(एक)
प्रिय जयशंकर जी;
निर्मल वर्मा द्वारा आपको लिखे पत्रों की पुस्तक ‘देहरी पर पत्र’, बरसों से मेरे पास थी लेकिन पढ़ने का संयोग पिछले दिनों ही मिल सका। निर्मल जी की मनीषा, और रचनात्मकता के आयामों को हम उनके वैचारिक आलेखों-व्याख्यानों और कहानी-उपन्यासों की मार्फत महसूस करते आए हैं। उनके साक्षात्कारों से उनके रचनात्मक व्यक्तित्व की कुछ निजी परतें और उजागर होती हैं। लेकिन इस किताब के जरिए मुझे उनकी अध्ययनशीलता, सादगी और मुनुष्यता के साथ एक युवा मित्र के प्रति जिस सहज और विरल आत्मीयता को जानने-महसूस करने का मौका मिल सका, उसके लिए हिन्दी समाज आपका कृतज्ञ रहेगा कि आपने साहित्य की इस विराट हस्ती के इन पत्रों को पुस्तकाकार प्रकाशित करवाकर उन्हें वृहत पाठक वर्ग को उपलब्ध होने दिया। इस पुस्तक से गुजरते हुए स्वाभाविक था कि जर्मन कवि रिल्के के पत्रों की वह बेजोड़ पुस्तक, ‘युवा कवि के नाम’ लगातार याद आती रही। मैं सोचता हूँ रिल्के और और ‘युवा कवि के नाम’ का अवतार-स्वरूप जैसा कल्पित किया जाए तो शायद वह निर्मल वर्मा और ‘देहरी पर पत्र’ से बेहतर नहीं हो सकता! रिल्के की पुस्तक की तुलना में इसमें समाहित पत्र अपेक्षाकृत छोटे हैं। लेकिन उनकी समयावधि(लगभग पच्चीस बरस) और संख्या(एकसौ बासठ) उनके भीतर फैले सरोकारों को ऐसा नैरंतर्य प्रदान करती है कि पाठक प्रेषक निर्मल वर्मा की अंदरूनी दुनिया– उसके रचाव, फैलाव, दर्शन, कौने-अंतरों और मनीषा— के संग बहता-रमता चलता है। यह सचमुच बहुत मार्मिक और प्रेरक है। पुस्तक में शामिल पहले पत्र के समय निर्मल वर्मा पचपन को छू रहे थे जबकि जयशंकर बमुश्किल तेईस बरस के युवा थे। एक लेखक के तौर पर कुलवक्ती जीवन जीते निर्मल जी, अपने रचना वैविध्य और खास भाषाई तरलता के कारण तब तक शिखर भारतीय लेखक के अलावा एक वैश्विक उपस्थिति हो चुके थे जबकि जयशंकर अभी अपनी लेखन यात्रा के शुरूआती कदम धरने की अपेक्षित कश्मकश से गुजरते रहे होंगे। लेकिन पूरे पत्राचार में उम्र और हासिल का रत्ती भर अंतराल नहीं दिखता है। जो दिखता और भरपूर महसूस होता है वह है: एक अग्रज लेखक की अपने युवा आत्मीय साथी के प्रति अपने जीवन और मानस के भीतर-बाहर को सांझा करने और जानने की सहजवृति। वे क्या पुस्तकें पढ़ रहे/चुके हैं, किन यात्राओं को संयोग हुआ, कौन सी फिल्में देखीं… इन सबके बारे में एक फौरी रहमदिल नजर लगातार कार्यरत दिखती है। लेखकीय निजता, समकालीनता की आहटों और पत्र प्राप्तकर्ता के हाल-फिलहाल में रचे के बारे में भी जिज्ञासा सा कुछ झलक-छलक जाता है; लेकिन यहाँ प्रेषक की मानसिकता और प्राथमिकता में, दूरस्थ कस्बे में रह रहे, कला और लेखकी को समर्पित एक युवा साथी से आत्मीय संवाद का रिश्ता— और उसकी नैसर्गिकता— साधे रखना ही है। और यही इस किताब को, खासकर युवा लेखकों के लिए, संग्रहणीय बना देता है।
