रचना की विश्वसनीयता रचानाकार के जीवन और अनुभूत सत्य से काफी हद तक जुड़ी हुई होती है और वायवीय ढंग से या ‘अकासी’ बात करके रचना की उस विश्वसनीयता की रक्षा नहीं की जा सकती। रचना जीवन जगत के यथार्थ को किस कला और किस शैली में कहती है इस पर जरूर विमर्श होना चाहिए लेकिन देखने की बात यह भी होना चाहिए कि बेसबूटे के भीतर संवेदना ही घुटन महसूस न करने लगे। हिन्दी कहानी को लेकर आलोचना जगत में आज जिस तरह के विमर्श का माहौल दिखाई दे रहा है वह सचमुच सुकून देने लायक है। अब कहानी पर बात करना उन आलोचकों को भी जरूरी लगने लगा है जिन्होंने कभी लिखा था कहानियों पर और आज की कहानियों को पढ़कर फिर एक बार कलम उठाने की बात करते हुए कहते हैं- इब्दिता फिर वही कहानी की!
आज का कथाकार इस चीज को स्वीकार करे या न करे लेकिन यह सत्य है कि किसी नई रचना की लोकप्रियता इससे भी जुड़ी हुई होती है कि कहानी पाठकों की जिंदगी से किस हद तक जुड़ी हुई है। कहानी आगर पाठक के जीवन और समाज से अलग होगी तो यकीनन वह व्यापक समाज के बीच लोकप्रिय नहीं हो सकेगी। आलोचकों और विद्वानों के प्रिय कथाकार आज अपने मुहल्ले में ही अनजान हैं जबकि यह तथ्य है कि प्रेमचंद आज की तारीख में भी सबसे ज्यादा बिकते हैं। पाठकों को अपने लगते हैं। राजनीति ने जिस तरह अपनी दायित्वहीनता को ही अपना कर्त्तव्य मान लिया है उसी तरह आलोचना ने भी कलात्मक बाजीगरी को उत्कृष्टता और लोकप्रियता का पैमाना मान लिया है। यही कारण है कि आज आलोचकों के कई प्रिय कथाकार जनता के बीच कोई पहचान नहीं रखते और जो कथाकार जमीन और जनता से जुड़े हुए हैं वे आलोचकीय तमगों की परवाह नहीं करते।
इस संदर्भ में ओमा शर्मा के संग्रह- ‘भविष्यदृष्टा’ पर बात करना जरूरी लगता है। ओमा अलग-अलग जमीन पर अलग-अलग मिजाज की कहानियां लिखते हैं और उनकी कहानियां अपने आप बना देती हैं बकौल मीर कि- ‘दर्द-ओ-गम कितने किये जम-अ, सो दीवन किया!’ बड़ी-बड़ी घटनाओं को आधार बनाकर या बड़े-बड़े लोगों के जीवन की कहानियां नहीं कहते ओमा। कथाकार संजीव के शब्दों में कहूं तो छोटे-छोटे लोगों की छोटी-छोटी दुनिया, छोटे-छोटे सपने, बड़े-बड़े डर और बड़ी-बड़ी घुटन को पकड़ने की कोशिश करती हैं ओमा शर्मा के ‘भविष्यदृष्टा’ संग्रह की कहानियां।
तो बात ‘भविष्यदृष्टा’ कहानी से ही शुरू करते हैं। इस कहानी के ‘पाठ’ पर अगर बात की जाए तो वर्तमान समय का जटिल यथार्थ परत-दर-परत खुलता चला जाएगा। आज ज्योतिषियों और भविष्यवक्ताओं की जैसी बाढ़ आई हुई है वैसी पहले कभी नहीं देखी गई। इतने ‘बापुओं’ के आकर्षक मुखारविंद से इतने दूरदर्शनी प्रवचन कभी नहीं सुने। एक तरफ बाजार और अर्थशास्त्र, विकास और विज्ञान, दूसरी तरफ विज्ञान का हर दूसरा छात्र घोर पोंगापंथी और सांप्रदायिक! लोग कंप्यूटर पर काम शुरू करने से पहले मॉनीटर पर सिंदूर की लकीरें खींचते हैं। लड्डू चढ़ाते हैं। दूसरी ओर भौतिक विज्ञान का एक प्रोफेसर सारी समस्याओं को ज्योतिष विज्ञान(!) से हल करने का ‘पवित्र’ मश्वरा दे रहा है। तभी तो ‘भविष्यदृष्टा’ का सतपती कहता है- ‘एस्ट्रोलॉजी इज ए मोर परफैक्ट ए साइंस दैन इकॉनोमिक्स।’ एक तरफ ऊंची शिक्षा और हाइटेक जीवन शैली दूसरी तरफ बाबाओं के आगे लंबी कतार और वैष्णो देवी की यात्रा। ‘भविष्यदृष्टा’ कहानी का आदित्य नारायण सतपती, डी स्कूल (दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स) का छात्र भी इन्हीं प्रवृत्तियों का हक प्रतिनिधि पात्र है।
