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उमाशंकर सिंह (अनभै सांचा, 2007): जिंदगी और जमाने पर दर्द और दहशत के पैबंद

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

आत्मग्रस्त आत्मकथाओं के आदी हिंदी पाठकों को विश्वप्रसिद्ध जर्मन भाषी, ऑस्ट्रियाई लेखक स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा ‘वो गुजरा जमाना’ (The world of yesterday)  चौंकाती है। हिंदी के पाठकों के लिए इससे पहले सोचना भी मुश्किल था कि कोई आत्मकथा इस कदर आत्ममुक्त हो सकती है। यह लेखक की कहानी नहीं है, जैसा कि अधिकांश आत्मकथाओं की अनिवार्य नियति और परिणति है, बकौल खुद स्वाइग ‘अपनी शख्सियत को इतनी अहमियत मैंने कभी नहीं दी कि दूसरों को अपनी जिंदगी की कहानी सुनाने लग जाऊं… सारे चित्र वक्त ने दिए हैं। उनके इर्द-गिर्द जो शब्द हैं बस वही मेरे हैं,’ यह एक बुरे दौर का बयान है जिसे मानवतावादी और विश्वबंधुत्व के पुरोधा लेखक, बेजोड़ गद्यकार और अपने समय के सबसे बड़े जीवनीकार और कला के एक्टिविस्ट स्टीफन स्वाइग ने अपने जीवन के माध्यम से बयां किया है। स्वाइग बुरे वक्त के मारक खंजर का न केवल गवाह रहा, बल्कि उससे बुरी तरह पीड़ित भी रहा। खुद स्वाइग के शब्दों में, ‘एक ऑस्ट्रियाई, यहूदी, लेखक, मानवतावादी और शांतिवादी के कारण मैंने अपने आपको हमेशा उसी बिंदु पर खड़ा पाया जहां ये भूकंप सबसे भीषण थे।’ बीसवीं सदी में दुनिया के तमाम सत्ता और व्यवस्था के प्रतिष्ठानों, परस्पर संघर्ण और आपसी ध्रुवीकरणों ने इंसानी नियति पर जो कालिख पोती, यह उसके भोक्ता का अपने जमाने के प्रतिनिधि के रूप में किया गया बयान है जो एक मुकम्मल, वस्तुनिष्ठ सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक इतिहास बन पड़ा है।

लेखक ने अमन, खुशहाली, सुव्यवस्था और समृद्धि के पालने में अपना जीवन शुरू किया था, लेकिन दो एक दशकों बाद ही ऐसा दौर आ गया जब युद्ध की जमीन सरहदों से दूर किनारे से खिसककर शहर, बस्ती और घर तक पहुंच गई! युद्ध की जय-पराजय, सैनिकों की जीत-हार से ज्यादा बस्तियों की तबाही और आम आदियों के जान-माल की क्षति से तय होने लगी, अमन की उम्मीद बस भलमनसाहत और खुशफहमी रह गई। ऐसे में तो ‘वो गुजरा जमाना’ राजनीति से अपेक्षित दूरी बनाए रखनेवाले कलाकार स्वाइग की दुनियावी नियति के विरूद्ध कला-साहित्य को प्रतिरोध के हथियार के रूप में आजमाने की भी कथा है।

प्रथम विश्वयुद्ध के पहले का वक्त जिस दौर में लेखक ने अपना होश संभाला, समय-समाज गतिहीनता की हद तक शांत और स्थिर थी। अपने इस वियनायी जीवन को लेखक ने उचित ही ‘सुरक्षा के स्वर्णकाल’ की संज्ञा दी है। पहला अध्याय वियना का सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक और आर्थिक इतिहास है। लेखक के दृष्टिकोण में मुग्धता के बावजूद एकांगिकता नहीं है, वियना के पूरे अंतर्विरोध भी उजागर हैं, समाज की राजनीतिक उदासीनता, कलात्मक-सांस्कृतिक अति सक्रियता में बदल जाती है। सुरक्षा का यह स्वर्णकाल जिसे विवेक का दौर कहा गया, एक हवाई-महल ही साबित होता है। वास्तव में यह एक नए उथल-पुथल भरे युग की शुरुआत थी।

