Oma Sharma's Blog
  • मेरी किताबें
  • मेरी समीक्षाएं
  • कहानी
  • लेख
  • रचना प्रक्रिया
  • मेरी किताबों की समीक्षाएं
  • Diaries
  • Interviews Taken
    • Interviews Given
  • Lectures
  • Translations

पंकज पराशर (पल-प्रतिपल, 2005): स्वाइग के गुजरे जमाने की दास्तान

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

न सिर्फ राजनीति बल्कि दर्शन और साहित्य में भी जर्मनी और जर्मन भाषा का अन्यतम योगदान है। गेटे, मार्क्स, मैक्समूलर, वाल्टर बेंजामिन, काफ्का आदि ऐसी शख्सियत हैं, जो समय और सीमाओं से परे हैं। उसी देश के हिटलर और गोएबल्स को हम आज भी नए-नए रूपों में अपने बीच पाते हैं और यूरोप की साम्राज्यवादी मानसिकता को भी विभिन्न रूपों में ‘शिकार’  पर ऑक्टोपसी जकड़ मजबूत बनाते हुए। साम्राज्यवादी मानसिकता भाषा को माध्यम के साथ-साथ हथियार के तौर पर भी इस्तेमाल करती है। भाषा उनके लिए न केवल संप्रेषण का माध्यम होती है बल्कि उनकी संस्कृति और इतिहास की वाहक भी। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के लिए अंग्रेजी ने जो भूमिका निभाई वहीं जर्मनी वालों के लिए जर्मन ने।

आज फ्रेंज काफ्का की गणना विश्व-साहित्य के मूर्धन्य लेखकों में होती है। वे जर्मन भाषा में लिखते थे, लेकिन उनके संस्कार, उनकी मानसिक बनावट और उनकी प्रेमिका चेक थीं क्योंकि उनके जीवन का बड़ा अंश प्राग (चेकोस्लोवाकिया) में बीता था। लेकिन ट्रेजेडी देखिए कि वे चेक लोगों में जर्मन थे और जर्मनों के बीच यहूदी– दोनों की दृष्टि में एक ‘बाहरी आदमी’। काफ्काई अकेलेपन की एक बड़ी वजह यह भी है। ऑस्ट्रिया के निवासी (बाद में जिनका कोई कहीं घर नहीं रहा।), जर्मन में लिखने वाले विश्व के बड़े लेखकों में से एक स्टीफन स्वाइग के साथ भी साम्राज्यवादी मानसिकता ने वही व्यवहार किया जो ‘बाहरी आदमी’  के साथ नस्ली और भाषाई दंभ में आमतौर पर वह करती है, जिसके ‘शिकार’  स्टीफन स्वाइग और वाल्टर बेंजामिन हुए… दोनों को आत्महत्या करनी पड़ी। जर्मन में लिखने के बावजूद काफ्का के अकेलेपन और स्वाइग की बरसों-बरस बेघर भटकने का कारण क्या सिर्फ तत्कालीन वैश्विक परिस्थितियां थीं? साथ ही गौरतलब यह भी है कि जर्मन भाषी मेधा चाहे मार्क्स हों, स्वाइग या वाल्टर बेंजामिन- दर-ब-दर भटकना क्या उनकी वैयक्तिक नियति थी? स्वाइग, वाल्टर बेंजामिन एवं अलेक्सांद्र फदेयेव ने जो आत्महत्या की , वह क्या उनकी अपनी मनोदशा का प्रतिफल था? स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा ‘द वर्ल्ड ऑफ यसटर्डे’ का ओमा शर्मा द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद ‘वो गुजरा जमाना’  वर्ष 2004 में प्रकाशित हुआ है और साम्राज्यवादियों, वैश्विक शांति-अशांति के नियंताओं ने मानवता का क्या हाल बनाया है, इसको पूरी मार्मिकता से बयान करती है। हिन्दी के पाठक विष्णु खरे और ओमा शर्मा के तर्क-वितर्क से स्वाइग बन गए स्टीफन ज्विग की कुछ कहानियां पहले से पढ़ते रहे हैं, लेकिन ‘वो गुजरा जमाना’  स्वाइग को मुकम्मल तौर पर सामने लाती है। ज्विग से स्वाइग बने इस लेखक के बहाने यह मुद्दा जोरदार तरीके के सामने आया कि नामों को लेकर (यद्यपि एक बड़े लेखक ने कहा है- नाम मे क्या रखा है।) हमारी जो नीतियां हैं वह किस हद तक सही हैं। हिन्दी में बर्तोल्त साहब ब्रेख्त हैं और ब्रेष्ट  तथा ब्रेश्ट भी। टॉल्सटाय और तोल्सतोय दोनों लिखा जाता है लेकिन गेटे को गोएथे नहीं लिखा जाता। लांजाइनस, लोंजाइनस, लोंगिनुस- तीनों लिखा जाता है। सौक्रेट्स सही पर हिंदी में वे सुकरात हैं और एरिस्टॉटल साहब अरस्तू बने हुए हैं। जैसे तुगर्येनेफ हिंदी में तुर्गनेव हैं।
ओमा ने ज्विग को स्वाइग बनाकर यह अच्छा किया कि मुख-सुख के कारण नाम को बिगाड़ने की परंपरा को तोड़ा। लेकिन उन्होंने इस प्रसंग में शायद इस तथ्य की अनदेखी की है कि हिन्दी में जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है और स्वाइग की वर्तनी रोमन में चूंकि zweig  है इसलिए हिन्दी में स्वाइग न लिखकर ज्विग ही अब तक लिखा जाता रहा है। ज्विग ही प्रचलित रहा है। यह कितना सही है और कितना गलत-इस पर चर्चा को फिलहाल छोड़ना ही ठीक है।