पिछले दिनों मैं महात्मा गांधी के बारे में फिर से कुछ पढ़ने को लालायित था। एक वरिष्ठ रचनाकर मित्र से इस बाबत जब बात होने लगी तो उन्होंने दिली आश्वस्ति से अँग्रेजी में कहा: द बेस्ट ऑन गांधी इज गांधी हिमसेल्फ! ‘देहरी पर पत्र’ के बारे में मुझे अपने उन मित्र की अनुशंसा यकायक याद हो उठी। क्या है इस पुस्तक का मर्म और किस तरह यह संवाद-पत्राचार अपने पाठक को समृद्ध करता है, इसे बताने के लिए किसी आलोचना या व्याख्या की जरूरत नहीं है। इन्हें निर्मल जी की कोई तीन दशकों में फैली एक डायरी स्वरूप भी पढ़ा जा सकता है जहां संवाद में प्रेषकीय सादगी और सदाकत झरने सी गिरती रहती है। और उसी ‘निर्मल’ शीतलता का एहसास कराते हुए! पाठकीय सहूलियत के लिए मोटे तौर पर कुछ झरनों की अन्तरधाराओं को, बकलम निर्मल, कुछ यूं (पुस्तक के पृष्ठ संख्या और लेखन वर्ष के आधार पर) विभक्त करके रखा जा सकता है:
(दो)
(1) मैं क्या पढ़/कर रहा हूं:
— अभी हाल में मैं कैथरीन मैंसफील्ड के पत्र पढ़ रहा था। अभी कुछ दिन पहले मैं पोलिश कवि चेस्वाव मिलोश की आत्मकथा Native Realms पढ़ रहा था। उसकी यह आत्मकथा पूर्वी यूरोप के देशों की ट्रेजडी का बहुत ही मार्मिक दस्तावेज है(23/82)।
— मैं इन दिनों ई.एम.फोर्सटर की जीवनी बड़े उत्साह और दिलचस्पी से पढ़ रहा हूं। कुछ दिनों पहले मैंने कैथरीन मैंसफील्ड के पत्र और डायरियां पढ़ीं। बहुत ही गहरा असर किया उन्होंने (24/82)।
— इन दिनों से मैं सॉल बेलो का नया उपन्यास Dean’s December पढ़ रहा हूं। कुछ दिन पहले ग्रैहम ग्रीन की आत्मकथा का दूसरा भाग पढ़कर समाप्त किया। एक लेखक अपने उपन्यासों की सामग्री कितनी अभूतपूर्व घटनाओं से और कितने अप्रत्याशित रूप से जमा करता है, इस बारे में बहुत सी दिलचस्प बातें पता चलीं (26/82)।
— इन दिनों मैं प्रूस्त के लम्बे उपन्यास Remembrance of Things Past का चौथा भाग The Capture पढ़ रहा हूं। वर्जीनिया वुल्फ की डायरी भी बीच-बीच में पढ़ लेता हूं जिससे बहुत प्रेरणा मिलती है। कितने Handicaps के बावजूद वह लिख लेती थीं-– बराबर के उत्कृष्ट उपन्यास और निबन्ध– यह चीज बहुत अद्भुत लगती है(31/83)।
— आजकल मैं डोरिस लेसिंग का उपन्यास–- The Memories of a Survivor पढ़ रहा हूं । काफी इन्टेंस ढंग से लिखी हुई कृति है।
— इन दिनों मैं चेखव की जीवनी पढ़ रहा हूं। चेखव का जीवन पढ़ते हुए एक अपूर्व प्रेरणा मिलती है। अपनी अकर्मण्यता पर कुछ शर्म भी आती है-– यह देखकर कि बीमार रहने वाले चेखव अपने छोटे से जीवन में कितना कुछ करते थे–-लोगों की चिकित्सा, स्कूल और अस्पताल बनाना, पूरे परिवार का भरण-पोषण और इसके अलावा अपना लेखन। उनकी कहानियों के पीछे अपार अनुभव संपदा थी, तभी उनका हर शब्द इतना जीवन्त जान पड़ता है (47/86)।
— पिछले दिनों रेणु का ‘परती परिकथा’ दुबारा पढ़ा। रेणु जैसे कथाकार किसी भी भाषा में दुर्लभ होते हैं। उन्हें मैं जब पढ़ता हूं, मन कहीं बहुत गहरे स्तर पर उत्साहित होता है। हिन्दी में शायद ही कोई लेखक अपनी कलात्मकता में इतना खरा और सम्पूर्ण दिखाई देता है (52/87)।
— मैंने कई बार चेखव, टॉमस मान और टॉलस्टॉय को पढ़ा है और हर बार पढ़ते हुए एक नई अन्तर्दृष्टि मिलती है (56/87)।
— मैं इन दिनों Borges की कविताओं का एक संकलन लाया हूं… पहली बार उनकी कविताओं को एक साथ पढ़ने का अवसर मिला है… मैं उन्हें धीरे-धीरे किसी पुराने उपनिषद के श्लोकों की तरह पढ़ता हूं। उनमें वही एक प्राचीन किस्म का भाव-बोध है जो ऋषियों या बूढ़े Sages की Meloncholic Wisdom की याद दिलाता है (61/87)।
— आजकल अधिक समय घर में रहता हूं। पिछले दिनों Beware of Pity को ही पढ़ता रहा। दूसरी बार भी उसने मुझे उतना ही उद्वेलित किया जितना बरसों पहले किया था (64/87)।
