‘भविष्यदृष्टा’ के लेखक हैं ओमा शर्मा। संभवतः ‘शुभारंभ’ उनकी पहली प्रकाशित कहानी है। इस संग्रह के क्रम में भी वह पहले नंबर पर है। कहानी का आरंभ यहां से होता है ‘ उसके तुरंत बाद ही जैसे सब कुछ बदल गया। मुझे लगा जैसे कोई जहरीला सांप धीरे-धीरे या तो मुझे निगल रहा है या मेरे अंदर उतर रहा है’। कहानी में एक सरकारी अधिकारी द्वारा पहली बार रिश्वत लेने के बाद का मानसिक द्वंद्व है। व्यवस्था और दफ्तरी माहौल ने इन प्रस्नों को गौण बना दिया है, अहम है अपने को पकड़े जाने से बचाना। रिश्वत लेने को जायज ठहराने या अपने को इस ‘योग्य’ बनाने के तर्कों की कमी नहीं है।
‘भविष्यदृष्टा’ को उनकी कहानी यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव कहा जा सकता है। यहां व्यक्ति को आंकने के प्रचलित जातीय और आर्थिक कारण हैं- जिनका वजूद तमाम प्रगतिशीलता, उदारता और तथाकथित पारदर्शिता को झुठलाकर मजबूत होता ही दिखाई देता है। मानवीय संवेदनाओं को उकेरती और झकझोरती कहानी है ‘कंडोलेंस विजिट’। नौकरी का ओहदा व्यक्ति को धीरे-धीरे संवेदनहीन भी करता जाता है। वह मातहतों को बारम्बार का आदमी मानने की छूट तो नहीं देता, उन्हें हरदम, हर स्थिति में अपनी सेवा के लिए तत्पर रखने का दबाव बनाए रखने की प्रेरणा सी देता है। अदिकार ज कर्त्तव्य पालन का ही हिस्सा होने चाहिए थे, व्यवस्था की कमजोरी के कारण व्यक्तिगत स्वार्थों में लिप्त होने की कला और उसकी पूर्ति का माध्यम बन जाते हैं। नायक की मां की मृत्यु पर संवेदना व्यक्त करने आया अधिकारी यह नहीं भूल पाता कि उसे अपने छोटे-छोटे काम नायक से करवाने हैं। उपरोक्त प्रश्न उसी वार्तालाप से उठे हैं।
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