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अर्थ-व्यवस्था की अंतड़ियों की डीएनसी करती कहानियां

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

लिखे हुए शब्द का अंतिम अभीष्ट कदाचित्र उसका पाठक ही होता है, लेकिन हिन्दी में ‘आलोचना के अधिपतियों’ का अधिकांश ऐसा है, जिसने अपने विचार-वैभव के जरिए चतुर्दिक एक ऐसी भ्रान्ति की सृष्टि कर दी कि बीते कुछ वर्षों के दरमियान कथा-क्षितिज पर आयी युवा पीढ़ी के लिए ‘पाठकीय-विश्वसनीयता’ अर्जित करना ‘कलाच्युत’ हो जाना बन गया| कमोबेश समझ के इसी फेर ने कहानी से उसके ‘कहानीपन’ को अपहृत करने की एक सुनियोजित और सूक्ष्म शुरूआत कर दी| हुआ यहां तक कि ‘कथा-जगत’ में दाखिल होने की हड़बड़ी से भरे लगभग हर नये लेखक के लिए यह विचार आत्यन्तिक रूप से ऐसा प्रीतिकर हो उठा कि उसे लगने लगा कि क्या कुछ ऐसी ‘शिल्प-युक्ति’ आविष्कृत की जाए, जिसके चलते उसकी कहानी, ‘कहानी होने से’ कहीं अतिरिक्त सी कुछ हो उठे और उसे कथा-साहित्य के इतिहास में दाखिल होने का वैध-पारपत्र मिल जाये| बहरहाल, ऐसी जबरजोत किस्म की ‘अतिरिक्तता’ अर्जित करने के लिए लेखकों द्वारा बाकायदा वैसी ‘प्रातिनिधिक प्रविधियां’ ईजाद की जा रही हैं, जिनसे साहित्य के परम्परागत पाठक की इरादतन अवहेलना की जा सके|

बहरहाल, विडम्बना यह कि यह अवहेलना ही उसका ‘गल्प-पुरूषार्थ’ बनने लगा है| बाकायदा ये चर्चा होती है मसलन उनकी रचना  अपने भीतर पाठक को आसानी से दाखिल ही नहीं होने देती| कहना चाहिये कि वह मुंह फेरे रहती है| अलबत्ता उसे धीरे-धीरे उसे राजी करना होता है|वह रूठी रहती है|

कहने की जरूरत नहीं कि प्रकारान्तर से समझ का यह नया ‘दासत्व’ है, जिसमें सराहनाओं और समझ का विचित्र घालमेल करते हुए एक किस्म के धोखादेह-से ‘मिथ’ का निर्माण किया जा रहा है|यह मिथ है: दुसाध्यता बनाम कलात्मक महानता| निस्संदेह इसमें आलोचकीय समझ की चतुराई की अप्रत्यक्ष साझेदारी का स्पष्ट प्रायोजन भी है|

यह आकस्मिक नहीं कि ठीक इस सारे तह-ओ-बाल के विपरीत कुछेक ऐसे अल्पसंख्यक रचनाकार भी हैं, जो ऐसी साहित्यिक हबड़-तबड़ से नितांत अलग रहते हुए अपना रथ हांकते हुए अकेले, बहुत शान्त और निरूद्वेग ढंग से यह भूल कर लिखते जा रहे हैं कि उनके ‘लिखे’ का भी कभी कोई आलोचना की पीली पोथी के पृष्ठों पर हवाला दर्ज भी होगा| अलबत्ता, कहना यह चाहिए कि उन्होंने अपने भीतर की साहित्यिक यश-लिप्सा के उस ‘लालसाधिक्य’ से मुक्ति पा ली है, जो साहित्य के इतिहास के बंद कपाटों को खोलने वाली जंग लगी कुंजी की खोज में खुद को जोते रखता है| मैं इन्हें साहित्य के असंगठित क्षेत्र के ऐसे नागरिक मानता हूं, जिनकी रचनाएं ही उनका परिचय-पत्र हैं| वे बिना किसी किस्म की ‘हलातोल’ मचाये, खामोशी से रेशम के कीड़े की मानिन्द, खुद को अपनी रचनात्मकता के ही घनमथन में नाथे रखते हैं| यह उसके अकेले की दावण है| बहरहाल, महत्वाकांक्षा के बोझ को ढोती हुई लेखकों की रेवड़ से बिलकुल अलग रहने वालों में से ऐसा ही एक नाम ओमा शर्मा का भी है| ओमा के लिए पठनीय होना लज्जास्पद होना नहीं है, बल्कि, वह इसे रचना की प्राथमिक अर्हता मानता है कि एक कहानी सब कुछ होने के पहले वह ‘अपने आप में कहानी’ हो और यदि वह अपनी संरचनागत-आवयविकता में इस अपेक्षा को पूरी करती है तो वह अपने अभीष्ट में उत्तीर्ण है| ओमा आलोचना की आंख का न तारा है और ना ही किसी तारा-सितारा मण्डल में है| उसकी अपनी अकेली आंकाशगंगा है जिसके परिपथ में वह एक आत्म-नियंत्रित गति से शनै: शनै: भ्रमण कर रहा है|

