ओमा शर्मा की किताब ‘अंतरयात्राएँ : वाया वियना’ पहली नजर में लेखक के फुटकर यात्रा अनुभवों का बेतरतीब संकलन लगता है, हालाँकि किताब के शुरू में ही उन्होंने साफ कर दिया है कि ‘ये लेख यात्रा वृतांत नहीं हैं.’ लेखक के शब्दों में ये रचनाएँ ‘वे जीवनानुभव हैं जिन्होंने मुझे गहरे प्रभावित किया, झिंझोड़ा, वही यथार्थ उनके अन्तर्निहित सत्य के संधान का बायस बना. एक मायने में इनमें दर्ज यथार्थ बिखरी पड़ी वे कहानियाँ हैं, जिन्हें गल्प के त्वरण या तोरण की जरूरत नहीं.’
किताब में कुल आठ छोटे-बड़े लेख हैं जिनमें दो यूरोप की यात्रा से, एक ‘जादू-टोनों के देश’ असम से, एक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपने गाँव से, दो गुजरात से और दो लेखन और समाज के अंतर्संबंधों को लेकर की गई एक रचनाकार की आत्मीय टिप्पणियाँ हैं. शायद टिप्पणियाँ कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि सभी लेख लेखक के द्वारा की गई देश-विदेश की यात्राओं के माध्यम से अपने अंतर्जगत की बौद्धिक-सांस्कृतिक यात्राएँ हैं. ये यात्राएँ लेखक के साथ ही पाठक को भी अपने अंतर्जगत की यात्रा करने के लिए सहारा देती हैं.
“इस इमारत को देखकर पहली बार ऐसा लगा जैसे मैंने इसे अपने मन की आँखों से पहले देख रखा है. कब, कैसे ? फिर याद करता हूँ ‘एक अनजान औरत का ख़त’ कहानी, जिसकी मार्फ़त स्टीफन स्वाइग से मेरा पहला ताल्लुक हुआ था. कहानी का नायक लेखक, जो अकेला रहता है, निश्चित ही ऐसी ही किसी इमारत में रहता है.” (स्टीफन स्वाइग की जमीन पर : पृ. 37)
हिंदी में यूरोप को लेकर लिखा गया विवरण या तो परिचयात्मक है या एक खास तरह के आतंक से युक्त. ऐसे विवरणों में उस तरह की अंतरंगता और सहजता नहीं दिखाई देती जैसी कि उनसे अपेक्षित होती है. इसका एक कारण यह हो सकता है कि भारत के मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे वर्ग का परिचय यूरोप से अंग्रेजी के माध्यम से औपनिवेशिक काल में हुआ. यह कम ताज्जुब की बात नहीं है कि अंग्रेजों के अपने घर लौटने के पैसठ साल के बाद भी, जब कि अंग्रेजी भारतीय मध्यवर्ग को शिक्षित करने वाली प्रथम भाषा बन चुकी है, कोई भी भाषा भारतीयों के ज्ञान के अभिव्यक्ति की सहज भाषा नहीं बन पाई है. अंग्रेजी और यूरोप की उपस्थिति भारतीयों के लिए ‘न थूकते बनती है न निगलते!’ मजेदार बात यह है कि जितना ही हम अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए अंग्रेजी से छुटकारा पाना चाहते हैं, अंग्रेजी उतनी ही हमारी जरूरत का हिस्सा बनती जा रही है. खैर.
यूरोप का मध्यवर्ती भाग, जिसकी यात्रा के प्रसंग इस किताब में हैं, आज तक भी वहां के सांस्कृतिक संग्रहालय का केंद्र बना हुआ है. खासकर वियना, जो इस पुस्तक के केंद्र में है. “वैसे तो यूरोप के ज्यादातर शहरों के स्थापत्य में एक सिलसिला या पैटर्न दीखता है लेकिन वियना जैसे पुराने शहर में एक आवासीय सादगी मुद्दत से कायम है. इसका एक कारण तो आबादी है जो पिछले सौ बरसों से बीस लाख के आस-पास बनी हुई है.” (पृ. 24) ओमा शर्मा की यह यात्रा यूरोप की सांस्कृतिक, व्यावसायिक, धार्मिक या अकादमिक यात्रा नहीं है, जैसी कि सामान्यतः संपन्न भारतीयों के द्वारा इन देशों में की जाती हैं. शायद इसीलिए इस यात्रा में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय का दंभ या आतंक भी नहीं झलकता है. ये सारी यात्राएँ एक पाठक के द्वारा अपने प्रिय लेखकों के रचना-संसार के बीच गुजरकर की गई आभासीय यात्राओं की अपने खुद के लिए आयोजित वास्तविक अंतरयात्राएँ हैं. इसी कारण ये पठनीय भी हैं और बड़ी सहजता से पाठक को अपना सहयात्री बना लेती हैं.
