…क्या देखते हम उनको, मगर देखते रहे…
(जिगर मुरादाबादी)
किसी रचना को ‘अच्छा’ भर कहने की तरह अपने परिवेश को ‘जटिल’ कह देना सरलीकरण होगा। जटिलता में न सिर्फ खुदरेपन का बोध छिपा है बल्कि एक रहस्यमयता का निहितार्थ भी है जिसके चलते उपलब्धियों के घटाटोप में इसकी परख के पैमाने नाकाफी हो उठते हैं। क्या है मेरा परिवेश जिसे मैं शब्दों में बाँधने को कोशिश कर रहा हूं?
सुबह टहलने जाता हूं तो खुश होता हूं कि हजारों-लाखों की आबादी वाले इस इलाके में कम से कम सौ-पचास लोग तो हैं जो स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं। मगर लगता है कि इनमें ज्यादातर तो किसी और मकसद की पूर्ति कर रहे हैं: किसी को डॉक्टरी सलाह की मजबूरी है तो किसी को हर रोज होने वाली पेज-थ्री संस्कृति के प्रवाह में लगातार बनाए रखने की शरीरगत हसरत; किसी को यह समय मित्र-पड़ोसियों के साथ सट्टा-बाजार या दुनिया-जहां की बिचिंग के लिए मुफीद लगता है तो कोई मोबाइल कनपटी में लगाकर लीन है। मतलब कि जो जहां है वहां नहीं है, सिवाय उन चन्द अधेड़ों-बूढ़ों के जो घर-परिवार में फालतू-अवांछित किए जाने का सरे आम प्रतिशोध उस लाफ्टर क्लब की सामूहिक हू-हाहा(हाहाकार!) की मार्फत ले रहे हैं। अलबत्ता, इस प्रयोजन का वास्तविक लाभ बाहर गेहूं के तने और एलोवीरा जैसे दो-चार अर्क बेचने वाले उद्यमी लड़के को जरूर हो रहा है।
घर आकर दैनिक अखबार उठाता हूं और यहीं से दैनिक अवसाद उखड़ उठता है। नहीं, राष्ट्रीय राजनीति में लालू-मायावती टाइप नेताओं के बयानों-कारनामों से अब जी नहीं मिचलाता; अब एक अजीब किस्म की स्थानीयता घेरे रहती है… दो साल की बच्ची के साथ बलात्कार… किसी टुन्नी-सी बात पर झगड़ा करते लोगों के बीच सुलह कराने आए अजनबी का ‘रेज़ मर्डर’… मामूली लालच में पूर्व नौकर द्वारा मौका ताड़कर की गई बुढ़उ आका की हत्या… ठुकराए(जिल्टिड),स्वघोषित आशिक का तेजाब फेंककर युवती को कुरूपित करना… पुलिस छापे में पकड़ी बाल-वेश्याएं और काल गर्ल्स का रेकैट चलाती इज्जतदार अधेड़… कच्ची शराब का एक और कहर… बेटी द्वारा बाप के काला मुंह करने का खुलासा… कम नम्बर आने पर युवक की खुदकुशी… प्रेमी से साठ-गाँठकर पत्नी द्वारा पति की हत्या… कर्जे से परेशान परिवार ने खाया जहर… बढ़ते हुए मनोरोग और नामर्दी… यानी एक से एक और रोज-रोज चौंकाती बेशुमार खबरें। इन खबरों के किरदार उस रूप में ज्यादातर अपरिचित ही होते हैं, कभी तो खबर ही दूसरे भौगोलिक क्षेत्र की होती है मगर मुझे ये भीतर तक आहत करती हैं… गो, यह सब मेरे साथ मेरे चौबारे में हो रहा है। सवाल अक्सर मुँह उठाता है कि हम किस आदिमकाल में जी रहे हैं… क्या इस काल का उस काल से कोई ताल्लुक है जिसमें इन्सानी सुख-सुविधाओं, सूचना और प्रौद्योगिकी में एक से एक हैरतन करतब मुमकिन किया जा रहा है, जिसमें खरबों मील दूर किसी ग्रह को हस्तगत किया जा रहा हो, जहां इन्सानी फितरत के रेशे-रेशे को बेनकाब करती जीन तकनीकी रोज कुछ छलाँगें भर लेती है। कुल मिलाकर एक विद्रूप परिदृश्य जिसे दर्ज करने की लेखकीय आकांक्षा अक्सर सिर उठाती है। अपने परिवेश की ये विद्रूपताएं फकत अखबारी नहीं हैं। वे किसी एक जाति, वर्ग अथवा