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प्रतापराव कदम (हंस, अक्टूबर, 2005): साहित्य के कई कोण

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

हमारे आसपास, जिस समाज में हम रहते हैं उसमें, इतना कुछ बिखरा है, जो कभी-कभार तो हमें दिशा देता है पर अक्सर भीतर तक हिला देता है कि हमारे भीतर कितना कुछ टूट-फूट रहा है। ऊपर साबुत रंगे-पुते चेहरे की थोड़ी-सी पपड़ी खिरा भर दो तो जाहिर हो जाता है सच। ओमा शर्मा का गद्य संग्रह ‘साहित्य का समकोण’ इसी सच की सीधी सादी तर्क सम्मत वैचारिक प्रस्तुति है। ‘साहित्य का समकोण’ में हमारा समय चहल-कदमी करते मिलता है। वह समय जो बाजार, मीडिया, विज्ञापन, शेयर मार्केट, उपभोक्तावाद, निवेश अमेरिका से चौतरफा जकड़ा अपने होने को परिवार, किताब, समाज, साहित्य, लोकजीवन में देखना चाहता है। पर बाजार पहले तो यह चाहता ही नहीं, दूसरे यदि यह हो तो उसकी शर्तों पर याने बाजार भुनाना चाहता है, गंगा साबुन की तर्ज पर इसे भी।

ओमा शर्मा का संग्रह चार भागों में बंटा है। पहला भाग ‘दुनिया मेरे आगे’ जिसमें ज्यादातर जनसत्ता के स्तंभ में प्रकाशित गद्यांश हैं जिनके बारे में हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि गद्यकार मंगलेश डबराल ने ठीक ही कहा कि सामाजिक टिप्पणियों जैसे लगते ये अंश दरअसल हमारे चौतरफ की कहानियां हैं। जिनमें जीवन की विचित्र गतियां है, उसके विपर्यय है, अनेक त्रियक रेखाएं हैं और कई अनदेखें कोण हैं जिन्हें एक समकोण यानी तार्किकता और विवेक में संपुजित किया गया है। दूसरा खंड डायरी का है, जिससे गुजरना गुजरात की त्रासदी को (सांप्रदायिक दंगे व भूकंप को) नजदीक से महसूसना, धर्म संप्रदाय जाति को अपने नंगे बर्बर रूप में देखना। तीसरा खंड ‘हस्तक्षेप’ है जिसमें आत्मकथा लेखन, कहानी, सरकार-साहित्यकार, मध्यवर्ग व व्यवस्था पर केंद्रित महत्त्वपूर्ण लेख है। गोर्की, स्टीफन स्वाइग, टालस्टाय के रचना संसार की पड़ताल कराती गहरी टिप्पणियां हैं। अंतिम खंड में कथाकार, संपादक, विचारक, चिंतक राजेन्द्र यादव जी का बेबाक, बेलाग, ऐतिहासिक साक्षात्कार है जिसके मार्फत चीजों को समझने में, समय में झांकने में मदद मिलती है और अपनी सहमति असहमति को आधार भी। मैं ओमा शर्मा की इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि ‘राजेंद्र यादव (या उनके जैसे ही आधा दर्जन दूसरे वरिष्ठ लेखक) जैसी चलती-फिरती बोलती लाइब्रेरी ने बैठे-बिठाए ही हमारी पीढ़ी को साहित्यिक संस्कार दिए हैं, किताबों की अद्भुत दुनिया में पैठ कराई है।’

‘आओ बनाएं भगवान’ गद्यांश में कर्मकांड को लतियाने वाले कबीर को कर्मकांड का हिस्सा बना देने वाले ऐसे कबीरपंथी परिवार का जिक्र है जिसने कबीर की भगवानों की तरह गति कर डाली। वहां उपदेश देते हुए भगवान कबीर की मोहक मुद्रा है, कबीर चालीसा है। इस कर्मकांड का आचरण से कोई संबंध नहीं। ‘विकार का डर’ गद्यांश विचारहीनता की पराकाष्ठा है, जिस देश में गणेश प्रतिमा को दूध पिलाने सैकड़ों दौड़ पड़े, अपने-अपने जरूरी काम छोड़कर, उसमें ऐसे भी कई थे जो अपने यहां काम करने वाली बाई के कूपोषत बच्चों को छटांक भर दूध के लिए नहीं पूछते होंगे। पर पत्थर की प्रतिमा को दूध पिलाने दौड़ गए, अज्ञात के प्रति भय कर्म से विमुख तो करता ही है, पाखंडियों को स्वार्थ साधने में भी मदद करता है। वहीं ‘ये कौन कलाकार है’ गद्यांश, बाजार की इस प्रवृत्ति को उजागर करता है कि वह हर जीज को भुनाता है नाकामी, निराशा, भ्रम और झूठ को भी।

