रूसी लेखकों का विश्व साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। टॉलस्टॉय, दोस्तोव्स्की और चेखव जैसे सार्वकालिक दिग्गजों के अलावा पुश्किन, गोगोल, पास्तरनाक, तुर्गनेव और गोर्की जैसों के साहित्यिक अवदान को कम आदर या महत्त्व से नहीं लिया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों की इतनी उत्कृष्ट कतार शायद ही किसी अन्य मुल्क के पास हो। मैक्सिम गोर्की जो सबसे अधिक अपनी आत्मकथा-त्रयी ‘मेरा बचपन’, ‘जीवन की राहों पर’ तथा ‘मेरे विश्वविद्यालय’ और ‘मां’ उपन्यास के लिए जाने जाते हैं, इन सबसे भिन्न इसलिए थे क्योंकि साहित्य उनके लिए कोई कलात्मक कर्मक्षेत्र ही नहीं था; वे रूसी क्रांति से पूर्व तथा उसके दौरान, रूसी सर्वहारा वर्ग के संघर्षों और सरोकारों के साथ उसी तरह कंधे से कंधा मिलाकर मशक्कत कर रहे थे जैसे लेनिन या सैंकड़ों-हजारों अन्य नेता-कार्यकर्ता। उन्होंने किसी भी सर्वहारा-मजदूर से कम अभावों-तंगियों का जीवन नहीं झेला और न ही किसी अन्य क्रांतिकारी से कम अपने को जेलों की सलाखों के पीछे खपाया। उन्होंने जो लेखन किया वो दमन, अत्याचार, खून-खराबा और आतताइयों के आतंक के मध्य रहकर ही किया। स्वाभाविक था कि उनके लेखन में तत्कालीन रूसी समाज में व्याप्त मजदूरों की दुर्दशा और व्यवस्था को बदलने-पलटने के लिए किए जा रहे प्रयत्न सर्वोपरि थे। कलात्मकता की बजाय उनके लिए अहम था उन विचारों को अभिव्यक्ति देना जो सर्वहारा वर्ग की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करें, उन्हें संगठित-प्रेरित करें ताकि जारशाही की क्रूरता से भिड़ने का नैतिक साहस जुट सके। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि एक तरफ जहां उपन्यासों में टॉलस्टॉय और दोस्तोव्स्की तथा कहानी लेखन में चेखव रूसी ही नहीं विश्व साहित्य के सिरमौर माने जाते हैं, गोर्की की वहां सुनवाई नहीं होती है। अलबत्ता गोर्की के चाहने-पढ़ने वालों की संख्या इनमें से किसी से कम नहीं होगी। बस, उनका पाठक वर्ग थोड़ा अलग है।
ऐसा भी नहीं कि गोर्की का साहित्य कम कलात्मक है। सौन्दर्य के कलात्मक मापदंडों को गोर्की की अनेक कृतियां, विशेषकर कहानियां और लेखकों के व्यक्ति चित्र, मुकम्मल रूप प्रस्तुत करते हैं। लेकिन गोर्की के पत्रों को पढ़कर उस लेखक व्यक्ति और राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता से भरपूर साक्षात्कार होता है जिसका आख्यान न उसकी आत्मकथा-त्रयी (जो पूरे एक हजार पृष्ठों से अधिक में फैली हुई है) कर पाती है और न कहानी-उपन्यास। ऐसा नहीं कि उनके सरोकारों में कोई विचलन लक्ष्य होता है लेकिन यहां गोर्की के कई और अद्भुत अवतार प्रमुखता से लक्षित होते हैं। अपने अग्रजों और समकालीन लेखकों से अनेकानेक प्रेरणाएं लेता गोर्की, उनकी कृतियों को बिना किसी पूर्वाग्रह या द्वेष के आलोचित-प्रशंसित करता गोर्की, अपने देश को विश्व के सर्वोत्कृष्ट साहित्य से जोड़ने और वाकिफ कराने की जिद में बहता हुआ गोर्की, तमाम विदेशी लेखकों और संस्थाओं से जुड़ा हुआ गोर्की, बात-बात पर बच्चों जैसी किलकारियां मारता गोर्की, लेखन की अपनी जद्दोजहद को दूसरे और युवा लेखकों के समक्ष खोलता-बांटता गोर्की, जीवन से लड़कर ही जीवन की अद्भुत और स्फूर्तिपूर्ण व्याख्या करता हुआ गोर्की… पत्र साहित्य की यह संभावना हमेशा ही बहुत प्रबल होती है लेकिन गोर्की के बारे में तो यह और सशक्त रूप से कहा जा सकता है कि उसके पत्रों को पढ़कर ही उसे संपूर्णता से जाना जा सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक में गोर्की के 103 पत्रों को समाहित किया गया है जिनका प्रकाशन अंग्रेजी में मास्को से 1966 में हो गया था। अनुवाद की सुविधाओं के बावजूद इतना विलंब हैरत में डालता है तो पुस्तक का रूप देखकर किसी चिरप्रतीक्षित कार्य को पूरा होने का-सा सुकून भी मिलता है।
