यक्तित्व महत्त्वपूर्ण हैं, दरअसल यह किताब, साक्षात्कर्ता के अनचाहे, अनजाने ही साक्षात्कारों की एक सैद्धांतिकी जैसी बन सकी है- इन्टरव्यूज को कैसा होना चाहिए, और कैसा नहीं होना चाहिए। लेखकों कलाकारों सर्जकों से इंटरव्यू… आप उन्हें निजी रूप से जानते हों तो भी यह कोई निजी रूप से जानते हों तो भी यह कोई निजी बातचीत नहीं होती। यह गपशप नहीं होती। मगर वह क्लास रूम या सेमिनारों के संवादों जैसी निर्वैयक्तिक भी नहीं हो सकती। बेशक यह शालीनता के दायरे में रहकर की जाती है मगर रचनाकार की सुविधा से नहीं। उसमें असहज करने वाले असुविधाजनक सवाल होते हैं, लेकिन इंटैरोगेशन की तरह नहीं। उसमें निरूत्तर करने वाले सवाल भी हो सकते हैं लेकिन फैसलाकुन अंदाज में नहीं। एक अच्छे इंटरव्यूकार को पता होता है कि उसे किस बिंदु तक प्रोब करना है, और कहां लेखक को अकेला छोड़ देना है। और सवाल साक्षात्कर्ता के निजी नहीं हो सकते। वे पूरे पाठक समुदाय के सवाल होते हैं; साक्षात्कर्ता  उन्हें रिप्रेजेंट करता है। जैसे इस किताब में राजेन्द्र यादव से बातचीत।

राजेन्द्र जी बहुत इंटरव्यू देते थे। जितने इन्टरव्यूज उनके प्रकाशित हुए हैं, उतने कम ही लोगों के हुए होंगे। मगर इस किताब में उनसे बातचीत महज एक और इंटरव्यू नहीं। यहां वे सारे सवाल हैं  जो उनसे किये जाने वाले किसी भई इंटरव्यू में अपरिहार्य हुआ करते थे। दलित साहित्य, महिला लेखन, आरक्षण आदि पर उनकी प्रस्थापनाओं पर एक जीवंत मुठभेड़… उनके सरोकारों के आंतरिक तत्वों को उनके अंतर्विरोधों के साथ पकड़ने की एक कोशिश। मगर यह बातचीत असल में उन राजेन्द्र यादव को जानने की कोशिश है जो डिजाइनर पहनावों, विचित्र आचरण और विवादित बयानों के तामझाम के पीछे छिपे रहते थे। राजेन्द्र जी गोशा-नशीनी के न आदी थे न हामी।  उन्हें लोगों का संग साथ, हमेशा मित्रों से गिरे रहना पसंद था। उन्हें समारोह और शोरगुल और रोशनियां पसंद थे। लेकिन इस किताब में उनका जो इंटरव्यू है, बताता कि उनके भीतर कहीं एक निर्जन बियावान भी था। ओमा शर्मा इस इंटरव्यू में उनके अकेलेपन, उस बियावान में जितनी दूर तक जा पाते हैं, संभवतः कोई अन्य नहीं गया होगा । फिर एक बिंदु वह भी आता है जब यह राजेन्द्र यादव का राजेन्द्र यादव से साक्षात्कार बन जाता है। वे अपने सवालों से उन्हें उनके ‘आत्म’  के करीब ले जाते हैं जहां वे खुद से  बातचीत करते हैं। वहां ओमा केवल खामोशी से सुनते, दर्ज करते हैं।