लेखक ने यहूदियों के सोचने-समझने और जीने आदि की बारीकियों को कुशलता से उजागर किया है। 19वीं सदी में यहूदियों के बौद्धिक उन्नयन के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक कारण थे, वही कहीं न कहीं उनकी विडम्बना का कारण भी बना। धन यहूदियों के लिए मंजिल नहीं, सीढ़ी ही थी। गरीबी और तोहमत से निकले यहूदी, दो-तीन पीढ़ी से अधिक ठस्स भौतिकता की जदों में नहीं रहते थे। यहूदियों ने सार्वभौमिकता और विश्व नागरिकता को एक मूल्य के रूप में स्वीकारा। सामाजिक मान्यता के लिए कला, दर्शन, विज्ञान और संस्कृति की दुनिया में संघर्षरत हो गए। इसलिए यहूदियों के यहां मार्क्स हुए, आइंस्टीन और गेटे हुए, पक्षी वैज्ञानिक लार्ड रोठशील्ड हुए, कला इतिहासकार बारकी हुए, कवि ससून हुए।

इस चौराहे से एक रास्ता सांस्कृतिक उन्माद की ओर फूटता था जो श्रेष्ठता ग्रंथि के नस्लवादी वर्चस्ववादी कीटाणु भी पैदा करता है। इसी ग्रंथि और कालांतर में हुए यहूदी नरसंहार की प्रतिक्रियावादी भावना का मिला-जुला परिणाम क्या आज का इजराइल नहीं है? आज उत्पीड़ित यहूदी उत्पीड़क की भूमिका में अपने-अपने उत्पीड़ित इतिहास से मुक्ति का स्वप्न तलाशने लगा है।

पश्चिम का इतिहास जिस तरह से प्रकृति से द्वंद्व, संघर्ष और विजय का रहा है, वियना उसका अपवाद था। प्रकृति से मेल-जोल ने उनका सामाजिक विज्ञान और जीने का ढंग विकसित किया। वियना से संगीतमय माहौल से ही वियना के लोगों के जीवन में खनक आती थी और सांगीतिक माहौल बाद में स्वाइग के काव्यात्मक गद्य का स्रोत बना। वियना का जनजीवन तमाम राष्ट्रीय और भाषायी वैविध्य का खोल था और पश्चिमी सभ्यता का निचोड़ भी। अंतर्राष्ट्रीय बंधुत्व का सनक भरा सबक लेखक ने इसी वियनायी जीवन से सीखा।

दूसरे अध्याय ‘स्कूल का जीवन’ की बातों भारतीय समाज और शिक्षा व्यवस्था पर भी पुरजोर तरीके से लागू होती हैं। सिर्फ अच्छे बच्चों और आज्ञाकारी युवाओं का अभ्यस्त समाज अनुभव के नाम पर ऊर्जावान नौजवानों का गला घोंटकर जीर्ण-शीर्ण हो चुकी व्यवस्था और समाज को बचाने की कवायद में जुड़ा था। पूरा स्कूल तंत्र लकीर के फकीरों को पैदा करने का कारखाना और समाज झुककर चलना सिखाने का ट्रेनिंग कैम्प था। सर उठाकर न चलने की रस्म और रवायत जोरों पर थी। इसी जड़ माहौल के दमघोंटू परिवेश से उपजे प्रतिक्रियावाद ने लेखक के मन में सदा-सदा के लिए यथास्थितिवाद से चिढ़ उत्पन्न कर दी। सिलेबस टाईप्ड पढ़ाई से विरक्त कर उसे ज्ञान के गहरे उन्माद में डुबो दिया।

19वीं सदी की ढलान में बीसवीं सदी की बिसात बिछ चुकी थी, नीरस स्कूली माहौल में कलात्मक उन्माद जुनूनी बचपन को तराश रहा था। एक तरफ युग गढ़ा जा रहा था, दूसरी तरफ पूरे यूरोपीय साहित्य  में अपने अंदाजे-बयां की सानी न रखनेवाले अमर सर्जक, कला मर्मज्ञ स्वाइग। वक्त दोनों को तराश कर आकार देने के लिए निरंतर हथौड़ों-सा प्रहार कर रहा था। चुने हुए लोगों की आतंकपूर्ण भभकियां बहुसंख्यक शांतिप्रिय समुदाय पर हावी हो गईं। जातियों-नस्लों का पारस्परिक-स्वाभाविक मनमुटाव खाइयों की शक्ल लेता गया। राजनीतिक आलाजकता पुरानी सदी के व्यक्ति-स्वातंत्र्य को अलविदा कह रही थी। फासीवाद और हिटलर के उदय की जमीन बन रही थी। दूसरी ओर क्रांतिकारी ताकतें अपनी ताकत जोह रही थीं।

