पाठकों की जानकरी के लिए पहले स्टीफन स्वाइग का संक्षिप्त परिचय। बीसवीं सदी के महानतम लेखकों में शुमार किये जाने वाले जर्मनभाषी ऑस्ट्रियाई लेखक(1881-1942) की इस आत्मकथा का मूल नाम है-‘द वर्ल्ड ऑफ यसटर्डे।’ हिटलर के नृशंस नाजीवाद के चलते लेखक को अपना देश छोड़कर भागना पड़ा और यह आत्मकथा ब्राजील में पूरी की और वहीं जीवन के साठवें वर्ष में पत्नी के साथ आत्महत्या की। अपनी कई कहानियों की परिणति के समानान्तर, स्टीफन बेमिशाल कथाकार हैं लेकिन, बकौल अनुवादक ओमा शर्मा की विलक्षण भूमिका के, उसने अपने जीवन के तीन चौथाई हिस्से को उस्ताद कलाकारों की जीवनियां लिखने और उनके अवदान को व्याख्यायित करने में लगा दिया। तीन महारथी में शामिल बाल्जाक, डिकन्स और दोस्तोवस्की के अलावा रोमा रोलां, टालस्टाय, नीत्शे, फ्रायड पर लिखी उनकी जीवनियाँ विश्व साहित्य में विशिष्ट महत्व रखती हैं।
यह आत्मकथा लेखक के उन सार्वकालिक मूल्यों का बार-बार रेखांकित करती है कि लेखक का न कोई देश होता है, न राष्ट्रीयता। भाषा भी नहीं। कलाकार– वह चाहे दोस्तोवस्की हो या डिकन्स संगीतज्ञ हो या मूर्तिशिल्पी, सभी को सरहदें तोड़नी ही होंगी और यह भी कि लेखक को जनमजात युद्ध- विरोधी ही होना चाहिए। दरअसल यह पूरी किताब ही दोनों विशव युद्धों की पीड़ा से दबे यूरोप की दास्तान है।
यह आत्मकथा लिखते समय लेखक परायी भूमि ब्राजील में थे। निर्वासन में। न कोई नोट्स है, न सामग्री, न पत्र, न किताब। सिर्फ स्मृतियां हैं। ये स्मृतियां कितनी सान्द्रित आवेश में होंगी यह सब लिखते हुए। ‘मैं इन्हें युद्ध के दौरान, परदेशी जमीन पर, याद्दाश्त को मदद करने वाली किसी चीज के बिना ही लिख रहा हूं। जिस होटल में बैठकर लिख रहा हूं, वहां मेरे पास न कोई किताब है, न कोई नोट्स और न कोई सामग्री और न ही दोस्तों की चिट्ठियां। मेरे पास सूचना का कोई जरिया नहीं है क्योंकि सेंसरशिप के कारण सभी देशों से आने वाली डाक या तो तितर-बितर है या अवरूद्ध। (पृष्ठ 14)’। आश्चर्यजनक है इस पूरे अतीत की इतनी चीजों को इतनी आत्मीयता से याद रख पाना। विभिन्न शहरों का ऐसे साक्षात विवरण कि शहर न हों कोई हाड़मांस के नायक हों। इसे पढ़कर ही जाना जा सकता है कि आत्मकथा एक सामाजिक इतिहास भी हो सकती है।
स्कूल, विश्वविद्यालय की निरर्थकता के प्रसंगों में मौजूदा भारत की तस्वीर झांकती है। ‘मेरा तो वहां एक भी दिन आनन्दमय नहीं गुजरा। जीवन के सर्वोत्तम काल का सत्यानाश। सीखने-सिखाने की ऐसी रवायत जिसका जिंदगी से कोई ताल्लुक नहीं’। वही जकड़न विश्वविद्यालय में मिली। ‘इन जाहिल, गंवार, कंटे-छंटे, निर्भीक और बेचैन करने वालों की शक्लें देखकर ही विश्वविद्यालय जाने का मेरा मजा किरकिरा हो जाता। वे सभी विद्यार्थी जो कुछ सीखना-पढ़ना जाहते, वे सभी विश्वविद्यालय के पुस्तकालय जाते तो मुख्य हॉल की तरफ जाने से कतराते और पिछवाड़े के छोटे रास्ते से ही भाग आते ताकि इन नामुराद शोहदों के सामने पड़ने से बच जायें’। ‘मैं आज भी यह मानता हूं कि कोई अच्छा डॉक्टर, दार्शनिक, इतिहासकार, भाषाविद, वकील या कुछ भी बनने के लिए विश्वविद्यालय, यहां तक कि जिमनेजियम (स्कूल) भी जाने की दरकार नहीं है। अपने रोजमर्रा के जीवन में कितनी दफा मैंने यह साबित होते देखा है कि पुरानी किताबों के किसी फेरीवाले को किताबों के बारे में साहित्य के प्रोफेसरों से कहीं ज्यादा मालूमात होंगे। कला वितरकों की जानकारी कला इतिहासकारों से इक्कीस होती है। सभी क्षेत्रों के महत्त्वपूर्ण आविष्कार और विचार, क्षेत्र के बाहर के लोगों की बदौलत हुए हैं। किसी औसत प्रतिभा के लिए अकादमिक कैरियर व्यावहारिक और फायदेमन्द हो सकता है मगर यह उसके किसी काम का नहीं है जो अपनी फितरत के मुताबिक कुछ रचना चाहता है। उसके रास्ते का तो यह रोड़ा भी बन सकता है’।
