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अनूप सेठी (अकार): ठहरा हुआ सा वो गुजरा जमाना

Dec 05, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

आप आत्मकथा पढ़ने लगें और पहला ही वाक्य यह हो, ‘अपनी शख्सियत को इतनी अहमियत मैंने कभी नहीं दी कि दूसरों को अपनी जिंदगी की कहानी सुनाने लग जाऊं’, तो आप थोड़े चक्कर में पड़ जाएंगे कि माजरा क्या है? लेखक का मकसद क्या है? अगले ही वाक्य में लेखक आत्मकथा लिखने की अपनी वजह स्पष्ट कर देता है- ‘एक पीढ़ी के हिस्से जितनी घटनाएं, हादसे या विपत्तियां आ सकती हैं उससे बेइंतिहा ज्यादा सामने से गुजरीं, तब मैं उस किताब को शुरू करने का साहस जुटा पाया जिसका प्रमुख किरदार या कहें, धुरी, मैं हूं।’ इन शब्दों के साथ लेखक ने आत्मकथा लिखने के लिए एक क्षितिज का चुनाव भी कर लिया। वह किस नजर से अपने समय को देखेगा, यह भी तय हो गया। उसकी नजर घटनाओं पर है। घटनाओं में भी हादसों पर है। और हादसों में भी विपत्तियों पर है। मतलब यह कि वह एक विकट समय को चित्रित करना चाहता है। निजी जीवन की बात तो छोड़ दीजिये(जबकि आत्मकथा अपनी जुबानी अपनी कहानी मानी जाती है), सामान्य स्तर की विकटता होती तो भी शायद लेखक की कलम न चलती। विपत्तियां ‘बेइंतिहा ज्यादा’  रहीं, इसलिए उसने लिखना मुनासिब समझा। पृथ्वी के जिस हिस्से ने जिस समय में दो-दो महायुद्ध झेले हों, उस हिस्से कि लिए उससे बड़ी विकटता और क्या हो सकती है।

इस कठिन समय का साक्षी है ऑस्ट्रीयाई लेखक स्टीफन स्वाइग और साक्ष्य है उसकी आत्मकथा-‘वो गुजरा जमाना’। जो दृष्टिकोण स्वाइग ने दूसरे ही वाक्य  में अपनाया है, उसे ताकिताब निभाया भी है। यह खासियत इस आत्मकथा को विलक्षण बना देती है। दो-दो युद्धों से रौंदे जाते समाज का चित्रण इस आत्मकथा में किया गया है। सिर्फ दुख, तकलीफ, दहशत और विध्वंस का अरण्य रोदन ही उसमें नहीं है, व्यक्ति की जिजीविषा पर भी लेखक की टकटकी लगी हुई है। वह युद्ध के बाद उठ खड़े होते समाज को भी शिद्दत, स्नेह और सम्मान से देखता है।

स्टीफन ने आत्मकथा में निजी जीवन के ब्योरों से परहेज किया है। सारी कहानी पढ़कर पाठक यह तक नहीं जान पाता कि उसके बच्चे कितने थे। थे भी या नहीं। बहुत बाद में चलकर मां का जिक्र आता है। यूं स्कूल के दिनों और जवानी और विश्वविद्यालयों के बारे में एक-एक पूरा-पूरा अध्याय है। उस दृष्टि से देखा जाए तो बचपन का वर्णन बड़ा मन लगा कर किया गया है। पर यहां भी तत्कालीन जीवन का रंग-ढंग ही समग्रता में सामने आता है। यह लगाव, आवेग, जोश, तन्मयता यूरोप के शहरों के वर्णन में भी दिखती है। अपने समय के महान कलाकारों, जिन्हें अनुवादक उस्ताद कहता है, से अपने मेल-जोल के बखान के वक्त भी यही जीवंतता हमारे सामने प्रकट होती है- वो चाहे रोमा रोलां हों, ओगस्त रोदां हों या सिगमंड फ्रायड हों। सिगमंड फ्रायड का वर्णन स्टीफन स्वाइग ने इतनी स्वच्छ आंख और करुणा-आप्लावित चित्त से किया है कि ऐसा लगता है मानो सिगमंड फ्रायड कोई ऋषि मुनि थे। ‘उनकी मेज पर बंडल बंधे कागजों की एक पांडुलिपि रखी थी जिसे तिरासी बरस की उम्र में अफनी जानी-पहचानी साफ वर्तुल लिखावट में वे हर रोज लिखते थे…. आला दिनों के अपने जेहन की तरह ही लकालक और चुस्त। बीमारी, उम्र और कैद को धता बताता उनका मनोबल इन सब चीजों पर इक्कीस पड़ता था।…. उनसे सीखने में भी क्या खूब मजा आता था। यह निर्मल विराट आदमी आपके कहे एक-एक शब्द को गले उतारता। उनके साथ आप मन का कुछ भी बांट लो। कुछ भी कह दो, वे न चौंकते, न हड़बड़ाते…उनके कमरे में घुसते ही लगता जैसे दुनिया का सारा पागलपन तिरोहित हो गया हो। हर घोर-दारुण चीज छिन्न-भिन्न होने लगती। परेशानी खुद-ब-खुद छंटने लगती। बची रहती तो बस मुद्दे की बात किसी वास्तव के महात्मा से यह मेरा पहला साबका था। वे अपने से भी बड़े हो गए  थे। (पृष्ठ 353)’