समाज मनोविज्ञान में स्वाइग का किसी भी अधिकारिक विद्वान से कम दखल नहीं है। अपने समाज मनोविज्ञान की इसी कुशल समझ के आधार पर वे बीसवीं सदी के यूरोप की समाज-संस्कृति के उलझे रेशे को सुलझाते हैं और उसकी बहुस्तरीय परतों को प्याज के छिलकों की तरह बारी-बारी से उघाड़ते हुए उन सच्चाइयों से रू-ब-रू कराते हैं, जिन्हें हम अपनी तमाम बौद्धिक-अकादमिक उपलब्धि के बावजूद सतही तौर पर ही जानते हैं।

‘जवानी की दहलीज’ अध्याय वियना में विक्टोरियाई नैतिकता और आरोपित रूढ़िवादी बंधनों का पता देता है, लेकिन बंधन स्वेच्छाचारी भावनाओं को और बल देता है। दोनों के द्वंद्व में समाज का दोमुंहापन ही सामने आता है, इसलिए वियना में खतरनाक कामुक विषाणु पैदा हो रहे थे। दमित कुंठाओं के लिए यह उपजाऊ मिट्टी साबित हो रही ती। एक ऐसा समाज जो नारी को करुणामयी रूप में देखने का अभ्यस्त है, उसकी पवित्रता और शुचिता का पक्षधर है, उसके दैवीय गुणों का इस कदर कायल है  गोया नारी कोई वायवीय चीज हो, कुल-खानदान की निर्जीव, झूठी इज्जत-प्रतिष्ठा की प्रतीक, जिंदगी से महरूम और कुदरती इच्छाओं से उदासीन। पुरुष की शारीरिक, मानसिक, भौतिक, आध्यात्मिक लिप्साओं-इच्छाओं की संपूरक मात्र। अचरज की बात नहीं है कि समाज घोषित रूप से तो स्त्री के दैवीय गुणों का पुजारी था पर उसके सहज-स्वाभाविक, प्रवृत्तिगत जीवन का हमलावर और मानवीय अधिकारों का विरोध था। इसी समाज ने पौरुष और अपाहिज मर्दानगी की तुष्टि के लिए अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक पिछले दरवाजे से स्त्रियों का बंदोबस्त करने का घटिया तरीका ईजाद किया, वहीं सामने के दरवाजे से उसके सामने सर नवाता रहा। यह भारतीय समाज जैसा ही ‘यत्र नार्यस्तु पूजयंते रमंते तत्र देवता’ और ‘नारी चारों कुल बिगाड़ी’ जैसी विरुद्ध, अतिवादी मानसिकताओं का संयोजक पाखंडी समाज था। पर आनेवाली पीढ़ी को बेईमान नैतिकता और दोमुंहेपन से ज्यादा दिन तक नहीं छला जा सकता है।

विज्ञान,तकनीक, ज्ञान, दर्शन के विकास के साथ आधुनिकता के उदय ने लेखक से तुरंत बाद की पीढ़ी को अपने जीवन की नकेल अपने हाथ में थमा दी। इस मामूली से फर्क की जीवन-समाज के विभिन्न संभागों पर ऐसा असर दिखा कि एक पीढ़ी का अंतर हजार साल की खाई की तरह दिखने लगा। स्वाइग ने विश्वविद्यालय से एक अदद डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। महज एक पट्टा, एक झुनझुना परिवारवालों के लिए। पर उसके लिए असली विश्वविद्यालय, बर्लिन के गली-कूचे, जुआघर, स्टूडियो, नशेबाज, ठग, दोस्त और दुनिया-भर का सैर-सपाटा ही साबित हुआ, कुछ-कुछ गोर्की के विश्वविद्यालय के मानिंद। वियना के कलात्मक, परिष्कृत सौष्ठववादी और आभिजात्य जीवन के बनिस्बत ज्यादा जवां और जीवंत माहौल ने जहां लेखक को पहली बार अस्तित्व का अर्थ और वैयक्तिक स्वतंत्रता का सच्चा मतलब समझाया, वहीं भविष्य में लिखे गए उपन्यास-कहानियों के प्लाट भी मुहैया कराए। साथ ही यह भी बताया कि अपनी जड़ से जुड़ने का माध्यम अपने जीवन और साहित्य के साथ-साथ विदेशी धरती और विदेशी साहित्य भी हो सकता है, और अनुवाद भी उसी कदर सर्जनात्मक काम है जिस कदर रचना। शायद यही वजह है कि स्वाइग जितने बड़े लेखक हैं, उतने ही महत्वपूर्ण अनुवादक भी। स्वाइग ने अनुवाद और दुनिया-भर के अपने समकालीन कला, साहित्य के उस्तादों की जीवनियों के मार्फत विश्व समाज और साहित्य के बीच महत्वपूर्ण पुल बनाया। स्वाइग को सदाबहार जवानी के शहर पेरिस की सैर में मौत और मुहब्बत का राही रेनर मारिया रिल्के, भुला दिए गए क्रांतिकारी कवि आन्द्र शैनिये, दुनिया के सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार ओगस्त रोदां और सैमेंटेसिज्म के शुरुआती उस्ताद कवि, चित्रकार विलियम ब्लेक के रेखांकन आदि जैसी बेशकीमती कमाई मिली।