मुझे याद आता है, ओमा से मेरी पहली मुलाकात नब्बे के दशक के पूर्वाध में हुई थी| अहमदाबाद की राज्य अकादमी की रविशंकर कलादीर्घा में, जहां मैं अपने जलरंग चित्रें की एकल नुमाइश के लिए गया हुआ था| मैंने पाया कि ओमा एक ऐसा युवक है, जहां आपसे शब्द के पहले उसकी मुस्कान सम्वाद बनाती है| बहरहाल, मुझे उसके व्यवहार की सहजता ने आकर्षित किया और उसे पूरे सप्ताह में एकाध दिन छोड़-छोड़ कर प्राय: निरन्तर मुलाकात होती रही| यह एक युयुत्स साहित्य व कला जिज्ञासा से बहुत रोचक लेनदेन था जिसमें समझ की बहुत साफ और ईमानदार किस्म की पारदर्शिता थी| वे शायद ओमा के साहित्य के अंकुराते दिन थे और मुझे उसके भीतर कहानी लिखने की एक अदीप्त-सी बैचेनी की बरामदगी हुई| जहां तक मेरा अनुमान है, ‘कथादेश’ में शायद तब तक उसकी एक कहानी आ भी चुकी थी| उस पर मिली पाठकीय प्रतिक्रियाओं से बहुत उत्साहित तो नहीं परन्तु आत्मविश्वास से भरा भरा जरूर लग रहा था|

बहरहाल, वह हिन्दी-साहित्य के हल्कों की लू-लपट से दूर एक अहिन्दी भाषी इलाके में अपने ‘रचनात्मक-आत्म’ का अभिषेक करता हुआ, धीरे-धीरे एक मुकम्मल-सी लगने वाली अपनी कहानियों की पहली किताब के साथ परिदृश्य पर नमूदार हुआ| उसकी रचनात्मक की चमक के पर्याय-से जान पड़ने वाले उसके प्रथम संग्रह की अधिकांश कहानियों ने हिन्दी कथा-संसार के परिष्कृत रूचि के नागरिकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित भी किया| यह मेरी भी जानकारी में है कि पहले कथा-संग्रह की उसी शीर्षक की एक कहानी ‘भविष्यदृष्टा’ पर कुछेक कथा-चेतस लोगों ने काफी गंभीर और विश्लेषात्मक टिप्पणियां भी कीं| इस कहानी ने खासतौर पर इस तथ्य का शदीद अहसास कराया कि हिन्दी गल्प में अर्थव्यवस्था को कथाबीज की तरह रचना के आभ्यान्तर में रखने वाली कहानियां लगभग नहीं के बराबर हैं| बल्कि, कहना चाहिए उक्त कहानी एक महत्वपूर्ण शुरूआत कही जा सकती है|

मुझे व्यक्तिगत रूप से यह लगा कि दिल्ली के स्कूल ऑव इकोनॉमिक्स के कुछ उत्पाद, जो कि ओमा है, यदि रचनात्मक साहित्य के क्षेत्र में दाखिल होते हैं तो निश्चिय ही उनकी समझ का आश्रय पाकर कोई कृति एक भिन्न किस्म की कालव्याप्ति का अलभ्य उदाहरण बन सकती है| वैसे प्रणवकुमार वंदयोपाध्याय अर्थशास्त्र के अनुशासन से ही थे लेकिन उन्होंने अपनी उस गहरी आर्थिक समझ का दोहन कथा के क्षेत्र में नहीं ही किया और मेरे लिए बेशक यह एक प्रीतिकर सूचना है कि ओमा ने पिछले कुछ समय से इस दिशा में बहुत गंभीरता के साथ काम करना शुरू कर दिया है|खैर|

अब एक अपेक्षया लम्बे अंतराल के बाद, जबकि अब की कथा पीढ़ी बहुत प्रोलिफिक हो रही है, ऐसे में ओमा का दूसरा कथा-संग्रह आया है तो इसको कई स्तरों पर देखे जाने की जरूरत है| मसलन, जब भी किसी लेखक का पहला कथा-संग्रह आता है तो उसमें लेखक के चौबीस-पच्चीस वर्ष के जीवनानुभवों का एक किस्म का ‘क्रिएटिव गस्टो’ होता है, जिसमें हमेशा लगता है कि उस अवधि का, अपनी दुनिया और परिवेश को समझने के लिए एक बैचेन मनुष्य और उसके अनुभव का उफान उसके भीतर समाहित होता है| वह संवेदनाओं से संचालित होकर ‘विचार’ की तरफ बढ़ता है, लेकिन जब उसके लिखे हुए का दूसरा संग्रह आता है तो उसके रचनात्मक भूगोल में एक ऐसे अन्तर्निवेश की झलक मिलती है जिसमें वह आत्यन्तिक रूप से विचार से संचालित होता हुआ, ‘संवेदना के साहचर्य’ से कृति को बुनता है| यह ‘विचार से संवेदना की तरफ’ की जाने वाली यात्रा जिस प्रस्थान बिन्दु से शुरू होती है, बुनियादी तौर पर वही एक लेखक का अपना ‘आत्म-संघर्ष’ भी होता है| ऐसे में कई बार वे विचारधाराएं, जो समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में स्वर के थोड़े ऊंचे तारत्व पर अवस्थित होती हैं, लेखक उनकी तरफ एक ऐसी लपक से भर जाता है कि रचना विचारधारा की अन्विति बनने में ही अपना अभीष्ट समझती है| ऐसा आठवें दशक में खूब हुआ भी|