किताब का पहला अध्याय पिछली सदी के बहुपठित यूरोपीय लेखक स्टीफन स्वाइग के जन्मस्थान वियना और आरंभिक कर्मभूमि बर्लिन के उन रास्तों और आवासों की तलाश है, जिन्होंने स्वाइग को अपना संसार रचने में पृष्ठभूमि दी और उसके बाद विश्वव्यापी पहचान दी. अपनी यात्रा के दौरान लेखक उन बारीक़ स्रोतों – ध्वनियों, रंगों-छवियों और संकेतों – को पकड़ना और समझना चाहता है जिन्होंने उन कालजयी रचनाओं को जन्म दिया था. यही वजह है कि लेखक की इस अंतरयात्रा के माध्यम से पाठक स्वाइग की रचना-यात्रा के अन्तरंग स्रोतों के साथ भी अनायास जुड़ जाता है :
“लेकिन इस इमारत की याद वास्तव में उन रचनाओं में है जो यहाँ पर सृजित की गईं. कैसे भरता है कोई ‘होनहार’ लेखक से ‘जगजाहिर’ लेखक बनने की उड़ान – इस प्रश्न का कोई सीधा उत्तर न कभी हुआ है न शायद हो सकेगा. कलागत महानताओं का कोई सीधा और सरपट रास्ता है ही नहीं. छिटपुट सहारे कुछ समय के लिए इसमें काम कर सकते हैं लेकिन अंततः चुनी हुई राह, वह कलागत निष्ठा, ईमानदारी और निवेशित श्रम से तय होती है. स्वाइग के सन्दर्भ में कविताओं की मार्फ़त मिली कामयाबी ने उसे एक सेलिब्रिटी जैसा बना दिया था, लेकिन कम उम्र के उस दौर में जिसे बाल्जाक और दोस्तोवस्की के अकिंचित जीवन और ज्वालामुखीय सृजन की आंच तपने लगे, उसे तात्कालिक शोहरत जैसी फिजूल चीज से कोई मोह नहीं रह सकता है.” (पृ. 39)
स्वाइग के समकालीन साहित्य-समाज का चित्र उकेरने के लिए ओमा शर्मा ने उस दौर के दुसरे लेखकों की बानगी का भी भरपूर सहारा लिया है : “अपने लगातार बढ़ते पाठकों के पत्रों का जवाब देने के लिए एक अंशकालिक सचिव भी रख ली थी ताकि वह लिखने-पढ़ने पर ही एकाग्र रहे. इस सन्दर्भ में उसके एक मित्र विक्टर फ्लाइजर की डायरी में दर्ज निरिक्षण गौरतलब है : ‘एक रोज यों ही स्टीफन स्वाइग से मिलने उसके घर चला गया, कोई सुबह के ग्यारह बज रहे होंगे. मैं अन्दर पहुंचा तो घर पूरी तरह से अस्त-व्यस्त था. उसने अपनी दाढ़ी भी नहीं बनाई थी और बिस्तर के पास कई बेहाल कप पड़े हुए थे. ऐशट्रे भरी पड़ी थी… लग रहा था जैसे वह अभी सोकर उठा है. लेकिन मुझे बाद में पता चला कि इस तरह का जीवन उसके कामकाज का हिस्सा था. घर से बाहर एक कदम रखने से पहले वह समझो पांच-सात घंटों की मशक्कत कर चूका होता था…” काफ्का के अभिन्न मित्र रहे मैक्स ब्रोड ने लेखकी के उसके दुसरे पहलु पर लिखा है कि कैसे बात चलने पर भी वह अपनी किसी रचना का जिक्र करने से भागता था. उसकी काफ्का से कभी मुलाकात नहीं हुई लेकिन वह उसके गद्य से बेहद प्रभावित था… स्वाइग जब आर्थिक रूप से पूरी तरह मुक्त था, लेकिन चार्ल्स डिकेंस, दोस्तोवस्की और बाल्जाक के जीवन के सिरों और शिराओं नब्ज टटोलता लेखक जन गया था कि विलासिताएं किसी कलाकार के लिए किस कदर भ्रामक और आत्मघाती होती हैं…”
इस लम्बे लेख की खास बात यह है कि लेखक ने स्वाइग की रचना-यात्रा को उसके पढ़ने, सोने और दोस्तों के साथ बैठने वाले कमरों की भौतिक बारीकियों के जरिये इस तरह प्रस्तुत किया है कि लगता है मानो पाठक के सामने बैठा वह इस वक़्त भी लिख रहा है या दोस्तों के साथ बतिया रहा है. यह सब तभी संभव है जब किसी ने लेखक की रचनाओं का बारीकी से अध्ययन ही नहीं किया हो, उन्हें जिया भी हो. ओमा शर्मा की यह तलाश केवल स्वाइग की रचनाओं में से ही नहीं, उस दौर के सभी महत्वपूर्ण, यहाँ तक कि गैर महत्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं में से भी की है. जाहिर है कि ऐसा विवेचन वही प्रस्तुत कर सकता है जो स्वाइग की रचनाओं के बीच से ही नहीं, उस दौर के सभी लेखकों के रचना-संसार के बीच से गुजरा हो. शायद यही कारण है कि यह लेख स्वाइग और उसके समय का इतना जीवंत और अन्तरंग चित्र प्रस्तुत कर सका है.