स्वाइग की सर्जनात्मक यात्रा के समानांतर ही दुनिया का करवट बदलना जारी था। अपनी कला से कुत्सित यथार्थ को छुपाने का नहीं, उसे उभारने और संवारने का उपक्रम रहा स्वाइग का साहित्य। स्वाइग ने सामान्य जन को रौंदते नस्लवादी राजनीति के बेलगाम घोड़े को साहित्य द्वारा नकेल कसने की दम-भर कोशिश की, पर यह मुमकिन थी क्या? दो-दो विश्वयुद्धों के रक्त के छींटे इस आत्मकथा के पन्नों पर बिखरे हैं। युद्ध काल का सत्ता द्वारा घोषित अंधराष्ट्रवाद कैसे सामूहिक समझदारी को निगल जाता है, इसको हम भारत-पाकिस्तान वाले आज भी महसूस करते रहते हैं। स्वाइग ने इसे इतने से देखा कि गोया हाथ बढ़कार उसे छू सकता हो। उसने देखा कि कैसे अंधराष्ट्रवाद हड़पखोरी की भावना में तब्दील हो जाता है। कायर समाज वैसे ही उत्तेजित उत्साहित हो जाता है, जैसे कोई नपुंसक वियाग्रा खाकर अपनी नकली मर्दानगी प्रमाणित कर रहा हो। युद्ध से उदासीन व्यक्ति भी इस अविवेकी दौर में देश का दुश्मन माना जाता है। स्वाइग तो फिर युद्ध का दुश्मन, अमन का सिपाही और विश्वबंधुत्व का नुमाइंदा ही था। ऐसे व्यक्ति, दुश्मन की फौजों से अधिक अपनी बहादुर फौजों और राष्ट्रवादी लोगों के पहले जुमले और फिर हमले का शिकार होते हैं। कहना न होगा कि स्वाइग के साथ भी यही हुआ,युद्ध की मारक विभीषिका नागरिक-समाज में युद्धोपरांत और भीषण हो जाती है। ‘वो गुजरा जमाना’ के पहले हम प्रथम युद्धोत्तर आर्थिक संकट को कितने शुष्क तरीके से जानते थे? युद्ध के बाद ऑस्ट्रिया क्षत-विक्षत था, लहूलुहान, लगभग मरा हुआ, बस हल्की-सी जुम्बिश जो पारस्परिक लूट-खसोट के झपट्टे  में बदलकर फिर शांत हो जाती। किसी मुल्क को आजादी भी थोपी हुई लग सकती है, यह उस समय के ऑस्ट्रिया को देखकर ही जाना जा सकता है। सड़क, अस्पताल, ट्रेन, घर, मकान, कपड़े कुछ भी ऐसा नहीं था जिस पर युद्ध के निशान न दिखते हों। मगर इस ऊबड़-खाबड़, पथरीली जमीं से ही नई दुनिया के पौधे का कौंपल फूटना था। सत्ता पर नागरिकों के यकीन का अबोध संसार छीजने लगा। युवाओं ने कला, साहित्य, संगीत, नाटक सभी क्षेत्रों में बुजुर्गों को धकिया कर नई उत्तेजक मुद्रा अख्तियार कर ली। युद्धजनित समाज की शक्तियां और दुनिया-भर के खूनी महारथी भी अपनी गोटी फिट करने की सफेदपोशी साजिशों में लिप्त थे। यह पुरानी दुनिया की मृत्यु पीड़ा और नई दुनिया की प्रसव पीड़ा का द्वंद्व था। समय की कोख में पल रहे शिशु का विकास भविष्य के  सफहों में छुपा हुआ था। संक्रमण के इस दौर ने स्वाइग की हिचकिचाहट खत्म कर दी थी, स्वाइग समझ चुके थे कि यह संभावनाओं के खून-पसीने और हसरतों को एक बार फिर निष्फल होना था, इंसानियत फिर हैवानियत के सामने पानी मांग रही थी। इटली में मुसोलिनी के साथ फासीवाद और जर्मनी में हिटलर के साथ नाजीवाद का उदय हो चुका था। इस दौर में स्वाइग का जीवन, उसका साहित्य, जुनूं की हद से जमा किया गया उसका दुर्लभ साहित्य और कला संग्रहालय तिनका-तिनका उड़ गया।