इसी तरह महान शिल्पकार ओगस्त रोदां से जब पहली बार स्वाइग मिले तो जैसे बोलती ही बंद हो गई। ‘मैं उनसे एक हरफ नहीं बोल पाया और उनके बुतों के बीच उन्हीं की तरह खड़ा रहा।’ रोदां को अपना काम करते हुए देखना दुर्लभ अनुभव था। ‘बड़ी मौन तटस्थता से, जिसमें गर्व का एक कतरा भी नहीं था, अपनी कृति को देखकर वे बुदबुदाए “ये ठीक है न”। फिर वे ठिठक गए। “सिर्फ उस कंधे को थोड़ा… बस एक मिनट” कहकर उन्होंने अपना कोट उतार फेंका और चुन्नटवाली सफेद कमीज पहन ली। एक चमस उठाई और प्रतिमा के नाजुक पदार्थ (कन्धे) पर यूं दबाकर मारी कि वह एक सांस लेती जिंदा औरत की त्वचा लगने लगी। फिर दो कदम पीछे हटाए और ‘अबकी यहां’ बुदबुदाए। उस मामूली करतब से प्रभाव एक बार फिर बढ़ गया।… वे मुझे पूरी तरह भूल गए थे क्योंकि उनके लिए मैं वहां था ही नहीं। उन्हें मतलब था तो बस उस प्रतिमा, उस आकृति और अपने सृजन से… और उसेक जरिए परम संपूर्णता हासिल करने की अदृश्य निगाह से…’(पृष्ठ 125)। कलाकार को देखने का यह अनुभव निर्मल जल में चमकते स्फटिक की तरह है, जिस पर पानी बहता रहता है और स्फटिक अपनी अप्रतिम छटा से दर्शक को विभोर करता रहता है। ध्यान देने की बात है कि कलाकारों की ऐसी छवियां स्टीफन स्वाइग के मन में टंकी हुई हैं और वे उन्हें अपनी आत्मकथा में मुक्ता-मणिक की तरह पिरोते हैं। मतलब यह कि दृष्टि के साथ-साथ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि लेख किन घटनाओं को अपनी आत्मकथा का हिस्सा बना रहा है। यानी कि ये दृश्य, ये संबंध, ये व्यक्ति और इनके काम के ताने-बाने से बुना जाता समय उसकी आत्मा का हिस्सा बनता है।