डी स्कूल के माहौल में उड़ीसा के कटक शहर से आया सतपती और निम्न और निम्न मध्यवर्गीय परिवार से आनेवाला विनय कुमार कंसल उर्फ ‘अंकल’ अपने को अलग-अलग पाता है उस माहौल में। फिर धीरे-धीरे परिचय का दायरा बढ़ता है और दोस्तों की संख्या बढ़ती है तो अजनबीयत थोड़ी कम होती है। उसके बाद पारिवारिक परिस्थितियों पर चर्चा होती है और तभी पता चलता है कि सतपति किस पृष्ठभूमि से आया है। पितृविहीन सतपती के पीछे गांव में मां और छोटी बहन है जो मजदूरी करके, बांस की डलिया वगैरह बना-बनाकर जीवन बसर करती है। सतपती को दूर के रिश्तेदार प्रशांत भाई मदद करते हैं, प्रोत्साहन देते हैं और ट्यूशन करके आगे बढ़ने, आर्थिक मोर्चे पर जूझने की सलाह देते हैं। मार्गदर्शन करते रहते हैं। परिणामस्वरूप सतपती डी-स्कूल में प्रवेश पाने में सफल हो जाता है। लेकिन यहां भी वही समस्या कि खायेंगे क्या और जियेंगे कैसे? फिर से वही हमदम ट्यूशन। ट्यूशन पढ़ाते हुए ही उसका परिचय दिव्या नामक छात्रा के पिता से होता है जो कि ज्योतिष के जानकार(!) हैं। सतपती की रूचि यहीं से ज्योतिष में बढ़नी शुरू होती है। ट्यूशन पढ़ाने और आर.टी.एल. (रतन टाटा लाइब्रेरी) में पढ़ने के अलावा वह कहीं वक्त जाया नहीं करता, बावजूद इसके एम.ए. प्रीवियस में सतपती फेल हो जाता है। अंतिम वर्ष में भी पास नहीं हो पाता और उसके बाद तो सभी दोस्तों के रास्ते जुदा-जुदा हो जाते हैं।
अचानक एक दिन जब भंडारा से सतपती का खत आता है तो कहानी की कड़ियां जुड़ने लगती हैं। डी-स्कूल में असफल सतपती रेलवे में नौकरी पा जाता है और वह भी एक उड़िया अफसर की कृपा से। जिनकी कृपा का मोल वह उनकी बेटी से विवाह करके चुकाता है, जो मिरगी की मरीज है। ज्योतिष और भाग्य में पूरी तरह डूब चुका सतपती इसे अपनी किस्मत मानकर स्वीकार कर लेता है। बाद में इस बीमारी के लक्षण उसकी बेटी में भी प्रकट होते हैं और यही कहानी में एक विषयांतर और कहानी समाप्त। यहां तक बताकर कथाकार इंग्लैंड में एक इमारत के ध्वंस होने की प्रतीकात्मक घटना का उल्लेख करता है और कहानी को एक अलग दिशा में एक समाचार के जिक्र द्वारा अंत कर देता है।
इस कहानी में जितने ब्यौरे और तथ्य दिये गए हैं उससे जाहिर होता है कि इस एक कहानी के पीछे लेखक ने कितना कठिन श्रम किया है। मिसाल के तौर पर- ‘मंगल एक पापी पुरूष ग्रह है जबकि चंद्रमा एक शुभ-स्त्री। चंद्रमा मन का ग्रह होता है, अतः अंकल तुम्हारे अंदर मनोभावों, संवेदनाओं और कल्पना शक्ति की कमी नहीं रहेगी। चंद्रमा कर्क राशि का स्वामी है। जातक के कुंडली के विभिन्न स्थानों यानी घरों में होने से इसका असर भी अलग-अलग हो जाता है। कुंडली के पहले, चौथे, सातवें और दसवें ग्रह बहुत शक्तिशाली होते हैं।’ – (पृष्ठ 59) इस प्रकार के ज्योतिषीय ब्यौरे वाला संवाद पूरी कहानी में है और यकीनन यह लेखक की हवाई कल्पना नहीं है। इसकी शब्दावली ही नहीं पूरी विवेचना यथार्थ है। सो कहना न होगा कि आज के समय में जबकि लेखन की ईमानदारी ही सवालों के घेरे में आती जा रही है, वहीं ओमा की यह कहानी एक त्रासद दुनिया के जीवन यथार्थ को पूरी ईमानदारी से पकड़ने की कोशिश करती है।