इलाके से भी संबद्ध नहीं हैः इनका एक अखिल भारतीय स्वरूपहै… निचले तबको में हूच और इन्सेस्ट हैं तो ऊपरी तबकों में दूसरे दैहिक स्खलन और अवसाद-विषाद के दौर-दौरे। ज्यादातर पढ़े-लिखे या अमीर अब बड़े परिचित किस्म का विकर्षण पैदा करते हैं। उनकी बौद्धिक चालबाजियां और कारगुजारियाँ पूरे शिक्षा तन्त्र को कलंकित करती चलती हैं… डॉक्टर है तो कमीशन के लिए मरीजों को डायग्नॉस्टिक केन्द्रों की तरफ धकेल रहा होगा, सर्जन है तो ऑपरेशन करने को आमादा। चार्टेड एकाउटैण्ट है तो चेनरूप भंसाली के किसी अवतार में तब्दील होते जाने की खुराफात करना, नौकरशाह है तो परपीड़क, रीढ़विहीन और निर्णयहीनता का सिरमौर, अध्यापक है तो शिक्षा का बेधड़क पेशकार…। इस अन्तहीन फेहरिस्त में समझ नहीं आता है कि ‘आम आदमी’ कहलाया जाने वाला वह मासूम-लाचार कहां है और कौन-सा है जिसके किसी दर्द, मर्म, आकांक्षा और विश्वास को रचनात्मक शक्ल देने का मैं वहम पाले रहता हूं? तादाद में तो वह क्षितिज का विस्तार लिए हुए है मगर शुमार में जो कहीं नहीं ठहरता। बाजार और उपभोक्तावाद के इस झंझावात का उसे दर्शक मात्र कैसे कह दूं जबकि चाहे-अनचाहे वह उसमें शरीक है… या, हैसियत मुताबिक जो वस्तु, स्त्री और ईश्वर का भोग करने में जीवन की सार्थकता के गुमान से लीन है। वह मेरा निकटतम पड़ोसी है जो हारी-बीमारी को तो छोड़िए, सामने पड़ने पर स्मित की एक फीकी लकीर बांटने में हिचकता है, अपने खोखले अहम् की तृष्णा में जिसकी पत्नी ने उसे ऐसा धन-पिपासु बना दिया है कि आई. आई. टी. और आई. आई. एम. की साख से निखरी उसकी मेधा सिर्फ तिकड़मों की तामील बजा सकती है, आर्थिक और भावनात्मक सुरक्षा (पढ़ें हवस) की अन्तहीन चाहत जिसे या तो गल्ले से उठने नहीं देती है या बेशरमी से क्रेडिट-कार्ड, बीमा पॉलिसियाँ और कंडोम से लेकर कंप्यूटर तक हर ‘आइटम’ बेचने को विवश किए रहती है। उसके सैकड़ों-हजारों संस्करणों से मिलकर हैरत होती है कि जिन्दगी को ऐसे स्थूल, बेमकसद और वाहियात ढंग से कोई कैसे जी सकता है? और वह भी विवेक की इन्तहा और व्यस्तता के गुमान से! ग्लोबलाइजेशन के फख्र से टुन्न शहरी संस्कृति के इस ‘आधुनिक’ टापू के इर्द-गिर्द संघर्ष, गरीबी, बेगारी और बदहाली का मुँहबाये दहाड़ता महासागर है जो अपनी बेमजा हैसियत की हिलोरों से खुद-ब-खुद गीला होता रहता है। यह कहने में कोई वामपन्थी सहूलियत नहीं कि इसी तंगहाली और गर्दिश के बीच मुझे जिन्दगी अपना खाद-पानी और असला सहेजती दिखती है। घर-घर छुटकर काम करती एक निरीह परित्यक्ता है जो गोद खेलते अपने बच्चों को जिन्दगी के आदर्शों की घुट्टी रोज पिलाती है और हर मुमकिन कुर्बानी सहकर उन्हें स्कूल भेजने का हौसला संजोये हुए है। ‘देस’ में जातिगत समीकरण अथवा भुखमरी से दुरदुराया शहरी मजदूर बारह सौ, पंद्रह सौ की पगार में मुम्बई में मय भाड़े के रहता है और ‘देस’ के लिए भी ‘मनीआटर’ भेजने का जज्बा भी साध लेता है। अशक्ति, अकिंचन और पराभव के बीचोंबीच यह शख्स उनसे ऐसा मैत्रीगत संयम बना लेता है मानों इसकी आत्मा में साईं बाबा का निवास हो। सब कुछ हरा-भरा तो खैर यहाँ भी नहीं है मगर जिन्दगी के प्रति आदिम अनुराग, उमंग और आर्द्रता खूब दिख जाएगी। गाँव-देहात की यात्रा करने पर और दूसरी तरह की फाँकें भी चरपराने लगती हैं और तभी मुझे लोगों में पैठी, आंशिकतः परस्पर जुड़ी दो प्रवृत्तियाँ गोचर होती हैः यानी पलायन और बर्दाश्त करना जो, दूसरे रूपों में, हर लेखक के भीतर भी घर किए रहती हैं।
