नवम्बर, 2004 में आपने ‘वो गुजरा जमाना’ की प्रति भेजी थी। लगातार मेरी टेबल पर रखी रही-पढ़ी जाने कि लिए और पिछले एक माह से मैं उसे धीरे-धीरे पढ़ता रहा। इस किताब को संभवतः इसी तरह धीरे-धीरे और चबा-चबाकर ही पढ़ा जा सकता था। बीच-बीच में आपके साथ गुजारी गई मुंबई की दोपहर और एक दूसरी शाम याद आती रही। आपने जिस तरह मेरी दिलचस्पी स्वाइग के लिए जगी दी थी, जैसे इस किताब के जरिए आपने अनजाने ही और भड़का दी है। नतीजन, मैंने स्वाइग की कुछ (अनुदित) किताबें दिल्ली से एक मित्र के जरिए मंगवाई हैं।
इस अनुवाद के लिए आप बधाई के पात्र तो निःसंदेह है ही, मेरी ओर से धन्यवाद के हकदार भी हैं। इसमें से झांकता हुआ लेखक अपने काम के प्रति किस कदर प्रतिबद्ध है और तटस्थता और संवेदनशीलता से जिस तरह वह अपने समकालीनों को देखता-छूता है, उससे मेरे लेखक मन को भी बहुत ताकत, प्रेरणा और समझ मिली है । मैं कुछ अधिक सामर्थ्यवान हो उठा हूं और किंचित जवान हो गया हूं। आपने भी जिस लगन और परिश्रम (दिखता है) से यह काम प्रस्तुत किया है, उससे आपके प्रति मेरा प्रेम और सम्मान भी बढ़ ही गया है।
1910 से 1940 तक के तीन दशकों का यूरोप, ‘लेखक की निगाह के इतिहास’ की तरह सामने आ गया। इस मायने में यह अद्वितीय पुस्तक है। रिल्के के ऊपर पृष्ठ पढ़कर मुझे कहीं अधिक आनंद आया, क्योंकि रिल्के मेरी कमजोरी हैं। इस किताब को मैंने जितनी रुचि से पढ़ा है, वह मेरी प्रति देखकर समझ लोगे, वह इतनी अधिक ticked and underline and marked है कि किसी और को पढ़ने देने में शर्म आ सकती है। जिन पृष्ठों को मैंने बार-बार पढ़ा- 119-127, 169-172, 188-196, 263-271, 280-287, लेकिन इस तरह इस पुस्तक को संकीर्ण नहीं किया जा सकता।
समीक्षा जैसी हरकत तो मैं कर नहीं सकता और मुझे तुम माफी दोगे। (वैसे भी यही एक बेहूदा काम है जो इधर पर्याप्त बेशर्मी और फूहड़ता से किया जा रहा है।) लेकिन लाख टके की बात यह है कि मेरी कूवत ही नहीं है। इस किताब ने मुझे विवश कर डाला है कि मैं अपनी निजी जिंदगी, काम और नौकरी के बार में पुनः-पुनः विचार करूं। यह कोई छोटी मोटा असर नहीं है। इसका प्रभाव भी आगे-पीछे तुम्हें देखने को मिलेगा।मैं आश्वस्त हूं कि तुम भी इस काम को करने के बाद असीम सुख-संतोष से भर गये होंगे और सृजनात्मक समृद्धि का निर्माण कर चुके होंगे और अब नई रचनाशीलता में जुट चुके होंगे।
‘परिप्रेक्ष्य’, जिसका पहला ड्राफ्ट मैं मुंबई में सुन चुका था, बहुत ही उम्दा लिखा गया है और लगभग पूरक की तरह काम करता है। कभी मिलेंगे, तो इस काम के लिए ‘चियर्स’ किया ही जाएगा।
कम लिखा है, खूब समझना।
पुनः बधाई और आभार, मेरे प्रिय मित्र।
कुमार अंबुज
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