बुजुर्गों के मुख से ‘हमारे जमाने में ऐसा…’ अक्सर चर्चा में इसी तरह के वाक्य और फिर उनके जमाने का विस्तृत वर्णन सुनने का मिलता है। गुजरे हुए वक्त की बातें करते-करते उनकी आंखों में चमक को बढ़ते हुए देखा जा सकता है। चेहरे पर सुख-दुःख के भावों को चढ़ते उतरते पढ़ जा सकता है। अधिकांशतः बीते हुए कल को, जो वो जी चुके, जो उनका अपना है, बेहतर साबित करने की कोशिश की जाती है। भावनाओं और आवेग में उसका निष्पक्ष व उचित मूल्यांकन नहीं किया जाता। डर, मानवीय रिश्ते, सामाजिक बंधन, लोभ और मोह कहीं न कहीं उस पर असर करते हैं। स्वयं से जुड़ी घटनाओं और अपने पक्ष को ही महत्व दिया जाता है। चर्चित और प्रमुख व्यक्तियों द्वारा लिखी गयी अधिकतर आत्मकथाओं में भी यही भावना होती है। सिर्फ मैं, मेरा और हमारा। और अधिक हुआ तो बीते हुए, स्वयं से संबंधित, किसी विशेष घटना-दुर्घटना पर स्पष्टिकरण, उसमें भी आत्मप्रशंसा। कई बार महत्वपूर्ण पहलुओं की रोचक बातें बताकर सनसनी पैदा की जाती है और आने वाली पीढ़ियां अपने जीवन नयाक को किसी उपन्यास के हीरो से अधिक कुछ समझ नहीं पाती।
महान जर्मन भाषी ऑस्ट्रियाई लेखक स्टीफन स्वाइग(1881-1942) की आत्मकता के अंग्रेजी अनुवाद ‘द वर्ल्ड ऑफ यसटर्डे’ का हिन्दी में भाषान्तर है-‘वो गुजरा जमाना’। शीर्षक का शब्दार्थ जहां पुस्तक के भावार्थ से पूर्णतः मेल खाता है वहीं उसे आत्मकथा कहना कुछ-कुछ गलत लगता है। यह अन्य आत्मकथाओं से थोड़ा हटकर भिन्न और इसीलिए चर्चित भी है। इसमें लेखक के समकालीन देश व काल, विशेषरूप से जर्मनी, ऑस्ट्रिया, फ्रांस और रूस के साहित्य, भाषा, कला, राजनीति, समाज व संस्कृति पर विस्तृत विवरण व निरपेक्ष-निष्पक्ष दृष्टिकोण मिलता है। पुस्तक पढ़ने पर लेखक के व्यक्तिगत जीवन व अन्य संबंधों के बारे में जानने की इच्छा बढ़ जाती है। परंतु कुछ दो चार लाइनों को छोड़ दें (जिसने कौतुहल और जिज्ञासा को और अधिक बढ़ाया ही है) तो संपूर्ण पुस्तक में लेखक के बारे में कोई भी जानकारी नहीं मिलती। अपवाद स्वरूप छोटी-मोटी घटनाओं को नजरअंदाज कर दें तो आत्मकथा में ‘आत्म’ अर्थात मैं कहीं नजर नहीं आता। कहा जा सकता है कि उपन्यास में नायक स्वयं कहीं भी नहीं है, वह सिर्फ एक आंखों देखी सच्ची खबर, विस्तार से विश्लेषण सहित निर्भीक होकर सुना रहा है। पुस्तक के अंत में अनुवादक ओमा शर्मा ने भी इसी बात को बड़े बेहतर ढंग से उठाया है। अनुवादक द्वारा पुस्तक में दिये गये फुट नोट्स हिन्दी पाठक को स्टीफन स्वाइग के लेखकीय संदर्भों की बहुत सी जानकारियां देते हैं जिसके लिए यकीनन उन्होंने (आम) अथक परिश्रम किया है, जो आजकल के लेखकों में कम ही दिखायी देता है।
बीसवीं सदी के महानतम साहित्यकारों में से एक हैं स्टीफन स्वाइग। जिन्होंने कविताओं से लेखन शुरू कर, नाटक, कथा साहित्य-कहानी, लघु कथा व उपन्यास और इस तरह साहित्य की सभी विद्याओं में लिखा। जिसका विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इनकी कई प्रमुख रचनायें बर्निंग सीक्रेट, अमॉक, बीवेयर ऑफ पिटी तथा एक अनजान औरत का खत इत्यादि पर अंग्रेजी तथा दूसरी भाषाओं में फिल्म का निर्माण भी हुआ है। लेखक ने अन्य विदेशी लेखकों की कई प्रमुख कृतियों का जर्मन भाषा में अनुवाद भी किया। लेखक की प्रसिद्धि की ऊंचाइयों और महत्व का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहां उनकी पुस्तकों की हजारों प्रतियां बाजार में आते ही बिक जाया करती थी वहीं हिटलर के शासनकाल में उनकी पुस्तकों पर विशेषरूप से रोक लगायी गयी थी। जबकि उन्होंने अपनी किसी भी रचना में कभी भी जर्मन गणतंत्र के खिलाफ नहीं लिखा। उल्टे यूरोप के प्रति उनका विशेष प्रेम और आकर्षण उनकी प्रत्येक कृति में झलकता है। परंतु उनकी ख्याति व यहूदी होना ही उनके लिए अभिशाप बना। नाजियों की अत्याचार की नृशंसता का ही असर था कि विश्व विक्यात मगर देश प्रेमी साहित्यकार को द्वितीय विस्व युद्ध के दौरान अपने ही देश को छोड़कर विदेशों में रहना पड़ा। फिर भी फासिस्ट ताकतों के पागलपन, पशुता और क्रुरता का लेखन में उल्लेख, लेखक की निजी कटुता से दूर है।