बनता-बिगड़ता यह मटमैला बाहरी संसार मुझे अजीबो-गरीब ढंग से छीजता और स्पन्दित करता रहता है। उसके बरक्स मेरी उपस्थिति एक नगण्य और नपुंसक-से दर्शक की है जिसका अहसास मुझे हैरान-परेशान नहीं करता है। उल्टे, उसके साथ एक साम्य-सा बैठ गया है। मगर मेरी जो नितान्त अपनी और ज्यादा वास्तविक दुनिया है उसका मैं क्या करूं जो हर कला और सृजन को वायवीय-फितूर और उसकी साधना को दीवानगी समझती है… वह जो पढ़ने-लिखने को आम शरीफों के ‘ऐब’ के तौर पर तभी तक रियायत देती है जब तक वह एक हस्बेमामूल ‘हॉबी’ के सुरक्षित कोने में सिमटा पड़ा हो या, जब तक वह नौकरी की प्रतिष्ठा, घर-बच्चों की तवज्जो और दुनियादारी का साथ निभाते रसूखों के आड़े नहीं आए… कुल मिलाकर दान की ऐसी कमीज जिसका आगा-पीछा हो नहीं और जिसकी आस्तीन अपने आप लगवाने की ताकीद की गई हो। हितैषी-स्वजनों की यह दुनिया भी मेरे परिवेश का काफी कद्दावर और मारक हिस्सा है क्योंकि इससे निजात के चयन की सहूलियत मुहाल है और, अघोषित रूप से हेय नजरिया रखने के अलावा जो मेरे पढ़ने-लिखने को ‘नैतिकता’ और ‘वाजिब’ की खुर्दबीन के सहारे गायबाने ढंग से हरदम निर्धारित करने में उलझी रहती है। और मजा यह कि वहाँ आड़ ‘अपनापे’ और ‘सहृदयता’ की होती है। मैं मानता हूं कि समय की इन बन्दिशों और नैतिकता के इन प्रेत-पहरों का एक उजला पक्ष भी हैः यहीं से हर आमफहम बात को न लिख मारने का संयम ऊर्जा लेता है और यहीं से हर चलताऊ मुहावरे और बाजार माफिक संस्कृति से परहेज रखने की जिजीविषा और संकल्प पुख्ता होते हैं। इसी की मार्फत उपेक्षा नाम की वह संजीवनी घर बैठे मिल पाती है जिसकी संगत लेखक को आवश्यक तौर पर जिलाए रखती है। यूं तो सभी तरह के रंग और छवियां कला की दुनिया के लोकतान्त्रिक अवयव हैं मगर किसी भी कला के मर्म में उस नखरेखोर निश्चयहीन प्रेमिका की फितरत छिपी होती है जो अव्यक्त हामी से पहले प्रेमी की निष्ठा और क्षमता को संत्रास और सहनशीलता की हद तक दुरदुराती है। गेटे के ‘एकान्त’ (सौलिट्यूड) और रिल्के के ‘मौन’ (साइलेन्स) में रति होना तो अभिसार के बहुत बाद की अवस्था है। फिलहाल तो इससे उपजी कड़वाहट, उत्तेजना और जुगुप्सा में ही प्रस्थान की संभावना देखी जा सकती है।
मगर मेरे परिवेश की एक खिड़की वह है जो लेखकीय दुनिया में ही खुलती है… जहाँ मैं फिर-फिरकर सुकून से बैठकी जमा लेता हूं क्योंकि यहीं पर मैं अपने निजी और सामाजिक जीवन की कुण्ठाओं को कमोबेश विस्मृत कर देता हूं। आकार में निश्चित और आकर्षक न होने के बावजूद जो कहीं ज्यादा वास्तविक और सार्थक लगती है। मनुष्य के स्तर पर लेखक-कलाकार अपने समय और समाज का ही हिस्सा होता है इसलिए उसके निजी आचरण से, दूसरों की तरह मेरी ज्यादा अपेक्षाएं नहीं होती हैं। शब्द–या कहूं गद्य– की दुनिया से सम्बद्ध हरएक शै को पास करने लायक नम्बर तो मैं इसी बिना पर दे देता हूँ कि उसमें संवेदना की चिंगारी तो है, यथास्थिति से बगावत करने का हौसला है और कुछ हद तक वह है जिसकी गालिब ने ‘दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूँ’ वाली निगाह और खुद्दारी की नेमत से शिनाख्त की थी।