लेखक ने स्वाइग के युग की संवेदना को पकड़ने की कोशिश में उस दौर के उन राजनीतिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों पर भी विस्तार से विचार किया है जिन्होंने पूरी मानवता को प्रभावित और प्रेरित किया. बहुत विस्तार के साथ स्टीफन स्वाइग अध्ययन केंद्र के भीतर प्रवेश करके लेखक ने फ्रायड, मोजार्ट, बिथोवन, वास्कोडिगामा के संग्रहालयों की यात्रा की है. खास बात यह है कि यह यात्रा भी उस दौर के साहित्यिक और सांस्कृतिक संसार के बीच से ही गुजरकर की गई है. संसार को एक सर्वथा नयी दृष्टि प्रदान करने वाले ये विचारक अपने निजी एकांत को किस तरह एक जीवन-दृष्टि में बदल देते हैं, इस किताब के सन्दर्भ में यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है. इसी क्रम में अध्याय के आखिर में ‘स्वाइग, गाँधी और भारत’ शीर्षक से यूरोप के उस अभूतपूर्व योगदान को भारत के साथ भी जोड़ा गया है.
इसी अध्याय का एक और भावपूर्ण हिस्सा है – ‘यूरोप का विला, मोनास्ट्री और चलान-ढलान’. यूरोप और खासकर वियना ने संसार को थियेटर और नाटक का जो स्वप्निल संसार दिया, उसे सबसे पहले रेखांकित करने का श्रेय भी स्वाइग को है. लेखक की यह टिप्पणी गौरतलब है : ‘पहले विश्वयुद्ध की घमासान निश्चिन्तताओं और धुकधुकी और पागलपन के बीच लिखे अपने नाटक ‘येरेमिहा’ के स्विट्जरर्लैंड में मंचन और चारों तरफ मिले कलात्मक प्रोत्साहन ने स्टीफन स्वाइग को वियनाई लेखक से एक वैश्विक लेखक बना दिया… जर्मन प्रान्त में उसकी गिनती पहली पंक्ति के समकालीन लेखकों में थी, लेकिन वह मन-ही-मन संतुष्ट नहीं था. इसका कारण यह था कि उसके दायरे में बाल्जाक, डिकेंस, दोस्तोवस्की, नीत्शे, टॉलस्टॉय और रोमा रोलां जैसे चमकते सितारे आ चुके थे.’…
इसीलिए स्टीफन स्वाइग के इस घर के बारे में लिखते हुए ओमा शर्मा टिप्पणी करते हैं, : “यह मकान उसकी सम्पूर्ण लेखकीय आजादी का प्रतीक तो था ही, साथ ही अलग-अलग जीवन और संस्कृतियों को महसूस करने वाले युवा लेखक के पंछी को जहाज की सुख-सहूलियत भी प्रदान करता था. इसी मकान में रहकर उसने भारत, बर्मा, फ़्रांस, अमरीका और यूरोप के तमाम देशों की नियमित यात्राएँ की.” (पृ. 43)
स्वाइग पर लिखा हुआ लेख किताब का केन्द्रीय लेख है, हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि बाकी लेख इसी के दृष्टि विस्तार हैं. लगभग 70 पृष्ठों के इस लेख के बाद 30 पृष्ठों का अगला लेख सदियों से ब्रह्मपुत्र के साथ अन्तरंग यात्रा करते उत्तर-पूर्व के विशाल इलाके असम के भौगोलिक तथा सांस्कृतिक परिदृश्य का आत्मीय अध्ययन है. इस लेख में पूरे वर्ष नदी के साथ बनती-टूटती अस्थाई बसासतों के बारे में जानना सचमुच रोमांचक है. बांग्लादेश सीमा से लगे इस क्षेत्र के अजीब से अंतर्विरोध हैं, जिन्हें