ऐसा करिश्मा रोज-रोज या हर इंटरव्यू में नहीं होता। इस किताब में भी हर इंटरव्यू में हुआ हो, ऐसा नहीं है। दूसरा साक्षात्कार है… अपने भाषायी विन्यास से सम्मोहित, बल्कि मदहोश कर देने वाले अनूठे लेखक प्रियंवद से। कानपुर के सिविल लाइंस की बंद गली के आखिरी मकान में, किताबों के हुजूम के बीच, उनकी एक कहानी की याद दिलाते एक पुराने ‘पलंग’ के करीब, चमड़ा उद्योग की चिमनियों के धुएं से घिरे हुए, ओमा वे सारे सवाल करते हैं जो प्रियंवद के पाठकों के मन में अरसे से रहे होंगे- मसलन लिखने की शुरूआती कोशिशें, प्रिय लेखक, रचनाओं के स्रोत, उनके सरोकार, जीवन दर्शन, नफरतें, लगाव, प्रेम संबंध और उनकी राजनीतिक दृष्टि और इतिहास के प्रति लगाव। वे उनकी बहुत सी चर्चित कहानियों के स्रोतों और रचना प्रक्रिया को जानना चाहते हैं, यह भी कि वे अघोरी और छिपकली का नशा करने वाले और किसी गुजरी सदी के खानदानी खानसामा जैसे चरित्र कहां से लाते हैं। जवाबों से नये सवाल निकलते हैं, वे बहुत देर तक लेखक का पीछा करते हैं। फिर भी लगता है कि बहुत से सवाल रह गये जो प्रियंवद सरीखे विचारशील लेखक से जरूर किये जाने चाहिए थे। क्या सारा परिदृश्य डार्क और डरावना है या वो कहीं नयी वैचारिकता, नयी उम्मीद भी देख पाते हैं। जिंदगी के हादसे और आघात और अफसोस। हताश वक्तों में किन बातों ने आहत किया, किनने सहारा दिया? उन वक्तों में साहित्य से किस प्रकार ताकत और अग्नि अर्जित की? शायद यह निराशा मेरी निजी हो लेकिन वे बातचीत में अतिरिक्त सजग, सावधान नजर आते हैं। वे कहीं वल्नरेबल नहीं होते, कोई कमजोर पल नहीं आता, कहीं कोई दरार नहीं दिखती। शब्दहीन हो जाने जैसा कोई पल नहीं आता, उनके अकेलेपन में दाखिल होने का कोई रास्ता नहीं खुलता। नतीजतन  बहुत सारी बात उनके दिल में ही दफन रह जाती हैं और बातचीत पूरी हो जाती है।

मगर इस मायूसी को जो पूरी तरह मिटाती है वह है चित्रकार हुसैन से हुई बातचीत। इस किताब की सबसे दिलचस्प बातचीत यही है- दिलचस्प इसलिए कि ओमा किसी कलामर्मज्ञ की आदायें नहीं ओढ़ते, कला और कलाजगत की विशद जानकारियों के बजाय वे कल्पनाशीलता, उत्सुकता और साहस का सहारा लेते, लेकिन बातचीत बराबरी के लेवल पर ही करते हैं – बेलिहाज और बेछूट।  हुसैन से यह बातचीत कला के किन्हीं रहस्यवादी, इंद्रियातीत या गुह्य मनीषियों के बारे में नहीं है, इसलिए संभव है कि वह कला मनीषियों को कुछ निराश करे। एक गैरमुल्क की गर्म आबोहवा में हुए इस इंटरव्यू की शुरूआत ही हुसैन के भड़क उठने से होती है। बस टेप रिकार्डर उठाकर फेंकना ही रह जाता है। वे एक से ज्यादा बार भड़क उठते हैं या नाराज होकर, चुप्पी साधकर बैठ जाते हैं। उन्हें मनाना, फुसलाना पड़ता है। हुसैन के बारे में इतना लिखा गया है, और उनकी आत्मकथा भी प्रकाशित है… लगता है कि उनके जीवन और शख्सियत का कुछ भी अज्ञात नहीं फिर भी इस बातचीत से हमें उन्हें कुछ और जान पाने का एहसास होता है। वे कला के मायने और जरूरत, उसका विक्रय तंत्र और कला की सामाजिक भूमिका के बारें में हुसैन का मन टोहते हैं। सीता और सरस्वती के विवादित चित्रों के बारे में कुछ भी बातचीत करने पर वे आक्रामक हो उठते हैं जबकि यह हिंदू अतिवादियों के एतराजात को ध्वस्त करने का, उनका प्रतिवाद करने का, उनकी अतार्किकता को उजागर करने का भी एक अवसर हो सकता था …”ये सब बंद कीजिये, क्या वाहियात सवाल है…” इसकी जगह काश वे अपना मन खोलते, कोई सार्थक बात कहते। सिर्फ यही नहीं, अन्य अनेक जगहों पर भी उनके जवाब इस कदर सतही या कामचलाऊ या एकतरफा जान पड़ते हैं कि ताज्जुब होता है। हमें याद करना होता है कि वे एक कलाकार थे, विचारक नहीं।  कला के विचारक तो और भी नहीं।  कलाकार की दुनिया अकेलेपन और उपेक्षा की एक सादी और खामोश दुनिया होती है मगर हुसैन के संदर्भ में वह एक शानदार जगर-मगर दुनिया थी, बाजार और सुर्खियों से जुड़ी। यह एक वाजिब सवाल होता कि उन्होंने कला का वह राजमार्ग क्यों चुना जो उदासी और अंधेरे  और निर्जनता से चमक दमक की ओर जाता था। यह भी कि उन मुक्तिबोध का उनके द्वारा बनाया चित्र कहां है जिनकी शवयात्रा में जलती जमीन पर नंगे पांवों चलने का उन्होंने इतनी बार बखान किया था? क्या उस कलाकृति से बेइंसाफी और उत्पीड़न के खिलाफ किसी हस्तक्षेप की उम्मीद की जा सकती है जिस पर एक महंगा प्राइस टैग लगा होता है? बल्कि अक्सर जो रचना से पहले ही खरीदी जा चुकी  होती है? यह (इन्हीं शब्दों में नहीं) उस इंटरव्यू का सबसे सार्थक सवाल है जिसके आगे हुसैन निरुत्तर नजर आते हैं, केवल एक कामचलाऊ जवाब दे पाते हैं। फिर भी यह एक यादगार इंटरव्यू है, इसलिए कि यहां पहली बार हमारी मुलाकात एक कमजोर, वेध्य, गुस्सैल हुसैन से होती है- और उस जलावतनी के एहसास के चलते भी जो पार्श्व में एक उदास धुन सरीखा बजता रहता है।