— टैगोर ऐसे लेखक हैं जो बढ़ती उम्र में पसंद आते हैं जबकि शायद प्रेमचन्द और जैनेन्द्र के बारे में सत्य उल्टा है (64/87)।
— इन दिनों जब समय मिलता है मैं Isak Dinesen की कहानियां पढ़ता हूं। वह सचमुच असाधारण लेखिका थी। जिस Magical realism की बात आज हम करते हैं, मुद्दत पहले वह उनकी कहानियों में मौजूद थी… यथार्थ से परे एक ऐसी जमीं समेटती हुई जहां जीवन ही जादू बन जाता है और जादू का यथार्थ जीवन में स्पन्दित होता है(99/89)।
— आजकल मैं स्वेतायोवा, रिल्के और पास्तरनाक के एक दूसरे को लिखे पत्रों को पढ़ रहा हूं । अभी देा दिन पहले रिल्के का उपन्यास Notebook of Malte Brigge भी दुबारा पढ़कर समाप्त किया है। वह सचमुच एक अद्भुत कलाकृति है। एक उपन्यास अपने कलेवर में मृत्यु, प्रेम, अतीत और मां-पिता की स्मृतियों को कितने अपूर्व ढंग से संजो सकता है, यह उसका अप्रतिम उदाहरण है(83/89)।
— इन दिनों मैंने अमेरिकी लेखिका Flannery o’ Connor की कुछ असाधारण कहानियां पढ़ी हैं। वह दक्षिण अमरीका की रहने वाली कैथलिक लेखिका थीं… उसी प्रदेश की निवासी जो फॉकनर, कैर्सन माकुलर्स, टैनेसी विलियम्स का परिवेश था… कुछ ऐसा संयोग पढ़ने के साथ होता है कि जब हम एक लेखक के साथ होते हैं तो उसी रास्ते पर चलने वाले उनके सहयात्रियों की राहें भी दिखाई देने लगती हैं(129/92)।
— इन दिनों रिल्के के अधूरे पड़े पत्र समाप्त किए। उन्हें पढ़ना एक असाधारण अनुभव है… वाक्य एक सधे हुए तीर की तरह मर्म पर बिंध जाता है। लगता है हर वाक्य अकेलेपन की ऊष्मा में तप कर बाहर आया है। जब कभी मैं अपने को जीने के कारोबार में पस्त और त्रस्त पाता हूं तो उसकी शरण में जाकर लगता है जैसे किसी पुरानी वाटिका के छायादार पेड़ के नीचे चला आया हूं(158/95)।
(2) यात्राओं के जिक्र:
— पिछले दिनों बस्तर यात्रा की। हम आदिवासियों के गांवों में काफी अन्दरूनी इलाकों में गए। पहली बार उनके जीवन की सहज स्वच्छता, प्रकृति से गहरा लगाव और एक अकुंठित जीवन पद्वति को देखने का मौका मिला। मैं सोचता था, इतने उत्पीड़न और गरीबी के बावजूद ये लोग कितने हंसमुख, सरल और सुखी दिखाई देते हैं जबकि हम आधुनिक सभ्यता की समस्त सुविधाओं के बीच रहते हुए भी धीरे-धीरे आन्तरिक रूप से खाली और खोखले, दम्भ पाखण्ड में चिपके हुए अपनी ही सच्चाई से विलगित हो गए हैं। लॉरेंस ने आधुनिक सभ्यता की अश्लीलता और अमानवीय यांत्रिकरण की जो इतनी गहरी भर्त्सना की थी, बस्तर में घूमते हुए उसकी सच्चाई समझ में आती थी। लेकिन लॉरेंस ही क्यों, हमारे देश में क्या गांधीजी ने बरसों पहले हमें ‘आधुनिक सभ्यता’ की कृत्रिमता के प्रति चेतावनी नहीं दी थी? (27/89)।
— आज शाम ही मैं वात्स्यायन जी के साथ इलाहाबाद जा रहा हूं जहां एक व्याख्यान माला आयोजित हो रही है जिसमें मुझे भी एक पेपर पढ़ना है। पुराने मित्रों से मिलने का सुयोग मिलेगा यह सोचकर खुशी होती है–- हालांकि पेपर पढ़ने का डर इस खुशी पर छाया की तरह मंडरा रहा है (29/83)।
— इस बीच एक सप्ताह के लिए शिमला चला गया । वहां जो दिन बिताए, वे मरे लिए वरदान थे। दिल्ली के काम-धन्धों से मैं इतना उचाट हो गया था कि पहाड़ों की उज्जवल धूप, बादल, खामोशी ने मेरी थकान को एकदम धो दिया (48/86) ।
