आज के समय में जब मानव जीवन से जुड़े विविध पक्षों और संस्थाओं पर संकट के बादल मंडरा रहे हों, सीमित समय में बिना परिश्रम के उच्चतम पर-प्रतिष्ठा एवं अकूत धन की उद्दाम लालसा मन में हिलोरें ले रही हो और एक नितान्त भिन्न प्रकार की ‘व्यक्तिवादी सामाजिकता’ रूप ग्रहण कर चुकी हो, ऐसे में कथाकार ओमा शर्मा की यह स्वीकारोक्ति थोड़ी तसल्ली तो देती ही है कि ‘इस मुश्किल और जटिल समय में साहित्य ही मुझे वह विकल्प लगता है जो न सिर्फ अपने को बचाने, बल्कि गड्डमड्ड और ढलान भरे दौर में, इसी समाज और व्यवस्था का न सिर्फ प्रतिरोध खड़ा कर सकता है, बल्कि एक सार्थक प्रतिपक्ष भी रच सकता है।’ साहित्य के पास अस्त्र-शस्त्र नहीं होता, न ही सेना होती है। उसके पास संवेदना एवं विचार होते हैं, मनुष्य में आस्था, विश्वास और जिजीविषा को पुष्ट करने की परम्परा है। इसी के बल पर वह प्रतिपक्ष खड़ा कर सकता है, करता भी है। ओमा शर्मा की उपर्युक्त स्वीकारोक्ति में उनकी कथा संवेदना के बीज छिपे हुए हैं।
इस संग्रह की कहानियों में अभिव्यक्त चिन्ताधारा का हमारे समय और समाज में फैल रहे अन्धकार से गहरा सम्बन्ध है। कहने की जरूरत नहीं है कि किसी भी सार्थक रचना का प्रमुख उद्देश्य मानव जाति को अंधेरे से सचेत करना और उसे उजाले की ओर उन्मुख करना रहा है। इन कहानियों में राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियों को उजागर करते हुए पात्रों एवं स्थितियों के माध्यम से संवेदना के धरातल को विस्तार दिया गया है। ‘शुभारम्भ’ कहानी के प्रारम्भ में जहरीले सांप का जिक्र आया है जो कहानी के ‘मैं’ को निगल रहा होता है। जहरीला सांप कोई और नहीं, वर्तमान व्यवस्था का विद्रूप है जो मनुष्य के अस्तित्व के समक्ष एक बड़े संकट के रूप में उपस्थित है। आर्थिक भ्रष्टाचार हमारे सामान्य व्यवहार का हिस्सा बन चुका है। मानसिक ऊहापोह के बीच कहानी का मैं इसे स्वीकृति प्रदान कर ही देता है। इस ऊहापोह अथवा द्वन्द्व का कारण हमारी व्यवस्था और व्यक्ति के चरित्र में निहित है। ‘जनम’ कहानी में समाजार्थिक बदलाव का जो परिप्रेक्ष्य निर्मित किया गया है वह घनिष्ठ मानवीय सम्बन्धों में बढ़ती दूरी, निस्संगता, संवेदनहीनता, दायित्वहीनता और सम्बन्ध बोध के लोप होते जाने के बीच व्यक्ति मन की प्रबल इच्छा को मनुष्य की सहज प्रवृत्ति के रूप में ढलते जाने का संकेत है। कहानी में स्त्री साहचर्य अथवा उसकी संवेदना का स्पर्श पाने की आकांक्षा को सहज प्रवृत्ति के रूप में चित्रित करती है। ‘भविष्यदृष्टा’ व्यक्ति की निरीहता एवं विवशता को परिस्थिति के बीच रखकर इस प्रकार बुनी गयी है कि कहानी का अवसान करुणा से भर देता है, कि हम कहने के लिए बाध्य हो जाते हैं कि मनुष्य नियति के हाथ की कठपुतली है। आज का व्यक्ति अनास्था एवं अविश्वास से भर उठा है मानो अपने ही ढांचे में टूटकर समाती इमारत की तरह उसका अस्तित्व कहीं विलीन हो गया है। वह स्वयं में अपने अस्तित्व को ढूंढ़ने का असफल प्यास कर रहा है। विपन्नता, असफलता एवं विवशता का ऐसा करुण अवसान संवेदना के झकझोरने की