लेकिन, संयोगवश ओमा ने जब लिखना शुरू किया, वह बीसवीं सदी का आखिरी दशक था| और साहित्य के क्षेत्र में ‘विचारधारा के पराभव’ का अवसाद फैला हुआ था जिसमें बौद्धिक जमात स्वयं को कल के विरूद्ध बिना किसी कल के खड़ा पा रही थी| जीवन समय और समाज की आलोचना के अभी तक के आजमाये जाते रहे उपकरण निष्फल हो रहे थे जबकि, दूसरी ओर समाज  में मीडिया की स्वतंत्र्ता और उसकी भरमार ने ‘बाजार निर्मित आशावाद’ का ऐसा होहल्ला मचाना शुरू कर दिया था जैसे एक ‘दरिद्र अतीत’ मर रहा है और एक समृध्द व सम्पन्न ‘नये पावन युग’ की शुरूआत हो रही है| चूंकि समूचे विश्व और उसके भविष्य के मानचित्र को प्रभावित करने वाली घटनाएं एक के बाद एक श्रृंखलाबद्ध ढंग से इस तरह घट रही थी कि कुछ ‘सम्पट’ ही नहीं बैठ पा रही थी कि उथलधड़े के समाधान का सामर्थ्य सामने आयेगा या कि हृास की निराशा और नियति से सामना होगा|

लेकिन, अब ओमा अपने दूसरे संग्रह को लेकर आया है तब तक तमाम चीजों की शक्लें साफ हो कर सामने आ गयी हैं| धुंधलका साफ हो चुका है| भविष्य और उसके भाष्य की पटकथा के पन्ने सामने हैं| इसलिए, लगता है कि ये कहानियां उस कुहासे से उपजे अधैर्य से बचकर लिखी गई कहानियां हैं, और बताती है कि लेखक उतावली में नहीं है|

