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गौतम सान्याल (हंस, मई, 2002): … खुदरस यों पिया, बाकि रहि न छंकि

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

‘भविष्यदृष्टा’ कहानी संकलन में… ओमा ने मैं शैली अपनाई। मैं-मैं से किया तू-तू । निज को मात्र परोसा नहीं बल्कि उल्टा-पुल्टा। ठोंका-बजाया, तलाशा-तराशा। समय-समाज की परंपराओं में अपनी वास्तविक अवस्थिति को खोजने का प्रयत्न किया। कथास्थितियों में स्वयं का निक्षेप किया और निष्पलक निरीक्षण किया। और अवसर मिलते ही अचूक चलाया, अपने घाव पर पांव रखा। बड़ी निर्ममता से खुद को छिन्न और भिन्न किया। कुल जमा कहूं तो रचना के दर्पण में स्वयं को  निहारा। और ‘कबीर-कहा’ के प्रश्रय में कहूं तो- ‘ओमा खुदरस यों पिया, बाकि रहि न छांकि!’

यहां तक तो कोई मुश्किल  नहीं, मगर गड़बड़झाला इसी में निहित है। इन कहानियों में ओमा ने खुद को मुंह चिढ़ाया, मगर खुद को सर पे भी चढ़ाया। खुद को चांटा लगाया, मगर गोद में बिठाकर सहलाया-पुचकारा भी। रचना के दर्पण में स्वयं को निहारने तो आये, मगर मौका देखकर तनिक सज-संवर भी लिया, नाव में खुद ही छेद किया और खूब हेल्प-हेल्प चिल्लाए और जहां तक ‘कहानी’  का प्रश्न है-ओमा ने खुद आम खा लिए और पाठकों से गुठलियां गिनाईं!

इस संकलन के पहले पाठ के दौरान मैं शिशुता से भर गया हूं… इन कहानियों का निमित्त मध्यवित्त। इनका वायु, कफ और पित्त मध्यवित्त, इनका पट् और चित्त मध्यवित्त इनका का-के-की-में-पर-से-को मध्यवित्त। अतएव ये कहानियां मध्यवित्त को गहरे स्वाद देगी। मध्यवित्त इन्हें पढ़कर-कुढ़ेगा, ची-हकर चौंकेगा, खुद को तनिक नोंचेगा-खसोटेगा, और अंततः फिच्च से हंस देगा। खुलेपन का होगा  तो अट्टहास की तीन-चार सीढ़ियां चढ़ लेगा। चिंतक-टाइप हुआ तो अपनी श्रेणीचेतना से बाहर दस मिनट के लिए दूर-दूर तक टहलने निकल जाएगा-वापस अपनी वर्गचेतना में और भी गहरे जज्ब हो जाने के लिए।

यह सच है कि हिंदी कहानी के सर्जक और ग्रहिता का अस्सी प्रतिशत मध्यम वर्ग से आता है। तो क्या हिंदी कहानी का ‘आम आदमी’ वस्तुतः मध्यवर्गीय ही है?

खुदरस से आप्लावित इन कहानियों की हल्की-फुल्की फुहारों में भीगते हुए मन नहीं करता कि बांचता हूं–ये मेघ कपासी थे या निंबस, सिरस थे या गंटुमी स्ट्रेटस? और मैं इस छोटी-सी आत्मजा-नाव का क्या करूं जिस पर सवार अभी-अभी मैंने एक बिंदास-सी निज-नदी को पार किया है–क्या मैं इसे अपने नुक्तामति माथे पर लिए घूमता फिरूं?

क्या किसी अत्मजा-कृति का पहला पाठ पहले प्यार की भांति होता है जो बैमौसम महकता रहता है और आजीवन प्यार के बारे में कभी निर्णय लेने नहीं देता?

