‘प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व का कोई वाकया जब मैं अपने युवा दोस्तों को बताता हूं तो उनके चेहरों पर उमड़ आए चकित प्रश्नों को देखकर यही लगता है कि मेरे साथ घटा एक सामान्य-सा यथार्थ उनके लिए कैसा ऐतिहासिक या पहेली सा बन गया है। और मेरा अंतरंग सहजबोध मुझसे कहता है कि वे सही हैं। हमारे आज और गुजरे हुए कल और बीते हुए वर्षों के बीच बने सारे पुल ध्वस्त किये जा चुके हैं।’
स्वाइग की इस आत्मकथा से गुजरने का मतलब ज्वलंत इतिहास के एक ऐसे पूरे दौर से गुजर जाना है जिसने दुनिया को मुकम्मल तौर पर बदल कर रख दिया। यह एक सर्जक की चेतना पर दर्ज और उसके अनुभवतंत्र के द्वारा संकलित ऐसा ब्यौरा है जिसका मुकाबिला इतिहास और राजनीति की सैकड़ों किताबें और तथ्यों व आंकड़ों के हजारों संग्रह मिल कर भी नहीं कर सकते और न इस जानकारी को इतना साकार, और जीवित ही बना सकते हैं।
स्टीफन स्वाइग के इन शब्दों में ही उनकी इस पुस्तक की मूल्यवत्ता का संकेत है। यह आज और बीते हुए कल की दुनिया के बीच एक पुल है। यह आगामी पीढ़ियों के लिए एक चेतावनी भी है और सावधानी का संदेश भी कि कहीं आदमी स्वेच्छा से प्रगति के नाम पर खुशी-खुशी एक विश्वव्यापी नरक रचकर महायुद्धों केसूत्रधारों की तरह अंततः स्वयं को भी उससे घिरा हुआ न पाए।
स्टीफन स्वाइग हमारे उसी बहुत प्रिय और लगभग लुप्त लेखक का नाम है जिन्हें हम इस किताब की सूचना के अनुसार अभी तक गलतफहमी में स्टीफन ज्विग पुकारते आये हैं। उनकी कृतियां उनकी अपनी भाषा जर्मन से निष्कासित कर दी गईं, केवल अनुवादों में प्रकाशित और एक सीमित समय तक उपलब्ध रहीं। शायद इस कारण से नाम का उच्चारण भी अनूदित हो गया। शायद इसी कारण से किताबें अनुपलब्ध भी होती गईं कि अनुवादों के प्रकाशन में मौलिक कृतियों के समान किसी के वैयक्तिक जोखिम या निहित लाभ का दबाव लागू नहीं होता। लेखक के न रहने के बाद तो और भी नहीं। जिसकी रचनाएं अपनी ही मूलभाषा से बाहर की जा चुकी हों उसके विषय में यह बात और भी अधिक दारुण रूप में सत्य मानी जा सकती है। उनका जन्म 1881 में हुआ और जैसा भी जीवन पाया उसका अंत 1942 में आत्महत्या के द्वारा स्वयं चुन लिया। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के बीच के इन इकसठ वर्षों के दौरान स्वाइग की दुनिया का आंखों देखा हाल इस आत्मकथा का विषय है।
परिचित अर्थों में इसे आत्मकथा शायद न कहा जा सके क्योंकि यहां किसी की व्यक्तिगत जीवनी मौजूद नहीं है। यह क्लासिकी लेखन का वह नमूना है जहां व्यष्टि-आत्म का विलय उसे समष्टि का एक अणु बना देता है। लेकिन आत्मकथा अपने आप में रूमानी दौर का साहित्यरूप है। एक विशद और दारुण देशकाल को धारण करने लायक विशदता एक व्यक्तिगत जीवनी शायद न संभव हो या फिर लेखन के समय की स्थितियां ही इसके लिए जिम्मेदार हों, ‘मैं इन्हें युद्ध के दौरान, परदेसी जमीन पर , याददाश्त को मदद