ओमा के इस नये कथा संग्रह में, जो ‘कारोबार’ शीर्षक से आया है, पहले मैं उल्लेख करना चाहूंगा, ‘घोड़े’ कहानी का, जो अपेक्षाकृत अन्य कहानी की तुलना में विस्तार के स्तर पर किंचित बड़ी है लेकिन कहानी के पढ़ने के दौरान यह शिद्दत से महसूस होता है कि एक बड़े ‘कथाभ्यान्तर’ को संरचना के स्तर पर उल्थाते हुए लेखक अंत की तरफ बढ़ते-बढ़ते काफी किफायती हो उठा है| क्योंकि ‘घोड़े’ के भीतर धंसते हुए हम उदारवाद के साथ पनपती ‘पश्चिम की वैश्विकता’ के सांस्कृतिक वर्चस्व का, जो नया लेकिन प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष-सा शिकंजा गढ़ा है, उसके विद्रूप का दर्शन कहानी में बहुत सूक्ष्म विवरणों के साथ धीरे-धीरे उकेरा गया है| आर्थिक उदारवाद को जहां कसबाई मध्यवर्ग ने एक गहरे ‘सांस्कृतिक-संहार’ की तरह लिया, वहीं ‘मेट्रोपोलिटन कल्चरल एलिट’ में वह क्रेज का सर्वस्वीकृत आधार बन गया| इसलिए, यह कहानी आवारापूंजी से पैदा हुए, ‘विभक्त देशकाल’ और ‘विभक्त चेतना’ का नायाब नमूना खोजती है, जहां सचमुच ही रेस है और उसमें कुचलने की पीड़ाग्रस्त नियति को भोगता वह मध्यमवर्गी पात्र है जो ‘वर्गान्तरण’ की विडम्बना का शिकार है| वह आकांक्षा के नीचे रह गया है| आकांक्षा का जो मानचित्र लेकर वह चला था, जिसे उसकी बेछोर स्वप्नों से भरमायी हुई स्त्री ने तैयार किया था, वही कहानी के अंत में एक एस्कार्ट-गर्ल में बदली हुई बरामद होती है| वह एक किस्म की मंहगी वेश्या बन चुकी है| वह दाम्पत्य की दरार में फंसे हुए एक अर्थ-विज्ञान के जीनियस की पीठ पर सवार होकर ऐड़ मारती है और वह एक दिन रेस के मैदान में अपने होने का अर्थ रौंदे हुए देखता है| कहानी एक वृहद्र-औपन्यासिक अवकाश का समर्थ वितान रखती है लेकिन ओमा का लेखक उसे बार-बार कहानी की लक्ष्मण रेखा में  रोके रखता है जबकि वह लेखक से विस्तार मांगती है| इस कहानी की बारीकियां उस सूक्ष्म विवरणात्मक में भी है जिसे ओमा ने उस परिवेश में खुद को लगभग उसका हिस्सा बनाकर अर्जित किया है। हालांकि, रचना में कई बार कल्पना भी सत्य का सामान जुटाती है और जादुई यथार्थ तो कथा-युक्ति में प्रसाधन बन जाता है लेकिन ओमा ने स्वैर-कल्पना का आश्रय लेने से खुद को सचेत ढंग से बचाये रखा है,जबकि वहां भाषा से भाषा में खेलने की गुंजाइशें इफरात में थीं| यह रचना के यथार्थ की बहुत वैध और विश्वसनीय प्रतीति है जिसमें एक जगह से यथार्थ को कैमोफ्लेज करके उसे दूसरी जगह से पकड़ा जाता है| यहां विवरणात्मकता रचना का प्रतिपाद्य नहीं बनी है, सिर्फ एक बाह्रय आवरण है जिसके भीतर उस वर्ग और उसके सीझते स्वप्नों की खदबदाती सड़ांध है| विडम्बना यही कि वह पात्र, उस मीठी-सड़ांध से नाक बाहर निकाल कर जीवन की उस नैसर्गिंकता को पकड़ नहीं पाता जहां असली मर्म है| यह एक ऐसे ‘आत्मघात’ से उपजे बे-आवाज सर्वनाश की हकीकत है जहां अर्थशास्त्र का जीनियस सट्टे की अर्थव्यवस्था में धंसता हुआ ‘आत्महन्ता’ बन जाता है| कुल मिलाकर कहानी में ‘घोड़ा’, जो मनुष्य की विकास यात्र का सर्वाधिक समर्थ सहचर रहा, यहां आकर विजय के विराट छद्रम के प्रतीक में समाप्त हो रहा होता है| यह आरिफ डिरिलिक के उन अध्ययनों और निष्कर्षों की तसदीक करती है जिसमें उसने ‘थर्डवर्ल्ड सिटीजनशिप इन एज ऑफ केपेटेलिज्म’ का खाका खींचा है| यह वही दारूण संसार है जो बाहर से लुभावना और भीतर से कल्चरल-डिके से ग्रस्त है| ओमा ने इसे एक कथादक्ष सर्जक की तरह सिरजा है|

दरअसल, यहां आकर सहज ही हिन्दी लेखक बिरादरी के अनुभव संसार की सीमारेखाओं का स्मरण हो आता है जिसके अनुभवों की परिधि निम्न मध्यवित्तीय जीवन के दैनंदिन यथार्थ से बाहर उसकी पहुंच लगभग नहीं के बराबर है| दरअस्ल, अभी तक न तो वह भारतीय ब्यूरोक्रेसी के गर्भगृह में नीले-पीले अन्धकार में उतर सका है, ना ही सत्ता के लाक्षागृहों को खंगाल पाया है और कार्पोक्रेट्रस की दुरभिसंधियों का तो उसे अभिज्ञान ही नहीं है| हिन्दी संसार से एकमात्र श्रीकान्त वर्मा ऐसे रचनाकार थे जो हिन्दुस्तान की सत्ता के सर्वोच्च शिखरों के बाहर-भीतर आवाजाही करते थे, और वे इस महाद्वीप की राजनीति के कलुष-कलापों को देख के दिखा सकते थे। लेकिन वे भी ‘मगध’ जैसी चतुर कविताएं भर छोड़कर चले गए, जबकि वे उस वर्ग के ‘यथार्थ का गरेबान पकड़ कर खाल खींचती सचाइयों से भरी ऐसी गंद्यकृति दे सकते थे जो कहती ‘काल तुझसे होड़ है मेरी|’

