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गौतम सान्याल (हंस, मार्च, 2011) : भूमंडलीकृत यथार्थवाद का बहुस्वरित पाठ

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

आज का भूमंडलीय अभिज्ञान हमें यह बताता है कि फिक्शन-फैक्चुएल के समांतराल भी नहीं बल्कि इसके बिल्कुल विपरीत खड़ा किया गया एक संरचनागत यत्न है। आज का फिक्शन दरअसल फैक्चुएल के प्रतिकूल को समझने-समझाने के लिए गढ़ा गया एक प्रवचक (आइकन) है- फिक्शन अंततः फैक्चुएल  के अनालोकित के  चिह्नीकरण का आख्यानपरक प्रयास है। ‘यथार्थ’ जब अपनी कहानी पूरी तरह कह चुकता है तो उसके बाद, उसके अनकहे की बुनियाद पर आज का कथाकार अपनी भाषिक अन्विति या आकृति की संरचना का निर्माण कर रहा है।

फैक्चुएल से विपरीत जाने का अर्थ फैक्चुएल से दूर जाना कतई नहीं है, बल्कि फैक्चुएल के एकोन्मुखी और एकरस ‘अर्थात्’ को नकारकर बल्कि उसके बहुस्वरित यथार्थ की व्यापकता का संकेतायन है। घटित चाहे प्रेमचंद के जमाने का हो चाहे आज का– वह तो सदैव से टू-फोल्डेड वास्तविकता रहा है– जो घट चुका वह एनालेपसिस (Analepsis) है, जो घटनेवाला है वह वह प्रोलेपसिस (Prolepsis)  है। फैक्चुएल से विपरीत जाने का कुल जमा लाभ यही है कि तनिक दूर से-इन दोनों के बीच का स्पेस स्पष्टशः दिखता है।

यह अनुभव अत्यंत सुखद है कि पिछले दो दशकों से हिंदी में-ऐसी कथा-संरचनाएं धड़ल्ले से लिखी जा रही हैं, बहुस्वरित यथार्थ के ये उपक्रम हिंदी में बहुतायत से उपलब्ध हैं, काशीनाथ सिंह का ‘काशीनामा’, सारा राय की ‘चीलवाली कोठी’, मैत्रेयी पुष्पा की ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’, संजीव की ‘आकाश चंपा’ जैसी सैकड़ों आख्यानमितियां यथार्थ की बहुमुखता को उद्घाटित कर रही हैं- बीती शताब्दी के अंतिम दो दशक को ‘उपन्यासों का दशक’ के रूप में, यथार्थ की इन्हीं बहुस्वरता के लिए चिह्नित किया गया है। अकेले ‘हंस’ पत्रिका में ही पिछले एक दशक में पचासेक ऐसी कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं जो उत्तर-संरचनावाद की दृष्टि से निःसंदेह अधुनातन हैं। मगर यह अनुभव अत्यंत दुःखद है कि वर्तमान हिंदी कथालोचन इन नई संरचनाओं की चुनौतियों का बिल्कुल सामना नहीं कर पा रहा है। वह करेगा भी तो कैसे?

अनपढ़ता का ऐसा आत्ममुग्धित गौरव, ना-समझी की ऐसी धक्का-मुक्की, अज्ञान की ऐसी आत्मरतिसिक्तता, वैचारिक दरिद्रता के ऐसे मनोहारी मैनीक्विन (शोकेस के पुतले) अन्यत्र दुर्लभ हैं! उसे ‘छिनाल’ जैसे प्रसंग से फुर्सत मिले, तब ना! खैर, तो, धुत्त!

नदी पार करने के बाद भी प्रेमचंद-युगीन यथार्थ की नाव को सर पे टोकरी की तरह लिए फिरनेवाला कथालोचन एक बार फिर इन अभिनव संरचनाओं के सामने बेहाल, पस्त और पराजित दिखाई दे रहा है। उसकी बात जितनी कम की जाए, बेहतर है। अस्तु!

