दुनिया भर में हम जाने कहाँ-कहाँ की यात्राएँ करते रहते हैं और उनको देखने समझने का हमारा अपना एक नजरिया भी होता है। इन यात्राओं में कई बार हम उन्हीं दुनियाओं की तलाश करते हैं जहां से निकल कर हम आए हुए होते हैं। ओमा शर्मा की हाल ही में प्रकाशित‘अंतरयात्राएं वाया वियना’ इस दृष्टि से कुछ अलग हटकर है। इसमें प्रमुखतः यूरोप के यात्रा-वृतांत संकलित हैं किंतु, इन यात्राओं के पीछे एक खास दृष्टिकोण है- जर्मन लेखक-साहित्यकार स्टीफन स्वाइग के माध्यम से यूरोप और उसके संपूर्ण साहित्य को समझने की कोशिश। खास उद्देश्य से की गई यात्रा साहित्य का अपना महत्व होता है। यात्रा के दौरान लेखक का ध्यान अपने लक्ष्यों पर विशेष रुप से केंद्रित होता है। पूरी तैयारी के साथ की गई ऐसी यात्राएं सामान्य संस्मरणात्मक यात्राओं से कई मायनों में विशिष्ट होती हैं। जैसे हिंदी सराय को तलाशते पुरुषोत्तम अग्रवाल अस्त्राखान और येरेवान तक चले जाते हैं (हिंदी सराय, अस्त्राखान वाया येरेवान)। बौद्ध साहित्य को समझने की ललक कृष्णनाथ को नागार्जुनकोंडा से लेकर लाहौल-स्पीति की यात्राओं के संस्मरण को कलमबद्ध करने के लिए विवश कर देती है (नागार्जुनकोंडा कहाँ है, स्पीति में बारिस)। ओमा शर्मा स्टीफन स्वाइग के लेखन के कायल रहे हैं। उनके लेखन को समझने की ललक उन्हें स्वाइग से संबंधित स्थानों तक पहुंचाती है और जिसकी एक परिणति इस पुस्तक का प्रकाशन भी है।
स्टीफन स्वाइग बीसवीं सदी के महान जर्मन लेखकों में शुमार किए जाते हैं। नाटक, कहानी, जीवनी और उपन्यास के क्षेत्र में उनके कार्यों को पूरे विश्व में सराहा गया है। विश्व की अनेक भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। हिंदी में भी उनकी कई कृतियों के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। सस्ता साहित्य मंडल से ‘विराट’, ‘भाग्य की विडंबना’, ‘जिंदगी दाँव पर’ तथा आधार प्रकाशन से वो गुजरा जमाना, ‘एक स्त्री की जिंदगी के चौबीस घंटे’ तथा कायर जैसी रचनाएं प्रकाशित हैं। एक समय उनके नाटकों की यूरोप में धूम मची हुई थी। शायद कुछ-कुछ वैसा ही जैसा हिंदी में कभी मोहन राकेश के नाटकों की थी। हलांकि दिल्ली की तुलना सीधे वियना से नहीं की जा सकती। वियना सूरोप की सांस्कृतिक राजधानी हुआ करती थी। कला और साहित्य समाज के जरुरी उपादानों में शामिल था।
‘अंतरयात्राएं वाया वियना’ के पूर्व ओमा शर्मा ने स्वाइग की आत्मकथात्मक कृति ‘द वर्ल्ड ऑफ यस्टर्डे’ का अनुवाद हिंदी में वो गुजरा जमाना शीर्षक से किया है। वो गुजरा जमाना हिंदी अनुवाद का अद्भुत नमूना है। भाषा का प्रवाह, शब्दों का चयन, विषय के प्रति आत्मीयता दर्शनीय है। दो विश्व युद्धों के बीच के यूरोपीय साहित्य में रुचि रखने वालों के साथ-साथ अनुवाद के अध्येताओं के लिए भी यह पुस्तक उपयोगी है। पुस्तक में अच्छे अनुवाद के दर्जनों सूत्र हैं जो बरबस अज्ञेय, अमृतराय, शमशेर के अनुवादों की याद दिला देता है। बहरहाल वो गुजरा जमाना से स्वाइग के प्रति उपजी आत्मीयता वाया वियना में साफ दिखायी देती है। स्वाइग को तलाशते ओमा पहुंच जाते हैं उन ठिकानों पर जहां कभी स्वाइग रहा करते थे। आस्ट्रिया की सड़कों पर चलते हुए स्वाइग के