ओमा की दूसरी कहानी जो ‘घोड़े’ की तुलना में मात्र एक ‘कथास्थिति’ भर है लेकिन वह भी ग्लोबलाइजेशन के कल्चरल एजेण्डे को एक सरल लेकिन एक अत्यन्त पठनीय रूप में रखती है, जो यह बताती है कि भारत के प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने मिल कर भारत में ‘लाइफ-स्टाइल जर्नलिज्म’ को इस तरह स्थापित किया कि भारतीय महानगरीय नागरिकों के लिए एक लुभावना और लोलुप प्रतिसंसार गढ़ दिया है| वह सेलिब्रिटीज की फतांसी-सी जान पड़ती दुनिया की खोखली रमणीयता में ही रमण करता रहता है| यह एजेण्डा है, स्थानीयता से घृणात्मक दूरी और पश्चिमी के सांस्कृतिक उद्योग के ‘लालसाधिक्य’ की निर्मिति, जो अंत में उन्माद का रूप ले ले| यह कहानी है: ‘ग्लोबलाइजेशन’| मुझे यह कहानी अपने जलरंग चित्रों की तकनीक की तरह लगती है, जिसमें रंग की इच्छा ही तय करती है कि वह क्या बनना और बनाना चाहती है| क्योंकि बाकी के सारे संचालन सूत्र भी उसी के हाथ में रहते हैं कि कहानी को क्या होना और बनना है| कहानी में लेखक को एक डायरी मिलती है, जिसमें वह अपनी तरफ से कुछ जोड़ता-घटाता नहीं| बस पश्चिम की सेलिब्रिटीज के जीवन के मीडिया द्वारा ‘मेन्युफ्रेक्चर्ड’ छविलोक को ही एक आभासी-संसार का आधार बनाया गया है| डायरी लेखक उसी अभिजन का प्रतिनिधि पात्र है जो अपने ‘आत्म’ को छोड़ चुका है, और जिसमें वह डूबा है उसे वह कभी मिलना नहीं है क्योंकि वह आभासी है| बहरहाल ‘आभासी’ को ही ‘असल’ बनाने वाले ‘पैरालैक्स’ की कहानी है, जिसमें रियल और वर्चुअल की अविभाज्य युति है| यह सांस्कृतिक रूप से आत्महीन हो रहे समाज पर बहुत सरल लेकिन अचूक संधान है| मुझे लगता है कि जैसे भारतीय समाज के दैन्य की दारूणता का दिग्दर्शन तब कहीं ज्यादा मर्म पर चोट करता है जब हम पांच सितारा जीवन में धंसकर देखते हैं कि यहां की डिनर टेबिल और झोपड़ी में अधपेट रह जाने वाली आबादी की थाली, अर्थशास्त्र के कितने बड़े छल को उघाड़ती है| यह कहानी ‘इंगित’ का निर्माण है| ‘विचारहीनता के विचार को ही जीवन का विकल्प बना लेने वाले पात्र का एक मार्मिक विद्रूप है| यह पाठक को प्रतिपाद्य बनाती कथायुक्ति का सार्थक प्रमाणीकरण है| यहां लेखक पाठक का पथहारा बनकर भी अचूक निशाना लगाता है| मुझे ऋत्विक घटक की एक फिल्म का दृश्य याद आता है, जहां गली में  अखबार में  मुंह गड़ाये एक पात्र वियतनाम की खबर में खलबलाता और खोया हुआ है जबकि ठीक उससे कुछ दूरी पर एक बुढि़या गिरी पड़ी है| कहानी की डायरी के पात्र और वियतनाम की खबर में खोये पात्र में भी वही द्वैत है| कहानी, छोटी, रोचक लेकिन अपने अभीष्ट में एकदम परिपूर्ण!

टिप्पणी के आरंभ में मैंने कहानी से खोती जा रही ‘पठनीयता’ को याद किया था लेकिन इसको थोड़े दूसरे संदर्भ में देखें तो वाचिक परम्परा से पठनीयता के बीच का सेतु प्रकारान्तर से एक दूसरे का स्थानापन्न भी बन सकता है, यदि लेखक के भीतर रचना और पाठक के मध्य स्थित प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सम्बन्ध के बारे में एक खास समझ हो| यहां रूचि और रोचकता का सरलीकृत आग्रह नहीं है। मसलन, मुझे याद आता है कि गुणाढ्य ने जब अपनी वृहद्र कथा लिखी थी तो उसने जंगल में जाकर स्वयं को ऊंचे स्वर में पढ़कर सुनायी थी| कैथरीन मेंसफील्ड के बारे में भी कहा जाता है कि वे अपनी कहानी लिखते समय ही स्वयं ही पढ़ कर स्वयं को सुना कर देखती थी जिसमें में वे शब्द और वाक्य-विन्यास में संरचना के स्तर पर हेरफेर करती थी| यह शायद यहां अधिकतम लोगों के साथ अधिकतम तादात्म्य की ही लेखकीय इच्छा काम करती होगी| कैथरीन का तो कहना भी था कि कहानी की रेण्डरिंग से पाठ की अर्थ स्फीति होती है क्योंकि लिखा गया शब्द, जब बोले गये शब्द की भूमिका में आता है तो एक नितान्त नयी अर्थ प्रतीति देता है| मराठी में तो कथा-कथन की एक जीवन्त और दीर्घ परम्परा है और वह सीमित गोष्ठियों में नहीं, हजारों के बीच सम्पन्न होती है| हिन्दी में शरद जोशी ने ऐसा गद्य लिखा जिसे उन्होंने दस हजार लोगों के बीच इन्दौर में मालवा मिल के चौराहे पर पहली बार पढ़ा और मसखरी के कारोबारी कवि परास्त हो गये| उन्होंने इतनी गंभीर व्यंग्य रचनाएं पढ़ीं जो दुनिया की किसी भी भाषा के निबंधकार के लिखे हुए से ज्यादा पावरफुल थीं| हालांकि यह हर लेखक के लिए संभव भी नहीं है|