अपने प्रारंभ काल से ही गोर्की टॉलस्टॉय से प्रभावित थे। इक्कीस वर्ष की उम्र में जब गोर्की लेखक भी नहीं थे और साथी मजदूरों के उत्थान और बेहतरी की सोचते रहते थे तभी उन्होंने टॉलस्टॉय को पत्र लिखा ताकि उनकी हैसियत और रुतबे का कुछ लाभांश मजदूरों को मिल सके। समयांतर में जब बहैसियत एक लेखक के गोर्की टॉलस्टॉय से मिले तो खुशी से चहक उठे। किसी प्रेमी की तरह पत्र से उनकी तस्वीर मांगते हैं और चेखव से कहते हैं कि ‘यह सोचकर बेहद खुशी होती है कि आप भी एक आदमी हैं और आदमी लियो टॉलस्टॉय की ऊंचाई तक पहुंच सकता है।’ टॉलस्टॉय की मृत्यु पर वे उदास होकर अनाथ-सा होने के एहसास से भर जाते हैं, रोते हैं। इतनी प्रबल और कोमल भावनाएं रखते हुए भी वे अपनी दृष्टि का संतुलन नहीं खोते हैं। अपने वर्ग के हितों के लिए टॉलस्टॉय जैसे साहित्यिक गुरु को भी वह लताड़ते हैं, यद्यपि आप दुनिया के जीवित रचनाकारों के दरम्यान सही अर्थों में एक महान हस्ती हैं मगर इससे आपको यह अधिकार नहीं मिल जाता कि आप ऐसे लोगों के प्रति अन्यायी हो जाएं… आप उनसे असहमत हों यह आपका अधिकार है लेकिन काउंट यह नहीं कि आप उनका अपमान करें।‘’
कौन नहीं जानता कि गोर्की को पुस्तकों से अगाध प्रेम था। भुखमरी और चोरी-चपाटी के दिनों में भी वे पुस्तकें मांग-मांगकर पढ़ते थे और संदूक में सहेजकर रखते थे। लेकिन जीवन जैसे उनकी प्राथमिकताओं में उनसे भी ऊपर ठहरता था, ‘मुझे यह तो नहीं पता कि मैं अपनी रचनाओं से बेहतर हूं भी या नहीं पर मुझे यह पता है कि हर रचनाकार को अपनी रचना से बेहतर और उच्चतर होना चाहिए। आखिर रचना क्या होती है… एक महान रचना भी शब्दों की मृतप्राय काली छाया भर ही तो होती है… इसलिए एक बुरा आदमी भी एक अच्छी किताब से बेहतर होता है… इस पृथ्वी पर मनुष्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है।’
लेखक टॉलस्टॉय के प्रति असहमतियों के बाद भी वे घोर सम्मान से देखते हैं तो चेखव जैसे अपेक्षाकृत समवयस्क की प्रशंसा करते नहीं अघाते… ‘आप जिस रास्ते पर हैं उस पर कोई दूसरा इतनी दूर नहीं जा सकता… ऐसी साधारण चीजों के बारे में इतनी सहजता से नहीं लिख सकता। आपकी साधारण-सी कहानी के बाद हर चीज खुरदरी-सी लगती है… जैसे कहानी कलम से नहीं, छड़ी से लिखी गई हो।… आप हमारे महानतम और मूल्यवान लेखक हैं।’ चेखव स्वयं, टॉलस्टॉय की तरह, गोर्की के लिखे को पसंद करते थे लेकिन गोर्की अपने कार्यों की बनिश्बत लेखन को उतनी तरजीह नहीं देते हैं… ‘मुझे विश्वास नहीं है कि मैं सचमुच उत्कृष्ट शैली वाला लेखक हूं। एक बार नहीं, दो बार या दस बार कहिए फिर भी मैं नहीं मान सकता।’
गोर्की का प्रारंभिक जीवन विपदाओं और त्रासदियों का पिटारा था। बेहद मजबूत कंधों के बावजूद एक बार, अवसाद के आवेग में, उन्होंने आत्महत्या की असफल कोशिश तक कर ली थी। गोली के फेफड़ों से निकलने के कारण वे ताउम्र दमे के मरीज तो रहे ही; चेखव जैसे ‘प्यारे’ शख्स के साथ वे अपने अंतस का खुलासा करते हुए कहते हैं, ‘मैंने कुछ नहीं किया, केवल जीवन और श्रम के जंजालों में फंसा रहा, उसी को आत्मसात किया। मेरा जीवन ही मुझे घूंसे लगाता रहा, उसी से मेरे अंदर गर्मी पैदा हुई… मैं चिंतन की प्रक्रिया से अनभिज्ञ हूं मगर मुझे विश्वास है कि मेरे समक्ष जो कुछ भी आएगा मैं उससे टक्कर ले सकता हूं।’ गोर्की के सिवाय यह कौन कहेगा?