बहरहाल ‘वो गुजरा जमाना’ में देखें कि क्या दास्तां है और किस वजह से उसको जानना हम लोगों के लिए आवश्यक और महत्तवपूर्ण है। हिन्दी के अधिकतर संस्मरण लेखकों ने दूसरों पर लिखने के बहाने स्वयं को ही स्वयं के द्रारा महिमामंडित करने का प्रयत्न किया है (परसाई जी ने ‘विकलांग श्रद्धा के दौर’ में इसकी अच्छी खबर ली है।) उसके बरअक्स स्टीफन स्वाइग की यह स्वीकारोक्ति  देखियेः ‘अपनी शख्सियत को इतनी अहमियत मैंने कभी नहीं दी कि दूसरों को अपननी जिंदगी की कहानी सुनाने लग जाऊं।’  लेकिन स्वाइग ने अपने आत्म की कथा इसलिए बयान की है कि ‘यह मेरी नियति की कहानी नहीं बल्कि उस पूरे दौर का बखान है जिसके नसीब में तारीख के और किसी दौर से ज्यादा बदनसीबी का बोझ लिखा था।’

लेखक और पेशेवर इतिहासकार के दृष्टिकोण में बहुत अंतर होता है। स्वाइग की दृष्टि से प्रथम विश्वयुद्ध से पहले और बाद की स्थितियों के अलावा दुनिया में जारी अनंत विस्थापन तथा द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले और बाद की परिस्थितियों को जिस मार्मिकता के संग बयान किया गया है वह पेशेवर इतिहासकार में मिलना मुश्किल है। स्वाइग ने बदलते भूगोल, बदलते मानचित्र और बदलते शासन को बहुत बारीकी से देखा था। अपने शहर वियना को छोड़कर उन्हें भागना पड़ा। उनके साहित्यिक काम को उसी जमीन पर जलाकर राख कर दिया गया जहां उनके लाखों पाठक थे। स्वाइग कहते हैः ‘इसलिए मैं कहीं का भी नहीं रह गया हूं, हर जगह एक अजनबी या ज्यादा से ज्यादा एक मेहमान’। जो काफ्का की भी नियति थी। स्वाइग ने तत्कालीन विश्व की परिस्थितियों और घटनाओं को जिस तरह बयान किया है वह उनके साथ घटा एक ‘सामान्य-सा यथार्थ’ भले हो लेकिन बाद की दुनिया के लोगों के लिए ‘ऐतिहासिक’ या ‘पहेली’ से कम नहीं है। शायद इसलिए भी कि बकौल स्वाइग हमारे आज और गुजरते हुए कल और बीते हुए वर्षों के बीच बने सारे पुल ध्वस्त किये जा चुके हैं। स्वाइग अपनी आत्मकथा में उन्हीं ध्वस्त पुलों के पुनर्निर्माण द्वारा ‘सामान्य सा यथार्थ’ और ‘पहेली’  के बीच आवाजाही की कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं।

