इधर पिछले कुछ दिनों में अनेक युवा कथाकारों के संग्रह आये हैं। ये युवा कथाकार अपने साथ एक भिन्न और नया अनुभव संसार लेकर आये हैं। इनके पास जीवन यथार्थ को देखने समझने की दृष्टि भी है और समकालीन चुनौतियों के साथ रचनात्मक दक्षता का संतुलन बनाए रखने का कौशल भी। अपने समकाल से मुठभेड़ फकत युवा लेखन के लिए ही नहीं वरन हर युग के कथाकार के लिए चुनौती रही है। इस मुठभेड़ में प्रस्तुत रचनात्मक क्षमता ही अंततः कथाकार की मददगार भी होती है और प्रमाण भी।
ओमा शर्मा का प्रस्तुत कथा संग्रह ‘कारोबार’ समकालीन चुनौतियों में कथा कौशल की विरल प्रस्तुति है। अपने अनुभव संसार को उल्लेखनीय हस्तक्षेप बनाने के उपक्रम में वे एक रोचक भाषा शिल्प में रचना की प्रस्तुति संभव करते है। ओमा, भाषा के कारोबार में बिना किसी अतिरिक्त श्रम के दाखिल होते हैं और कथा रचना की सार्थक उपलब्धियों को स्पर्श कर जाते हैं।
ओमा की कहानियों में शहरी और खासतौर से महानगरीय जीवन स्थितियों की शिनाख्त अपनी समूची भयावहता के साथ नुमाया है। महानगरों में अनेक विपदायें हैं। स्लम और प्रदूषण है। भीड़ और धुंआ है। चालाकी और फरेब है। अंतहीन प्रतिस्पर्धा और बाजार की विभीषिकाएं हैं। फिर भी शहर आदमी को लुभाता है। लोग गांव से शहर की ओर भागते हैं। पिछले कई दशकों के निर्बाध पलायन ने शहरों की सड़ंध में असहनीय वृद्दि की है। लेकिन यह भी अचंभित करनेवाला विरोधाभास है कि महानगरों से ही देश के विकास का मानक निर्धारित होता है। मुम्बई को शंघाई बनाने का राजनैतिक दर्प चुनाव जिताने के काम आता है।
ओमा की कहानियां दरअसल इसी महानगरीय अन्तर्विरोध, प्रतिस्पर्धा, खरीद-फरोख्त और उपभोक्तावादी क्रूरताओं के बीच जन्म लेती है तथा अनेक मूल्यरोधी, हिंसक और असंवेदनशील स्थितियों से मुठभेड़ करती है। ‘कारोबार’ नामक कहानी में ओमा की भाषा कथानक में मौजूद वातावरण से अद्भुत साम्य रखती है। इस कथा में प्रयुक्त कारोबार की भाषा कथाकार के अपने सरोकारों को प्रतिबिंबित करती है। व्यंग्य की शिष्ट अन्तर्धारा को थामे हुए ओमा जटिलतर स्थितियों को भी अपनी व्यंजना क्षमता और विट सम्पन्नता से पठनीय और प्रवाह मय बना देते हैं।
‘कारोबार’ केवल उद्योग व्यापार जगत के शुष्क यथार्थ की ही कहानी नहीं हैं, उसमें टैक्स चोरी, मुखबिरी और छापेमारी जैसी अनजान दुनिया की तकनीकी सच्चाईयां भी हैं जिनसे अमूमन हिन्दी का पाठक ठीक से परिचित नहीं हैं। ओमा कारोबार की दुनिया का सच बहुत सफाई से सामने लाते हैं। कारोबार की दुनिया का सच सिर्फ पैसा है और टैक्सचोरी व्यापार की दुनिया की एक सर्वमान्य हकीकत। टैक्सचोरी है तो फिर छापे मारने वाले भी हैं। ओमा का व्यंग्यमय वाक्य है ‘आर्थिक विषमताएं पाटने के रास्ते से संसाधन जुटाने की राज्य की घोषित नीति केहम हरावल पुर्जे थे।’ आयकर विभाग के अन्तर्विरोधों का बेबाक खुलासा करता है। धर्म-सांप्रदायिकता और मानवीय रिश्तों की जटिलता को उजागर करता इस कथा रचना में हम अपने समय के मनुष्य के मनोव्यवहारों की अनेक परतों को देख सकते हैं। आयकर विभाग की मुखबिरी करनेवाला पठान इस कहानी का दिलचस्प पात्र है। सांप्रदायिक दंगों के शिकार मुस्लिम व्यापारियों के लिए उसका स्वाभाविक संप्रदाय-प्रेम पैसों और अपनी पेशेगत प्रतिबद्धता के आगे हार जाता है। यहां छापे डालने वाले अधिकारी की करुणा और मुखबिरी करने वाले मुस्लिम पात्र की क्रूरता के द्वंद्व को ओमा ने बहुत कुशलता से निभाया है। कारोबार की रूटीन दुनिया के दैनंदिन में प्रेम, संवेदना और अंततः मनुष्यता बहुत पीछे छूट चुकी है।