इन कहानियों में स्थितियां हैं निर्णय नहीं है। इनमें निर्णयहीनताएं ही निर्णय लेती रही हैं। इन कहानियों का प्रोजेक्शन स्पष्ट है। प्रायः इनमें दो चरित्र आमने-सामने दिखाई देते हैं–ओमा का ‘मैं’ और ओमा का अपर–कोई दूसरा। पहला द्रष्टा चरित्र है तो चेयर-कैरेक्टर भी-जिस पर बैठकर या जिनमें पैठकर पाठक कहानी को आंखों-देखा देख सकता है वह दृष्टि है तो ‘अपर’  या दूसरा उसका फलीभूत दर्शन।

‘भविष्यदृष्टा’ में ‘मैं’ बनाम ओड़िया आदित्य सतपथी, ‘जनम’ में ‘मैं’ बनाम होम्योपैथ डॉ. बलवंत राय, ‘मर्ज’ में ‘मैं’ बनाम मामूजान, ‘काई’ में ‘मैं’  बनाम हरिकिशन मास्साब, ‘झोंका’ में ‘मैं’ बनाम वह लड़की (लावण्या)– प्रत्येक कथावृत्त में एक जैसा सेटअप दिखाई देता है–दृष्टा ‘मैं’ परिधि पर है तो दृश्य (नाभिकीय चरित्र, उस कहानी का) केंद्र में।

लेकिन केंद्र-परिधि के सेटअप की समरूपता इन बौनाई-बोनसाईयों के पार झांके तो इस मैं-सीरिज के अनेक विलक्षण मणिम दिखाई देते हैं। समरूपता इस मैं श्रूंखला की खामी है तो तारतम्यता इसकी खूबी। टेराकोटा की तरह इन बिटविन लाइंस होते हुए भी इनमें एकसूत्र-विविधता है। पुनरावृत्ति इसकी विसंगति है तो विडंबित कथास्थितियां इसकी विरलता । पाठक चाहे तो किसी भी कहानी के ‘मैं’  चरित्र को उठाकर किसी दूसरी कहानी के ‘मैं’  की जगह बिठा दे–कहानी की गति-प्रकृति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन भिन्न विडंबनाओं के आलोक में बड़ी कुशलता से इस मैं-क्युब का एक-एक पक्ष रख दिये जाने के कारण हर बार वह भिन्न रूप दिखेगा। सारे के सारे जेब्रा एक जैसे दिखते हैं, मगर होते नहीं हैं!

संकलन की पहली कहानी ‘शुभारंभ’ के ‘मैं’ का प्रोजेक्शन इनसे तनिक भिन्न है। यहां ओमा ने ‘मैं’ को दो-टूक प्रस्तुत किया है। पहली बार रिश्वत में ली गई नोट की गड्डियों को दफ्तर में कहीं-कैसे छुपाया जाए-कहानी इसी उपहास्यास्पद स्थितियों में आगे बढ़ती है। पहला ‘मैं’ व्यंग्य की पैनी बरछी ताने उद्यत खड़ा है तो दूसरा ‘मैं’  हतप्रभ सा उसके निशाने पर कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है–उपहास का स्वर मध्यम पड़ता जाता है और करूणा के आतर्नाद की अनुगूंज प्रखर होती चली जाती है। निर्णयहीनताएं जब निर्णय लेने लगती हैं तो उसकी प्रक्रिया कैसी होती है? उदाहरण के लिए शीर्षित कहानी ‘भविष्यदृष्टा’ इस संकलन की श्रेष्ठ कहानी ही नहीं, इन दिनों मेरी नजर के दायरे से गुजरी हिंदी की श्रेष्ठ कहानियों में शुमार हो गई है… फिर भी, दो-तीन बातें तो अलग से रखनी ही पड़ेंगी…

कहानी के इतिहास में यह अक्सर देखा  गया है कि एक अच्छी कहानी का मंतव्य एक और अच्छी कहानी स्वमेव पैदा कर लेता है। उसकी प्रस्थान-बिंदु में एक पूरी कहानी की सारी संभावनाएं निहित होती हैं। ‘भविष्यदृष्टा’  पढ़ते हुए अखिलेश की क्लासिक कहानी ‘चिट्ठी’ उभराई। एक साथ कई वर्ष तक विद्यार्थी जीवन गुजारने के बाद जब सभी अलग हुए तो आखिरी रात वायदे कर गए-जीवन में जो वे बनना चाहते हैं, अगर ये सपने सच हुए तो वे एक-दूसरे को चिट्ठी लिखेंगे। एक लंबा अरसा बीत गया, मगर किसी की चिट्ठी नहीं आई। अखिलेश के क्लासिक मन्तव्य  में इतना निःशब्द-विस्फोट निहित था कि मौन भी बोल पड़ा-फिर क्या हुआ?