स्वाइग की आत्मकथा सोलह अध्यायों में बंटी हुई है जिसमें अनुवादकीय परिशिष्ट जोड़कर अनुवादक ओमा शर्मा ने उनके जीवन में त्रासद अंत की कथा जोड़कर पूर्णता प्रदान की है। इस लिहाज से देखें तो स्वाइग के जन्म से लेकर मृत्यु तक की पूरी दास्तान हिन्दी रूपांतरण में उपलब्ध है।

स्वाइग लिखते हैः ‘वह सदी जिसमें मेरी पैदाइश और पढ़ाई-लिखाई हुई, ऐसी थी ही नहीं, जिसमें कोई दुःख-दर्द हो। उस जमाने में सब कुछ व्यवस्थित और शांत था।’ स्वाइग का बचपन उस वियना में बीता था जहां उस समय सांस्कृतिक आदर्शों के प्रति जैसा उन्माद था वैसा पूरे यूरोप में कहीं नहीं था। संगीत और कला के प्रति लोगों में गजब की दीवानगी थी और लोगों की आवभगत करने को जैसे पूरा शहर मरा जाता था। हर नागरिक अपने को पूरे विश्व से जुड़ा महसूस करता। लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ही राष्ट्रवाद के कीड़े ने दुनिया को काटना शुरू कर दिया था। युद्ध ने आस्ट्रिया ही नहीं, समूचे यूरोप के लोगों के ख्वाबों को चकनाचूर करके रख दिया था। लेकिन जैसे यही काफी नहीं था। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। लोग अपने घर से बेघर और वतन से बेवतन हो गये। जो अपने वतन से चिपके रहे, उन्हें सख्त सजा भुगतनी पड़ी। हिटलर के दमन ने यहूदियों की ऐसी दशा कर दी कि वे सहारा से लेकर टुंड्रा प्रदेश तक कहीं भी जाने को तैयार हो गये। स्वाइग को पासपोर्ट के बदले ‘विदेशी’  होने का प्रमाण-पत्र दिया गया। अपने ही घर में विदेशी होने की पीड़ा एक लेखक के लिए कैसा त्रासदीपूर्ण था, वे लिखते हैः ‘पहले इंसान के पास जिस्म और रूह होती  थी, अब उसे पासपोर्ट भी चाहिए क्योंकि उसके बगैर उसे इंसान का दर्जा नहीं मिलेगा।’

स्वाइग ने तमाम यातनाओं, बर्बरताओं और जलावतनी के बीच भीतर के मनुष्य और रचनाकार को मरने नहीं दिया। स्वयं को  ‘प्रोजेक्ट’ करने के बजाय उसने हर संभव कोसिश की कि वह स्वयं को नेपथ्य में रखे और अपने समय तथा संपर्क में आए व्यक्तियों को केन्द्र में रखे। वह संवयं की बजाय रिल्के, रोदां, रोमां रोलां, गोर्की और फ्रायड जैसे समकालीन मित्रों के लेखन और कला को ज्यादा महत्व देता है… जैसे वह आत्म की नहीं, अन्य की कथा कह रहा हो। शायद यही कारण है कि यह किताब विरल रचना होने के बावजूद लेखक स्वाइग के बार मे पाठकों को कुछ खास नहीं बताती, जबकि उनके जीवन में जो अन्य है, जो देशकाल है, वही आत्मकथा में प्रमुखता से आया है। एक बात खासतौर से ध्यान देने लायक है कि व्यक्ति स्वातंत्र्य के प्रति उसकी उत्कट चाहत लगातार उजागर होती रहती है।

स्वाइग की यह आत्मकथा 1943 में छपी, लेकिन हिन्दी में इकसठ साल बाद ओमा की जुनूनी कोशिश से सामने आ सकी। हैरत की बात यह है कि हिन्दी में अनुवाद की समृद्ध परंपरा होने के बावजूद सत्तर के दशक के बाद इसमें गिरावट आई। कुछ लेखक छिटपुट अनुवाद करते रहे लेकिन आलोचकों ने अनुवाद से जैसे तौबा ही कर ली। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘रिडल ऑफ दु यूनिवर्स’ का ‘विश्व प्रपंच’ नाम अनुवाद किया तो डॉ. रामविलास शर्मा ने रजनी पाम दत्त की किताब का अनुवाद किया। मैनेजर पाण्डेय ने ‘संकट के बावजूद’ नाम से आठ-दस लेखों के अनुवाद प्रस्तुत किये हैं, तो इधर मदन सोनी ने एडवर्ड सईद के लेखों का बेहतर अनुवाद किया है। अनुवाद से उदासीन आलोचकों और मूल लेखन के आग्रही लेखकों के लिए ओमा शर्मा द्वारा किया गया स्वाइग की आत्मकथा का यह अनुवाद नई स्फूर्ति का कारण बनेगा-ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