‘वास्ता’ कहानी संयुक्त परिवार के टूटने पर केन्द्रित है। संयुक्त परिवारों का टूटना और पेशगत विवशताओं की वजह से पलायन आज के समय का दुर्निवार सच है। लेकिन ओमा की कहानी इससे आगे के सचों का भी खुलासा करती है। वह सच जो भाइयों के रिश्तों के नींव में विद्यमान रहता है, वह सच जिसे चिरंतन माना जाता है, वह सच जिसे खून का संबंध कहकर प्रतिष्ठित किया गया है। ‘वास्ता’ में बड़े भाई सुखदेव के न्यारे हो जाने के बाद अपने छोटे भाई जयदेव उर्फ सीटू से लम्बी उदासीनता के बाद हुई मुलाकात भी रिश्तों के सच की उस पवित्रता को प्रतिस्थापित नहीं करती, जिसके लिए कौटुम्बिकता अथवा पारिवारिकता शब्दों का प्रयोग होता रहा है। दरअसल उपयोगितावाद और स्वार्थपरता ने उन सारे परंपरागत मूल्यों को खारिज कर दिया, जो हमारी संस्कृति निष्ठा को परिभआषित किया करते थे। ‘वास्ता’ में स्वार्थपरता के अन्तर्दंश साफ दिखाई देते हैं। यहां बड़ा भाई अपने छोटे भाई से सिर्फ इसलिए मिलने आया है कि वह उसके बेटे की नौकरी का इंतजाम कर दे। छोटा भाई इस दिशा में पहल भी करता है किन्तु भतीजे की नौकरी फिर भी जड़ें नहीं जमा पाती। नतीजतन दोनों भाइयों के बीच दरार और चौड़ी हो जाती है। तथा खून के रिश्तों की परंपरागत अखंडता को उपोयोगितावाद के कच्चे धागों से पुख्तगी देने की एक कोशिश अंततः धराशायी हो जाती है। ओमा ने भाषा और चुस्त जुमलों के मार्फत कहानी की रचनात्मक बुनावट को सलीके से कसा है। वास्ता में खून का पानी से भारी होना अंततः बाजार की शर्तों के आगे खारिज हो जाता है। कई स्थानों पर ओमा की नपी-तुली अभिव्यक्ति दिलचस्प बन पड़ी है।
‘ग्लोबलाइजेशन’ एक प्रयोगधर्मी कथा रचना है जो सूचनाओं के मार्फत आगे बढ़ती हैं तथा हमारे समय के सूचना सम्पन्न युवाओं की मनोदशा, सोच और सीमाओं को प्रगट करती है। इन सूचनाओं के दायरे में सारे संसार की कथित बड़ी हस्तियों एवं आइकनों से लेकर सौन्दर्य प्रसाधन के तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली अनेक अधुनातन वस्तुएं शामिल है। ‘कल बिग बाजार गई। अलग रंग का शैम्पू दिखा। अंडे के योक को बेस लेकर बनाया हुआ। मुझे फौरन याद आया कि केट मोस और एंजलिना जोली भी इसी तरह के शैम्पू इस्तेमाल करती हैं। कितना अच्छा है कि इण्डिया में भी हर चीज मिल जाती है।’ डायरी लेखिका के – 12 दिस्म्बर को लिखे गये पृष्ठ की उपरोक्त पंक्तियों में गौर करने लायक बात यह है कि एक खास तरह के शैम्पू की भारत में उपलब्धता से उसे खुशी है। यहां विचारणीय मुद्दा यह है कि देश के सुदूर इलाकों में पेयजल, अन्न और बिजली इत्यादि चीजें उपलब्ध हैं या नहीं यह उसके सोच के दायरे में शामिल नहीं है। कथाकार का मंतव्य भी यही है कि हमारा समय सूचनाओं से किस हद तक आक्रांत है और सूचनाओं से इतर मानवीय अस्मिता के बारे में सोचना बकवास है।