अंततः चिट्ठी आई- ‘भविष्यदृष्टा’ में। दिल्ली के संभ्रांत डी-स्कूल (डेल्ही स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स) में साथ पढ़ने वाला गजरा जीवन में बिखर गया–कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा। कथावाचक ‘मैं’  आईएएस हो गया। लेकिन उस बैच का अनमैच-ओड़ीसा के फटेहाल परिवार से उठ आया और साथ में ‘कालाहांडी’ का जीवन-दर्शन ले आया आदित्य सतपथी कहां गया?

आदित्य की महाकाव्यिक विफलता इस कहानी का उपजीव्य है। मगर यह कहानी यही तक सीमित नहीं है, इसमें अर्थशास्त्र और दर्शन के अनेक परस्पर विरोधी मतवाद उलझे हुए हैं। पहले उन्हें सुलझा लेना जरूरी है।

हेगेल का सिद्धांत (वस्तुगत प्रत्यवाद) है- व्यक्ति अंततः परमचित्त का औजार मात्र है। यहां से दो रास्ते खलते हैं। पहला रास्ता नियतिवाद की तरफ जाता है। यह रास्ता बौद्धों के ‘व्हील ऑफ एग्जिस्टेंस’, लाइबिनित्स-स्टोइको के फेटालिज्म की तरफ जाता है, – ‘जगत पर अनमनीय भाग्य राज्य करता है और जीवन का सर्वस्व पुनरावृत्ति ही है।’ यह रास्ता फलीभूत ज्योतिष की तरफ जाता है। यह रास्ता धर्मशास्त्रीय नियतिवाद की तरफ जाता है-नियति ईश्वर की इच्छा है(डेस्टिनी इज द विल ऑफ गॉड) और ऐतिहासिक घटनाएं व मानवीय जीवन की सूत्रधार वही है। यह रास्ता ग्रीको-रोमन मिथकों की तरफ जाता है जहां ‘मोइरा’ या ‘पार्का’  जैसी नियति देवियां हैं जो देवताओं तक के भाग्य का निर्धारण कर सकती हैं। सर्वोपरि, यह रास्ता तर्कशास्त्र के गलत और सही ‘अनुमान’ (इनफेरेंस) में विभेद करने की प्रविधि की तरफ जाता है।

दूसरा रास्ता मार्क्सवाद की तरफ जाता है। मार्क्सवाद नियतिवाद के व्रगगत मूलाधारों को सुनिश्चित सामाजिक हितों में देखता है और यह दिखाता है कि केवल समाज के आमूल रूपांतरण के फलस्वरूप नियतिवादी विचारों की ऐतिहासिक आधारभूमि का धीरे-धीरे खात्मा होता है।यह अनुभव सुखद है कि यह कहानी इसी तरफ गई है, कम से कम इशारा तो अवश्य करती है।

अतएव कथ्य-कथन की दृष्टि से बेहिचक इसे मैं एक उच्चस्तरीय मार्क्सवादी कहानी कह पा रहा हूं, इस कहानी में, ‘स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स’ की छत्रछाया में जीवन और अर्थशास्त्र के फलीभूत अंतर्संबधों का मार्क्सवादी-भाष्य ही प्रकारांतर से प्रस्तुत किया गया है। यह भाष्य वर्ग-संघर्ष के फॉल्सिफायेबल ढुशुम-ढांय से भिन्न है और पठनीय है।

‘भविष्यदृष्टा’-निर्दिष्ट का द्रष्टा ही नहीं बल्कि जीवन के फलीभूत परिणामों की प्रक्रिया का द्रष्टा भी है। उसकी नजर परिणाम पर नहीं बल्कि प्रक्रिया पर टिकी है। दरअसल वह रचना की निष्पलक आंख ही है।

और हम-कहानियों में देखते ही क्या हैं? हम कहानियों में जीवन के तात्पर्यों की बनती-बिगड़ती विलुप्त-उत्पन्न होती श्रृंखलाओं को देखते हैं। ये तात्पर्यों की श्रृंखलाएं ही हमें थामकर कहानी के गर्भगृह तक पहुंचा देती है। ‘भविष्यदृष्टा’ के तात्पर्यों की श्रृंखला सुनियोजित और अर्थवंत है।