‘अर्थ का अप्रतिम महाविद्यालय’ में ओमा शर्मा कामरेड की बात करते हैं, ‘मगर कामरेड तुम्हारे मार्क्स और क्रांति का क्या हुआ? मैंने चुटकी लेकर पूछा। मार्क्स है अभी। अंदरकहीं। लेकिन क्रांति तो इसने (मोबाइल फोन पर इंगित करके) कर रखी है।’ हर चीज मैनेज की जा सकती है, संवेदना भावना, सरोकार भी, यहीं से शुरू होती है संवेदनहीनता। कारपोरेट कल्चर में डूबा आदमी अच्छा भला लगता हुआ सा, अपने आप में सफल पर समाज की दृष्टि में नहीं, बस सफल! सार्थक नहीं। विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों की स्थिति को, पाठ्य पुस्तकीय योद्धाओं की स्थिति को ‘पक चुके हैं जो, सड़ेंगे ही’  गद्यांश स्पष्ट करता है, ‘जिस बंद मानसिकता से अध्यापक खुद को दुनिया का सबसे प्रबुद्ध जानकार जीव ठहराने से बाज नहीं आते हैं, उसी दर्शन का सूत्र मुझे हाथ लगा। पेशे से ही विश्वविद्यालय अध्यापकों को एक कैप्टिव ऑडियंस मुहैया होती है जिसके पास असहमति की न कोई संस्कृति है और न इसका इस्तेमाल कर वह अपना भविष्य दांव लगाने का जोखिम उठाना चाहती है।’ सार तत्व ओमा शर्मा सामने रख देते हैं, हट्टा-कट्टा डायनासरी काल, बिना वजह, यूं ही खत्म नहीं हुआ यानी पकने के बाद तुम सड़ ही सकते हो… यू राइप एंड रॉटन। ‘अंग्रेजयत की अफीम’ में ओमा शर्मा भाषा-संस्कृति, समझ, संस्कार जैसे गंभीर मुद्दे उठाते हैं। भाषा कोई निर्जीव चीज नहीं, अपनी भाषा संस्कार जब छूटने लगते हैं तो दूसरी भाषा अपने साथ सेंथेटिक किस्म का नकलीपन लाती है।

ग्लोबलविलेज यानी विश्व ग्राम, इसमें हमारा गांव क्यों नदारद रहता है? ‘वाह कम्प्यूटर, आह’ में ओमा शर्मा नब्ज पर हाथ रखते हैं, ‘पूरी दुनिया को एक गांव में समेटने की नीयत में कोई बुराई नहीं है। लेकिन जिस लक्ष्य, वर्ग का उपभोक्ता हारी-बीमारी में भी अपने निकटतम पड़ोसी का हाल जानना गंवारा नहीं करता, उसे कम्प्यूटर किस ग्रत में झोंक रहा है?’ वहीं ओमा शर्मा ‘प्रखर, चुस्त, तेज-तर्रार मगर..’ में नई पीढ़ी के बारे में बहुत गंभीर सवाल करते हैं कि क्या  सफलता में वह रोंद सकता है किसी की जंदगी भर की कमाई? एक ऐसी दौड़ में वह शामिल जिसका कोई नियम नहीं, हर कोई दौड़ रहा नियमों को ताक में रख। बस हिंगलिश, सफलता, करियर, जमीन से कटी एक लंपट पीढ़ी। ‘सफेद हाथियों का रोग’ में वे दिल्ली की परिवहन व्यवस्था की सीव उधेड़ते हैं। गद्यांश पढ़ते-पढ़ते वाकई लगता है कि आप दिल्ली में प्रवेश ही करने वाले हैं, इतनी जीवंतता है इसमें, ‘दिल्ली में आप किसी भी दिशा से प्रवेश कीजिए तो लगेगा यहां के बाशिंदों को नामर्दी, बवासीर या यौन रोगों के सिवाय कुछ होता ही नहीं है। लेकिन कितना सौभाग्य दिल्ली का कि हर विकार और विकृति का शर्तिया इलाज करने वाले विश्व विख्यात हकीम साहब अभी यहां रहते हैं।’