इस आत्मकथा में यदि कोई चीज गायब है तो वह है लेखक खुद। न पत्नी, न बच्चे न पिता न अपनी कहानियों का जिक्र। इसीलिए पुस्तक के अंत में ओमा शर्मा की भूमिका और उसके रचनाकार का परिचय बेहद जरूरी लगता है। स्मृतियां चलती जाती हैं। स्कूल से विश्वविद्यालय होती हुई अपने शुरू के रचनाकर्म पर। इजराइल राज्य के विचार का जनक थियोडोर हैर्सल फ्यूलिटन का संपादक-सभी के प्रति इतना श्रद्धालु, विनम्र, आभारी। हरेक के लिए कृतज्ञ और गदगद। इतनी पॉजीटिव ऊर्जा किसी ईश्वरीय देन से ही संभव है। कोई नुक्स ही न हो मानो किसी में। कम से कम हिंदी साहित्य के मौजूदा दौर में अपने समकालीनों पर तो मैंने इतनी प्रशंसात्मक टिप्पणियां कम ही देखी हैं।
‘एक प्रसिद्ध लेखक दिहमेल की सलाह पर मैंने बर्लिन विश्वविद्यालय के दिनों का इस्तेमाल विदेशी भाषाओं से अनुवाद करने में किया। आज भी मैं किसी ऐसे लेखक को यदि मुझे सलाह देनी हो जो अपने बारे में कुछ तय नहीं कर पा रहे हों तो मैं किसी बड़ी रचना का अनुवाद करने की फुसलाने की कोशिश करूंगा। अपनी भाषा के मिजाज को ज्यादा गहराई और रचनात्मक ढंग से जानने का यह सबसे अच्छा तरीका है और निष्ठा से उसने यदि कुछ किया है तो वह बेकार नहीं जाता’। ओमा शर्मा का यह अनुवाद स्टीफन की किताब पर भी कितना सटीक बैठता है।
कई बार आश्चर्य होता है कि हर कलाकार चोर, मकान मालिक या जीवन के जर्रे-जर्रे से प्यार करने वाला और उम्मीदों से लबालब यह शख्स आत्महत्या भी कर सकता है। हो सकता है यह आत्महत्या भी उन स्थितियों में एक नई उम्मीद की तहत वरण की गयी हो और अपनी रचनाओं के प्रति भी इतना क्रूर कि साल दो साल के बाद हिकारत से देखता। यहां तक कि एक लगभग पूरे लिखे जा चुके उपन्यास को आग के हवाले ही कर दिया। लेखकों के लिए तो यह मॉडल किताब कही जाएगी कि 1. कैसे स्टीफन दोनों विश्वयुद्धों के बीच और वोल्शविक क्रांति के आर-पार घोर राजनीति के बीच अराजनैतिक बन रहे और लेखनी भी खुट्टल नहीं होने दी। 2. कि आत्मकथा का मतलब अपने समय के समाज, कला की विनम्र मासूमियत से जांच करना है न कि मैं! मैं! के स्वघोषित संघर्षों का राग। 3. कि कैसे समकालीन कलाकारों के प्रति अबाध भक्ति के बावजूद हिटलर की नीतियों पर जब कुछ लेखकों ने चुप्पी साधी तो उन्हें कैसे ललकारा। व्यक्ति स्वातंत्र्य का ऐसा हिमायती कि मौत भी मनमर्जी से चुनी।
वैसे ही घुमक्कड़ी की सलाह सारी दुनिया के लेखकों के लिए सबक है- ‘तुम इंग्लैंड को कभी नहीं समझ सकते हो, अब तक तुम सिर्फ टापू को ही जानते हो… अपने महाद्वीप को भी नहीं जब तक तुम कम से कम एक दफा उससे बाहर नहीं निकलोगे। तुम छड़े हो… उठाओ फायदा अपनी आजादी का। साहित्य बड़ा अद्भुत पेशा है क्योंकि इसमें जल्दबाजी बिल्कुल नहीं चलती। किसी ढंग की किताब के लिए साल भर इधर या उधर कोई मानी नहीं रखता है। तुम भारत या अमरीका क्यों नहीं घूमने चले जाते? उसके यह हस्बेमामूल लफ्ज मुझे जंच गए और मैंने अविलम्ब उन पर अमली जामा चढ़ाने की ठान ली।’