‘नवजन्मा’ में ‘कन्या’ के जात-जन्म की दारुण-गाथा को चार अधपेजियों में कहा गया है- संबंध, लेनदेन, ईश्वर का न्याय और सेफ। ये चार आत्मजा चिकोटियां हैं जो ओमा ने कुद को बड़े प्यार से काटी है। खासकर ‘ईश्वर की न्याय’ शीर्षक चाकू की मूठ पर जोचित्ताकर्षक बेल-बूटे हैं वह देखते ही बनता है। ऐसे सुंदर चाकू को देखते ही मन करता है कि सीने से लगा लें। ये प्रायः कथाएं, वार्तारूपा हैं जो अंततः वार्ता बनकर हमें गहरे कचोटती हैं। इनमें से एक टेलीफोन वार्ता पर है- ‘लेन-देन’। मगर गड़बड़झाला अन्यत्र है-पिया गए रंगून, वहां से किया टेलीफून, गजब मतवारे हैं! पिया प्रेम का इजहार करने रंगून क्यों चले गए और ‘टेलीफून’  का बहाना क्यों किया? अंदेशा है कि कहीं पाठकों का ध्यान ‘पिया’ से हटकर रंगून और टेलीफून पर न चला जाए!

‘मर्ज’ में उर्दू का पुट और वातावरण का फुटेज तनिक ज्यादा डल गया है जिससे कहानी का स्वाद-संतुलन बिगड़ा ही है। ‘वजूद का बोझ’ को इस संकलन में ढोया ही गया है, ‘भविष्यदृष्टा’ जैसी स्तरीय कहानी के साथ पिरोया न जा सका है। ‘काई’ अनुभूति के स्तर पर बेहतरीन मगर बोध के स्तर पर एक स्तरीय कहानी ही है।

इस संकलन की प्रायः प्रत्येक कहानी के अंत में मैंने जिस निर्णयहीनता को अन्वेषित किया है, उसका तनिक खुलासा अपेक्षित है। कथा के अंतव्य की निर्णयहीनता नदी की तरह होती है। हर नदी अंत में जा फंसती है–कोई डेल्टाई दलदल में तो कोई रेगिस्तान में, कोई दूसरी नदी में विलीन होती है तो कोई सागर में। ‘काई’ और ‘मर्ज’ की निर्णयहीनता दलदल में फंस गई है तो ‘झोंका’  रेगिस्तान में- ‘शुभारंभ’ निर्णयहीनता एक दूसरी नदी में विलीन हो गई है तो ‘भविष्यदृष्टा’  की निर्णयहीनता अथाह और दूर-दूर तक फैले हुए सागर में। बहरहाल, इन कहानियों में निर्णयहीनताएं ही निर्णय लेती रही हैं।

आखिरकार और संक्षेप में, दो बातें कहनी हैं। आत्मविद्धि ही ओमा की सिद्धि है। इस दौर के कहानीकारों में ओमा की तरह खुद को इतनी निर्ममता  से छिन्न-भिन्न करते, इतनी तन्मयता से (जैसे कोई शिशु हो) मुंह चिढ़ाते और इतनी बेतकल्लुफी से स्वयं का मखौल उड़ाते-मैंने नहीं देखा है। लेकिन आत्मविद्धता का यह खेल खतरनाक है। अत्यधिक आत्मविद्धता ‘आत्मा-विद्धि’ के अंधकूप में ओमा को धकेल सकती है। ओमा से आत्मीय मशविरा है कि वह अब इस ‘मैं-सीरीज’ से मुक्त हो ले और उसे आलोचकीय चेतावनी है कि-कहानी का घर, खाला का घर नहीं होता। अहं-चैतन्य की ‘सीस’ काटकर उसे देहली पर रखकर ही इसमें ‘पैसा’  जा सकता है।

दूसरे, ओमा चरित्रों को ‘पढ़ना’ तो खूब जानते हैं, मगर  उन्हें गढ़ना?

‘पढ़ने’ से याद आया कि हिंदी रचना के संदर्भ में यह शब्द त्रिमात्रिक है। पढ़ने को तो यहां किताब, चेहरे और साईनबोर्ड भी पढ़ लिए जाते हैं। यहां पाठक किताब पढ़ता है, प्रकाशक चेहरा और आलोचक साईनबोर्ड। निवेदन है कि मैंने ओमा की किताब पढ़ी है।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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