करने वाली किसी चीज के बिना ही लिख रहा हूं… मेरे पास न कोई किताब है, न कोई नोट्स और न ही दोस्तों की चिट्ठियां। मेरे पास सूचना का कोई जरिया नहीं है क्योंकि सेंसरशिप के कारण सभी देशों से आनेवाली डाक या तो तितर बितर है या अवरुद्ध। एक दूसरे से कटकर हम ऐसे जी रहे हैं जैसे सैकड़ों साल पहले रेल, जहाज और डाक-व्यवस्था के ईजाद होने के पहले रहते थे। मेरे पास अतीत का कुछ भी नहीं है सिवाय उसके जो मेरे जेहन में है। बाकी सब या तो नष्ट हो गया है या दुर्लभ है। खोई हुई चीजों पर विलाप न करने की कला में तो मेरी पीढ़ी ने जैसे सिद्धि पा ली है। दस्तावेजों या तफसीलों का खो जाना या उपलब्ध न होना हो सकता है कि इस किताब की बेहतरी के लिए हो क्योंकि हमारी याददाश्त कुछ भी इत्तफाक से नहीं रखती-फेंकती है: इसके पीछे कुछ सजग संयोजन और छंटनी भी काम करती है। जो कुछ भी हम भूल जाते हैं वह हमारी सहज वृत्ति द्वारा बिसराए जाने के काबिल ही होता है और सिर्फ वही जो अपने तई बचने की पात्रता रखता है, दूसरों के संरक्षण का हकदार होता है।’
स्वाइग मानो इस भाव के साथ लिख रहे हैं कि एक ओर वे एक लुप्त होते इतिहास के आखिरी गवाह हैं और दूसरी ओर आती हुई नई दुनिया की संभावित विकृतियों और परिणतियों के वास्तवीकरण के साक्षी भी। वे इस दौर को दर्ज करने के लिए स्वयं को प्रतिश्रुत पाते हैं क्योंकि वे इस महाबदलाव का गवाह होने को मजबूर थे और इस निष्ठा के साथ अपनी प्रतिश्रुति को निबाहते हैं कि उनकी पीढ़ी इस गवाही से कोई छूट नहीं थी। अपने समय में, अपनी आंखों के सामने उभरती नई व्यवस्था की समकालिकता के कारण वे अपने वक्त में हरदम धंसे रहे हैं। जब भी जो कुछ भी हो रहा था, वह आंखों के सामने सचित्र पेश हो रहा था। तकनीकी के करिश्मे के कारण संभव था कि बम जब शंघाई के मकानों का मलबा बना रहे थे तो यूरोप में घर बैठे ही मालूम हो रहा था जबकि हताहतों को अभी घरों के बाहर निकाला भी नहीं गया था। ‘उसके पल-पल के मालूमात समेत किसी भी चीज से बचने या भागने का कोई भी कवच पास नहीं था, कोई देश ऐसा नहीं था जहां शरण ली जा सके, कहीं पर भी यह शांति मुहैया नहीं थी। हमेशा और हर जगह नसीब का शिकंजा कसा था जो बार-बार अपने खूंखार खेल में धकेल देता था’।
इस समूचे वृत्तांत के साक्ष्य के लिए इतिहास में स्वाइग की व्यक्तिगत हैसियत को एक विलक्षण रूप से विकट और खतरनाक कोना कहा जा सकता है- ‘अथाह भीड़ के बीच मैं अव्वल होने का दावा नहीं कर सकता, फिर भी एक ऑस्ट्रियाई, यहूदी, लेखक, मानवतावादी और शान्तिवादी होने के कारण मैंने अपने आपको हमेशा उसी बिंदु पर खड़े पाया जहां ये बिंदु सबसे भीषण थे…’ यह ऐतिहासिक ‘लोकेशन’ और इसके बाजजूद लेखक का तटस्थ अनासक्त आत्मबोध इस किताब को अपने दौर के विषय में लिखित सैकड़ों हजारों पृष्टों की तुलना में एख विशिष्ट व्यक्तित्व देते हैं।