ओमा की कथा रचना ‘रास्ता’ एक ऐसी गल्पयुक्ति का अद्भुत उदाहरण है जिसमें पाठ, चरित्र और अभिव्यंजना का एक तिर्यक सम्बन्ध बन पाया है| मोनोलॉग की तरह चलती हुई वह अपनी भाषा के गुरूत्व से संवादपरकता के सहज सूत्रें को गूंथती हुई, एक दुनियादार आदमी के अन्तर्विरोधों को एक के बाद एक बुनती जाती है| दरअस्ल, दृश्य-भाषा के ‘फार्म इन फोर्स’ की तरह पूरी कहानी है जो गति के साथ-साथ आकार गढ़ती चलती है| पात्र एक कार में है और वह कार की गति के साथ धीरे-धीरे उसी तरह त्वरण पकड़ता हुआ अपने ढंग से कहानी का तानाबाना बुनता है| कहानी बाकायदा ‘बाहर-भीतर’ को रोचक ढंग से समेटती हुई पात्र को ‘प्रातिनिधिक’ बनाती है| कहना चाहिए, अभिनय नाट्य और दृश्य भाषा की नैसर्गिक युति ऐसी लगती है, जैसे लेखक के भीतर कोई विजन-मिक्सर समाया हुआ है और वही सारी कहानी को गढ़ रहा है| इसमें भी लेखकीय उपस्थिति शून्यवत है| वह सोलोलुक्यी नहीं है, वहां बतरस और गल्प का आत्यन्तिक फ्री-एसोसिएशन-सा है जो पाठ की प्रकृति ही बदल देता है|

हिन्दी में ‘प्रतिनायक’ को लेकर लिखी गयी कहानियां बहुत कम है और खासतौर पर पुरूष के ‘हरामीपन’ को लेकर चरितमूलक कहानियां ज्ञानरंजन ने बहुतायत से लिखी हैं। लेकिन ओमा के संग्रह में सधे हुए ढंग से एक स्थितिमूलक कहानी मिली है जिसमें महानगरीय अभिजन की एक ऐसी स्त्री है जो संबंधों के शून्य में चीजों से, खासकर सुंदर चीजों से घिरी हुई वैसा ही सुरक्षित जीवन जी रही है जैसे कोई समुद्र जीव अपने चारों ओर एक कवच बना लेता है | उसके पास किसी सौंदर्यमूलक समझ के परिष्कृत विचार का आश्रय नहीं है पर वह अपने शून्य में और अपने ही स्वामित्व में है| युवा इंटीरियर डेकोरेटर कोई प्रकट सांस्कृतिक हरामी नहीं है, न इसके पूर्व कथा में उसका कोई ऐसा चरित्र ही बताया गया है| एक दफा उसे अकस्मात और अप्रत्याशित-सा  अवसर हाथ लगता है और वह उसका वह लाभ लेने के लोभ में पड़ कर धीरे-धीरे अपनी सौंदर्य सम्बन्धी समझ से उसमें संभावना खोजता हुआ अचानक  आगे बढ़ जाता है| वह भूल जाता है कि स्त्री की उदारताएं वर्गानुकूल होती हैं  और वह इतनी सुलभ नहीं है| कहानी का ‘मैं’ तरह-तरह से कमन्द फेंकता है लेकिन हर बार निष्फल रह जाता है| इसी वजह से उसकी बेताबी और बेसब्री बढ़ती जाती है, साथ ही साथ सेक्चुअल-सेंसुअसनेस भी। लेकिन कहानी कामाश्रयी नहीं है, सिर्फ कामनाश्रयी है|

अंत में हताश होकर वह अपने वर्गानुकूल एक अति-प्रयुक्त तकनीक का उपयोग करते हुए, उसका हाथ देखने के बहाने उसका हाथ पकड़ लेता है और एक थप्पड़ खा जाता है| दिलचस्प बात यह कि अंत में वह अपनी लिप्सा को किसी अपराध के खाते में डालने के बजाय, उस स्त्री में ही दोष देखता है कि उसमें इतनी भी मानवीयता नहीं है कि वह प्रतिशोध में एक युवक की रोजी-रोटी छीनने तक के स्तर पर उतर आयी| कहानी अलभ्य अंगूरों के खट्टेपन में खत्म होती है| कहानी के अंत में, मैं की इस पूरी प्रसंग पर की गई मीमांसा विषाद-वैषम्य को विनोद की त्रासदी में ले जाकर छोड़ती है, वह रचना में एक इन्नोसेण्ट-लुम्पेन की व्यंग्यात्मक आत्म-स्वीकृति में बदल कर ऐसी कहानी बना देता है जिसमें दुतरफी-व्यंजना उभरती है| मुझे लातीनी लेखक की एक बात याद आती है, कि पुरूष की मूलवृत्ति, जिसको सांस्कृतिक निषेधों की मदद से जब सामने के दरवाजे से बाहर फेंका जाता है, तो वह पिछले दरवाजे से फिर प्रकट हो जाती है| बहरहाल, कहानी में पुरूष की एक अप्रकट मगर अदम्य सी बनैली लपक को जिस कलात्मक धैर्य से दृश्य दर दृश्य अनावृत्त किया है, वह कहानी को शिल्प के स्तर पर एक सुविचारित ट्रीटमेण्ट की कहानी बनाता है|