पदचिन्हों को पहचानने की एक सजग कोशिश। आखिर इस आबो-हवा में कुछ तो ऐसा था कि इस देश ने दो विश्व युद्धों को अपने सीने पर झेलने के बावजूद कला और साहित्य को बचाने की हर संभव कोशिश की। यहाँ के नागरिकों की त्रासदी, उनकी चिंताओं, उस अंतहीन पीड़ा को क्या कभी कागज या कैनवास पर उतारा जा सकता है। अनहोनी की आशंकाएं, अपनों को खो देने का एहसास और अनंत तक फैले अंधकार के टुकड़ों को दुनिया के सामने रखने का जो साहस-कर्म उन दिनों जर्मन लेखकों ने किया उसको महसूस करने की कोशिश स्टीफन स्वाइग के बहाने ओमा शर्मा के लेखन में दिखाई देती है।
पुस्तक निजी नोट्स की मानिंद शुरु होती है “क्या कला, साहित्य रचनात्मकता का अपने देश-काल की जड़ों से कोई ताल्लुक होता है ? क्या स्थूल भग्नावशेषों से उन महान रचनाओं के सृजन की कमोबेश गवाही बरामद की जा सकती है जो एक वक्त उन्होंने दे छोड़ी थी ? या फिर यही कि कुछ सुरागों को पकड़ने का फितूरी जतन वायवीय होते हुए भी कितने चौतरफा ढंग से समृद्ध करते अनुभवों का बायस हो सकता है? वियना की सरजमीं पर उतरते हुए ऐसे न जाने कितने ख्याल भीतर कुनमुना रहे थे।” आगे वे लिखते हैं “लंदन पेरिस के बरक्स पर्यटकों की प्राथमिकता में वियना चाहे कहीं न टिके लेकिन मैंने इस शहर और इसके गली-कूचों को अपने प्रिय लेखक स्टीफन स्वाइग की मार्फत कब का महसूस कर लिया था। उसी की मार्फत ऑस्ट्रिया के साहित्य कला की दूसरी हस्तियों बीथोवन, मोजार्ट, फ्रायड और आर्थर स्निट्जलर के साथ जर्मन भाषा के दूसरे दिग्गजों- गेटे, रिल्के, टामस मान, काफ्का और नीत्से के कृतित्व को जानने की दिलचस्पी बढ़ी।” ओमा शर्मा यहाँ जिन साहित्यकारों का जिक्र कर रहे हैं उनमें अधिकांश बीसवीं सदी या दो विश्व-युद्धों के बीच सक्रिय थे। दो विश्व-युद्धों के बीच लिखी गईं अधिकांश कालजयी रचनाएं जर्मन या फ्रेंच में हैं। बाद में इनके अनुवाद अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में प्रकाशित हुए। भारत में स्कूल या कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाने वाला अंग्रेजी साहित्य अमूमन अंग्रेजी के साहित्यकारों का लिखा ही होता है। यूरोपीय साहित्य या अनुवाद के माध्यम से अंग्रेजी में उपलब्ध साहित्य को पढ़ाने का चलन विशेष प्रचलित नहीं है। इसलिए टामस मान, स्वाइग, रोमां रोला जैसे साहित्यकारों से आम पाठकों का परिचय ठीक से नहीं हो पाता। ओमा शर्मा ने स्वाइग के साथ-साथ अपनी पुस्तकों में यूरोप के कालजयी साहित्य तथा उसके महत्व का निरुपण यथा-स्थान किया है जिससे पाठकों की दिलचस्पी उनमें बढ़े और वे उनका अध्ययन भी कर सकें।
लेखक वियना में यहाँ-वहाँ आम लोगों को भी टटोलता चलता है कि आज लोग स्वाइग को किस रुप में या कितना याद रखे हुए हैं। होटल के काउंटर पर बैठी लड़की से स्वाइग के बारे में पूछते ही वह स्वाइग की उन रचनाओं का नाम लेती है जो वहाँ स्कूल के पाठ्यक्रमों में लगी हुई है जैसे श्यूश नावेल (शतरंज)। यूरोप ही नहीं पूरी दुनिया में बहुत-सारा साहित्य आज केवल पाठ्यक्रमों के माध्यम से ही बचा हुआ है। चिंता केवल इतनी है कि जिन साहित्यकारों ने एक समय पाठकों के दिल में जगह बनाई, पूरी दुनिया में जिनके प्रशंसक थे अचानक ऐसा क्या हो गया कि इतिहास के पन्नों पर उनके निशान ढूंढने में भी मुश्किल होती है। स्वाइग के साथ भी ऐसा ही कुछ होता है। एक समय स्वाइग यूरोप के सबसे चर्चित साहित्कारों में हुआ करते थे। उनकी रचनाओं को लोग हाथों-हाथ लिया करते थे। लेकिन धीरे-धीरे जैसे सबकुछ भुला दिया गया हो। हिंदी साहित्य में ऐसा होना बड़ी स्वाभाविक स्थिति लगती है, लेकिन ये बीमारी भी वैश्विक ही जान पड़ती है।
