‘‘मैं कैसे लिखता हूं?’’ मेरे सन्दर्भ में इस नाबालिग प्रश्न का उत्तर किसी ने पहले ही दे दिया है: बहुत आसान है लिखना। करना ये है कि मेज पर बैठकर खाली कागज को निहारने लगो…जब तक कि पेशानी से खून न चुहचुहाने लगे। मेरे मामले में यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, सौ प्रतिशत सच है। कंप्यूटर-लैपटॉप और सॉफ्टवेअर्स के जमाने में मैं हर चीज कागज-कलम से ही लिखता हूं। जानता हूं कि तकनीकी के साथ कदम मिलाकर चलने से बारहा तड़कने की कगार पर पहुंची मेरी उंगलियों को जरूरी दीर्घकालीन राहत मिल सकती है, लेकिन एक लती पत्ताखोर की तरह इस नेक ख्याल को मैं ‘अगली बार’ की परछत्ती में खौंस अपनी पूर्ववत मुद्रा में आ जाता हूं। उलटे, यह भी मानता हूं कि लिखे जा रहे के साथ इससे बेहतर और जैविक ताल्लुक बनता है। पाब्लो नेरूदा इस बाबत मेरी तरफदारी में खड़े होते हैं। वैसे लिखा हुआ अहम है न कि यह कि वह कैसे लिखा गया है। कोई कहानी कैसे बनती है? इस शाश्वत और निष्ठुर प्रश्न पर कितने उस्तादों के तजुर्बे दर्ज होंगे लेकिन शायद ही कोई मेरे काम आया है। कहानी मुझे लेखन कला की सबसे सघन और कलात्मक विधा लगती है। उसके कच्चे माल के लिए दर-दर भटकने या उसकी शान में (अपने मुताबिक) रत्ती भर भी कुछ जोड़ने-संवारने के लिए मेहनत-मशक्कत करने अथवा जो कुछ निवेशित किया जा सकता है वह सब करने में सुकून लगता है। मसलन, अपना एंगल तय हो जाने के बाद ‘भविष्यदृष्टा’ को लिखने में ढाई-तीन साल लग गए क्योंकि ज्योतिषशास्त्र के व्याकरण की बारीकियों से वाकिफ हुए बगैर मैं उस पर हाथ नहीं रख सकता था। ‘घोड़े’ को तो लिखने से पहले ही मैं गधा बन गया था। मेहनत मशक्कत से बनाई कहानी की इस पूर्व पीठिका के बाद वह काम शुरू होता है जिसे दरअसल बहुत पहले शुरू कर देना चाहिए था–यानी कहानी को शब्दों में ढालने का काम। इस बिन्दु पर मेरे व्यक्तित्व की निजता के ऐसे-ऐसे तर्कातीत पहलू उजागर होते हैं जिनका होना मुझे बेबस ढंग से हलकान किये रहता है। फॉकनर की ‘लाइट इन ऑगस्त’ पढ़ लूँ तो कैसा रहे? अपनी आत्मकथा में मार्खेज ने इस किताब की बहुत तारीफ की है। पॉल क्रूगमैन की मन्दी पर आयी किताब का नम्बर क्या अगली मन्दी में लगेगा? ये कुछ दिन तो दफ्तरी दवाब में जाएंगे,इस समय कहानी शुरू की तो कोई फायदा नहीं क्योंकि थकी-माँदी हालत में मुझसे कभी ढंग का नहीं लिखा जाता है। इस सप्ताह बच्चों को फिल्म दिखा लाता हूँ, फिर… अरे, उस मित्र का फोन आया था, दफ्तर में कुछ बात ही नहीं हो पायी…फोन के बाद आराम से लिखूंगा। सुबह टहलकर आते ही बैठ जाऊंगा… पेपर तो पढ़ लूं, महानगर के अखबार कहानी का नित रोज मसाला परोसते हैं…लाइब्रेरी चला जाता हूँ…कितना और अटूट सिलसिला है उस दिली चाहत से मुंह छिपाने का जबकि पता है कि खुमारी और बेचैनी से सने ऐसे दिन कितने मोहक, मूल्यवान और विरल होते हैं। मन जरा कड़क हो जाए तो कितना कुछ दुरूस्त हो सकता है। आज तक नहीं हुआ तो आगे भी क्यों होगा। ऐसे होते हैं लेखक…जिनके लेखन की आज तक कोई चर्या नहीं बनी।
बहरहाल, बरसों से टूटे-फूटे ऐसे खिड़ंजे पर सौ-डेढ़ सौ किलोमीटर खचड़ा साईकिल चलाने के बाद एक पक्की सड़क मिलती है जिस पर पहुंचकर अभी तक की सारी फिजूलियत का गिला काफूर हो जाता है। लेखकी का सबसे दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण पक्ष है तो यही कि ‘दूसरी दुनियाओं’ की ऊभ-चूभ कराते हुए यह आपको सृजन का निजी घरौंदा-सा रच डालने के भरम से भर देती है। परकाया प्रवेश के इस सुख के लिए फ्लावेअर रह-रहकर ईश्वर को धन्यवाद देते हैं जो लेखन के सिवाय अन्यत्र असम्भव है। जीविका के लिए मेरे ऊपर नौकरी का पहरा और बेड़ियां कसी होती हैं लेकिन इसी के जरिए मुझे अनेक दूसरी दुनियाओं को देखने-समझने का अतिरिक्त अवसर मिल जाता है। मेरे पास दूसरे तमाम लेखकों सी कल्पनाशीलता नहीं है। जो है वह भी देखे-जाने यथार्थ से ही कहीं न कहीं जुड़ी होती है। इसलिए अधिकांश वक्त मैं लेखक नहीं, उसका ऐसा मुखबिर होता हूं जो मौका ए वारदात—जब शब्द कागज पर उतर रहे होते हैं—पर लेखक का चपरासी बनकर खुश होने लगता है। शायद इसी कारण टोटकेनुमा चीजें लगभग गायब हैं। एकान्त तो चाहिए मगर दुनियादारी के बीचोंबीच! बस चाय की खेपें लगातार जरूरी होतीं हैं। फितूर है कि लिखना शुरू करने से पहले कागज-कलम की जरूरत के कई गुना ज्यादा मात्रा(ब्रज में इसके लिए शब्द है : डिडया) मेरी मेज की दराज में मौजूद रहें। पहले स्याही वाले पेन से लिखता था मगर अब सैलो पोइंटेक ज्यादा रास आता है…निब की स्याही सूख जाने का झंझट नहीं । अपनी मेज-कुर्सी और उनके आस-पास करीने से रखी किताबों और शब्दकोशों के बीच आढ़े-टेढ़े या एकाग्र होकर लिखना इसलिए भी अच्छा लगता है कि वह सब मेरी दैनंदिनी का हिस्सा है…न भी लिख रहा हूँ तो भी उनकी जैविक उपस्थिति के बीच अपनी दुनिया में बैठा महसूस करता हूँ। जब लिख रहा होता हूँ तो दिन-रात का फर्क नहीं रह जाता है…सुबह-शाम और रात हर दम …यहाँ तक कि जुनून में उन लिखे जा चुके कागजों को ऑफिस भी ले जाता हूँ कि मौक़ा हाथ लगा तो … ।
कितनी आत्मसम्पन्न और पवित्र नदिया है लेखकी भी ! आप अपने अहं और वाद का जामा उतारकर तो देखें, दुनिया भर के सैकड़ों मजबूत काबिल हाथ अनचाहे ही आपका सम्बल बनने लगते हैं।
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