मृत्यु सत्य है पर असमय मृत्यु सालती है, जिसे नहीं सालती उसके आदमी होने में कसर है, यह कसर नजर आ रही है चौतरफ। ‘कौन रोता है’ गद्यांश में यही कसर केंद्र में है। कथाकार कवि उदयप्रकाश की कविता इसी कसर का बकान करती है, खासियत है दिल्ली की/कि कपड़ों के भी सूखने से पहले/सूख जाते हैं आंसू। ‘सरकारी सृजन उत्सव’ में गृह पत्रिकाओं के बंधे बंधाएं ढर्रे के मार्फत दफ्तरों की स्थितियों को बांचते ओमा शर्मा इनमें छिपी चापलूसी, चाशनी को नजरअंदाज नहीं करते, हालांकि कुछ गृह पत्रिकाएं इसकी अपवाद है जैसे भारती औद्योगिक विकास बैंक की विकास प्रभा अथवा नागपुर से निकलने वाली खनन भारती।

इन गद्याशों में अमेरिका की नकल में अक्ल स्वाहा करते समाज की मजम्मत है तो नेपाल को स्वेटर बेचने वाले, चौकीदार गोरखा या हिंदू राष्ट्र पशुपतिनाथ के अलावा जानने की ललक है। वहीं साहित्य, लोक संस्कृति की पूंजी के खिरने, अवेरने की चिंता भी। इन गद्यांशों को पढ़कर हम जीवन के नजदीक आ जाते हैं। ओमा शर्मा का निरीक्षण और संवेदना के स्तर पर उससे जुड़ाव पाठक के सामने घटना, समय, चरित्र, समस्या को साकार कर देता है। पाठक की भी उसमें हिस्सेदारी होने लगती है।

डायरी खंड में ओमा शर्मा गुजरात भूकंप, सांप्रदायिक ज्वार और उससे उठे मानवीय, राजनीतिक सवालों से दो-चार कराते हैं। मीडिया के सामाजिक दायित्व की ओर भी वे इशारा करते हैं, बाजार की हरकतों को रेखांकित करते हैं, ‘हां तो बताइए कि ‘खेल’ कहां तक पहुंचा है… हताहतों की संख्या के बारे में एक होड़-दौड़ साफ दिख रही है… जो ज्यादा बताए वह ज्यादा प्रमाणिक। एक ही समय पर एक पांच हजार कर देता है, तो दूसरा आठ हजार। अगले बुलेटिन में पांच वाला बारह कर देता है (क्या इसे लीड लेना नहीं कहते) यह मीडिया के लिए ज्यादा से ज्यादा ब्रेक लेने की भी घड़ी है। अपने तयशुदा सामाजिक दायित्वों के बावजूद अपना मूल स्वभाव नहीं छोड़ता है। कैसे छोड़ें? बाजार अपना ‘धर्म’  कैसे तजे? डायरी बाजार शक्तियों के मार्फत अमानवीय बर्बर होते जा रहे समाज की पड़ताल करती, डायरी में जिस घर का जिक्र है वह भी अब बिल्डरों की जद में आ गया है। साहित्यिक आयोजनों की व्यवस्थागत दिक्कतों से रूबरू कराती यह डायरी समाज के धीरे-धीरे मरते जाने और इस मरते जाने में से कुछ बचाने की इच्छा का बखान है।

साहित्य का समकोण अपने केंद्र में मनुष्य को रखे हुए है उसकी गरिमा को बचाए-बनाए रखना ओमा शर्मा की पहली शर्त है और यह शर्त तो हर लेखक की होनी चाहिए। यहां बहुत से कोण हैं मगर घटना, चरित्र, परिस्थितियों का ओमा इस तरह से जिक्र करते हैं कि उससे जुड़ाव अपने आप हो जाता है।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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