ताजिकिस्तान जैसे सुदूर मुल्क की सबसे लोकप्रिय लेखिका, मन्नू भंडारी से साक्षात्कार जो उनकी गंभीर बीमारी के बीच दर्द  और तकलीफ को परे धकेलकर दिया गया, एक बिल्कुल अलग अनुभव है। वह पाठक को ‘नयी कहानी’ के रोमांचक और सरगर्म दिनों में वापस ले जाता है, जब बयान के नये तरीके और रीतियां ईजाद किये जा रहे थे और हत्यारों ने अपना जाल बुनना अभी शुरू नहीं किया था। यह इंटरव्यू जैसे मन्नू जी की ही कोई लंबी कहानी हो- एक घरेलू  दिखने वाली, ‘बौद्धिक तड़क भड़क से दूर’, सीधी सादी संकोचशील लेखिका, उस वक्त के नामचीन लेखकों के बहुत करीब रहते हुए भी उनसे बेपरवाह, सिर्फ अंतःप्रेरणा से मार्गदर्शन लेती, एक तनाव भरे दाम्पत्य के बीच खामोशी से अपना काम करते हुए किस प्रकार ‘महाभोज’ और ‘आपका बंटी’  जैसे उपन्यासों और बेशुमार कहानियों में अपने समय का एक विश्वसनीय साक्ष्य रच पाती है, यह जानना एक मार्मिक अनुभव है।

जिस प्रकार कह कलाकार या लेखक की दुनिया अलग होती है, उसी तरह यहां तक जाने के रास्ते भी समान नहीं होते। अगर प्रियंवद की दुनिया तक जाने का रास्ता सुरंग सरीखी व्यूहात्मक और उलझी हुई गलियों से गुजरता है तो ‘अकालदंड’, ‘कसाईबाड़ा’ और ‘केशर कस्तूरी’ जैसी अपूर्व कहानियों के रचनाकार शिवमूर्ति के संदर्भ में यह एक तपती हुई पगडंडी है, बीच बीच में गुम हो जाती हुई। शिवमूर्ति से लंबी बातचीत इस किताब का आखिरी इंटरव्यू है। यह भी अऩ्य लेखकों की तरह उनकी कहानियों के स्रोतों और तंतुओं, उनके रचे जाने की प्रक्रिया और जीवन प्रसंगों के बारे में है।  शिवमूर्ति इस बातचीत में अपने अंतर्मन को जिस तरह अनावृत्त करते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है। यहां भी रचनाओं के फार्म और विषयवस्तु  की पड़ताल है, तथ्यों और सूचनाओं का जखीरा है, और यादों का एक बेछोर सिलसिला- लेकिन बीच बीच में विस्फोट की तरह आने वाले ऐसे लम्हे बेशुमार हैं जब इस महादेश का विकराल और लोमहर्षक यथार्थ, सर्वदा घात लगाये- जैसे अचानक सामने आता और आपके कंधे बेरहमी से झिंझोड़ देता है।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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अन्तरयात्राएं वाया वियना 20160516_145032-1 अदब से मुठभेड़

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