आत्मकथा का अंतिम अध्याय ‘अमन की कलह’ स्वाइग बेघर और बेदर यहूदियों की जिल्लत भरी, दर-ब-दर धक्कमपेल होने की दहशत भरी, दर्दनाक दास्तान बयान करता है। सबसे पहले लेखक का पहला घर, ऑस्ट्रिया जला और उस जलते हुए घर को रोशनी में लेखक को युद्ध की परछाईं साफ दिख रही थी। जिंदगी-भर की मेहनत, करीने से जमा की गई चीजें, बीते वक्त की सबकुछ कूड़ेदान में जा रहा था। दुनिया एक नए युद्ध की दहलीज पर खड़ी थी।

नफरत की आग में पले, बढ़े और अंततः जले हिटलर ने पहले यहूदियों और फिर जर्मन वासियों सहित दुनिया-भर को ऐसी सजा बख्शी, जिसका गुनाह उसे भी मालूम नहीं था। निश्चित रूप से इस सबके बाद नई दुनिया को रौंदा जाना था। मगर उस तक पहुंचने के लिए दुनिया को अभी कितने नरक और दलदल पार करने थे। समूची दुनिया को घर समझनेवाले स्वाइग को सिर छुपाने  के लिए दर-दर भटकना था और इस नरक से मुक्ति के लिए अपनी दूसरी शादी के महज दो साल बाद आत्महत्या करनी थी।

‘वो गुजरा जमाना’ आत्मकथा से अधिक बीसवीं सदी के समाज, इतिहास, राजनीतिक, संस्कृति और काल को समझने की जरूरी किताब के रूप में सामने आती है। यह आत्मकथा राजनीति से समक्ष कला और साहित्य की शक्तिहीनता और असमर्थता को भी उजागर करती है। ‘वो गुजरा जमाना’ बड़ी शिद्दत से बताती है कि राजनीति से निरपेक्ष या उदासीन रहकर भी हम राजनीति के हमले और उसके प्रभाव-कुप्रभाव से बच नहीं सकते। स्वाइग की जिंदगी का खए सबक यह भी हो सकता है कि समय के बेलगाम घोड़े पर नकेल कसने की मंशा साहित्य निर्देशित राजनीति द्वारा की जाए, अन्यथा समय का बेलगाम घोड़ा हमें घसीटता रहेगा और घटनाएं किसी मस्त हाथी की तरह चेतना को कुचलती रहेंगी।

राही मासूम रजा ने अपनी कृतियों को ‘समय की कहानी’ कहा है। ‘वो गुजरा जमाना’ समय की ही कहानी है। एक ऐसे समय की कहानी, ‘जिसके नसीब में तारीख के किसी और दौर से ज्यादा बदनसीबी का बोझ लिखा था।’ स्टीफन स्वाइग अपनी इस आत्मकथा में संदर्भ मात्र हैं, बात तो जमाने की ही है। अनुवादक ओमा शर्मा द्वारा प्रस्तुत ‘स्टीफन स्वाइगः एक परिचय’  से स्वाइग के बारे में वो सारी बातें पता चलती हैं, जो स्वाइग की पूर्णतः आत्मकथा होने के बावजूद ‘वो गुजरा जमाना’ में नदारद हैं। ओमा शर्मा की मेहनत, धैर्य और जुनूं की वजह से यह आत्मकथा हिंदी में अनूदित नहीं, लिखी हुई मालूम पड़ती है। इसके लिए ओमा शर्मा बधाई के पात्र हैं। ‘वो गुजरा जमाना’ हिंदी समाज के अनुभव-आस्वाद को और सघन बनाती है।

जैसा कि फैज ने कहा है, ‘जिंदगी कोई मुफलिस की कबा है/हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं।’ ‘वो गुजरा जमाना’ स्वाइग की जिंदगी और जमाने पर लगे दर्द और दहशत के पैबंदों  का ही एक ट्रेजिक हिसाब-किताब है।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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