अब जरा अनुवाद की गुणवत्ता और स्तरीयता की परख कर ली जाए। ओमा ने अनुवाद के बजाय एक तरह के Re-create करने का प्रयत्न किया है और हिन्दी के पाठकों की सुविधा को ध्यान रखकर आत्मकथा में आये विभिन्न संदर्भों को स्पष्ट करने के लिए फुटनोट्स का खूब इस्तेमाल किया है। लेकिन भाषा की स्वाभाविक रवानी, प्रवहमानता और सरलता को छोड़कर जिस उर्दूबहुल हिन्दी का व्यवहार अनुवादक ने किया है, वह संप्रेषण में गंभीर बाधा उत्पन्न करता है। आम पाठकों के लिए ऐसी भाषा को समझना थोड़ा श्रमसाध्य होगा। पर राहत की बात यह है ऐसे प्रसंग कम हैं, जहां पाठक को अटकना पड़े। ओमा को आम पाठकों को ध्यान में रखकर चलना चाहिए था। भाषा की शुद्धता के मामले में हम रघवीरी हिंदी के हिमायती नहीं हैं, लेकिन कबीर जिस ‘बहता नीर’  की बात करते हैं उसके प्रति जरूर हम ध्यान आकृष्ट कराना चाहते हैं।

स्वाइग की यह आत्मकथा हिंदी पाठकों को न केवल आत्मकथा की नई शैली बल्कि तत्कालीन यूरोप और उसके समकालीन लेखकों को नए सिरे से समझने में सहायक होगी। संयोग से यह आत्मकथा हिंदी में उस समय आई है जब जर्मनी की ताकत घट चुकी है और विश्व एक ध्रुवीय महाशक्ति के साए में आ गया है। आज भी ‘सभ्ययताओं के संघर्ष के नाम पर लोगों को बेघर और बेवतन किया जा रहा है। हिन्दू राष्ट्रवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खतरनाक इरादों ने मानवता को कंपा दिया है। ऐसे में स्वाइग की यह आत्मकथा न केवल विश्वयुद्धों की मार से बरबाद तत्कालीन यूरोप और वहां के निवासियों की त्रासदी का आंखों देखा हाल बताती है बल्कि हमारे अपने समय में भी युद्ध-पिपासु शासकों और शक्तियों को बेहतर तरीके से समझने में सहायत करती है। इसके लिए हिन्दी के पाठकों को अनुवादक का आभारी होना चाहिए। हम उम्मीद करते हैं कि स्वाइग की आत्मकथा की हिंदी जगत में, व्यापक रूप से स्वागत होगा।

Posted in Reviews of my books
Twitter • Facebook • Delicious • StumbleUpon • E-mail
Similar posts
  • संवेदन आवेग का अनुवाद : स्टीफन स्वाइग...
  • देश-विदेश की कतरनें मार्फत ‘अन्तरयात्...
  • देश-विदेश की कतरनें मार्फत ‘अन्तरयात्...
  • रचनाकार और उसका अंतर्जगत
  • से. रा. यात्री (पल-प्रतिपल, जून-सितम्...
←
→

No Comments Yet

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *



Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

Books On Amazon

अन्तरयात्राएं वाया वियना 20160516_145032-1 अदब से मुठभेड़

Recent Posts

  • अहमदाबाद दूरदर्शन(डीडी-गिरनार) के कार्यक्रम ‘अनुभूति’ लिए विनीता कुमार की ओमा शर्मा से बातचीत:
  • पत्रों में निर्मल
  • कथाकार ओमा शर्मा से युवा आलोचक अंकित नरवाल के कुछ सवाल
  • संवेदन आवेग का अनुवाद : स्टीफन स्वाइग की कहानियां
  • देश-विदेश की कतरनें मार्फत ‘अन्तरयात्राएं : वाया वियना’

Pure Line theme by Theme4Press  •  Powered by WordPress Oma Sharma's Blog