— आप कभी हैदराबाद गए हैं ? पुरानी बस्तियां कभी-कभी मुझे पुरानी इतालवी फिल्मों की याद दिलाती है—या उन ‘कस्बों‘ की जिसका जिक्र काम्यू के अपने अल्जीरिया के संस्मरणों में किया है (62/87)।
— कुछ दिनों के लिए प्राग जाने का दुर्लभ अवसर मिला। पुराना शहर, पुराने मित्र…अब प्राग काफी बदल गया है। पुरानी सड़कें, इमारतें, जाने-पहचाने स्कॉयर, काफी नए और आधुनिक जान पड़ते हैं। आर्थिक दृष्टि से काफी सम्पन्न दिखाई देता है किन्तु राजनैतिक चेतना की दृष्टि से अब भी दूसरे समाजवादी देशों के परिवर्तनों के प्रति उदासीन ओर कुंठित। मुझे वहां Ivan Klima से मिलने का भी मौका मिला (81/89)।
— मैं मुद्दत बाद बंबई गया था। मुझे वह शहर कभी रास नहीं आता। पता नहीं वहां आप कभी गए हैं? एक अजीब सी घुटन होती है – शायद मौसम के कारण, या इतने लोगों की भीड़ में एक भयानक सी घबराहट और परायापन महसूस होता है(87/89)।
— कलकत्ता से अधिक स्मरणीय और किंचित उदास स्मृति शान्तिनिकेतन की है जहां पहली बार जाने का मौका मिला। रवीन्द्रनाथ का घर… या बहुत से घर जहां वह समय-समय पर रहते थे। देखते हुए लगता रहा जैसे उनकी आत्मा अभी तक वहीं कहीं आस-पास भटक रही हो। मैंने बहुत से दिवंगत लेखकों के गृह स्थान यूरोप में देखे थे लेकिन शान्तिनिकेतन का अनुभव कुछ अनूठा था… जैसे किसी की अनुपस्थिति वहां हर पेड़, घड़ी, पत्थर पर बिछी हो। मैंने वे सब पेड़ हाथों से छुए जिन्हें गुरूदेव रवि बाबू ने खुद रोंपा था और जिनके नाम का उल्लेख कितनी बार उनके गीतों में हुआ है (181/98)।
(3) एक युवा लेखक से आत्मीय संबोधन:
— मैंने आपकी छोटी सी कहानी पढ़ी। उसमें एक उदास सा वातावरण झलकता है, किन्तु पात्रों की तस्वीर आदि उनकी निजी व्यथाएं बहुत स्पष्ट रूप से हमसे साक्षात नहीं करती, इसलिए कुछ धुंधला सा रहता है। मैं सोचता हूं, आपको किसी बड़े फलक पर अपेक्षाकृत लम्बी कहानी लिखनी चाहिए जिसमें वातावरण के साथ-साथ, कहानी का अपना जीवन उभर सके (34/1984)।
— आपके गद्य में एक अद्भुत तपस्वी सी सादगी है, बनावटी एक शब्द भी नहीं इसलिए उसका प्रभाव इतना सीधा पड़ता है। यदि मुझे कोई शिकायत है तो अन्नू और उसके पिता की मृत्यु को लेकर। पिता की मृत्यु फिर भी समझ में आती है लेकिन अन्नू की मौत सिर्फ एक शार्टकट जान पड़ती है, अन्नू के बहाने कहानी के अंत तक पहुंचने के लिए। कहानियों में हमें सरलीकृत मौतों से बचना चाहिए….दुखद घटनाओं में ‘दु:ख’ तक पहुंचना ही शार्टकट है (65/88) ।
— आपकी विशेषता है कि आप किसी बात को उतना ही तूल देते हैं जितना उसका अनुभव उसे वहन कर सकता है। इसलिए आपका कोई भी पात्र कोई कृत्रिम बात नहीं करता, न ही कोई घटना बनावटी जान पड़ती है। यह अपने में बड़ी बात है। कहानी का सत्य अपने में बड़ा न हो किन्तु कहानी कहने का सत्य हमेशा खरा और Authentic जान पड़ता है।
— मैं सोचता हूं आपको अब बहुत कुछ अपने जीवन का दूसरे पर निर्भर न रहकर स्वयं अपने आप अध्ययन और लेखन का सम्बल बनाना होगा। भोपाल के मित्र अपने कार्यों में व्यस्त रहते हैं, आपको उससे नियमित पत्र व्यवहार की आशा नहीं करनी चाहिए। सौभाग्य से आप अपनी रूचियों में काफी हद तक स्वावलम्बी हैं-– संगीत, पुस्तकों और कलाओं में आपकी दिलचस्पी बहुत हद तक आपके अनुभवों को एक नए क्षितिज की ओर ले जाती है जहां अपना अकेलापन धुंध की तरह छितर जाता है। यह अपने आप में बड़ी Blessing है (65/88)।