जार का आततायी व्यवस्था के खिलाफ बेखौफ होकर मजदूरों को संगठित करने और ‘आपत्तिजनक’ साहित्य के लेखन और वितरण के कारण गोर्की को कई बार, वर्षों सलाखों के पीछे रहना पड़ा लेकिन इससे न उनका उत्साह कम हुआ और न जिजीविषा पर आंच आई। किसी भी आम इंसान की तरह अलबत्ता पत्नी, बच्चों और स्वतंत्रता को पाने की छटपटाहट खूब-खूब उग्र होती रही। जेल से वे अपनी पत्नी को लिखते हैं- ‘’चिड़ियां कैसी हैं? अगर तुमने अभी तक उन्हें आजाद नहीं किया है तो अब कर दो। मैं यह अब समझता हूं कि पिंजरे में रहना कितना कष्टदायी है… अब तुम्हें दुर्भाग्य को झेलने की आदत डालनी होगी क्योंकि अभी बहुत कुछ होगा। और एक बात याद रखना कोई भी चीज हमेशा नहीं रहती है, हर चीज बदल जाती है… यहां बाधाएं भी हैं लेकिन मजा भी आ रहा है। लगता है मैंने नाव के पाल खोल दिए हैं और मैं सागरों की लंबी यात्राएं करने वाला हूं… मैं हमेशा ही उत्तेजना की स्थिति में रहता हूं और मेरे पास लगातार सोलह वर्ष तक काम करने की सामग्री है।’
सन 1910-11 तक गोर्की का ‘मां’ उपन्यास पूरी दुनिया में धूम मचा चुका था। अपनी कुछ कहानियों और नाटकों के कारण भी तब तक गोर्की प्रसिद्धि का शिखर चूम चुके थे। लेकिन इससे न उनके सरोकारों में कोई तब्दीली आई और न क्रांति के प्रति उत्साह में स्खलन। नाम की स्वाभाविक आकांक्षा में लियनिद आंद्रेव को पूरी साफ नजर से वे लिखते हैं… ‘निश्चय ही प्रसिद्धि की यह जो दुर्गंध है इसे भी आपको सूंघना पड़ेगा। चलिए सूंघिए। और सूंघ चुकें तो झट से निरस्त कर दीजिए। उसे पिछवाड़े फेंकिए। घर से बाहर निकलिए और घर का भार एक ऐसे समझदार वयक्ति को सौंपिए जो यह जानता हो कि आप एक ऐसे इंसान हैं जो लोगों के बारे में सोचता है।’
गोर्की के सरोकारों-लेखन से लेनिन बहुत प्रभावित थे तो गोर्की भी लेनिन को बहुत चाहते थे (लेनिन की मृत्यु पर गोर्की, टॉलस्टॉय की मृत्यु से भी अधिक रोए थे)। सन 1917 की अक्तूबर क्रांति के बाद जब लेनिन सोवियत संघ के सर्वेसर्वा हुए तो उन्होंने गोर्की को शिक्षा-संस्कृति और साहित्य के क्षेत्रों का मुखिया नियुक्त किया। गोर्की जानते थे कि जार की निरंकुश व्यवस्था के कारण उनका राष्ट्र कई मामलों में दूसरे यूरोपियन देशों से पिछड़ गया है। इसलिए वे यूरोप के तमाम प्रमुख लेखकों से गुहार करते हैं कि वे अपने देश का सर्वश्रेष्ठ रूसी भाषा को उपलब्ध कराएं और यह ‘आयात’ सिर्फ संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं था, जीवन को प्रभावित करने वाले दूसरे अहम् क्षेत्रों जैसे तकनीकी, विज्ञान और अर्थशास्त्र को भी समेटे चलता है। बनार्ड शा, टामस माम, स्टीफन स्वाइग, रोमा