आज का भूमंडलीकृत यथार्थ भले ही अपरिवर्तनीय दिखाई देता है मगर प्राक्कल्पना और प्रयोग से इसकी अटल-सी दिखती सीमाबद्धता को तोड़ा जा सकता है, बयान के प्रच्छन्न और प्रकाश्य आयतनों की रूपमितियों में इस वास्तविकता के अनकहे-अनालोकित स्पेस को उजागर किया जा सकता है, नई आकृतियों में इसके छुपे हुए बहुकोणिक पार्श्व बिंबों को प्रकाशित किया जा सकता है-आज का हिंदी का कथाकार बहुतायत से यही कर रहा है, इसी उचित का निर्वाह कर रहा है।

यह सच है कि आज की हिंदी कहानी में अंतर्वस्तु या उद्देश्य जैसी चीज तो होती ही नहीं है, मगर कहानी में ‘कहन’ (Say) अवश्य होता है अर्थात् कहानी में जो बातों की दुनिया गढ़ी जाती है उसकी कोई न कोई धुरी अवश्य होती है। इस नजरिये से कहें तो आज की कहानी धुरी (पिमट) और उसकी दूरियों के विस्तार की आकृतियां ही है। ओमा शर्मा कृत ‘कारोबार’ की संरचनाओं को परखने के पहले, इसकी ‘धुरियों’ का अन्वेषण अपेक्षित है।

जहां तक ‘मूल संवेध’ या धुरी का प्रश्न है- ‘घोड़े’ कहानी वित्तीय पूंजी की ऐसिडिक तरलता में घुलते-मिलते और बहते हुए ‘घोड़ों’ की कहानी है जिन पर पूंजी का दांव लगा हुआ है। रेस में बने रहना ही उनकी नियति है। लेकिन ऊपर से चुस्त-दुरस्त व चमकीले-भड़कीले दिखने वाले ये घोड़े (ये कॉपरोरेटेड मानवाकृतियां) भीतर से कितनी हताहत मानविकी स्थितियां हैं, यह किसे पता है? मुंबई जैसे शहरों के हजारों कॉरपोरेटेड रेसकोर्स में ये घोड़े निरंतर दौड़ रहे हैं जिनके पास दिल नहीं होता, सिर्फ फेफड़े होते हैं! एक दिन ये रेस से बाहर हो जाते हैं और तब दुनिया के सबसे अकेले व्यक्ति होते हैं-लेखक ने इसी अनालोकित स्पेस को छूने का प्रयत्न किया है।

वित्तीय पूंजी की बहुरूप तरलता का एक और प्रयोग इस संकलन में है- ‘कारोबार’ शीर्षित कहानी उसी तरल धर में बहते-उपलाते एक हरावल दस्ते की दारुण दास्तान है-जो काले धन की खोज में लगा हुआ है। मगर खोजने वालों की सोच या पद्धति कैसी है? यह कहानी कॉरपोरेटेड मानुष के ‘करतब और कर्तव्य’ की द्विचनिकता (दोहरे स्वर) को गहराई से रेखांकित करती है, ‘करतब और कर्तव्य’ के बीच के स्पेस को खोजती है, उसी पर खिलती-खेलती है। ओमा की अन्य कहानियों की तरह इस कहानी की संवाद-योजना लक्ष्यणीय है और शंसा के योग्य है। बस, एक छोटी-सी सतर्क वार्ता प्रस्तुत है। जहां तक उन कथोपकथनों में ‘विट’ डालने का प्रश्न है, बकौल खलील जिब्रान- ‘wit is the salt in conversation, not food!’

यहीं ठहरकर, ओमा शर्मा के चरित्रायण में एक खटकने वाली बात का उल्लेख करना चाहूंगा। उनके प्रत्येक नाभिकीय चरित्र के पीछे से एक (या कभी-कभी तो दो-दो) पादरी या उलेमा बड़बोलता नजर आता है। कहीं-कहीं तो इस डाइडेक्टिव हियारकी (उपदेशात्मक नीतिपाठ) का प्रकोप इतना हो जाता है, चरित्रों की स्वयंभाव-विलक्षणता धूमिल पड़ जाती है। कहना यही है कि ओमा के चरित्र इन पादरियों या उलेमाओ से मुक्ति पा ले, तो ये हिंदी कथा-किताबतों में दृष्टांतमूलक बन जाएंगे, रेणु या प्रेमचंद के चरित्रों की तरह।