— जानकर खुशी हुई कि आपने इसाक सिंगर का ‘शोशा’ पढ़ा। संयोग की बात है कि तीन-चार महीने पहले मैंने भी उसे पढ़ा (23/82)।
— आप स्टीफन ज्वायग पढ़ रहे हैं, यह जानकर खुशी हुई। मुद्दत पहले मैं इनकी कहानियों का मुरीद था। अभी हाल में Penguin में उनका उपन्यास Beware of Pity पुनर्प्रकाशित किया है। उसे पढ़ना एक अद्भुत अनुभव है। आपको मिले तो जरूर पढ़िएगा(43/85)
— आप अवरोधों के बावजूद इतना पढ़-लिख लेते हें, एक समर्पित लेखक की खरी और सादी और स्वच्छ जिन्दगी बिताते हैं, अच्छी फिल्में, संगीत और कला का ज्ञान बड़े शहरों की सुविधाओं से दूर रहने के बावजूद बराबर अर्जित करते हैं, यह क्या कम गौरव की बात है(203/2001)।
— आजकल आप क्या कर रहे हैं? माँ का स्वास्थ्य कैसा है? उनके साथ आपकी अनुपस्थिति में कौन रहता है? इस उम्र में मानसिक आश्वासन बहुत जरूरी है जो केवल सगे संबंधियों से ही मिल सकता है। क्या इस बीच कोई नई कहानी लिखी?, कोई नई फिल्म देखी(विविध)?
(4) फिल्मों के जिक्र:
— जर्मन निदेशक हरजोग मुझे बहुत पसंद है। ‘बोयजोख’ देखी जो बहुत शक्तिशाली फिल्म है। पता नहीं क्यों, त्रूफो को छोड़ दें तो फ्रांसीसी फिल्में मुझे कभी ज्यादा प्रभावित नहीं करती–- कुछ उथली सी जान पड़ती हैं (31/83)।
— कल सोवियत निर्देशक तारकोवस्की की प्रसिद्ध फिल्म The Stalker देखने गया। बहुत असाधारण फिल्म है। अपने दार्शनिक, अस्तित्वगत प्रश्नों में बहुत कुछ पुराने सभी उपन्यासों की याद दिलाती है, किन्तु फ्रेमवर्क सामाजिक न होकर एक अद्भुत फंतासी पर आधारित है, शायद सोवियत सेंसर से बचने के लिए भी उन्होंने सांइस फिक्शन का रूप अपनाना बेहतर समझा हो(37/84)।
— मैंने तारकोवस्की की सभी फिल्में देखीं जो एक असाधारण ‘काव्यात्मक’ अनुभव था। Mirror के अलावा बाकी फिल्में पहले भी देख रखी थीं किन्तु उन्हें दुबारा देखकर महसूस हुआ, मानो पहली बार कुछ भी न देखा हो । Mirror एक lyrical Poem है जबकि Stalker का प्रभाव कुछ epic स्तर पर होता है जहां जीवन, मृत्यु, कला… सब सूत्र ग्रन्थित रूप में बहुत गहराई के साथ धीरे-धीरे उद्घाटित होते हैं (59/87)।
— इन दिनों मैंने वीडियो पर किसलोवस्की की दो असाधारण फिल्में White और Blue देखीं। आप तो शायद पहले ही देख चुके होंगे। मुझे Blue विशेष रूप से पसंद आई। इसका मौन और ऋजुता (austerity) अद्भुत है। इस पोलिश निदेशक की ये पहली फिल्में हैं जो मैंने देखी हैं।
(5) समकालीन आहटें:
— दिल्ली लौटकर अचानक एक के बाद एक दु:खदायी घटनाओं का सिलसिला शुरू हुआ। वे बहुत भयानक दिन थे। पहली बार महसूस हुआ कि समूह और सम्प्रदाय और घर और राजनीति की आंधी के आगे हम कितना अवश और हमारी समूची मानवीय आदर्शवादिता कितनी अर्थहीन हो जाती है (38/84)।
— इन दिनों भीड़ भरे आयोजनों में जाने से मन घबराता है। जिन विशिष्ट कवियों या व्यक्तियों से मिलने की उत्सुक्ता रहती है, उनसे अलग-अलग मिलना ही अच्छा लगता है। लेकिन यह हमारे समय और युग का अभिशाप है कि बिना संगोष्ठियों, सेमिनारों में जाए अपने प्रिय लोगों से मिलना असंभव होता जा रहा है (96/89)।