दरअसल ग्लोबलाइजेशन की लपेट में डायरी लेखिका आत्महत्या का जिस ढंग से सरलीकरण करती है वह न केवल दुखद है वरन एक कॉलेज की प्राध्यापिका की खतरनाक सोच को भी प्रतिबिंबित करता है। क्या ग्लोबलाइजेशन का समर्थक युवा उन त्रासद मनःस्थितियों की पड़ताल करना चाहेगा जहां एक किसान खेत में डालने के बजाए पेस्टीसाइड पीने को विवश है।
एक डायरी लेखिका की मनोदशा को व्यक्त करती यह कहानी हमारे समय के सूचना समृद्ध संसार के खोखलेपन को भी पूरी ताकत से उजागर करती है। ढेरों विवरणों के बावजूद कथा का कलेवर बहुत लम्बा नहीं है। ओमा ने बहुत संक्षिप्त में बहुत सारी बातें कह दी हैं।
‘महत्तम समापवर्तक’ कला और आभिजात्य के द्वंद्व को लेकर लिखी गई एक दिलचस्प और पठनीय कहानी है। यहां कथाकार का व्यंग्यबोध अपनी प्रखर और प्रहारक क्षमता के साथ अभिव्यक्त हुआ है। मिसेज चांद के पास अकूत पैसा है और वह पैसों से बहुमूल्य कलाकृतियां खरीदती है। मिसेज चांद परिष्कृति रूचि की महिला है तथा पैसों के बल पर इंटीरीयर डेकोरेशन आदि के द्वारा अपने सौन्दर्यबोध और अभिजात्य को खाद-पानी देती रहती है। कला के लिए जो गहरी प्यास, भीतरी कोमलता, परख और अन्तर्दृष्टि होनी चाहिए वह मिसेज चांद के पास नहीं है। यही कारण है कि उसके द्वारा खरीदी गई मर्लिन मुनरों की स्टेच्यू अथवा सूजा की पेंटिंग महज शो-पीस अथवा अपने इंटीरियर डेकोरेशन की सजावट मात्र है। ओमा की यह कहानी कला की दुनिया के उस दुर्भाग्यपूर्ण विरोधाभास को पूरी शिद्दत से व्यक्त करती है जहां कला और सौन्दर्य अब चंद सुविधापरस्त कुलीनों का शगल मात्र बन कर रह गए हैं। और यह भी कि अब बाजार का हस्तक्षेप महज खाने-पीने की वस्तुओं तक ही नहीं रहा बल्कि कला और कविता जैसी रूहानी चीजों को भी अपनी गिरफ्त में ले रहा है। ‘घोड़े’ इस संग्रह की लम्बी और विचारणीय कहानी है। इसमें कथाकार के शिल्पगत प्रयोग और संधानवृत्ति को देखा जा सकता है। ओमा ने रेसकोर्स की शब्दावली अनुशासन और संविधान के मार्फत एक ऐसा वातावरण निर्मित किया है कि पाठक अपने पाठ के दौरान ठीक रेसकोर्स में जुआरी की हैसियत से उपस्थित रहता है। ‘हवा में इलेक्ट्रिक गोली दागने की सूखी ठांय के साथ सारे घोड़े स्टार्टिंग गेट के पल्लों के पाबंद से एकदम निकलकर चादर सी चमकती हरी ट्रेक पर उड़न छू हो लिए।’
उपरोक्त वाक्यांश ओमा के अनुभूतिजन्य आत्मविश्वास का उदाहरण है। समूची कहानी के केन्द्र में रेस है लेकिन यह रेस घोड़ों तक ही सीमित नहीं है। एक समानांतर रेस भी है जिसमें कथा नायक मानस की जिंदगी के दैनंदिन के चित्र हैं। इन चित्रों में रेसकोर्स की उत्तेजना के बरअक्स उसके एकाकीपन, ऊब, थकान और पलायन के बिंब अपनी समूची विकरालता के साथ उपस्थित हैं। मानस ठक्कर जो न केवल घुड़दौड़ के नियमों और अनुशासन से अवगत है बल्कि उसने घुड़दौड़ के पीछे एक दर्शन भी तलाश लिया है। किन्तु घुड़दौड़ के जुए का पारंगत नायक अपनी निजी जिंदगी के सारे दांव हार चुका है। घुड़दौड़ की उपलब्धि के तौर पर उसके पास वृद्ध पिता का टूटता आत्मविश्वास, पत्नी का पलायन और खंडित होती गृहस्थी के अलावा कुछ नहीं बचा है। टूटता आत्मविश्वास, पत्नी का पलायन और खंडित होती गृहस्थी के अलावा कुछ नहीं बचा है। समृद्धि और सतही ग्लेमर के भ्रमों के बाच गुम्फइत महानगर की जिंदगी के विरल चित्र घोड़े में सविस्तार उपस्थित हैं।