‘महत्तम समापवर्त्य’ परुष की लुकपुककामिता की विडंबना (पैराडॉक्स) का एक विचित्र उपाख्यान है। एक इंटिरीयर डेकोरेटर किसी बंगले पर जाता है और वहां, एक विवाहिता मिसेज चांद को ‘सौंदर्यशास्त्र’ का ‘नया नीतिपाठ’ पढ़ाने लगता है। ‘सुंदरता’ पर एक जोरदार बहस चल निकलती है। इसी बाच उस युवा इंटिरीयर डेकोरेटर को लगता हैकि अपने व्यवसायी पति के द्वारा मिसेज चांद का उच्चतम सौंदर्यबोध (या रुचिबोध) गहरे उपेक्षित है। अंततः वह हाथ देखने के बहाने, नकारे जाने के बाद भी, मिसेज चांद का हाथ जबरन थाम लेता है और अंततः थप्पड़ खाए और दरवाजे की चौखट से माथे से गूमट उगाए वहां से भाग खड़ा होता है। इस कथा की विडंबना पर ध्यान केंद्रित करें तो मैथ्यु ऑर्नल्ड के अमोघ आप्तवाक्य से बात शुरू की जा सकती है- “ with women, the heart argue, not the mind’ और बात डी. एच. लॉरेंस की इस टिप्पणी से खत्म की जा सकती है —  Most women, like children, enjoy saying no and most men, like idiots take them seriously!” और कहानी के नीतिपाठ की अनुगूंज है कि बेचारा युवा ‘इंटिरीयर’ डेकोरेटर इसे समझ नहीं पाया!

लेकिन इसी कहानी में सौंदर्यशास्त्र का एक विलक्षण नीतिपाठ भी निहित है। इस पाठ से उठता हुआ प्रश्न दार्शनिक और व्यापक है कि क्या हम किसी कलाकृति को – उसके इतिहास और उसकी परंपराओं, उसके ज्ञानानुशासन और उसकी समीक्षा में प्रयुक्त शब्द-समुच्चय के बगैर भी समझ सकते है? क्या यही समुचित नहीं है? बगैर यह जाने कि मोनालिजा क्या है या इसके बारे में दुनिया की राय क्या-कैसी है– क्या हम मोनालिजा की मुस्कान की अर्थ-स्मिता को भेद सकते हैं। क्या हिंदी समीक्षा की तीन-पांच या तीन-तेरह को जाने बिना, हम प्रेमचंद की कहानी का उच्चस्तरीय आस्वाद नहीं ग्रहण कर सकते?

और क्या इस दौर में सचमुच ‘सुंदरता’ या ‘सौंदर्य’ अंततः ज्ञानानुशासन या परंपरित चर्चा की गुंगबयानी का गुड़ ही बनकर रह गया है?

इस संकलन की संरचनाओं में टहलते-घूमते मेरा मगज कहता है कि उपर्युक्त कहानियां महत्वपूर्ण हैं, मगर दिल कुछ और कहता है। दिल ‘बांग्लादेश’ जैसी कहानियों की तरफ झुकता जाता है। यह कहानी सुनिश्चित तौर पर अधुनातन नारीपाठ में छोटा-सा मगर एक नया पैराग्राफ अवश्य जोड़ती है। कहानी के अंत में किसी लघुकथा की तरह एक्सप्लोजन ऑफ विज्डम की तरह यह नारीपाठ कौंधता है और पूरे पाठ पर फैल जाता है।

आज की नारी-चेतना के आलोक में ‘देह की आजादी’ का मसला अक्सर उठता रहा है। जैसा कि इस कहानी का ‘मूल संवेद्य’ है- नारीदेह को भूगोल की तरह जमान पर क्षैतिज फैलाकर देखें तो देह की ‘हासिल आजादी’ की दशा-दिशाएं या उसके विंडोज खुलते जाते हैं- ‘बांग्लादेश आजाद हुआ तो क्या हुआ?’ उसके बाद यह किन-किन शर्तों पर गुलाम हुआ? सचमुच सोचने की बात है।

आलेख के प्रारंभ में इन दिनों हिंदी की धड़ल्ले से चली आ रही नई अभिनव-अभूतपूर्व कथा-संरचनाओं का जिक्र किया था और उसी एवज अधुनातन हिंदी कथालोचन की पराजित-पस्त दशा पर किंचित टिप्पणी की थी-मगर दुर्भाग्यवश ही सही, हिंदी का एक आलोचक होने के नाते इन चुनौतियों का कुछ तो सामना करना ही चाहूंगा। ध्यातव्य है कि स्थानाभाव के कारण (चूंकि हिंदी कथा पत्रिकाओं के पुस्तक समीक्षा कॉलमों में ‘विमर्श’ का स्पेस ही नहीं होता!) एक ही मसले (बिल्कुल ऊपर की संरचना) के बारे में तनिक बातचीत प्रस्तुत है।

