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जितेन्द्र कुमार: अदब से मुठभेड़ लेकिन बाअदब! (हंस, जुलाई, 2016)

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

पांच बड़े रचनाकारों से उनकी खुद की विधा में उनकी ही मांद में जाकर टकराना कोई आसान काम नहीं है। इसलिए आप भी काफी अदब से उस किताब को उठाते हैं जिस पर इन पांच बड़ी हस्तियों की तस्वीरें छपी हैं। किताब के ऊपर छपी जो तस्वीर  मुझे सबसे ज्यादा इस किताब को पढ़ने के लिए बाध्य करती है वह है मकबूल फिदा हुसैन।

एक साथ राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, शिवमूर्ति, प्रियंवद और एम. एफ. हुसैन का साक्षात्कार उत्सुकता जगाता है कि इस किताब को खोलकर पढ़ा जाए और जब आप पढ़ने लगते हैं तो कहीं से यह किताब आपको निराश नहीं करती है, एक ही बैठक में कम-से-कम एक साक्षात्कार तो आप पढ़ते ही पढ़ते हैं।

राजेन्द्र यादव या प्रियंवद से किए गए साक्षात्कार को पढ़ते वक्त हमेशा लगता है कि उनसे उनकी रचना-प्रक्रिया पर जितनी बातें हुई हैं उससे ज्यादा समाज और सामाजिकता पर बातें होनी चाहिए थीं। जबकि मन्नू भंडारी और शिवमूर्ति के संदर्भ में इसके ठीक उलट मुझे यह लगता रहा कि उनसे उनकी रचना-प्रक्रिया पर ज्यादा बातचीत होनी चाहिए थी। जिसकी बात मैं कर रहा हूं हूं उसका वर्णन शिवमूर्ति जी ने तफसील से ‘सृजन का रसायन’ में किया भी है। मन्नू जी को भी  वैसा ही कुछ लिखना चाहिए-सारी शारीरिक सीमाओं के बावजूद।  वैसे मन्नू जी यह कहती भी हैं- ‘यह न लिखने की जो तकलीफ है, बहुत सताती है। मेरा लिखना शुरू हो जाए तो मेरी सारी तकलीफें खत्म हो जाएंगी। मुझे दुनिया में और किसी चीज की जरूरत नहीं है’ (पृ.171)। वैसे मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ में ढेर सारी बातों का जिक्र ज्यादा किया है लेकिन उसमें कहीं न कहीं राजेन्द्र यादव द्वारा कही या बताई गई बातों का जवाब या प्रतिवाद ज्यादा है और उनकी खुद की रचना व प्रक्रिया पर कम बातें हैं।

अब बात मूलतः लेखन पर। राजेन्द्र यादव अपने साक्षात्कार में कई ऐसी बातों का जिक्र करते हैं जहां आप उनकी ईमानदारी का कायल हुए बगैर नहीं रह पाएंगे। साक्षात्कार के पहले हिस्से में जब ओमा उनसे अज्ञेय को उद्धृत करते हुए पूछते हैं कि आप तो आत्मकथा की विधा के ही खिलाफ दिखते हैं तो राजेन्द्र जी तत्काल कहते हैं- “नहीं, अब मैं वैसा नहीं सोचता हूं, मगर दिक्कत यह है कि आप अपने बारे में सब कुछ लिखने को स्वतंत्र हैं। लेकिन उस सच में दूसरे लोग इन्वॉल्व हों, उनकी सामाजिक, व्यावहारिक, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा जुड़ी हो तो उसे आप कैसे कहेंगे?” और यह बिलकुल ठीक भी है क्योंकि आप भले ही अपनी कथा (आत्मकथा) लिख रहे हैं लेकिन उन व्यक्तियों और गलियों का जिक्र तो जरूरी है जिसमें आपने वर्षों बिताए हैं! इसी तरह जब नई कहानी के तिकड़ी पर बात हो रही है तो ओमा पूछते हैं कि…“तो मैं मानूं कि आप तीनों में सबसे कम इगो आपकी ही थी?” तो इस पर राजेन्द्र जी का जवाब है-“नहीं, ऐसा नहीं है। इसे इगो न कहकर ‘सेंस ऑफ रेस्पेक्ट’ कहूंगा, जो मुझमें शुरू से रही है। जब मैंने सरकार और पूंजीपतियों की अधीनता नहीं स्वीकार की तो औरों के आगे अपने आत्मसम्मान को कैसे कम होने देता?”