‘कुतरवा’ विशुद्ध रूप में एक व्यंग्य कथा है। ओमा व्यंग्य का सही और सटीक इस्तेमाल करते हैं। व्यंग्य की यह अन्तर्निहित मुद्रा ही ओमा की भाषा को एक आह्लादकारी विशिष्टता देती है जिसे ज्वायफुल प्रोज कहते हैं। वह ओमा के गद्य कौशल और अंदाजे बयां में सन्निहित है। कुतरवा में व्यंजना के विरल चित्र हैं। नौकरशाही और अंधविश्वास की परस्परता आमतौर से स्वीकार्य नहीं है किन्तु इस देश का यह दुखदायी संयोग है कि नौकरशाह आमतौर पर अंधविश्वासी ही होते हैं। तथा पैसे, पद और प्रतिष्ठा के लिए वे प्रायः टोटकों पर निर्भर रहते हैं। वरना ठाकुर अमरप्रतापसिंह का परिवार अपने प्रमोशन और प्रतिष्ठा तथा धनदौलत की अभिवृद्धि को एक कुत्ते की उपस्थिति से जोड़कर नहीं देखता। पंडित राधारमण त्रिपाठी की सलाह पर एक श्यामवर्ण का श्वान पालने वाले ठाकुर अमरप्रताप की यह दलील कितनी हास्यास्पद है कि छः महीने के अन्दर ही उन्हें मनचाही डिस्ट्रिक्ट मिल गई। उक्त पढ़े लिखे अफसर की अपेक्षा उनका नौकर ज्यादा समझदार है जो रूस्तम उर्फ कुतरवा की मौत के बाद उसकी देह को इज्जत से दफनाने के बजाय बेदर्दी से पहाड़ी के नीचे फेंक आता है। कुतरवा में एक नाटकीय बिंब और हास्यजनक स्थितियां हैं। इस कथा का यदि नाट्य रूपांतरण किया जाए तो इसके संप्रेषण में हैरतअंगेज अभिवृद्धि हो सकती है।
‘बांग्लादेश’ स्त्री की मनोदशा, स्वातंत्र्य समर्पण और दुस्साहस की कहानी है। पति के दुर्व्यहार तथा रोज-रोज आहत करनेवाले क्रूर आचरण से पीड़ित सुनीता आर्थिक आत्मनिर्भरता की तलाश में प्रूफ रीडर की नौकरी करने लगती है और अपनी गृहणी मात्र होने की सीमाओं को पूरे साहस से फलांग जाती है। पति के घृणास्पद व्यवहार को सहनशीलता की हदों तक झेलती, स्त्री के विद्रोह की स्वाभाविक परिणति उसे मोहनजी जैसे सम्पादक और अंततः संदीप साइलस जैसे लेखक के नजदीक ला देती है। संदीप साइलस के कोमल व्यवहार और बौद्धिक प्रखरता इस नजदीकी को प्रेम और दैहिक आकर्षण में बांध देते हैं। बांग्लादेश में सुनीता का आचरण शुचितावादियों की नजर में भी दुराचरण और अनैतिक नहीं कहा जा सकता, यह एक स्त्री के स्वाभिमान की स्वाभाविक परिणति है। अलहदा इसके सिर्फ आत्महत्या ही बचती है लेकिन वह भी तो अप्राकृतिक ही है।
‘रास्ता’ में भी शिल्पगत नवीनता है। महानगरीय जीवन की त्रासद विसंगतियों पर एक आम शहरी का मोनोलॉग रोचक है। घटनाहीनता के बावजूद वार्ताकार के रोचक एकालाप में अनेक वृतांत हैं जो दिलचस्प भी है और प्रवाहमय भी। कहानी की पृष्ठभूमि में भले ही बंबई हो, पर यह प्रायः सभी महानगरों का यथार्थ है।
कुल मिलाकर कारोबार की कहानियां अपने शिल्पगत वैविध्य, प्रवाहमय भाषा तथा मुखर व्यंजना क्षमता और विट सम्पन्न गद्य के तौर पर सर्वथा अलग और विशिष्ट हैं।
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