इस आत्म और आत्मीय संसार का पता इस बात से भी चल जाता है कि स्टीफन अपने लेखकीय जीवन में किस तरह के काम को तरजीह देता रहा है। इसकी झलक उनकी ‘थ्री मास्टर्स’ की त्रयी से भी लग जाती है। तीन-तीन साहित्यकारों की जीवनियों के तीन खंड स्टीफन की पसंद, प्रतिभा और घनघोर मेहनत के भी उदाहरण हैं। एक में बाल्जाक, डिकेन्स और दोस्तोवस्की, दूसरे में होल्डरलिन, क्लीस्ट और नीत्शे हैं और तीसरे खंड में कैसानोवा, स्टेन्ढल और टॉल्सटॉय हैं। स्टीफन अपने लेखन के बेहद निर्मम संपादक भी थे। सामग्री जुटाने के बाद पांचसौ-हजार पन्ने की पुस्तक लिखते। फिर ऐसे कतर-ब्योंत करते की उस महाकाय ग्रंथ में से दो-ढाई सौ पन्नों की छरहरी पुस्तक निकल आती। पाठकों ने इस मेहनत का सिला भी जमकर दिया। ‘मेरी हर एक किताब जिस दिन छप कर आती, अखबारों में छपे एक भी इस्तिहार से पहले, बीस हजार प्रतियां तो जर्मनी में उसी रोज बिक जातीं। कभी तो जानबूझकर भी मैंने कामयाबी से नजरें जुराने की कोशिश की, मगर किसी हैरतन जिद की तरह यह मेरे पीछे पड़ी रही।’ (पृष्ठ 265) कोई भी लेखक अपने पूर्वजों, अग्रेजों, समकालीनों पर इतनी मेहनत क्यों करेगा, लेकिन स्टीफन का तरीका यही था। ‘मैंने अपने वक्त का इस्तेमाल विदेशी भाषाओं से अनुवाद करने में किया। और आज भी मेरा यकीन है कि अपनी भाषा के मिजाज को ज्यादा गहराई और रचनात्मक ढंग से जानने-समझने के लिए किसी युवा कवि के पास यही सबसे अच्छा तरीका है।’ (पृष्ठ 102) यह सीखने और विनम्रता की मिसाल है। हमारे समय में शायद इस तरह की सोच की जरूरत काफी है।

स्टीफन ने अपने प्रिय लेखकों, कलाकारों पर काम करते-करते उनकी लेखनी, पांडुलिपियों, मसौदों वगैरह को भी काफी मात्रा में इकट्ठा किया। ये चीजें रचनाकार को रचना के बाहर से भी पकड़ने की कोशिश करती थी। जैसे पांडुलिपियों का कटा-पिटा मसौदा उनके लिए रचनाकार को समझने के द्वार खोल देता था। स्टीफन जैसे खुद अपने लिखे को काटने-छांटने में माहिर थे और उसी में से रचना को तराश भी लेते थे, एक शिल्पकार की तरह, उसी तरह वे शायद दूसरों के मसौदों में भी काफी कुछ देख लेते थे। कोई सतर क्यों काटी गई है? और काटी गई है तो बाकी रचना पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? जैसे प्रेमी, प्रेमिका के खत में लिखे हुए शब्दों से ज्यादा कटे हुए शब्दों के अर्थ, निहितार्थ और प्रयोजन समझने में ज्यादा उलझा रहता है। यूं यह रचना-प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकता है पर काट-पीट रचनाकार को संदेहों, अस्पष्टताओं, अस्थिरताओं की द्योतक भी तो होती है। पूर्णता की तलाश भी। स्टीफन स्वाइग की यह कला उसकी आत्मकथा को भी एक कसी हुई पठनीय कृति में रूपांतरित कर देती है। सांद्र। जीवन से छलछलाती हुई।

‘वो गुजरा जमाना’ की खासियत यह भी है कि हम इसे हिंदी में पढ़ रहे हैं। जो जर्मन से अंग्रेजी और फिर अंग्रेजी से हिंदी में आई है। कहते हैं अनुवाद मूल को आधा कर देते हैं इस तरह से बरस्ता अंग्रेजी तो यह पुस्तक फोकी हो गई होती। लेकिन युवा कथाकार ओमा शर्मा ने इस उक्ति को ही फोका सिद्ध कर दिया है। यह उनके अनुवाद का ही फल है कि ‘वो गुजरा जमाना’ मूल हिंदी पुस्तक लगती है।