— इधर नामवर जी ने आलोचना का एक अंक मेरे लेखन पर केन्द्रित किया है। बहुत ही अजीब और विचित्र किस्म का अंक है। समझ में नहीं आता हमारी ‘प्रगतिशील’ आलोचना इतनी नीचे कैसे जा सकती है… दु:ख से ज्यादा हैरानी होती है। नामवर जी की मानसिकता की थाह पाना असंभव है(94/90)।
— आप लोगों के जाने के बाद यहां अचानक बहुत अकेलापन सा महसूस हुआ। महीने, दिन, सप्ताह गुजर जाते हैं और यहां (दिल्ली) शायद ही किसी मित्र से मुलाकात हो पाती है– बातचीत तो दूर की बात है। जब आप आते हैं तो मन पर जमी हुई सैकड़ों बातें, जिज्ञासाएं एक साथ उमड़ आती हैं। राजनीति, साहित्य, प्रेम-प्रसंग और Scandals– सब पर एक साथ धाराप्रवाह बहस चलती रहती है, जिसमें न कोई मैल, न वैमनस्य… इसीलिए आपके जाने के बाद सब कुछ इतना खाली जान पड़ता है (97/90)।
(6) लेखक के निजी पहलू:
— आजकल लिखते हुए अनेक शंकाए मन को घेरे रहती हैं, जब तक कोई सीधी पटरी नहीं मिलती, जिस पर कहानी अपनी अन्तर्निहित शक्ति द्वारा आकार ग्रहण कर पाए, तब तक लिखने का उत्साह और अनायास प्रवाह उत्पन्न नहीं हो पाता। किन्तु इनका हल हताश होने में नहीं, सिर्फ लगातार लिखते रहने में ही मिल सकता है। मैं यह ‘सत्य’ जानता हूं लेकिन हमेशा ही उसे अपने कर्म में चरितार्थ नहीं कर पाता हूं (32/83)।
— पंचमढ़ी के Holiday House में डेढ़ महीना रहा। वे सचमुच बहुत सुखद दिन थे। बारिशें, शुरू हो गयी थीं और दिन-रात हवा चलती थी। पंचमढ़ी में कुछ काम करने का भी एकान्त मिल। मेरा उपन्यास बहुत धीमी गति में चल रहा है। मैं उसके बारे में बहुत ही आशंकित और अनिश्चित अवस्था में हूँ (41/85)।
— मैं सोचता हूँ— हर व्यक्ति को गर्मियों के दौरान अपने सारे काम, कर्तव्य और जिम्मेवारीयां पूरी करने के बाद जाड़े के दिन सिर्फ सोचने, सोने और पढ़ने के लिए सुरक्षित रखने चाहिए…और प्रेम करने के लिए भी, यदि ऐसा संयोग मिल सके(91/98)!
— पिछले कई दिनों से मेरी मन:स्थिति भी काफी अस्थिर सी रही। लिखने से मन काफी उचाट रहा……जैसे कहीं ढेर सी थकान केंचुल मार कर भीतर घर कर गई है। इस मानसिक मरूस्थल के बीच कहीं कुछ उजास उमगती थी तो विट्गेनश्टाइन की जीवन कथा को पढ़ते हुए (119/92)।
— हिन्दी में अब कोई ऐसी पत्रिका भी नहीं रह गई है जहां भेजने के लिए भीतर कोई इच्छा उमगती है, जैसा वर्षों पहले होता था (120/92)।
— किसी शाम अपने एकांत और पुस्तकों के सनातन सानिध्य से ऊबकर मैं बाहर सैर के लिए निकल पाड़ता हूँ… ऐसी शामों में अकेले चलना, सिर्फ चलते रहना ही अच्छा लगता है। आखिर में किसी नुक्कड़ के पब में बियर का ठंडा गिलास ठंड में भी मन की प्यास बुझा देने में समर्थ होता है(130/93)
— आज कल आप क्या पढ़ रहे हैं ? मैंने बहुत सी सुन्दर किताबें एक साथ शुरू कर रखी हैं…ताकि न लिखने के अवसाद और शर्म से मुंह छिपाया जा सके (134/93)।
— दिल्ली के शोर, कोलाहल, प्रदूषण (हवा का ही नहीं, हर तरह का प्रदूषण) से मैं इतना कलान्त हो चुका हूं कि छोड़कर यहां (बनारस, कृष्णमूर्ति आश्रम) रहने का विकल्प और विचार कई बार मन में आता है(145/94)।
— आप दिल्ली की भगदड़, यहां की झूठी नकली और अन्तत: आत्मा को शून्य करने वाली सांस्कृतिक कार्यवाहियों से दूर हैं, यह सौभाग्य की बात है। मैं अपने को इस छूत की बीमारी से अलग रखने की कोशिश करता हूं किन्तु इससे बिल्कुल अछूता बच निकलना भी सम्भव नहीं है(152/94)।