ऊपर से देखें तो ओमा शर्मा(और उसकी पीढ़ी) की आख्यानमितियां अस्सी प्रतिशतन एक जैसी ही हैं और हिंदी कहानी में यह ‘नई’ भी नहीं है। इस आख्यान-पद्धति का उपयोग तथाकथित ‘नई कहानी’ के दौर के कथाकार बहुतायत से कर चुके हैं और इसके मुकम्मल दृष्टांत के रूप में अमरकांत की ‘जिंदगी और जोंक’ व ज्ञानरंजन की ‘पिता’ कहानी को याद कर लिया जा सकता है। कहना न होगा कि साठोत्तर हिंदी कहानी की संरचनाओं की मॉबिलिटी का यह कदाचित् सबसे पॉपुलर रिंगटोन है। लेकिन ओमा की पीढ़ी की संरचनाएं इनसे तनिक मगर अनेक स्तरों पर भिन्न है। इसी बात को प्रतिष्ठित करने के लिए इस आख्यानमिति व संरचना की तनिक जांच-परख अपेक्षित है।

  • इसमें कथावाचक ‘मैं’ की शक्ल में होता है और स्पष्टशः दिखता है। यह ‘मैं’- लेखक का फिक्स्ड डिपोजिटेड डिसपोजीशन है।
  • उसके ठीक सामने कहानी का नाभिकीय चरित्र होता है। वह अक्सर सिंगुलर होता है।
  • वर्णन-विवरण-विश्लेषण के माध्यम से भले ही कहानी आगे बढ़ती है मगर उस नाभिकीय चरित्र की एनालेपसिस (घटित) की स्पिनिंग से ही नियंत्रित-निर्देशित होती है।
  • उस चरित्र के पृष्ठ खुलते जाते हैं-कभई रबिक क्युब की पद्धति में तो कभी मणिभ की प्रदीप्तियों में-अंततः यह आख्यानमिति उसे सकलता से अलगाते हुए एकलता की ओर ले जाती है-प्रोलेपसिस (जो घटने वाला है) के सहारे।
  • अंतत नैरेटर उसे ‘सकलता में विलयित कर देता है। जैसे कि सत्यजित की फिल्म ‘जन-अरण्य’ में सोमनाथ अंतिम दृश्य में उसी मोड़ पर भीड़ में खो जाता है। जहां से कि फिल्म शुरू हुई थी।
  • इस आख्यान-आकृति में जो मैं (नैरेटर) चरित्र होता है-दरअसल वह स्वयं में एक आब्जर्वेशन प्वाइंट या एक चेयर-कैरेक्टर होता है जहां बैठकर पाठक कहानी को-बिल्कुल सामने घटित होते देख सकता है। यही इस पद्धति की बाध्यता या रूलिंग है।
  • नैरेटर (मैं) पाठक के साथ बैठकर पूरी कहानी देखता है-कभी वह बेताल की तरह पाठक के कान में फुसफुसाता है, कभी वह गाइड की तरह ऊंचे स्वर में बोलता है, कभी वह नेवीगेटर होते हुए भी सामने बैठा मांझी गीत गाता है-यह जीवन है, इस जीवन का-यही है रंग-रूप!

पुनः ओमा शर्मा पर ध्यान केंद्रित करें तो उसकी अस्सी प्रतिशत कहानियां इसी आख्यान पद्धति में बुनी गई हैं। उदाहरण के लिए ‘कारोबार’  का ‘मैं’ (इंकमटैक्स के छापामार दस्ते का ऑफिसर) और ‘वह मुखबिर पठान’, ‘घोड़े’ कहानी का ‘मैं’ (नैरेटर) और मानस, ‘रास्ता’ कहानी का ‘मैं’ और वह कॉलोनीवासी, ‘वास्ता’ कहानी का ‘मैं’ और सुखदेव भैया, ‘ग्लोबलाइजेशन’ का मैं (गार्जियन) और स्कूल की वह अनाम अध्यापिका जिसकी डायरी ‘मैं’ पढ़ता है- ये सभी उसी आख्यानमिति के दृष्टांत हैं। याद आता है कि ओमा शर्मा के पहले संकलन ‘भविष्यदृष्टा’ में भी ये रूपिम बहुतायत से उपलब्ध हैं-जैसे कि ‘भविष्यदृष्टा’ का ‘मैं’ और वह आदित्य नारायण सतपथी, ‘मर्ज’ कहानी का ‘मैं’ और मामूजान, ‘काई’ कहानी का ‘मैं’ और हरिचरण मास्साब– ये सभी उसी आख्यान-पद्धति (जैसे ‘जिंदगी और जोंक’ का ‘मैं’ और रजुआ, ‘पिता’ कहानी में ‘मैं’ और वह-‘पिता’) की उपज है। यहां तक कि ‘हंस’ में सद्यःप्रकाशित ओमा की कहानी (हंस, नवंबर, 2010) ‘एक समय की बात’ में भी ‘मैं’ और वह ‘रावल’ के बीच weaving Pattern में कथा बुनी गई है।

