इस संग्रह में आठ कहानियां हैं जो हमारे बीहड़ महानगरीय जीवन के बदलते और कदाचित् अनछुए पहलुओं को कलात्मक ढंग से उजागर करती हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी में मुखबिर पठान के माध्यम से ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ का हिस्सा बने अनेक धंधों की कार्यशैली और उनमें सेंध लगाने के प्रवर्तक तरीकों का रोचक वृत्तांत ही नहीं, उनकी समानांतर दुनियाओं का विपर्यस भी बिंधा है। उत्तर गोधरा कांड के गुजरात की स्थितियों के पार्श्व में रची इस कहानी के मूल में पठान की इंसानी पेशेगत जिजीविषा है, जो तमाम कौमी जातिगत संदर्भों पर अव्वल पड़ती है। उसे न दंगों से मतलब है, न दंगाइयों से। उसका वास्ता है तो अनुभव-जतन से बटोरी उन जानकारियों से जिन्हें व्यवस्था ने उसका पेट पालने की सहूलियत दे रखी है। ‘वास्ता’ कहानी में ओमा शर्मा ने भारतीय मध्यवर्गीय पारिवारिक संबंधों के ताने-बाने को बहुत मुलायमियत से बुना है। पाठक चारित्रिक स्थितियों में खुद को तलाशने लगता है। यह कहानी बहुत बारीकी से दंश छोड़ जाती है कि हमारे समय में आर्थिक पक्ष किस कदर रागात्मक संबंधों की जड़ों को कुतरने लग गये हैं। ‘महत्तम समापवर्तक’ सौंदर्यबोध की जटिल बुनावट की कहानी है जिसमें महीनगरीय अलगाव का बखूबी चित्रण हुआ है। अपने खालीपन को बड़े-बड़े चित्रकारों की पेंटिंग्स प्रतिकृतियों से भर कर सौंदर्यबोध के एहसास से पगी उस महिला को कला या उसकी समझ से कोई ताल्लुक नहीं है। निवेदक से बातचीत करवाके लेखक मानो पाठक को सौंदर्य के अर्थों पर ठहरने को लुभा लेता है। ‘ग्लोबलाइजेशन’ मजबूत और आकर्षक शिल्प में बुनी गई कहानी है जिसमें अखबारी सूचनाओं के बरक्स उस कटु वास्तविकता को खड़ा कर दिया है जो महत्वपूर्ण होते हुए भी प्राथमिकताओं से ओझल बने रहने को अभिशप्त है।
‘घोड़े’ संग्रह की अपेक्षाकृत लंबी कहानी है जिसमें शर्मा ने समकालीन महानगरीय यथार्थ के किंचित अनछुए पहलू को रेसकोर्स घुड़दौड़ के रूपक के माध्यम से दर्ज किया है। यह संभावनाओं और महत्वाकांक्षाओं के विघटन और संत्रास ही नहीं, पूरी रफ्तार और घुमड़ते यथार्थ के बीच एक अच्छी-खासी प्रतिभा के खारिज हो जाने का आख्यान है। अंत तक आते पाठक अवसन्न हो जाता है जब वह “मैंने लाइफ में कुछ नहीं कमाया समीर… सब गंवाया है। मैं तो घोड़ा ही रह गया… मेरी वाइफ जॉकी बन गई… यू नो, माइ वाइफ इज एन एस्कार्ट… माइ वाइफ इज एन एस्कार्ट” जैसे विस्फोट से गुजरता है। हिंदी साहित्य में घुड़दौड़ की पृष्ठभूमि पर शायद पहली बार कोई कहानी लिखी गई है और वह भी समकालीन महानगरीय यथार्थ को इस जबरदस्त रूपक के बतौर महकाते हुए। ‘रास्ता’ कहानी की पहचान अपनी अलग एकालापी भाषा है, जो दूसरों की बनिस्बत निवेदक की ही पोल खोलने का काम करती है। यहां भी मुंबई का वातावरण बहुत जीवंत ढंग से पेश हो उठा है। ‘कुतरवा’ कहानी की कई परतें हैं। अफसरों के यहां रहने वाले नौकरों और अफसरों के क्रिया-कलापों, ढोंग, पाखंड और अंधविश्वासों पर कुतरवा यानी राजा भैया की दीवार खड़ी है। निज हित का जज्बा खास वर्ग को कितने आडंबर की परत के नीचे दब कर आचरण करने को विवश करता है, यही कहानी का अभीष्ट है। ‘बांग्लादेश’ का प्रारंभिक वाक्य है। “बुजदिल होना एक सामाजिक अच्छाई है।” सुनीता स्वयं को बुजदिल मानती है लेकिन कहानी के उत्तरार्द्ध में पांसा पलट जाता है और वह अपनी तरह से प्रतिशोध लेती है। महानगरीय जीवन में अहं की टकराहट और स्त्री को शोषण के बाद पैदा हुए प्रतिरोध और प्रतिशोध का जबरदस्त दस्तावेज है ‘बांग्लादेश’ कहानी।
मुख्तसर यही है कि ‘कारोबार’ के माध्यम से ओमा शर्मा हमारे महानगरीय यथार्थ को बहुत मेहनत और सलीके से दर्ज करते हैं। कहानियों का वैविध्य पाठक को लुभाता है। ये कहानियां अपनी पठनीयता और कला, दोनों के स्तर पर हमारा ध्यान खींचती है।
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