दोनों विश्वयुद्धों के दौरान व उनके मध्य काल का, पूर्वकाल से तुलनात्मक, विस्तृत और निष्पक्ष विश्लेषण लेखक की आत्मकथा को गंभीर साहित्य की श्रेणी में ला खड़ा करता है। संवेदनशीलता, गहनता और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रत्येक पृष्ठ पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। पाठक को भूगोल और समाज शास्त्र के साथ ही यूरोप के जी में झांकने का एवं समकालीन अन्य साहित्यकार रिल्के, रोदा, रोमा रोलां, गोर्की और फ्रायड को जानने व समझने का अवसर प्राप्त होता है। इतिहासमें दिलचस्पी वालों के लिए तो यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज व संदर्भ हो सकता है। भारत के संदर्भ में की गयी संक्षिप्त परंतु सटीक टिप्पणी, आज एक शताब्दी के पश्चात भी हमारी आंखे खोलने एवं दिल-दिमाग के सभी आस्थाओं को जड़ से हिला देने के लिए काफी है। लेखक के शब्दों में-‘मैं सन्न रह गया जब मैंने निचोड़े हुए जिस्मों की दुर्दशा, फीके चेहरों पर आनन्दविहीन संजीदगी, पूरे परिदृश्य पर अक्सर छाई क्रूर नीरसता और सबसे बढ़कर वर्ग और जाति का सख्त विभाजन देखा। थोड़ा हिचकते हुए मैंने उस इज्जत का स्वाद लिया जो किसी यूरोपवासी को मिलती। उसे वहां ऐसे सत्कार दिया जाता है मानो वह कोई सफेद भगवान हो।’
स्वाइग की प्रत्येक पुस्तक की तरह इस पुस्तक में भी भाषा बेजोड़ है। शब्दों का चयन अत्यंत सुंदर व सटीक है। प्रवाह, गतिशीलता व कथानक के मजबूत होने से, पाठक की दिलचस्पी बढ़ती जाती है। लेखक के विचार प्रयोगात्मक थे किंतु खेलकूद के प्रति उनके दृष्टिकोण को पढ़कर आज के नवयुवक को आश्चर्य हो सकता है जैसे कि-‘अधिकांश खेल, गांव-देहात की चीज मानी जाती रही और शारीरिक उछलकूद को समय की बर्बादी। वही कार्य जंचता थी जिसमें मानसिक मशक्कत होती थी।’ दर्शन शास्त्र की सूक्ष्मता और गहराई देखें, ‘अनगिनत पहेलियों से भरी इस दुनिया में सृजन का रहस्य सबसे गहरा है। सृजन की प्रक्रिया की थोड़ी बहुत भनक यदि मिल सकती है तो उन हस्तलिखित कागजों पर , जिसे छपने नहीं दिया गया है और जिसमें सुधरों की काटपीट की गयी हो…।’ पुस्तक से ज्ञात होता है कि सृजन के आनंद को लेखक ने जीवन पर्यन्त महसूस किया आत्मकथाकार लेखक द्वारा अंत में आत्महत्या करना पाठक को अंदर तक हिला कर रख देता है। और इसी संदर्भ में अनुवादक द्वारा लेखक के डिप्रेशन की चर्चा, उसे(पाठक) और अधिक आशचर्यचकित कर देती है। जिसे पूरी पुस्तक में कहीं भी महसूस नहीं किया जा सकता। वैसे तो लाखों यहूदियों को कष्ट देने व नेस्तनाबूत करने की कोशिश वाले हिटलर ने स्वयं भी आत्महत्या की थी। परंतु एक सृजनकर्ता व दूसरे विनाशकारी हत्यारे के मध्य यह समानता, समझ से परे है। इतिहास दोनों को याद करता है। संदर्भ भिन्न हो सकते हैं। ईश्वर के द्वारा दोनों की एक ही युग में उत्पत्ति, और एक जैसा अंत, प्रकृति का पुनः एक रहस्य है। हां, अक्षय, अविनाशी, कालजयी महान साहित्य की रचना इसका एकमात्र जवाब और अंतर हो सकता है। गुजरे जमाने को याद कर, इतिहास के पन्नों से हम सबक लेंगे। क्या उम्मीद की जा सकती है?
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