मगर ओमा शर्मा की पीढ़ी की संरचनाएं स्पष्टशः ज्ञानरंजन-अमरकांत से भिन्न हैं और भिन्नता के कई अभिस्तर हैं जिनमें से दो-एक की चर्चा प्रस्तुत है। जैसे कि ‘मैं’ शीर्षित आब्जर्वर चरित्र को लें। ज्ञानरंजन की पीढ़ी से तुलना की जाए तो संजीव-स्वयंप्रकाश-उदय प्रकाश की पीढ़ी ने इसी ड्राफ्ट का एक भिन्न प्रारूप विकसित कर लिया था, उस आब्जर्वर-चरित्र को एक चेयर-कैरेक्टर में तब्दील कर दिया था। ज्ञानरंजन की पीढ़ी का ‘मैं’ चरित्र अभिनय करता नजर आता था कि जैसे वह कहानी के बारे में कुछ जानता ही नहीं है जबकि ‘कहानी दिखाने’ का पूरा नियंत्रण वह अपने पास ही रखता था-संजीव-मैत्रेयी पुष्पा की पीढ़ी ने ‘मैं’ को चेयर कैरेक्टर में तब्दील करते हुए ‘कहानी देखने’ का अवसर विकसित कर लिया, दूसरे शब्दों में पाठकों को आजाद कर दिया और यथार्थ को देखने-बूझने के अनेकविध अवबोध के विकल्पों का तलाश कर लिया।

पाठकों की आजादी का मसला मामूली नहीं था। ‘जिंदगी और जोंक’ या ‘पिता’ के जमाने में नए अर्थबोध की तलाश में पाठकों को पाठ के बाहर जाना पड़ता था। लेकिन ‘पार्टीशन’(स्वयंप्रकाश), ‘अपराध’ या ‘सागर सीमांत’(संजीव), ‘टेपचू’ या ‘छतरियां’(उदय प्रकाश), ‘कसाईबाड़ा’ या ‘भरतनाट्यम’ (शिवमूर्ति) के जमाने में पाठ के भीतर ही पाठकों को नए अर्थबोध के अनेकविध विकल्प मिलने लगे। बाद की पीढ़ी अर्थात् देवेंद्र, अवधेश प्रीत, हृषिकेश सुलभ, जया जादवानी, प्रियंवद और ओमा या जयनंदन आदि कथाकारों ने इसी पद्धति में रहकर कुछ नए प्रारूप विकसित कर लिए। संरचनाओं की दृष्टि से इसे महासंक्रांति ही कहना होगा जिसका श्रेय मूलतः स्वयंप्रकाश संजीव, उदय प्रकाश की पीढ़ी को जाना चाहिए।

कुल जमा इस प्रारूप में होता यह है कि कथाकार (नैरेटर अर्थात् मैं) यह स्वीकार लेता है, कि कहानी के बारे में उसे सब कुछ पता है, लेकिन उसके सामने यह जो ‘वह’ चरित्र है, उसे नैरेटर ठीक-ठीक समझ नहीं पाया है। अतएव वह कथास्थितियों को पिर से पैदा कर रहा है ताकि उस ‘वह’ चरित्र को और भी गहराई से पाठकों के साथ समझ-बूझ सके। इस प्रारूप के दो फायदे हैं-अव्वल तो पाठकों के साथ कहानी के ‘संवेद्य’ को शेयर करने का लेखन उठता जाता है और दूसरे, कहानी को पुनः घटित करते हुए कथास्थितियों पर नैरेटर का कमांड बढ़ता जाता है फलतः किस्सागोई डबल रिफाइंड होती जाती है।

अंततः ओमा शर्मा से लेकर राकेश कुमार सिंह, जयश्री राय तक की पीढ़ी से एक ही बात कहनी है। हिंदी कथालोचन की परवाह नहीं, वह तो स्वयं में पस्त, निस्तेज और पराजित है। लेकिन जिस संक्रांति की शुरुआत संजीव, स्वयंप्रकाश, उदय प्रकाश आदि से हुई थी, उसे चूड़ांत तक पहुंचाना होगा। यथार्थ के बहुस्वरित पार्श्वबिंब, वास्तविकता के अनेकविध विकल्प गढ़ने होंगे-इस बार पाठकों की अपेक्षाएं आसमान को छू रही है, यथार्थ के बहुरूप प्रारूप की मांग विकराल होती जा रही है। इस बार उनका सामना हिंदी के तीन-पांच वाले टुच्चे आलोचकों से नहीं बल्कि हिंदी के भूमंडलीकृत पाठकों से है।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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