— मेरा लिखना भी बुखार के कारण मन्द पड़ गया है। बीमारी का एक मात्र सुख ‘समय लाभ’ है, जिसमें लिखना सम्भव न भी हो सके, पढ़ने के लिए ढेर सारी मुहलत मिल जाती है— बीमारी के दिनों के लिए मैं टॉमस मान को बचाए रखता हूं। इस बार ‘टोन्यो क्रोगेर’ ने विशेष रूप से विचलित किया–- कला और जीवन के पीड़ा मुक्त अन्तर्सबंध के बारे में शायद उससे अधिक मर्मांतक रचना कोई दूसरी नहीं(189/99)।
— मेरा उपन्यास बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रहा है और ऐसे क्षण आते हैं जब ‘अडि़यल’ घोड़े की तरह अड़ जाता है, हर रोज धक्का देकर उसे चलाना पड़ता है और जिस दिन वह बिल्कुल इन्कार कर देता है तो मैं धूप में चहकती अपने घर की छत को देखने लगता हूं(190/99)।
— हर बीता हुआ साल काफी खाली सा दिखाई देता है और वे क्षण जो सुन्दर और सजीव थे, पुस्तकें जिन्हें पढ़ते हुए मन इतना उद्वेलित हुआ था, या वे शहर जहां कुछ दिन गुजारे थे, वे एक झिलमिल से आँखों के सामने से फिसल जाते हैं (215/2003)।
(7) आलोचना सा कुछ:
— अशोक(वाजपेयी) जी से मिलान कुंदेरा भी नई पुस्तक लाया था, उसके कुछ निबंध पढ़े। कुंदेरा मुझे हमेशा Brilliant लगते हैं लेकिन कहीं उसमें वाक् चातुर्य्य और दिखावटीपन भी है जो अप्रिय जान पड़ता है। उनकी कोई भी पुस्तक मुझ पर गहरा प्रभाव नहीं छोड़ती है(168/96)।
— मदन(सोनी) ने इस बीच अपना एक लेख भेजा था- गल्प का ह्रास- जो मुझे बहुत विचारपूर्ण लगा। मदन का चिंतन दिन पर दिन अधिक प्रखर और प्रौढ़ होता जा रहा है—किन्तु उनकी विश्लेषण शैली मुझे जरूरत से ज्यादा बोझिल जान पड़ती है। जटिल विचारों को सहज रूप से कह सकना – यह मुझे लेखन का अनिवार्य गुण जान पड़ता है(87/89)।
— अखबारों में कैसे हर चीज को तोड़-मरोड़कर सनसनीखेज read में बदलने की कोशिश की जाती है इसका भयंकर अनुभव हुआ। मीडिया के प्रति दिन पर दिन मेरी वितृष्णा बढ़ती जाती है।
(तीन)
उपरोक्त उद्धरण पाठकीय बानगी के लिए हैं। निर्मल जी के गद्य की बारीक बुनावट और नजर की नजाकत आधोपांत मुझ जैसे पाठक को सराबोर करती रही। यहाँ जयशंकर जी आपके पत्र शामिल नहीं हैं मगर निर्मल जी के पत्रों से आपके पठन-पाठन, नौकरी, देखी गई फिल्में ,खुद और माँ के स्वास्थ्य संबंधी बातों का किंचित आभास फिर भी हो जाता है। तमाम दिली बातें कमोबेश सांझा करते हुए भी यह लेखक निर्मल वर्मा अपने से संबंधित सामान्य जानकारी की बातों को पत्रों में किस विनम्र सहजता से गुल कर जाते हैं, यह भी गौरतलब है। 18 अप्रैल 2000 को वे जयशंकर से मई में होने वाले पुरस्कार समारोह में शामिल होने पर खुशी तो जतला रहे हैं लेकिन यह समारोह उन्हीं को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने की बाबत है, इसकी बात नहीं करते हैं। इसी तरह 4 अगस्त 2003 को पेरिस में एक ज्यूरी की बैठक में जाने की बाध्यता का जिक्र तो करते हैं मगर यह ज्यूरी-बैठक यात्रा-लेखन के नोबेल समक्ष सम्मान से सम्बद्ध है, इसकी कतई बात नहीं करते हैं। हमारे समकालीन लेखक इस मायने में इस पुस्तक से बहुत कुछ ग्रहण कर सकते हैं कि साहित्य और कला की एकांत डगर पर सृजन का परिवेश, आत्म-मुग्धताओं की बनिस्बत आत्मीय एकनिष्ठताओं में कैसे रचा और जिया जा सकता है! संपादक गगन गिल ने अपनी संक्षिप्त भूमिका में सटीक इशारा किया है कि ‘… पत्रों के इस व्यापार में कितने जीवन जिए जा रहे थे, एक दूसरे को संबल दे रहे थे, जीने के रास्ते सुझा रहे थे…’ यह आज निर्मल जी के इन पत्रों से गुजरकर समझा जा सकता है।
