यह ओमा शर्मा का पहला कहानी संग्रह है। इसमें आठ-नौ कहानियां हैं और बकौल कथाकार संजीव, ‘इस सभी कहानियों में प्लॉट से ज्यादा चरित्रों का दबदबा है।’ सतपथी इसका अच्छा उदाहरण है। एक बड़े वितान, विजन की कहानी है ‘भविष्यदृष्टा’ जिसमें स्मृतियां हैं, वर्तमान है और शीर्षक के अनुकूल ही भविष्य की गूंज। कलात्मक छलांग-भाषा और शिल्प दोनों में है और लंबी होने के बावजूद कहानी बांधे रखती है।
‘काई’ कहानी भी इसी समाज का दर्पण है जहां मास्टरी पैसों में खरीदी या बेची जा रही है। स्कूल की दीवारें, स्मृतियां जितनी सुखद लगती हैं, वर्तमान उतना ही त्रासद। आंचलिकता कहानी को और जीवंत बना देती है। उर्दू की रवानी ‘मर्ज’ कहानी की प्राणवायु है। बेहद चुने लेकिन सहज शब्द। मुसलमान चरित्रों के साथ तो इस भाषा से पूरा वातावरण ही आसपास टहलने लगता है। स्थितियों पर टिप्पणी भी चकित करने वाली है। ‘जनम’ एक और अच्छी कहानी है-जनम का अर्थ भी परत-दर-परत खोलती। महत्वपूर्ण बात है किस्सागोई। शुरू से अंत तक दरअसल किस्से में एक उत्सुकता का भान होता है और कहानी की सार्थकता उसी में है–सारे शिल्प, कथन के बावजूद। निम्न मध्यवर्गीय परिवार के किसी भी बच्चे के साथ ऐसी स्थितियां होती रहती हैं। लेखक ने इसे खूब पकड़ा है। ऐसी कहानियों की आवाज भी ज्यादा दूर तक पहुंचेगी। साहित्य की स्वीकार्यता के लिए और ज्यादा ऐसी कहानियों की जरूरत है। एक ढांचा/सांचा है जो उसे बार-बार अपने हिसाब से पोप देता है। न चाहने के बावजूद भी इसकी नियति उसे स्वीकार करना है। घर से भाग कर आत्महत्या की बात हो या ब्रह्मकुमारियों के आश्रम से निकलने की। लेकिन जीवन की संवेदना, जिजीविषा इतनी आसानी से थोड़े ही मरती है। वह बार-बार जनम लेती है। जनम की प्रतीकात्मकता भी बहुत सार्थक है।
‘शुभारंभ’, ‘कंडोलेंस विजिट’ एक दूसरे फलक पर मौजूदा नौकरशाही के छद्म को सामने लाती है। ये सभी कहानियां कहीं-न-कहीं हमें बेहतर मनुष्य बनने को अनुप्राणित तरती हैं।
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