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ब्रजेश्वर मदान (सहारा समय, 27 अगस्त, 2005): गुजरा नहीं गुजरा जमाना

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

प्रसिद्ध लेखक बर्नाड शॉ ने कहा था कि उन्होंने दुनिया के इतिहास को इतिहास की पुस्तकों से नहीं, बल्कि बाल्जाक और चार्ल्स डिकेंस जैसे लेखकों के उपन्यासों से जाना है। ‘वो गजरा जमाना’ स्टीफन स्वाइग की कहानी या उपन्यास नहीं है जिनके लिए वे पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। यह उनकी आत्मकथा है और  इसे पढ़ना दुनिया के इतिहास और भूगोल दोनों को जानना है। स्टीफन स्वाइग ने आत्मकथा का नाम पहले ‘तीन जिंदगियां’ रखा था। तीन जिंदगियां से उनका अभिप्राय था –प्रथम विश्वयुद्ध से पहले की जिंदगी, उसके बाद दो युद्ध के अंतराल  की जिंदगी और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान की जिंदगी। प्रथम विश्वयुद्ध से पहले के दौर के विस्तार में न जाएं तो स्वयं स्टीफन स्वाइग के शब्दों में, ‘यह मेरी नियति की कहानी नहीं बल्कि उस दौर का बखान है जिसके नसीब में तारीख के किसी और दौर से ज्यादा बदनसीबी का बोझ लिखा था।’ उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित यह पुस्तक पढ़ते हुए लगता है कि जिस दौर का उन्होंने गुजरा हुआ जमाना में जिक्र किया है वह अभी गुजरा नहीं है।

हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराये जाने के बाद जिस तरह आज हम दुनिया के देशों में परमाणु क्लब का सदस्य बनने की होड़ देख रहे हैं, दुनिया जिस तरह युद्ध के साये में जी रही है उसमें नव-नाजीवाद और नव-उपनिवेशवादी ताकतों से और भी बड़ा खतरा है। रिल्के और रोमां राला जैसे लोग भी आज नहीं हैं जिनका जिक्र स्वाइग ने इस पुस्तक में किया है। रोमां रोला से उनकी मुलाकातों के प्रसंग अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसे पढ़कर पता चलता है कि मनुष्यता पर संकट के दौर में साहित्य और कला की क्या भूमिका होती है।

पुस्तक के वे प्रसंग अविस्मरणीय हैं जहां स्वाइग साहित्य, संगीत और चित्रकला से संबंधित दुर्लभ पांडुलिपियों की खोज करते हैं। खासतौर पर मोत्सार्ट की संगीत पांडुलिपि से संबंधित प्रसंग अद्भुत हैं जिसमें नीलामी में खरीदी पांडुलिपि के पन्ने गायब मिले और वे गायब पन्ने फिर कहां मिले जिसके साथ मोत्सार्ट की सौ साल पहले बनायी धुन उन्हें मिल गयी। एक अन्य प्रसंग में वे बताते हैं कि कैसे एक पेंटिंग तीस साल तक उनके साथ रही। इन प्रसंगों के माध्यम से वे कहना चाहते हैं कि साहित्य, संगीत और कलाएं ही दुनिया को बचा सकती हैं।

यह अलग अध्ययन का विषय हो सकता है कि स्वाइग ने अपनी आत्मकथा में जिन साहित्यिक सरोकारों का जिक्र किया है वे कैसे धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं। साहित्य और संगीत हो या चित्रकला, हर जगह बाजार की टांग नजर आती है। उपभोक्तावाद के प्रभाव से आज कला और साहित्य जीवन-मूल्य स्थापित करने के बजाय उपभोक्ता माल बनते जा रहे हैं।

‘वो गुजरा जमाना’ में एक पूरा साहित्यिक दौर है। स्वाइग बताते हैं कि तब ‘मादाम बोग’ आ चुकी थीं। एक फ्रांसीसी न्यायालय ने उस पर रोक लगा दी थी। एमिल जोला को घासलेटी लेखक कहा जाता ता। थामस हार्डी जैसे शांत और धुरंधर लेखक को भी इंग्लैंड और अमेरिका में झंझावतों से गुजरना पड़ा था। ‘गुपचुप रहने वाले दौर में किताबों ने हकीकत को ज्यादा ही उघाड़ दिया था। हम लोग इसी चिपचिपे, बनावटी और उमस भरे वातावरण में पले-बढ़े। चीजों के छिपाव की यह बेईमान और अ-मनोवैज्ञानिक नैतिकता हमारे ऊपर किसी दुःस्वप्न की तरह तनी हुई थी। इस संदर्भ में साहित्यिकक और सांस्कृतिक रूप से ऐतिहासिक दस्तावेज की कमी इसलिए भी है कि छिपाना तो जमाने का दस्तूर था। बस एक छोटा सा सुराग उपलब्ध है, सदी के अलग-अलग रंगों के फैशन यानी दृश्य और झांकियों पर गौर करते हुए उनके मूल्यों के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है।’

किताब में ऐसे दृश्य और रंगों से अतीत में झांकने के बहुत प्रसंग हैं। कहीं-कहीं यांत्रिक भाषा में अनुवाद के कारण हो सकता है इन उद्धरणों को पढ़ते हुए पाठकों को लगे कि भाषा में स्टीफन स्वाइग की कहानियों जैसा प्रवाह नहीं है। पर कई स्थलों पर भाषा का प्रवाह देखा जा सकता है। जैसे, पेरिस में स्वाइग का सामान चुराने वाले चोर का पकड़ा जाना, पुलिस स्टेशन में तलाशी के दौरान चोर से बरामद होने वाली चीजों का चित्रण, चाबियों का गुच्छा और उसमें लटके चाबियों के कंकाल, साठ-सत्तर चित्र जिनमें कुछ बिल्कुल नग्न आकृतियां थीं। तलाशी की यह घटना नाजीवाद के दौरान तलाशियों का एक बड़ा रूपक लगती है।

स्वाइग की आत्मकथा नाजीवाद के खिलाफ एक मानवाय दस्तावेज है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद उस समय आया जब हम अपने यहां कुछ ऐसी ही ताकतों के खतरे देख सकते हैं। पता चलता है कि विश्वयुद्ध से पहले कैसे मजदूरों की समाजवादी पार्टियों के लाल चिह्न के खिलाफ मध्य वर्ग की पार्टी फूल का चिह्न लेकर आयी। किताब में चित्रित उस समय की राजनीतिक उठापठक हम अपने यहां आज देख सकते हैं और यह सब भयभीत करने वाला है।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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