शुरू में मैंने रिल्के की अभूतपूर्व कृति ‘युवा कवि के नाम’ का जिक्र किया है। लेखकी के नक्शे-कदम पर चलते किसी नए-नवेले युवा कवि के लिए यह एक जरूरी किताब है जो इस रास्ते के तमाम गर्दो-गुबार की तरफ भारपूर आत्मीय तल्खी से इशारा करती है और इसी कारण जो आज एक विश्व क्लासिक के रूप में समादृत है। निर्मल जी स्वयं रिल्के और उनकी इस किताब के प्रशंसक रहे हैं। कला और सृजन की राह में दोनों ही ‘एकांत’ की भूमिका – या सैद्धांतिकी– को अपनी-अपनी तरह से जरूरी मानते हैं। रिल्के यदि कहते हैं… जब भी आपको लगे कि आपका अकेलापन बहुत बड़ा हो गया है तब आपको इसपर खुश होना होगा…आपको घंटों अपने भीतर रहने और किसी से न मिलने की स्थिति को पाने की कोशिश करनी होगी” तो निर्मल जी कहते हैं ‘… अकेलापन सहनीय है, अच्छा भी है अगर वह बराबर बना रहे और बाहर दुनिया में जाने का प्रलोभन उसके सातत्य को न तोड़ सके— क्योंकि जब हम अपने अकेलेपन को छोडकर दुनिया में लौटते हैं तो वह कुछ इस तरह घायल दीखता है जैसे हमने बाहर जाकर उससे विश्वासघात किया हो, फिर उसके साथ सुलह करने में बहुत समय खर्च करना पड़ता है’। प्रस्तुत पत्र उसी सतत आस्थावान एकांत से निःसृत हुए हैं इसलिए उन तमाम बातों, जिनका निर्मल जी उल्लेख करते हैं, के संग-साथ पाठक उनके अध्ययन की विराटता(जिससे वह अनिवार्यतः दीक्षित होता ही है) के अलावा उस पवित्र, शब्दों को समर्पित कोमल मनीषी की चिन्तन प्रक्रिया से भी वाकिफ होता जाता है जो भाषा, कला ,साहित्य और जीवन के तमाम अनछूए इलाकों को अलग गरिमा से आलोकित करने की प्रतीति से भर देता है।
अलबत्ता रिल्के के फ़्रांज काप्पुस और निर्मल के जयशंकर में बड़ा फर्क भी है। कविताई करने के संदर्भ में रिल्के से ‘अगर तुम बिना लिखे जिंदा रह सकते हो तो मत लिखो’ जैसी हिदायत पाने वाले काप्पुस ने वाकई बाकी जीवन कविता के बगैर जिया; पहले बतौर एक फौजी के और बाद में एक पत्रकार के। लेकिन कहना होगा कि जयशंकर ने निर्मल वर्मा की, इस तरह पत्रों में प्रस्तावित संगत— और भरोसे– का अपनी तरह से खूब निर्वाह किया है। उनके सृजन में व्याप्त भाव और भाषागत सूक्ष्मता, लेखकी को समर्पण और जीवन जीने की कोमलता किसी और की बनिस्बत निर्मल वर्मा की याद ही अधिक दिलाती जाती है। अपने चित्रकार भाई रामकुमार वर्मा को लिखे पत्रों की पुस्तक ’प्रिय राम’ और रमेशचंद शाह को लिखे पत्रों की पुस्तक ‘चिट्ठियों के दिन’ (सभी वाणी प्रकाशन) के साथ मिलकर यह पुस्तक निर्मल जी के अंतर्जगत को बहुत आत्मीय और अनायास ढंग से आलोकित करती है।
मुझे किताब बहुत बहुत अच्छी लगी।
ओमा शर्मा
पुस्तक का नाम: देहरी पर पत्र
(निर्मल वर्मा के जयशंकर को लिखे पत्र)
संपादक: गगन गिल
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली
मूल्य: रु 125/-(पेपरबेक)
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