साहित्य का समकोण कहानीकार, और अुवादक ओमा शर्मा का संस्मरणात्मक और वैचारिक लेखों, टिप्पणियों, डायरी अंशों, समीक्षाओं और सिरमौर कथाकार-संपादक राजेंद्र यादव से एक लंबे, तल्ख और बेबाक साक्षात्कार का संकलन है। साहित्य और पत्रकारिता के सम्मिश्रण से निर्मित ‘साहित्य का समकोण’ एक साथ विभिन्न विधाओं के स्वभाव, स्वाद और मिले-जुले चरित्र से युक्त होने के कारण एक अभिनव साहित्यिक आयोजन बन सका है जो रचनाओं के विविधरंगी कोलाज को अंकित किये हुए है।
‘दुनिया मेरे आगे’ खंड की रचनाएं हमारे जीवन-समाज, दुनिया-जहान की वो दुखती रगें हैं जिससे अब हमें पीड़ा का अहसास भी नहीं होता, क्योंकि हम उसे स्वाभाविक और अपरिवर्तनीय मान चुके हैं और यथास्थितिवाद के मानसिक गिरफ्त में हमने एक मुहावरा गढ़ लिया है होता है, चलता है। ये संस्मरणात्मक और वैचारिक (कई बार विचारोत्तेजक भी) लेख हमारी उसी मानसिक जड़ता पर प्रहार कर हमें सवाल पूछने और हस्तक्षेप करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
‘आओ बनाएं भगवान’ हमारे समाज की बुतपरस्ती और चापलूसी की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य है। यह लेख कबीर की भ्रष्ट व्याख्या, मनमाफिक उपयोग और इंसान से ईश्वर बनाकर कबीर की हत्या करने के षडयंत्र का खलासा और विरोध करता है। जयदेव के ‘दशावतार स्तुति’ में बुद्ध और महावीर जैसे अवतारवाद विरोधी चिंतकों और हिंदू धर्म के आलोचकों को विष्णु का अवतार बताकर और स्तुति कर उनके समग्र चिंतन की हवा निकालने की कोशिश की गयी है। वो तो भला हो कबीर का कि वे जयदेव के बाद पैदा हुए वरना बहुत सारे लोग आज कबीर को धर्मिक-संकीर्णताओं के आलोचक और विध्वंसक के रूप में नहीं, विष्णु के दसवें या ग्यारहवें अवतार के रूप में जान रहे होते।
‘लोक और लोकप्रियता की मार’ लोकसंस्कृति के बाजारू होने और बदल कर खत्म होने के खतरे के प्रति आगाह कराता हुआ, पूंजी और बाजारतंत्र के सामने हमारी सामर्थ्यहीनता और बेबसी का बोध करता है। ‘कीर्तिमान के पीछे’ प्रतिस्पर्धी समाज की मूर्खता और जीवन-समाज में पूंजीवादी संस्कृति और खदेड़िया मीडिया के दखल और दुष्प्रभावों को उजागर करता है।
‘दुनिया मेरे आगे’ की रचनाओं में एक सोच है। सामान्यतः कॉमनसेंस से चीजों को देखा गया है बिना किसी गंभीर विचार विश्लेषण के। इस तरह के छोटे लेखों में चिंतन और विश्लेषण की वैसी गुंजाइश भी नहीं रहती। कई बार लगता है लेखक जल्दीबाजी में निष्कर्ष निकालने और टिप्पणी देने की मजबूरी से ग्रस्त है। लेखों की एक खूबी रेखांकित करने के लायक है – बेबाकी।
‘डायरी-खंड’ संकलन का सशक्त पक्ष है। गुजरात के भूकंप और नरसंहार विषयक ओमा शर्मा के नोट्स में भूकंप से हुई भयंकर क्षति और नरसंहार की पाशविकता अतिरिक्त भावुकता के बिना संवेदनात्मक यतार्थ के साथ विश्लेषित हुआ है, जिसमें मरा हुआ आदमी महज लाशों की संख्या में इजाफा नहीं करता। इस डायरी-अंश का अध्ययन मन को भीतर तक संतापित कर जाता है। विकास के विलायती मॉडल और सामाजिक यथार्थ के तार्किक विश्लेषण के द्वारा लेखक गुजरातियों के बर्बर होने के उलझे हुए किस्सों के रेशे-रेशे को सुलझाने का प्रयास करता है।