40-50 साल पहले गुजरे वक्त की एक-एक कतरन को स्टीफन जैसा कोई लेखक ही इतने सजीव विस्तार से देख और दिखा सकता है। प्रथम विश्वयुद्ध के पहले के वर्षों में यूरोप में आ रही समृद्धि का वर्णन मानो एक घर में बच्चे के बड़ा होने का चित्रण हो। औद्योगिक क्रांति से बदल रहे यूरोप को मानो फिल्म किताब में देख रहे हों। बारीकी से देखें तो यादों की बारात लिए यह लेखक अपने समय के कलाकार से बातचीत, उसकी कला और उस पर टिप्पणी से संस्मरणों का ऐसा घोल तैयार करता है कि समाजशास्त्रीय गद्य का अद्भुत नमूना बनकर तैयार हो जाता है। बात रोमा रोलां से मिलने की हो या वेरहारन की या फ्रायड की, एक कहानी की तरह बात सरकनी शुरू होती है और दो-तीन पृष्ठों में ही बीसवीं सदी के इतिहास की दास्तान आ खड़ी होती है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के कुछ पहले स्टीफन फिर से रूस गए थे। फिर ये यानि कि 1914 में दोस्तोवस्की पर लिखते समय के बाद। बदलते रूस का वर्णन बताता है कि जो 1989 में हुआ वह उससे पहले कभी भी हो सकता था। क्या 1930 तक यह स्थिति आ गयी थी कि किसी ने चुपके से बिना दस्तखत किया खत स्टीफन के जेब में चुपके से डाल दिया। खत में लिखा था- ‘ये लोग तुम्हें जो बता रहे हैं उसकी हर चीज पर भरोसा मत करना। मत भूलो कि तुम्हें जो दिखाया गया है उसके साथ-साथ बहुत कुछ ऐसा भी है जो तुम्हें नहीं दिखाया गया है। याद रखना कि तुमसे बात करने वाले ज्यादातर लोग अपने दिल की बात नहीं करते हैं बल्कि वे वही करते हैं जो उन्हें कहा गया है। हम सब पर निगाह रखी जाती है। तुमको भी कहीं बक्शा गया है। तुम्हारा दुभाषिया हरेक लफ्ज की खबर करता है। उसमें बहुत सारे वाकये और तफसीलें थीं जिनकी मैं जांच नहीं कर सकता था। उसकी हिदायत के मुताबिक मैंने खत जला दिया। इसे सिर्फ फाड़कर मत छोड़ देना क्योंकि वे तुम्हारे कूड़ेदान से निकालकर भी इसे जोड़-जोड़ लेंगे। मैंने चीजों को पहली बार सिरे से सोचना शुरू किया… क्या यह हकीकत नहीं थी कि इसी दिली गर्मजोशी और लाजवाब बिरादरेपन के दरम्यान किसी से निजी तौर पर रूबरू बोल-बतियाने का एक भी मौका मेरे हाथ नहीं आया था’(पृष्ठ 287)। आप इतिहास की पुस्तक पढ़कर तथ्यों की भूल सकते हैं, जीवन की इस किताब से इतिहास का एक-एक पृष्ठ आपके अंदर जज्ब होने लगता है। साहित्य यहीं इतिहास से बाजी मार ले जाता है।
पुस्तक में यत्रगत बिखरे कुछ निष्कर्ष अद्भुत हैं।‘ सोचने-विचारने वाले आदमी का सबसे ज्यादा नुकसान विरोध के अभाव में होता है। जब मुझे अकेले पड़ने की मजबूरी हुई, जब नौजवानों ने मुझे घेरना बंद किया तभी मैं एक बार फिर जवान होने को मजबूर हुआ। कुछ बरस बाद मुझे समझ में आया कि इम्तहान चुनौती होते हैं। उत्पीड़न शक्ति देता है और एकांत उदात करता है-बशर्ते वह आपकी कमर ही न तोड़ दे। जिंदगी की सभी महत्वपूर्ण चीजों की तरह, यह परिज्ञान दूसरों के अनुभवों से नहीं, अपने खुद के नसीब से ही हासिल होता है’।( पृष्ठ 287)
स्टीफन स्वाइग। पहले-पहल मैंने इस लेखक का नाम जब सुना तो यह शब्द मेरे लिए लगभग काला अक्षर भैंस बराबर था। हो भी क्यों नहीं, अंग्रेज और अंग्रेजी के आतंक के चलते पूरा यूरोपीय साहित्य ही ओट में रह गया। आज इस आत्मकथा को पढ़कर में दावे के साथ न केवल यूरोपियों बल्कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लेखकों, कलाकारों के बारे में भी कुछ, सुन सकता हूं- बाल्जाक, टॉल्सटाय, दोस्तोवस्की, फ्रायड और सैकड़ों अन्य ज्ञात और अल्पज्ञात।
साहित्य और इतिहास के पाठकों के लिए एक बेहद जरूरी किताब। इक्कीसवीं सदी की पीढ़ी के लिए बीसवीं सदी के साहित्य और इतिहास का अनूठा दस्तावेज। मैंने किसी भी भाषा के साहित्य में इतनी अच्छी जीवनी किसी लेखक की नहीं पढ़ी और इतने अच्छे अनुवाद में। इस अनुवाद को पढ़कर कोई जान ही नहीं पाएगा कि स्टीफन स्वाइग जर्मन लेखक था। लगेगा कि भले ही जर्मन होगा, आत्मकथा तो उसने हिंदी में ही लिखी है।
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