लेकिन कई ऐसी बातें हैं जिसे वे लगातार छुपाने की कोशिश करते हुए दिखते हैं। जब राजेन्द्र जी से सवाल किया जाता है…“कोई संभावना नहीं देखते या महसूस करते जिससे किसी तरह का समझौता हो सके (मतलब आप दोनों के बीच-माने मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव के बीच)?” तो राजेन्द्र यादव का जवाब है- ‘मैंने अपनी तरफ से कुछ भी फाइनल नहीं किया है। कभी लगता है कि वह संभावना शायद अब समाप्त हो गई है… तो साथ ही भीतर कहीं विश्वास है कि अंततः रहना तो हमें साथ ही है। हो सकता है कि हम इतनी दूर चले आए हों कि गुंजाइश रह ही नहीं गई हो’।

राजेन्द्र जी का साक्षात्कार पढ़ते हुए बार-बार आपको फ्लेशबैक में जाने की जरूरत पड़ती है और आप उनकी कही बातों को ठोक-बजाकर जांचना चाहते हैं कि वो कम-से-कम मन्नू भंडारी के बारे में सही बोल रहे हैं या नहीं? एक जगह राजेन्द्र जी मन्नू भंडारी के बारे में बताते हैं, “हमारे ज्यादातर मतभेद हमारे सोचने के ढंग और अनकनवेंशनल विचारों को लेकर है… जैसे वो लगभग भाजपायी हैं और मैं उसका कट्टर विरोधी… बोलचाल तक बंद। अपनी सोच में वो परंपराओं से अलग होकर देख नहीं पातीं।” और जब आप उनकी बातों को जांचना चाहेंगे तो पाते हैं कि अरे हां, राजेन्द्र जी का मन्नू जी के बारे में यह आकलन बिलकुल सही है। जैसे आज के राष्ट्रवादी पीढ़ी के लिए यह पचाना असंभव है कि चीन पर 1962 में हमने हमला किया था, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि इस बात को मन्नू जी भी मानने को तैयार नहीं हैं। इसलिए यही सवाल जब ओमा मन्नू भंडारी से पूछते हैं तो उनका जवाब होता है कि कोई कमजोर देश ताकतवर देश पर हमला क्यों करेगा? इसके प्रत्युत्तर में जब ओमा शर्मा कहते हैं कि ‘फिर पाकिस्तान ने नहीं भारत ने हमला किया होगा क्योंकि ताकतवर तो हिंदुस्तान है’ इस पर वो कहती हैं- नहीं, पाकिस्तान हमला करता रहा है और जब वह तर्क को आगे ले जाना चाहते हैं तो मन्नू जी बड़ी भलमनसाहत से जवाब देती हैं- “इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती लेकिन सन् 1962 की लड़ाई में इस काबिल नहीं थे। आजादी मिले ही तब कितना समय हुआ था…”

मन्नू भंडारी इस बात को ही नकार देती हैं कि जंग, जंग भर ही नहीं होती बल्कि एक राजनीतिक हथियार होता है जिसे संकट के समय हर सत्ताधारी पार्टी सत्ता पर काबिज होने के लिए इस्तेमाल करती है। लेकिन कुछ बातों का जवाब वो विलक्षणता से देती हैं। जैसे वह जब अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि का जिक्र करती हैं तो अपने पिता का जिक्र बहुत बेबाकी से करती हैं और बताती हैं कि उनकी पढ़ाई-लिखाई में काफी दिलचस्पी थी और उनमें बहुत उदारता भी थी। यही वजह थी कि कई दूर के रिश्तेदारों के बच्चे उनके घर रहकर पढ़ाई भी करते थे। लेकिन वो भौंचक्क हो जाती हैं जब अपनी पर पिता की क्रूरता देखती हैं… और बड़ी सहजता और दार्शनिकता के साथ बताती हैं- ‘क्रूरता गैर-हिंसात्मक भी होती है।’ अगर आप अपने इर्द-गिर्द के माहौल को देखें तो पाएंगे कि मन्नू जी कितनी गहराई से यह बात कह रही हैं!

तो कई जगह राजेन्द्र यादव अतिरेक में भी बात करते नजर आते हैं। मन्नू जी को लेकर उन्होंने ‘हंस’ में लिखा था कि जब वह किसी से असहमत होती हैं तो उसके अस्तित्व को स्वीकार करने से इनकार कर देती हैं कि आखिर वह मौजूद ही क्यों है? जबकि इस किताब में मन्नू भंडारी कहती हैं- “नफरत तो राजेन्द्र क्या, मैं दुनिया में किसी से नहीं करती हूं।” (पेज-176)