सामर्थ्य रखता है। ओमा शर्मा की कुछ लघु कथाएं ‘नवजन्माः कुछ हादसे’ शीर्षक से इस संग्रह में संकलित हैं जिसमें बिना किसी कोलाहल के ऐसा स्त्री-विमर्श रचा गया है जो प्रचलित अवधारणाओं को निरस्त कर देता है। वंश परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र की कामना भले ही पुरुष मनोवृत्ति का परिचायक हो परन्तु भ्रूण हत्या, दहेज और बेटी के जन्म पर नाक-भौं सिकोड़कर अप्रसन्नता व्यक्त करने में स्त्रियां भी पीछे नहीं हैं। कहने का अर्थ यह कि स्त्री सम्बन्धी संकीर्ण दृष्टि की निर्मित एवं उसके साथ होने वाले अन्याय में स्त्री भी शामिल है।
कहा जाता है कि प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कथा साहित्य से मुस्लिम चरित्र धीरे-धीरे गायब होते चले गये। ओमा शर्मा की कहानी ‘मर्ज’ इसका अपवाद है। इसके केन्द्रीय चरित्र जाफर मुसलमान हैं। उनके माध्यम से कहानी निम्न मध्यवर्गीय चिन्ता एवं जीवन स्थिति को इस प्रकार हमारे सामने प्रस्तुत करती है कि साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के व्यापक प्रसार के बाच आज भी मानवीय स्बन्ध की सम्भावना तलाश की जा सकती है। कहानी में आये हिन्दू-मुस्लिम चरित्रों के पारस्परिक संवाद एवं सहयोग आश्वस्त करते हैं कि दो भिन्न धर्मावलम्बियों के मध्य सामाजिकता के स्रोत एवं प्रतीक अभी सजीव हैं। जहां तक परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रश्न है, शहर की अपेक्षा गांव में ज्यादा तेज है। पुराने सम्बन्धों जैसी गरमाहट तो अब रही नहीं। इसके अलावा गांव कई मायनों में अजनबी-से लगते हैं। विश्वसनीयता एवं सामुदायिक भावना मं ह्रास तथा संकट की स्थिति में सहानुभूति एवं सहायता प्रदान करने वालों का अभाव ग्रामीण परिवेश का यथार्थ बन चुका है। आज का व्यक्ति परिवेश बोध से असम्पृक्त हो गया है। वह तटस्थ एवं निरपेक्ष हो गया है। क्या यही हमारे समय का यथार्थ है? हां, यह समय संवेदनहीनता के निर्बाध विस्तार का है। ‘कंडोलैंस विजिट’ कहानी का यह अंश कि- ‘मनुष्य के चरित्र की असल पहचान तो तभी हो सकती है न जब उनमें विनिमय का कहीं स्थान न हो’- पुरानी बात हो गयी है। अब तो बिना विनिमय के कोई बात ही नहीं होती। सम्बन्धों के निर्वाह की चिन्ता से आज का व्यक्ति नहीं डरता। जब संवेदना भोथरी हो जाए अथवा लोप हो जाए, तो यह स्थिति मानवीय समाज के आन्तरिक संकट का संकेत करती है।
इस संग्रह की कहानियों में गड्डमड्ड समय समय को रूपायित करने के लिए लेखक के जिन पात्रों एवं घटनाओं का चयन किया है वे हमारे भाव बोध के लिए सहज ग्राह्य हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि ओमा शर्मा की ये कहानियां कठिनतर होते जा रहे समय में साहित्य की प्रासंगिकता के प्रति आशावान लेखक की कथा निर्मितयां हैं जो जीवन के प्रति आश्वस्ति एवं चुनौतियों से संघर्ष की चेतना जगाते हुए साहित्य की सार्थकता एवं सामाजिकता पर जोर देती हैं। इन कहानियों में प्रवाहित संवेदना एवं विचार इसकी पुष्टि करते हैं।
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