‘वो गुजरा जमाना’ के अनुवाद में अनुवाद की एक नई धार की आहट भी सुनाई पड़ती है। हालांकि नाटकों के अनुवाद में यह धारा पहले से ही प्रचलित है। क्योंकि अगर नाटक का अनुवाद आज्ञाकारी शैली में किया जाएगा तो वो अकादमिक रुचि का पाठ तो बन सकता है, रंगमंच पर खेला नहीं जा सकता। हालांकि वहां अक्सर ज्यादा छूट भी ले ली जाती है। लेकिन फिर भी उसे नेटिव भाषा की मूल कृति में तो बदला ही जाता है। ओमा शर्मा ने भी यही करने की कोशिश की है। भाषा का वही ओज यहां पर है। ठाठें मारती नदी की तरह। भाषा में नदी का सा बहाव और लचक और साथ ही ऊर्जा तब तक नहीं आ सकती जब तक भाषा अपनी खांटी जमीन पर न खड़ी हो। भाषा का देशज तेवर उसे जमीनी बनाता है। आम तौर पर अनुवाद मानक भाषा की ईंटों से चिने जाते हैं। लाल ईंटों के बंगलों की तरह के साफ-सुथरे, साजे-सजाए, बोगनवेलिया की बेलों को सीने से लगाए हुए, दिसंबर की धूप सेंकते से बाबूनुमा अनुवाद। जब अनुवादक मानक भाषा की हदों को लांघ कर देशज और तद्भव के संसार में प्रवेश करता है तो अनुवाद मानों पत्थर का घर बनने लगता है। पीढ़ियों से इस्तेमाल होता आता हुआ सा। मिट्टी गारे गोबर से लिया पुता। अमराई की टेक लगाए हुए। गेंदे को गोद में भरे हुए। भरे-पूरे कुनबे वाले घर जैसा अनुवाद। शायद यही तो होता है मूल कृति की रचना जैसा अनुवाद।

‘वो गुजरा जमाना’  के दूसरे अध्याय ‘स्कूल के दिन’  को पढ़ते समय यह जानने की इच्छा होती है कि अनुवादक के अपने बचपन की स्मृतियों ने उसके अनुवाद की भाषा को किस तरह सहेजा होगा। ‘मेरा पूरा स्कूली-दौर, कसम से, बोरियत की ऐसी गठरी था जिसे उठाने से बचने के लिए मैं साल-दर-साल पिदता रहा। मेरा तो एक भी दिन वहां ‘मस्त’ या ‘आनंदमय’ नहीं गुजरा।’ (पृष्ठ 34) ‘पिदता’ शब्द बचपन के संदर्भ में बड़ा सटीक शब्द है। बड़ों की दुनिया में बच्चा पिदता ही रहता है। स्टीफन स्वाइग के देश में भी और ओमा शर्मा के देश में भी। इसी तरह ओमा ने मौका देखकर रगड़ाई, छका देना, तड़ी मारना, जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी किया है।

पुस्तक की भाषा अपनी पैठ बनाती है। झुरमुट की तरह भरी-भरी। हरी-भरी। जैसे बांस का झुरमुट है तो अगल-बगल घास भी है। झाड़ियां भी हैं। इधर-उधर बेलें भी हैं। कहीं उलझा ले रही हैं। कहीं बांध ले रही हैं। कहीं खोल दे रही हैं। आधार देशज भाषा का है। पत्थर की चिनाई। साथ-साथ उर्दू भी आई है। जैसे थम्मे घड़े हुए पत्थरों के होते हैं। हवेली का एहसास दिलाते हैं। जो गोलाई और मुलायमियत देशज भाषा में होती है, उसके साथ उर्दू ही जंचती है। या बोली जमती है। आधुनिक हिंदी, खासतौर से उसके पारिभाषिक शब्द नोंकदार पत्थरों की तरह गड़ने लगते हैं। इस अनुवाद में भी यत्र-तत्र ये पत्थर विराजमान हैं। दाल-भात में मूसलचंद की तरह। इस बारे में अनुवादक का कहना है कि मूल पाठ की भाषा इतनी व्यापक और गहरी है कि मानक भाषा उसके सामने अधूरी पड़ने लगती है, देशज शब्द ही अथवत्ता दे पाते हैं। उसके साथ उर्दू भी मानीखेज लगने लगती है। हां, जहां और कोई बस नहीं चलता, वहां शब्दकोश की शरण में जाना पड़ता है।

भाषा के इस तरह के चुनाव से भाषा की ताकत का पता चलता है। सभी जानते हैं मानक भाषा टकसाली किस्म की है। सौ डेढ़ सौ साल पुरानी यह हिंदी अभी अगढ़ भी है। इसलिए पारिभाषिक शब्द कई बार अटपटे भी लगते हैं। इसकी तुलना में देशज शब्दों और अभिव्यक्तियों की दुनिया में चले जाएं तो भाषा का पाट चौड़ा भी हो जाता है, गहरा भी। दिलचस्प है कि मूल पुस्तक का कथ्य यूरोप की युद्धों के दौर की उथल-पुथल से बावस्ता है। इसका लेखक भी बेहद ऊर्जावान और प्रतिभाशाली है। भाषा का तेवर ही भिन्न है। यह भाषाई रचाव हमारी देशज हिंदी के सारे रूपाकार पाता है। हमारे अपने संसार की तरह। रूपांतरण की ऐसी शक्ति लोक के ही वश की बात है। लोक मानक भाषा, उर्दू और अंग्रेजी की लोकप्रिय अभिव्यक्तियों को तो साथ लेके चलता ही है, अगर कहीं अटपटापन हो तो वो भी इसमें समा जाता है।