वियना के लिए संगीत, साहित्य और रंगमंच– दूसरे शब्दों में कहें तो अपना कलाजगत– किसी भी किस्म की रजानीति से अधिक महत्त्वपूर्ण था। कलापारखी होने का गर्व वहां के साधारण से साधारण व्यक्ति के लिए भी सहज स्वभाव का अंग था। शहर के लिए खबर कलाजगत ही बनता था। ऑस्ट्रियाई की हैसियत से वियेना में बीता बचपन किसी भी भावी लेखक के लिए तब सौभाग्य कहा जा सकता था। स्वाइग के लिए भी यह सौभाग्य ही था। यह निश्चित मूल्यों और ध्रुवताओं का सुरक्षित समय था। लेखकों की जोशीली, उमंगभरी नई पीढ़ी के एक सदस्य की तरह शुरू करके वे जल्दी ही प्रतिष्ठित और स्थापित की हैसियत में आ गए थे। यहूदी की धनलिप्सा और सम्पत्तिमोह के विषय में आम किंतु भ्रांत धारणा में संशोधन करते हुए वे बताते हैं कि एक आम यहूदी परिवार एकाध पीढ़ी में अपनी भौतिक स्थिति को स्थिर बना लेने के बाद संगीत, साहित्य, अध्यात्म या उच्चतर अध्ययन की अन्य दिशाओं की ओर अपनी तलाश को मोड़ देना पसंद करता है। प्रथम विश्वयुद्ध के पहले के अपने लगभग तीस वर्ष के जीवन में वे यूरोप के बौद्धिक समुदाय के प्रमुख सदस्य बन चुके थे और अपने अनुभव जगत का विस्तार करने के लिए यूरोप के बाद अब वे उसके बाहर के देशों की यात्राएं भी कर रहे थे। इन्हीं में से एक भारत की यात्रा भी थी।
दुनिया बदल रही थी। यूरोप इतना समृद्ध, मजबूत, सुंदर या बेहतर भविष्य के प्रति आश्वस्त इसके पहले कभी नहीं था। तकनीकी और विज्ञान में लगातार दर्ज होती कामयाबियों के कारण एक यूरोपियन सामुदायिक भावना जन्म ले रही थी। राष्ट्रकुल का जज्बा पनप रहा था। सरहदें कितनी बेमानी हैं जब कोई हवाई जहाज आसानी से उन्हें फांदकर उड़ सकता है। स्वाइग उस वक्त को दर्ज करते हुए कहते हैं कि ‘मुझे उन लोगों पर तरस आता है जो यूरोप के विश्वास के उन आखिरी बरसों में जवान नहीं थे। आखिर हमारे आसपास की वायु निर्जीव या खाली नहीं होती है। वह अपने में वक्त की जुम्बिशों और तरन्नुमों को भरती जाती है और अनजाने ही इसे खून में घोलकर हमारे दिलो-दिमाग में उड़ेल देती है। उन बरसों में हममें से हर एक ने वक्त के चढ़ते झूले से अपनी सामर्थ्य सहेजी और सामुदायिक विश्वास की बिना पर निजी विश्वास में बढ़ोत्तरी की। हम मनुष्यों की कृतघ्नता का ही फल है कि हमे शायद विश्वास ही नहीं हुआ कि लहर किस कदर सख्ती और पुख्तगी से हमें लपेट चुकी है। दुनिया में विश्वास के उस दौर को जिसने भी महसूस किया उसे मालूम है कि उसके बाद तो बस पतन और विषाद ही बचे।’
उस वातावरण में प्रथम विश्वयुद्ध ने मानो अचक्के ही धरपकड़ा। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान यह आत्मकथा लिखते हुए स्वाइग प्रथम विश्वयुद्ध के समय की दुनिया के साथ उसकी तुलना भी करते हैं। उन्नीस सौ उन्तालीस की दुनिया के पास इतनी बालसुलभ, मासूम भलमनसाहत नहीं थी जो उन्नीस सौ चौदह वाली के पास थी। दुनिया के इस रूपांतर के दौरान अपने विकट ऐतिहासिक लोकेशन की दारूणता स्वाइग के निकट व्यक्त हो चुकी थी। जिस ‘आला दर्जे के शक्तिशाली’ हैब्सबर्ग राजतंत्र के समय में ऑस्ट्रिया में उनका जन्म हुआ था उसका नामोनिशां तक मानचित्र से मिट चुका था और उनके बचपन का शहर वियना जर्मनी के एक बड़े कस्बे में तब्दील हो चुका था। साहित्य के जरिये आत्म और अध्यात्म की तलाश में निकला यहूदी अपने भौतिक अस्तित्व के यहूदीपन से अभिशप्त होकर निरंतर परदेसी भूमि पर भागते निकलते रहने को मजबूर था। लेखक, मानवतावादी और शांतिवादी होने की भी अपनी कीमतें थीं ही। उनका सारा जीवन मानों अलग-अलग तीन टुकड़ों में बंटा और अलग-अलग तीन दुनियाओं में बीता, ‘मैं यह महसूस करता हूं कि वह दुनिया जिसमें मैं पला बढ़ा, आज की दुनिया और उन दोनों के बीच की दुनिया और उन दोनों के बीच की दुनिया, एक दूसरे से पूरी तरह से अलग-थलग दुनियाएं हैं…’
प्रथम विश्वयुद्ध के पहले की शान्त सुरक्षित विश्वस्त ध्रुवताओं वाली पहली दुनिया और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अविश्वास, असंतोष, वर्चस्व की भूख और श्रेष्ठता के दंभ के बीच की दुनिया में बसते हुए उन्होंने अपनी आंखों से यह भी देखा कि क्रांति और भुखमरी, महंगाई और आतंक, महामारियों, और उत्प्रवासन ने तूफान की तरह जिंदगी को झिंझोड़ा। उन्होंने बड़ी-बड़ी ‘जनविचारधराओं’ को फैलते हुए भी देखा– इटली में फांसीवाद, जर्मनी में राष्ट्रीय समाजवाद रूस में बोल्सेविकवाद– और इन सबसे ऊपर कट्टर राष्ट्रवाद का वह कीड़ा जिसने यूरोपीय संस्कृति के फूल में जहर भरा। बिना युद्ध की घोषणाओं के युद्ध, यातना शिविर, उत्पीड़न, डकैतियां, निर्दोष शहरों पर बम बारी, पिछली पीढ़ी ने जो पाशविकता कभी नहीं देखी थी वह सब उनकी पीढ़ी को बर्दाश्त करना बदा था’।
यह आत्मकथ्य इस दौरान यूरोप के प्रसिद्ध साहित्यकारों, विचारकों और अन्य सभी प्रकार के कलाकर्मियों को शामिल करता हुआ समूचे बौद्धिक और आध्यात्मिक वातावरण का एक बयान भी है– असमंजस और हताशा का, संकल्प और अवसाद का, और एक तरह से देखा जाए तो विनाशकाल में रचनाकार और रचनाकर्म की प्रासंगिकता के सवाल से मुकाबिला भी। ‘बौद्धिक बंधुत्व का संघर्ष’ नामक अध्याय में इन कोशिशों का एक विस्तृत जायजा है क्योंकि पहले युद्ध तक ‘शब्द में अभी भी सत्ता थी और झूठे प्रपंच की तिकड़मों उसकी मौत नहीं हुई थी।’ यानी एक लेखक की हैसियत से उन्होंने शब्द को मरते भी देखा।
इतिहास के उस दौर के लगभग सभी प्रसिद्ध नाम यहां स्वाइग के अंतरंग संसार के सदस्यों की हैसियत से मौजूद हैं। असल में तो यह युद्ध के दौरान उन्हीं के बारे में और उनके माध्यम से युद्ध के बारे में एक किताब है। लिलाईक्रॉन, दिहमेल, बियरबॉम, मॉमबर्ट, रिल्के, हॉफमंसताल, मैक्स रीगर, थियोडोर हैसर्ल, लुउविग जेकोबोस्की, रूडोल्फ स्टाइनर, एमिली वेरहॉरन, रोमा रोलां, कामीय लमोनिये, कोंस्टैंटिन मोनिये, वैन डेर स्टैपन, लैन बजालजैत, रोदां, राथिनो, दुर्तो, रेने आर्कोस, ज्यां रिचर्ड ब्लोश, रेने शिकेले, जूल्स रोमां, विल्दार्क, शाल विल्दार्क, जैकब वासरमान, बैनदेत्तो क्रोचे, फ्रांस वैरफेल, फ्यूर्त यूंगलर, ज्यां पेरी, अल्फ्रेड फ्रीड, फ्रिड्ज फान उन्रूह, लैन्हार्ड फ्रैंक, रॉबर्ट फाइजी, जैम्स जॉयस, बुसोनी, बर्नाड शॉ, एच.