लेखक ने बड़ी सहजता से रेखांकित किया है. अस्थाई रिहाइशों (जिसे लेखक ने ‘स्लम-चर’ कहा है) के बारे में जानना शेष भारत के लोगों के लिए सचमुच खासा रोमांचक है. उस अस्थाई जिंदगी के प्रतीक के रूप में पुलिस का सब-इन्स्पेक्टर तरुण दास, उसका घर, परिवार के और बाहरी लोगों के साथ उसके सम्बन्ध, समूचे असम की समाजार्थिकी को पाठक के सामने जीवंत कर देता है. वहाँ के लोक-विश्वासों का भी जिक्र हुआ है और बहुत विस्तार से कुछ दन्त-कथाओं के सहारे असम के उस रहस्यमय परिवेश को ऐसे प्रस्तुत किया है कि वह उस वनवासी जीवन के अंतर्विरोधों का एक यथार्थ बनकर समूची कहानी कह जाता है. शायद इसीलिए इन रचनाओं को लेखक ने गल्प के रास्ते प्रस्तुत किया गया यथार्थ कहा है.
‘गाँव : पुनर्यात्रा के झरोखे से’ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपने गाँव को एक बार फिर-से जीने की कशमकश में से पैदा हुआ आत्मीय आख्यान है हालाँकि वह नास्टेल्जिया नहीं है, जो ऐसी रचनाओं की नियति होती है. इसी क्रम में गुजरात में बिताए गए नौ वर्षों के प्रवास से जुड़े दो लेख ‘नरसंहार का सामाजिक यथार्थ और यथास्थिति की भूमिका’ तथा ‘गुजरात में भूकंप : सदमे से गुजरते हुए कुछ नोट्स’ भी कोरे रिपोर्ताज नहीं है, समाज, अर्थतंत्र और सत्ता की रस्साकशी के बीच अंकुरित होते मूल्यों की बानगी है. ‘स्विट्जरलैंड : सभ्यतागत निकष का साक्ष्य’ भी भारतीयों के सामने उस पर्यटक-देश की एक अलग, बहुत महत्वपूर्ण तस्वीर पेश करता है. पर्यटन और बैंकों के देश के रूप में जाने जाने वाले इस छोटे-से देश की वह कौन-सी खासियत है जो उसे संसार का एक अलग और समृद्ध देश बनाती है, उसकी ओर लेखक ने सही ही ध्यान खींचा है.
स्टीफन स्वाइग की अंतर्यात्रा से जुड़े पहले लेख का ही एक तरह से विस्तार है किताब का अंतिम लेख ‘आत्मचित्रण और टॉलस्टॉय के बहाने स्वाइग : एक निरीक्षण’. स्वाइग के द्वारा टॉलस्टॉय पर लिखी गई किताब के बहाने संसार के दो महान लेखकों के रचना-संसार के उन प्रसंगों से जुड़ा है जिन्होंने इन रचनाकारों को आपस में जोड़ा और इस बहाने उस दौर की विश्व-संवेदना को रेखांकित करने की कोशिश की. लेखक के ही शब्दों में, ‘यहाँ एक लेखक दूसरे लेखक की आत्मकथा या जीवनी नहीं लिख रहा है (जो कि अपेक्षाकृत आसान काम हो सकता है); यहाँ एक सिद्धहस्त कलाकार अपने तमाम औजारों और क्षमताओं से दूसरे सिद्धहस्त और प्रचंड कलाकार की उस मानसिक दुनिया और उसके अंग-प्रत्यंगों को टटोलने और उकेरने में लगा है जिनके चित्रण से उस शख्स को ही नहीं, उसके कृतित्व और उसकी परिस्थितियों, या यूँ कहें, उस आदमी की समूची और बेदाग नंगई को पकड़ा जा सके.’
एक तरह से यही ओमा शर्मा की इस किताब का उद्देश्य लगता है.
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