इस खिड़की से मुझे वह बारात दिखती है जिसका अगाड़ी बना ‘दुल्हा’ नाम का पाठक, पता नहीं किसी खब्त में आकर बिदक-सा गया है और लाख मान-मनुहार के कमबख्त वक्त की नजाकत और अपनी भूमिका समझने को राजी नहीं हो रहा है। कुछ बुजुर्गवारों को शक है कि उसका मन कहीं और रमने लगा है तो कुछ मुँहजोर फरमा रहे हैं कि सारा कसूर ‘रचना’ नाम की लड़की का है… वही अगर ठीक-ठाक होती तो…। इस अफरातफरी में ‘कुछ’ होता-सा तो बहरहाल फिर भी दिख रहा है। बाकी तो जो किस्मत। अध्ययन और आकलन की बजाय इस दुनिया में संवाद का सबसे सशक्त और प्रायः इकलौता जरिया अरसा पहले लिखी एक-दूसरे की वे रचनाएं होती हैं जिनको दुर्भाग्य से पर्याप्त नोटिस नहीं लिया गया मगर उनके जाने जिन्होंने अपनी प्रासंगिकता आज भी नहीं खोयी है! आत्ममुग्धता के अलावा इस दुनिया में भितरघात और मानसिक प्रदूषण की गहरी कालिख है। पूरा परिदृश्य एक मलाल-सा सौंपता जाता है… कि आम आदमी के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील और बारीकी से देखने का दम्भ भरने वाली मेरी कलमकार कौम, कला के स्तर पर कैसे-कैसे तिकड़म और बेपाक इरादे सजाने में लगी रहती है। बाजार के प्रतिरोध का यह कैसा संस्करण है जो उसी के हर जुमले को ताबीज़ की तरह दिल से लगाए घूम रहा है। वर्तमान की बनिश्बत पिछली पीढ़ी में यह दोष ज्यादा दयनीय ढंग से गोचर होता है… सेवानिवृति के बाद जिस पर गॉडफादर होने की अतिरिक्त जिम्मेवारी आन पड़ी है। उद्धार की नीयत से मजबूर खुदाओं को इन्सान भी तो चाहिए! होना चाहिए मगर ताज्जुब नहीं होता कि विश्व साहित्य की जितना आवाजाही उर्दू, मराठी या दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य में है, आज हिन्दी में उतनी नहीं। जीवनीपरक साहित्य को तो जाने दो, विचार-समीक्षा और आलोचना में हमारे इस परिवेश में जो दरिद्रता, अखाड़ेबाजी और वैमनस्य है, उससे कोई भी नया लेखक प्रसन्न या प्रोत्साहित नहीं हो सकता है। आप कभी भी ‘आखिरी कलाम’ लिखते घोषित किए जा सकते हैं या प्रभु जोशी की तरह कलम की जगह कूची थामने को मजबूर हो सकते हैं। उधर एकदम नई पीढ़ी पर तो अस्तित्व का ही गहरा संकट है। मसिकला को कालदोष की विडम्बना निगल रही है। मगर भीतरी-बाहरी परिवेश का यही कसैलापन, यही प्रतिकूलताएं, कालदोष में कम्पन करती लौ की तरह, ज्यादा शिद्दत और निष्ठा से अपनी उस राह पर चलने की सामर्थ्य देती हैं जिस पर चलने की मेरी कोई पेशेगत बाध्यता नहीं है, जिसके ऊबड़-खाबड़ एक अनिर्वचनीय सुख की पूर्ति करते जाते हैं और जिसकी तुच्छ अपूर्णताएं अपने विरुद्ध एक प्रति-संसार रचते जाने का दाना डालती प्रतीत होती हैं। मोमिन ने कहा हैः
मोमिन बहिश्त ओ इश्क हकीकी तुम्हें नसीब
हमको तो रंज हो जो गमे जाविदां न हो।
वैसे भी सुबह की ताजगी से उस लड़के का क्या वास्ता जो पार्क के बाहर व्हीट-ग्रास बेचता है। वह तो उसका उद्यम ठहरी!
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