यह भाषाई प्रयोग पुस्तक में एक विनोद भाव पैदा करता है। ओमा शर्मा हालांकि कहते हैं कि इसमें विनोद की जगह कहीं नहीं है। पर हिंदी के ठेठ शब्द विनोद नहीं तो एक तरह का खिलंदड़ापन तो अपने साथ लाते ही हैं। ओमा को खिलंदड़ापन भी नहीं लगता। लेकिन जब वे लिखते हैं, ‘पार्टी का चिन्ह भी मुंह मटकाने लगा’  तो यह गंभीर टिप्पणी को खिलंदड़े अंदाज में बयान करना ही तो हुआ। ओमा कहते हैं उन्होंने began to appear के लिए ‘मुंह मटकाने लगा’ लिखा  है। भाषा जब बिंब खड़ा करती है तो उसकी व्यंजना बढ़ जातीं है। इसी तरह loud mouth tiny के लिए ‘बड़बोली पिद्दी सी( राष्ट्रवादी पार्टी)’, styled  के लिए ‘तड़ी (मारती युवतियां)’, without ever touching or meeting के लिए ‘छका रहा था’ जैसे प्रयोग भाषा को तरलता और सरलता को प्रकट करते हैं। पाठक को मुदित करते हैं। ऐसे प्रयोग में एक तरह की मस्ती और लापरवाही भी छुपी रहती है। असल में यह प्रयोग कथ्य की गंभीरता को कम नहीं करते, बल्कि गंभीरता को सहनीय बनाते हैं। यहां संदर्भ के बिना लग सकता है कि अनुवाद में बहुत छूट ली गई है। लेकिन ऐसा नहीं है। हिंदीकरण इसी तरह होगा। मूल लेखन सरीखा रचाव भी ऐसे ही आएगा।

अनुवादक इस भाषा के प्रयोग के प्रति सतर्क भी है। बचपन के वर्णन में वह अपने बचपन में सुनी भाषा के पिदना, छकाना, घोटा लगाना, रगड़ देना, झांसा आदि शब्दों को सार्थक और सटीक ढंग से पिरोता है। ऐसे काम में गुर्र-गर्र और फूं-फां जैसे शब्द भी उसके काम आ जाते हैं। इसी क्रम में साढ़ेसाती लगना और सरस्वती का मेहरबान होना जैसे प्रयोग देखे जा सकते हैं। अनुवाद में भाषा के इस तरह के विस्तारित प्रयोग का साक्षात्कार करने पर यह जानने की इच्छा भी होती है कि अनुवादक अपने मूल लेखन में कैसी भाषा का प्रयोग करता है। ओमा शर्मा की अपनी पुस्तकों ‘भविष्यदृष्टा’ और ‘साहित्य का समकोण’  की भाषा को ‘वो गुजरा जमाना’  की भाषा के सामने रखकर देखना दिलचस्प अनुभव है। दोनों भाषाओं में फर्क साफ पता चल जाता है।

अनुवादक के अनुवाद के साथ महत्तवपूर्ण व्यक्तियों, घटनाओं, जगहों या अन्य संदर्भों की जगह-जगह व्याख्या की है। स्टीफन स्वाइग पर लेख भी आवश्यक जानकारी देता है। इस तरह की सामग्री देना अनुवाद का पेशेवर तरीका भी है।

स्टीफन स्वाइग ने एक जगह लिखा है ‘किसी परदेशी जुबान की आत्मा के अर्क को पूरी मुलायमियत से अपनी भाषा में ढालने की जद्दोजहद हमेशा ही मेरी खास कलागत चाहत रही है।’ ओमा शर्मा ने इस वक्तव्य का वरण कर लिया लगता है। इसी का प्रतिफल है यह सुरुचिपूर्ण और महत्त्वपूर्ण – ‘वो गुजरा जमाना।’

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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