‘वाया वियना’ है तो यात्रा संस्मरण किंतु कई बार स्वाइग की जीवनी के रुप में स्वयं को प्रस्तुत करती है। ‘वाया बर्गथियेटर’ अध्याय को ही देखें- ओमा लिखते हैं- “बर्गथियेटर की भव्य और आलीशान (इन दो विशेषणों के बगैर यहाँ गुजारा नहीं) इमारत को देख मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। थियेटर संस्कृति के इस मर्कज को देख मेरे भीतर ‘वो गुजरा जमाना’ में दर्ज स्वाइग की टिप्पणी कौंध आई- “बर्गथियेटर कोई रंगमंच भर नहीं था जहाँ नाटक खेले जाते थे, वह अच्छे व्यवहार और बोलचाल की पाठशाला थी… बर्गथियेटर का कोई कलाकार या गायक रास्ता गुजरे तो टैक्सी ड्राइवर तक उन्हें पहचान लेते। हम बच्चे लोग उनके चित्र और ऑटोग्राफ इकट्ठे करते।“ ओमा शर्मा इस थियेटर को देख अपनी डायरी में दर्ज करते हैं- “हलके भूरे पत्थरों से बने इस थिएटर के गोलाकार शिखर पर शेक्सपीयर, गेटे, शिलर, ग्रिलपार्जर और मोलरी के गरिमापूर्ण आवक्ष सजे हैं। यानि दूसरी कलाओं की तरह थिएटर में भी वैश्विक सर्वश्रेष्ठ को साफ सलामी दी जा रही है। कला के प्रति दीवानगी का पहला इजहार स्वाइग को यहीं हुआ था, जब वह अभिनेताओं-गायकों के ऑटोग्राफ्स बटोरता। XXXX सन् 1911 में पहली बार उसके किसी नाटक ‘समुद्र किनारे का मकान’ का यहां मंचन हुआ था, जिसने तेजी से उभरते युवा लेखक की प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए।“ स्वाइग के विषय में किताब में ऐसे वर्णन आपको लगातार मिलेंगे। जिससे स्वाइग के विषय में और जानने की उत्कंठा बढ़ेगी।
‘कोशगासे-8’ उस घर का पता है जो स्वाइग की रचनात्कता के लिए सबसे उर्वर स्थानों में एक सिद्ध हुआ। 1907 से 1917 तक स्वाइग का यही पता हुआ करता था। अपने परिवार से मिली पर्याप्त संपत्ति ने उन्हें आर्थिक रुप से उन्हें इतना तो सबल बना दिया था कि वे अपना ध्यान पूरी तरह केवल साहित्य पर केंद्रित कर सकें। उन्होंने अपना पूरा जीवन लेखन के लिए समर्पित कर दिया था। ओमा टिप्पणी करते हैं- “उसने यदि अपने को लेखकी के प्रति समर्पित किया था तो इसलिए नहीं कि वह इससे बहुत शोहरत या धन हासिल करेगा बल्कि इसलिए किया था ताकि वह दुनिया के भीतर पैबस्त विभिन्न स्थितियों और चरित्रों के मार्फत कुछ ऐसे इंसानी सत्यों की शिनाख्त कर सके जो किसी साहित्य के विद्यार्थी की रचनात्मकता के प्रयास हो सकते हैं।