जी. वेल्स, बारबूज, स्त्राती, जीद, जॉन ड्रिंकवाटर, हय वॉलपोल, गैरहर्ट हॉप्टमान और फ्रायड आदि अनेक नाम हैं जिनमें से कुछ वरिष्ठ हैं कुछ कनिष्ठ लेकिन सभी समकालीन। इनमें कुछ के साथ कभी सहमति, कुछ अन्य के साथ कभी असहमतिपूर्वक राजनीतिक मसलों की संगीनियों का सामना इनकी उस परस्परता का जायजा देता है जिसके रेशों से यह आत्मकथा बुनी गई है। इनके बारे में छोटी-छोटी घटनाएं और विवरण जो केवल व्यक्तिगत स्मृतियों में रहते हैं और आंकड़ों, अखबारों और तथ्यों में नहीं मिलते, इस जैसी किताबों को इतिहास की पोथियों की बनिस्बत ज्यादा जीवंत और मूल्यवान बनाते हैं। इनमें से कुछ हिंदी के पाठक के लिए परिचित नाम है, कुछ अपने दायरे में चर्चित हैं किंतु हिंदी के पाठक के लिए अपरिचत लेकिन बहुत से सचमुच ऐसे हैं जिनके योगदान को मूल्यवत्ता के बावजूद वह समय ही निगल गया जिसमें वे हुए। यह लंबी सूची इस उद्देश्य से यहां दी जा रही है कि किताब की भीतरी बनावट का कुछ अंदाजा लगाया जा सके। खासतौर से इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि इस दौरान स्वाइग की व्यक्तिगत जिंदगी में बहुत कुछ घटित हुआ। उनका अपना घर और अस्तित्व भी तीन बार तहस-नहस हुआ और उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि किसी नाटकीय शक्ति ने उन्हें अतीत से कलम करके ऐसे अंधे कुएं में झोंक दिया जहां और तबाह होने को कुछ बचा ही नहीं। लेकिन वे उनके लिए दर्ज करने लायक बातें नहीं। इसकी वजह शायद यह भी हो कि जब इस किताब को बिना किसी मदद के लिखने का फैसला उन्होंने किया तब तक बहुत प्रकांड कोटि का इतना बहुत सारा इतिहास उनकी स्मृति में इकट्ठा हो चुका था और व्यक्तिगत जिंदगी में तात्कालिकता का दबाव इतना क्षीण हो चुका था कि वह दोयम ही हो सकती थी। ओमा शर्मा ने बहुत मनोयोग और परवाह के साथ इस किताब को हमारे लिए संजोकर हिंदी का बड़ा उपकार किया है क्योंकि इतना सब कुछ एक जिल्द में हिन्दी के पाठक को कहीं उपलब्ध होने वाला नहीं था। ‘संजोकर’ इसलिए कि यह केवल अनुवाद नहीं, ‘प्रस्तुति’ है और ओमा ने हर परिचित अपरिचित नाम- व्यक्ति, वस्तु, स्थान से संबद्ध– पर एक परिचयात्मक टिप्पणी देकर तो अधिक पूर्ण बनाया ही है, स्वाइग के व्यक्तिगत जीवन और रचनाओं से संबंधित वह जानकारी देने वाले परिशिष्ट भी संयोजित किए हैं जिसे स्वाइग ने आत्मकथा लिखने के बावजूद शामिल करना जरूरी नही समझा। अनुदित पुस्तक के चुनाव में अनुवाद के विवेक की मूल्यवत्ता का पता देते हुए ओमा निस्संदेह हम सबके धन्यवाद के पात्र हैं।
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