रोलां, आइन्सटीन, कीन्स तथा वेल्स जैसे दूसरे गैर-रूसी लेखकों-वैज्ञानिकों से पूरा संपर्क और सान्निध्य रखते हैं ताकि अपने देश को मानवीय उत्कृष्टता का समकालीन अंश मुहैया करा सकें। वे शायद यह भी जानते थे कि समाजवादी व्यवस्था को लेकर दूसरे यूरोपियों के अपने संशय और आग्रह हैं इसलिए वे बर्लिन से एक पत्रिका का संचालन करते हैं ताकि अपने मकसद को सरअंजाम दिया जा सके। बरबस खयाल आता है कि आजादी के समय भारत की कमोबेश वही हालत थी जो क्रांति के बाद सोवियत रूस की। लेकिन भारत के पास कोई गोर्की नहीं था।
आश्चर्य होता है कि अपने देश को विज्ञान और कलाओं का समकालीन सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध कराने वाला ‘प्रबंधक’ गोर्की अपनी साहित्यिक जड़ों और सूझबूझ को जरा भी ढीली नहीं होने देता है। स्टीफन स्वाइग की ‘अंजान औरत का खत’ पढ़कर वह लिखता है- ‘’इस कहानी ने मेरी अंतर्रात्मा को हिला दिया। कहानी में जो उल्लेखनीय निष्ठा, स्त्री जाति के प्रति अति मानवीय कोमलता, कथ्य की मौलिकता एवं वर्णन की जादुई शक्ति है, यही विशेषताएं एक सच्चे कलाकार की सच्ची पहचान हैं… आपने अपनी नायिका के प्रति जो सहानुभूति प्रदर्शित की है उसने मुझे रुला दिया.. और मैं अकेला नहीं रोया। मेरा वह जिगरी दोस्त भी मेरे साथ रोया जिसके मस्तिष्क और हृदय पर मुझे अपने आप से भी अधिक भरोसा है… आपने लेखन में जो लचीलापन, घनत्व और शक्ति है वह केवल लियो टॉलस्टॉय में मौजूद है और मैं नहीं समझता मैं अतिरंजना से काम ले रहा हूं। टॉलस्टॉय से आपकी तुलना मैं कलाकार की प्रतिभा के आधार पर कर रहा हूं।’ इसी तरह रोमा रोलां की कृतियों की भी वह दिल खोलकर तारीफ करते हैं, लेकिन जब रोमा रोलां उनकी पुस्तक की प्रशंसा में कुछ लिखते हैं तो वे कहते हैं, ‘मुझे लगता है आप मेरे प्रति बड़े उदार हैं। मेरे प्रति मित्रता का जो भाव आपके मन में है उसके कारण मेरी पुस्तक पर आपकी आलोचना हल्की पड़ गई है।’ एक बड़े लेखक के व्यक्तित्व की ऐसी ईमानदारी स्पृहणीय लगती है तो चौंकाती भी कम नहीं है।
कुल मिलाकर पुस्तक के अनुवादक नजीरुल हसन अंसाली को लाल सलाम कि ‘गोर्की के पत्र’ जैसी पुस्तक को उन्होंने हिंदी साहित्य को उपलब्ध कराया है। अपने अंग्रेजी संस्करण के अच्छे अनुवाद के अलावा यदि फुटनोट्स की पृष्ठभूमि को कुछ श्रम-शोध के बाद अंसारी साब यदि पाठकों को प्रस्तुत कर पाते तो पुस्तक का महत्त्व और अधिक और हो जाता।
बहरहाल, अपने इस रूप में भी यह पुस्तक मुक्तिबोध, गालिब, स्वाइग और गांधी के पत्रों की तरह किसी खजाने से कम नहीं है।
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