किताब में प्रियंवद और शिवमूर्ति के साथ-साथ हुसैन के साक्षात्कार भी हैं लेकिन मेरा मन सिर्फ इन्हीं दो साक्षात्कारों को ध्यान में रखकर बात करने का हो रहा है। शायद इसका कारण यही है कि दोनों एक साथ एक दूसरे के सवालों का जवाब एक ही जगह दे रहे हैं और वो भी एक ही साक्षात्काकर्ता को।  लेकिन यही एक पक्ष है जो इस किताब को एक ही साथ रोचक  भी बनाता है तो दूसरी तरफ अन्य लेखकों से अलग भी कर रहा है! इसलिए जो भी पाठक दोनों में से किसी एक के मुरीद हैं वे अपने लेखक के बचाव में दूसरे में खामियां निकालने में वक्त जाया करेंगे।

अलबत्ता कुछ बातें प्रियंवद के साक्षात्कार पर। जब वे धर्म, राष्ट्र या दर्शन पर बात करते हैं। प्रियंवद एक जगह बताते हैं- “मेरी दिलचस्पी इतिहास के उबाऊ राजनीतिक घटना-चक्र में नहीं होती। उसमें जो चरित्र हैं, वे आकर्षित करते हैं। पिछले दिनों इतिहास को बदलने की जो बात हो रही है… उससे कुछ नहीं होगा। आप आज उन पाठ्यपुस्तकों में कभी नहीं लिखेंगे कि राणाप्रताप का सेनापति एक मुसलमान था और सन् 57 की लड़ाई में नाना साहब का दायां हाथ अजीमुल्ला खां था… शहर का नाम बदल देने से इतिहास नहीं बदल जाएगा…”

इसी तरह वह प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार टॉयन्वी की किताब ‘ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ को कोट करते हुए बताते हैं- “एक पतोन्मुख समाज में जब प्रजातंत्र खत्म हो जाता है तो हाथ में तलवार लिए एक त्राता का आगमन होता है। आदमी को उसमें अपनी मुक्ति दिखने लगती है। हिटलर जब सड़कों पर निकलता था तो जवान लड़कियां उसे देखकर खुशी के आंसू बहाती थीं… कि वह जा रहा है हमारा त्राता।” प्रियंवद कहते हैं हमारे यहां भी बहुत त्राता पैदा हो गए हैं उनके हाथों में तलवारे भी हैं। यह इंटरव्यू सन 2003 में छपा है और ग्यारह साल बाद हमारे देश में भी एक ऐसा ही त्राता लोकतांत्रिक ढंग से, तरह-तरह के सपने दिखाकर हिटलर से ज्यादा बहुमत लेकर सत्ता पर काबिज हो गया लेकिन किये गए वादे को चुनावी जुमले बनाकर लोगों के सामने आता है।

और थोड़ा-सा शिवमूर्ति के बारे में।

‘ओमा-लेखक की कोई राजनीतिक पक्षधरता होनी चाहिए?’

शिवमूर्ति-बिलकुल होनी चाहिए। लेकिन यहां राजनीतिक शब्द के दायरे का विस्तार करना होगा। यहां राजनीतिक से किसी पार्टी विशेष के संबंध होने की बात नहीं है। उसकी राजनीतिक जीवन दृष्टि होनी चाहिए यानी उसमें सबके कल्याण की भावना होनी चाहिए…लेखक स्वतंत्रचेता तो है मगर उनके जेहन में दूसरों के भले की भावना भी रहनी चाहिए’।

सचमुच किसी भी लेखक को न्यूट्रल क्यों होना चाहिए… निर्मल वर्मा की तरह ढेर सारे ‘न्यूट्रल लेखक’ दक्षिणपंथ की तरफ झुक ही गए थे। और बीसवीं सदी के महानतम इतिहासकार हवार्ड जिन कहते थे न, “चलती ट्रेन में आप न्यूट्रल कैसे हो सकते हैं?”

पता नहीं, इस किताब में हिन्दुस्तान के सबसे चर्चित और शायद सबसे बड़े पेंटर मकबूल फिदा हुसैन का इंटरव्यू क्यों है? गोया इसका जवाब ओमा खुद भूमिका में देते भी हैं, फिर भी किसी भी रूप में उनकी किसी भी गुत्थी को खोला नहीं जा सका है। शायद ओमा को लोभ रहा होगा कि इतने बड़े चित्रकार को इस जगह के अलावा और कहां समाहित (फिट) किया जा सकता है!

और अंत में, ‘अदब से मुठभेड़’ शीर्षक काफी अच्छा है। मुठभेड़ तो है लेकिन बाअदब। ओमा शर्मा ने सभी लेखकों पर गहन शोध कर और काफी मेहनत से इस साक्षात्कार को तैयार किया है। सभी रचनाकारों को बारीकी से पढ़ा है और जब जरूरत होती है तो उन्हीं की रचनाओं या पंक्तियों को कोट करके उनसे बात करते हैं। ऐसी कई किताबों की जरूरत हिंदी समाज को है और शायद यह काम ओमा शर्मा को ही करना पड़े।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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