भारतीय महानगर औद्योगिकीकरण के दौर से ही धीरे-धीरे अर्थशास्त्र के ‘पुल और पुश फैक्टर’ के चलते एक ऐसी आबादी की शरणस्थली भी बनता गया, जो गांव से बहिष्कृत है, लेकिन शहर ने उसे अभी पूरी तरह स्वीकारा नहीं है| इसलिए, लगभग सभी महानगरों में उसकी आसमान को छूती अट्टालिकाओं और चुंधियाने वाली रौशनियों के वृतों से दूर अपने चुने हुए अंधेरे में, जीवन के दैनंदिन की मारामारी के बीच एक बड़ा हिस्सा जीने को अभिशप्त है| इसलिए दिल्ली के भीतर कई-कई दिल्लियां हैं जिनमें उनके अपने-अपने बिहार और अने-अपने उत्तरप्रदेश भी हैं| ओमा ने ‘वास्ता’ नामक कहानी में गांवों से दिल्ली में पलायन कर आये ऐसे ही एक परिवार की  बहुत मार्मिक दास्तान दर्ज की है,जो अर्थतंत्र के दोगलेपन को उजागर करती है| यहां लेखक जितना ‘एट ईज’ होकर कहानी में ‘प्रथम पुरूष’ के जरिए कथा कहता है, लगता है ओमा के लिए यह सबसे निर्विघ्न और निर्बंध कथा क्षेत्र है| लगभग इच्छानुकूल बनेठी घुमाने की जगह| कहानी लिखे जाने जैसा कोई तनाव ही नहीं है| इसलिए यह कहानी बहुत डूब कर लिखी गई लगती है| उसके लिए स्मृतियां लंगर की तरह है, जो समय के दूरस्थ किनारे पर हैं, वहां की घसर-फसर में धंस कर कहानी का ‘मैं’ कथास्थिति का कोई टुकड़ा लाता है और धीरे-धीरे धो-पोंछकर चमकाता हुआ, संरचना के भीतर ऐसी जगह रखता है, जहां से लगता है, इससे उपयुक्त जगह कोई और हो नहीं सकती थी| भाभी से देवर की भिड़न्त, भैया का एक अप्रकट सा बड़े भाई वाला प्रेम और भैया से उसका स्वयं का  मोह, पिता और मां की पारिवारिक परिधियों की पीड़ाएं–सब कुछ ऐसा लगता है, गालिबन कलम नहीं, परखी धंसा कर बोरे में से नाज के कण निकाल लिये हों| अचानक आ धमके बड़े भाई के बहाने सारी कथा चलती है, लेकिन, कहानी ‘बंटी हुई शिक्षा’ और बेरोजगारी के अभिशाप पर व्यंग्य करती हुई, ‘मैं’ की उस विवशता को पीड़ा में बदलती है, जहां वह चाह कर भी वर्गच्युत होते जा रहे परिवार की नई पीढ़ी को आने वाले अंधड़ से बचाने में असमर्थ है| कहानी गहरी पीड़ा और करूणा में खत्म जरूर होती है लेकिन उसमें से रह-रहकर सवाल भी उठ कर पाठक का पीछा करने लगते हैं| मैं तो कहूंगा, ओमा ने अपने इस कथा क्षेत्र को भी नाथे रखना चाहिए| कहानी सामाजिक जीवन के वैविध्यमूलक अनुभवों को उनकी प्रकृति के साथ बहुत सूक्ष्मता के साथ पकड़े रहती है|