आज के ‘पाठ’ केन्द्रित विमर्श के हिसाब से देखें तो इस कहानी के कई छोर दिखाई देते हैं जिसको पकड़कर अलग-अलग ढंग से इसकी व्याख्या की जा सकती है। भारतीय समाज का वह नग्न यथार्थ जिसमें निम्नवर्ग का कोई छात्र अव्वल तो डी-स्कूल पहुंच ही नहीं सकता और अगर पहुंच भी गया तो टिक नहीं सकता। अर्थशास्त्रियों पर टिप्पणी करते हुए कहानी छात्रों के लक्ष्यों को भी पूरी संवेदनशीलता से उजागर करती है, जिसमें नौनिहालों को मात्र एक ऐसे उत्पाद के तौर पर तैयार किया जाता है जो पैसा उत्पादक मशीन बनकर रह जाता है। दूसरा यह कि व्यक्ति शिक्षित होने के बावजूद अपने अतीत से पीछा छुड़ाकर किस कदर पोंगापंथ में दीक्षित हो जाता है। अर्थात् ‘पाठ’ की पूरी प्रक्रिया से गुजरना प्रश्नाकुलता से भर देनेवाला है।
इसी तरह की एक और महत्वपूर्ण कहानी है- कंडोलेंस विजिट जिसमें एक मातहत सोनकर का उसके बॉस किस चालाकी से भावनात्मक शोषण करते हैं इसकी बखिया उधेड़ी गई है। सोनकर जिसे साहब की कृपादृष्टि और प्रेम समझता है वह विशुद्ध रूप से बाजारी कला है- इस्तेमाल करो और भूल जाओ। कथित स्नेह के नाम पर सोनकर निरंतर इस्तेमाल होता रहता है। यहां तक कि उसकी मां की मौत पर शोक प्रकटीकरण के लिए आये हुए उसके बॉस उस समय भी उसको तरह-तरह के काम बताकर चले जाते हैं।
‘जनम’ भी अद्भुत कहानी है। संग्रह में अलग-अलग मिजाज की कहानियां हैं। ‘काई’ कहानी उस व्यामोह के भंग होने की कथा कहती है जिसे बहुत करीने से कथानायक ने संजो रखा था। बचपन की शिक्षा और शिक्षकों के व्यक्तित्व की छाप ता-उम्र दिमाग में बनी रहती है। कथानायक सतपाल सिंह अपने बीते हुए दिनों और पुराने शिक्षकों को याद करने के ख्याल से शिक्षकों से मिलने जाता है तो उसे अपने निर्णय पर पछतावा होता है। पूरी शिक्षा व्यवस्था धंधई शिक्षकों के कब्जे में दिखती है। अकूत संपत्ति अर्जित करके आयकर से बचने के लिए सतपाल से पैरवी करता है। वही शिक्षक जो परिचय निकलने से पूर्व नमस्कार तक का प्रत्युत्तर देना जरूरी नहीं समझता।
इसी तरह ‘जनम’ और ‘मर्ज’ अलग-अलग धरातल की कहानियां होते हुए भी पलायन के उस यथार्थ से टकराती हैं जिससे कथानायक अपने-अपने तरीके से बचकर निकल जाना चाहता है। किस्सा कोताह यह कि ओमा अपने इस पहले संग्रह से ही हिन्दी कहानी को एक नई कथा-भाषा और मुहावरे से समृद्ध करते हैं। आज की कथा-आलोचना कथा-भाषा के संग-संग कथाभूमि की बारीकियों पर भी ध्यान केन्द्रित करे तो संभव है कि ओमा की ‘भविष्यदृष्टा’ सरीखी कहानियों पर और नए ढंग से विमर्श हो। मुख्तसर यह कि ओमा की कहानियों में पाठक इस कदर खो जाता है कि भाषा की छोटी-मोटी भूलों पर ध्यान ही नहीं जाता। अपने पहले संग्रह से ही वे आलोचकों को कुछ अलग और नए ढंग से सोचने की चुनौती पेश करते हुए दिखाई देते हैं।
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