ओमा शर्मा गुजरात विषयक अपने लेखों में प्रेमपाल शर्मा की तरह एकांगी होकर मुग्ध नहीं हो जाते, वे उसकी नब्ज को तब तक टटोलते हैं, जब तक बीमारी पकड़ में न आ जाए।
वास्तव में गुजरात धंधों का का देश है और प्यार और युद्ध की तरह धंधे में भी सब कुछ चलता है। यह अंतर्विरोधों का समाज है, इसकी सामाजिक व्यवस्था संक्रमण का मलबा है। खुलापन, शांतिप्रियता आदि तारीफ करने लायक चीजें हैं, पर गौर से देखें तो इनकी ज़ें भी हमें किसी गंदली, दलदली जमीन में ही नजर आएगी।
स्टीफन स्वाइग से हिंदी समाज का मुकम्मल परिचय कराने वाले ओमा शर्मा उम्दा डायरी लेखक हैं तथा कुछ हद तक शब्द-चित्र निर्मित करने में स्वाइग की तरह ही सिद्धहस्त हैं। स्वाइग के टॉलस्टाय के जीवनी-लेखन से परिचय कराते हुए ओमा शर्मा टॉलस्टाय के व्यक्तित्व के छुपे-खुले पहलुओं और खूबियों-खामियों से तो परिचय कराते ही हैं स्वाइग की अप्रतिम निरूपण और निरीक्षण क्षमता से भी अवगत कराते हैं। डायरी की इससे बड़ी सफलता क्या हो सकती है कि लेखक स्वाइग को पढ़ने के लिए न केवल ललचा देता है, बल्कि बिन पढ़े भी उसका मुरीद बना देता है। इसी क्रम में ओमा शर्मा पर स्वाइग की आत्मकथा ‘द वर्ल्ड ऑफ यस्टर्डे’ के अनुवाद का पागल जुनून सवार होने की कहानी भी सामने आती है।
ओमा शर्मा एक अच्छे समीक्षक भी हैं। हंस में प्रकासित ‘गोर्की के पत्र’ (अनु. नजीरूल हसन अंसारी) की समीक्षा ‘गोर्की की असली जीवनी’ समीक्षा से अधिक एक आलेख है जिसमें गोर्की के बहाने उन्होंने बताया है कि साहित्य एक कलात्मक कर्मक्षेत्र भर नहीं है। यह क्रांति और बदलाव की फसल को बोने के लिए समाज की जुताई का महत्वपूर्ण कार्य है। यह समीक्षा लेखक के एक्टिविस्ट होने की जरूरत को प्रस्तावित करता है। एक अदद साधारण इंसान से गोर्की के दुनिया के महान लेखक तक के रोमांचक सफर की बारीकियों को यह समीक्षा हमसफर की तरह बयां करने में सफल होती है।
संकलन में शामिल राजेंद्र यादव का साक्षात्कार ‘यह अंत मेरा ही नहीं…’ एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार है जो अंत तक पहुंचते-पहुंचते एक मार्मिक साक्षात्कार में बदल जाता है, जो राजेंद्र यादव की प्रतिबद्धताओं, चिंतन-विस्लेषण की बारीकियों, व्यक्तित्व के संपूर्ण पहलुओं, उतार-चढ़ावों, जीवन के प्रिय-अप्रिय प्रसंगों, अंतरंग पलों, पुराने लेखन का हिसाब लेते हुए एक साहित्यिक डॉन के संभावित अवसान की ट्रेजडी का भान कराती है। एख व्यक्ति, लेखक और संपादक की विकास-प्रक्रिया और उसके चरम उटान को रेखांकित करते हुए यह साक्षात्कार अंत के दरवाजे तक पहुंच कर ठिठक जाता है। इस साक्षात्कार समेत राजेंद्र जी के तमाम साक्षात्कारों पर एक मुंबईया फिल्मी डायलॉग के सहारे मौजूं टिप्पणी करूं तो ‘डॉन कभी रांग नहीं होता।’
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