“ साहित्य के प्रति स्वाइग का यह समर्पण ही था कि उन्होंने नाटक, कहानी और उपन्यास के साथ रोमां रोलां, बालजाक, डिकेन्स, टॉलस्टॉय, दोस्तोवस्की जैसे कई अमर साहित्यकारों की जीवनियाँ लिखीं। जीवनी साहित्य में इन्हें मील का पत्थर माना जाता है। स्वाइग की लिखी जीवनियों के माध्यम से भी ओमा शर्मा स्वाइग के मानस की पड़ताल की कोशिश करते हैं। उनके एक अध्याय का शीर्षक ही है ‘आत्मचित्रण और टॉलस्टॉय के बहाने स्वाइगः एक निरीक्षण’। एक जीवनीकार किन तत्वों को पकड़ता है और किन्हें छोड़ देता है टॉलस्टॉय के बहाने इसकी गहरी पड़ताल है- “और गौरतलब यह है कि स्वाइग बहुत संक्षिप्त होकर लिखता है। टॉलस्टॉय और दोस्तोवस्की जैसे अपने नायकों से वह बहुत प्रभावित और समर्पित था मगर जब उन पर प्रकाशनार्थ चीजों को 100-200 पेजों में समेटकर रख दिया। उनके पत्रों, डायरियों, कहानी उपन्यासों सहित दूसरी तमाम उपलब्ध सामग्री को वह अपने हिसाब से इस कदर छीलकर परोसता है कि पाठक उसके गद्य के साथ साँस रोककर रम सके। क्या भाषा की विराटता क्या उपमाएं, क्या सादगी। और सबसे बड़ी बात, अपने चरित्र और विषय में घुसने की कितनी मानसिक तैयारी। उसके जितनी मेहनत और श्रम करने वाला न तो कोई उसका समकालीन दिखता है, न पूर्ववर्ती-परवर्ती।”
‘स्विटज़रलैंडः सभ्यतागत निकष का साक्ष्य’ स्विटजरलैंड का बड़ा ही आत्मीय परिचय कराता है। उदारीकरण के बाद भारतीय पर्यटकों के लिए यूरोप किसी अजाने देश की तरह नहीं है। लोगों का आना-जाना लगा रहता है। इसलिए यूरोपीय स्थानों का वर्णन करने मात्र से यात्रा सहित्य की अपेक्षाएं पूरी नहीं होती। ओमा शर्मा ने स्विटज़लैंड पर लिखे संस्मरण में वहाँ के जीवन और साहित्य के विषय में बहुत कुछ जोड़ा है जो निश्चित रुप से पठनीय है- “स्विटज़लैंड दुनिया के सबसे अमीर देशों में गिना जाता है, लेकिन जीवन में लोगों के संतोष और संतुष्टि के नजरिए से यह दुनिया में अव्वल आता है। यानि दौलत होने के बावजूद उसे और हासिल करने की पूंजीवादी हवस यहाँ के लोगों में नहीं है। शायद इसीलिए यहाँ के औसत आदमी की उम्र अस्सी बरस से भी ज्यादा है।“
अंतरयात्राएं वाया वियना में यूरोप के साथ-ताथ असम, गुजरात, भारत के ग्रामीण परिवेश के मर्मस्पर्शी चित्रण हैं। भारत-बांगलादेश सीमा पर चलने वाले गायों की तस्करी, गुजरात के दंगों, शासन व्यवस्थाओं पर लिखे गए वृतांत भारतीय परिवेश की दयनीयता को व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं। भारत-बांगलादेश सीमा पर चल रही तस्करी ओपन सीक्रेट है। इन पर लगातार रिपोर्टिंग भी होती है और कार्यवाही भी, फिर भी सबकुछ चलता रहता है। असम के जीवन को उन्होंने बहुत बारीकी से देखा है। असम की तस्वीर देखिये- “गरीबी के समाजवाद के इस कुंड में जड़ तक इकहरापन समाया है। स्कूल की इमारत भी वैसी ही होती है- टीन के पतरों और बांस के जालों की। उसी रुपाकार में बिराजी एक मस्जिद को देखना दिलचस्प लगा, मानो खुदा कह रहा हो- मेरा क्या… जैसा देश वैसा भेष, जीवन तदर्थपन से अंटा हो तो इबादत उससे कैसे महरुम होगी?”
ओमा शर्मा मूलतः कथाकार हैं। अबतक इनके दो कहानी संग्रह ‘भविष्यद्रष्टा’ और‘कारोबार’ प्रकाशित हैं। इसलिए विषय की सटीक प्रस्तुति, प्रांजल भाषा, अपने परिवेश को देखने की तीक्ष्ण दृष्टि से उनके यात्रा संस्मरण पाठक को कहानी जैसा आनंद देते हैं। पुस्तक में भारत और यूरोप के अनूठे संस्मरणों के साथ अनेक रोचक जानकारियाँ हैं जो प्रसंग के अनुकूल होने के कारण और प्रभावी हो जाती है। आपको इस पुस्तक को एक बार जरुर देखना चाहिए।
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