वैसे, मेरा मानना है कि हम किसी भी कृति के पास उत्तरों की उम्मीद से नहीं जाते| बल्कि, एक अच्छी कृति अपने अन्तर्साक्ष्य के दौरान पाठक को और-और प्रश्नों से नाथ देने के बाद ही  बाहर निकलने देती है| लेकिन, गद्य में ‘संवेदन की सचाई’ और ‘संवेदन की नवीनता’ का द्वन्द्व ऐसे प्रश्नों को पेश करता है, जो अपने असंख्य उत्तर रखते हैं और कभी-कभी उनसे कोई उत्तर नहीं आता | ‘कारोबार’ कहानी फिर एक सुगठित विस्तार की एक ऐसी ही कहानी है, जो ओमा के ‘लेखन’ से उम्मीद जगाती है| कहानी उस गुजरात में घटने वाली है, जहां भीषण साम्प्रदायिक दंगों की गिरफ्त में फंसकर एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों को धर्मोन्माद तबाह कर देता है| वहां घृणा का ऐसा पारावार होता है जिसकी लपटों से न गरीब ना अमीर, कोई नहीं बचता| कहानी, इस घटना का पूर्वराग है जिसमें टैक्स चोरों और कालेधन की दुनिया में धंसे लोगों के बारे में सुराग देने वाला एक ‘इन्फार्मर’ है, पठान| कहानी में बुनावट के सहारे धीरे-धीरे विभाग अैर ऐसे सुरागियों के बीच के रिश्तों को बहुत इतमीनान से उत्कीर्ण किया है| वहां विवरणात्मकता, प्रतिनिधि परिस्थितियों में प्रतिनिधि पात्र के कार्य और व्यवहार का मानचित्र बनाने में बहुत सकारात्मक इमदाद करती है| यह एक रूपबद्ध कथा-विवेक है जो धीरे-धीरे कहानी के स्थापत्य को खड़ा करता है| पठान हिसाबी-बेहिसाबी का फर्क नहीं जानता कि काली कमाई कैसे अपार हो जाती है, लेकिन, ‘यह जानता है कि कामयाब धंधे की बुनियाद चोरी पर टिकी होती है|’ पठान की ‘मुखबरी’ और उसके प्रति उसकी ‘ईमानदारी (!) बनाम धंधे का अमूर्त आदर्श जो एक किस्म के दानत्व के लिए भी जगह बनाता है|

कुल मिलाकर, यह एक ईमानदारी से मुखबिरी कर रहे शख्स की कहानी, अपने अंत में ऐसे प्रश्न खड़े कर देती है कि पाठक भौचक रह जाता है कि यह क्या हो रहा है ? ये कैसी निर्मम और निष्करूण मुखबिरी है, जो अपने ही सम्प्रदाय के एक व्यक्ति की तबाही के बाद भी, उसको नहीं बक्शती! मुखबिर के लिए पूरा प्रसंग, न भुनाये जा सके कल के उस चेक की तरह है जिसकी तिथि की जगह खाली है और आज अभी भी भरी जा सकती है| यह ऐसी कहानी की श्रेणी में आती है जिससे गुजर कर हम प्रश्नों के ‘तीतरफंद’ में उलझ जाते हैं| वहां से कोई रेडीमेड उत्तर नहीं आता| ऐसी रचनाएं दीर्घायु होती हैं और लेखक के खाते में प्रसंशाओं की निरन्तर नई प्रविष्टियां दर्ज कराती रहती हैं| वैसे भी एक अच्छी कहानी का ‘मूल निवास’ उसकी ‘यथातथ्यता में नहीं, बल्कि उस ‘संधि स्थल’ में है, जहां से ‘तथ्य और कथ्य एक दूसरे से गुत्थमगुत्था रहते हैं| एकदम से अविभाज्य |

अमूमन होता यह रहा है कि यथार्थ के संदिग्ध ज्ञान को कई बार लेखक विचारधारा के जरिए हताहत होने से बचाता है, कभी-कभी भाषा की स्वैर-मूलकता के जरिए- लेकिन, ओमा दोनों के दंद-फंद से दूर रखकर कहानी पर भरोसा करते हुए, पाठक के कंधे रगड़ता चलता रहता है| यह मेरे खयाल से एक सराहनीय बात है ओमा के लिए| दुर्भाग्यवश, इन दिनों एक अतार्किक अतिरंजना को ‘आस्वाद’ का आधार बनाया जा रहा है| यह कथा के अभीष्ट को तिलांजलि है| ठीक है, रचने में क्रीड़ा की समानधर्मी कोई वृत्ति हो सकती है, होती भी है, लेकिन केवल क्रीड़ा भर नहीं है| आलोचकों और सम्पादकों को भी कहानी के ऐसे नमूनों के कारण आसानियां हाथ लग जाती है ताकि वे उन किताबों का जयघोष कर सकें, जिन्हें वे पसंद करते हैं। लेकिन, एक नये लेखक को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके बिलकुल आरंभ के दिनों में किया गया ‘स्वस्तिवाचन’, बाद में ‘गरूड़पाठ’ की तरह जान पड़ता है|

वैसे, अब आलोचना के क्षेत्र में विचारधारा का कोई ऐसा घाट नहीं है जहां किसी को पछीट-पछीट कर धुलाई की जा सके| ओमा में अपने लिखे के प्रति एक स्वस्थ ‘आत्म संदेह है’ जो उसे अपने लेखन को उस ‘मूल्यघाती निकटता’ से दूरी बनाये रखने में इमदाद करता है, जो रचना के साथ-साथ ही रचनाकार की प्रतिभा को ही धीरे-धीरे कुतरने का काम करती है| यह समझ एक तरह से रचनात्मक क्षेत्र में अचानक उठ आने वाली सौम्य-आपदा से भी लेखन को बचाती है|

कहने की जरूरत नहीं कि ओमा इस खतरे से पूरी तरह वाकिफ भी है|

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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