जीवनीपरक लेखन का हिन्दी में नितान्त अभाव है। हम अपने दिग्गज लेखकों के बारे में भी इतना कम जानते हैं कि किसी दूसरे भाषाई जिज्ञासू को परेशानी उठानी पड़े । लेखकों के बारे में ज्यादातर बातें अमूमन उनकी चुहुल, दोगलेपन, परतों या अलां-फलां से जायज-नाजायज संबंधों को लेकर ही होती हैं। महत्वपूर्ण रचनाओं और चरित्रों का सर्जक अपने जीवन में रहन-सहन, खान-पान, चाल-चलन और सोच-विचार के स्तर पर कैसा है, क्या करता है, कैसे रहता है… इस सबकी हमें उड़ती-उड़ती भनक ही लगती है। कथाकार सुनील सिंह की सत्येन कुमार पर लिखी पुस्तक ‘’पितु मातु सहायक स्वामी सखा’’ कम से कम एक लेखक के बारे में तो इस बड़े अभाव की पूर्ति करती है।
‘सारिका’ ‘धर्मयुग’ के कारण सत्येन कुमार, बिहार के एक गांव में रहने वाले, लेखन की हसरत पालते एक 18 वर्षीय लड़के के नायक बन गए। दोनों के बीच पत्राचार होने लगा ।
“ यह सन् 1970 था ।
हिन्दी फिल्मों में राजेश खन्ना का दौर…उसकी जो भी फिल्म आती हिट हो जाती… लेकिन हिन्दी कहानी में यह स्वदेश दीपक का दौर था । ‘सारिका’ में उनकी कहानी प्रकाशित हुई थी–‘अश्वारोही’ इस कहानी ने जैसे जादू बिखेर दिया… स्वदेश दीपक के बाद जो लेखक सर्वाधिक आकर्षित करता था—वे थे सत्येन कुमार…उन दिनों राजनीति और फिल्मों के बाद जिस विषय पर सबसे ज्यादा बातचीत होती थी वह था- साहित्य और लेखक… मुझ जैसे गांव में रहने वाले लड़के को यह खबर थी कि दिलीप कुमार ने खुद से आधी उम्र की अभिनेत्री सायरा बानो से शादी कर ली है, तो मुझे यह भी पता था कि राजेन्द्र-मन्नू द्वय का विवाह भी कम बड़ी खबर नहीं थी … उस जमाने में मेरी हालत यह थी कि धर्मवीर भारती हों या निर्मल वर्मा… ये सब इन्सानी सूरतें नहीं लगती थीं। मुझे लगता था मैंने अगर इन्हें छू लिया तो ये उड़कर हवा में विलीन हो जाऐंगी”
यह एक अंकुआते लेखकर का पवित्रता बोध तो है ही, उस पूरे माहौल का पार्श्व भी रच रहा है जिसमें समीक्ष्य आख्यान को पिरोया गया है। यह इस निश्छल माहौल की उदारता ही थी जिसने उस लड़के को अपनी ऑंखों की दुसाध्य बीमारी– डायपलोपिया– जो अब एक विकराल रूप ले चुकी थी– का इलाज कराने सत्येन कुमार के पास भोपाल भेज दिया और इसका बायस बनी स्वर्गीय कथाकार सुमति अय्यर। लेकिन ऑंखों की बीमारी के इलाज के बहाने सुनील सिंह नाम के उस लड़के ने अपने हीरो सत्येन कुमार के बेहद दिलचस्प व्यक्तित्व को गौर से जाना-परखा जिसका हासिल यह मानव-दस्तावेज है … जो एक जबरदस्त प्रतिभा की बारीकियों, अहम्मन्यताओं, सनकों, मूल्यों और जीवट को ऐसे खुशगवार अंदाज में पाठकों को परोसता है कि वह एक तिलस्मी अफसाने के सुकून से भर जाता है ।
एक युवा लेखक, एक मरीज जो सीतापुर, अलीगढ़ और मद्रास सहित देश के न जाने कितने नेत्र विशेषज्ञों को अपनी बीमारी के समक्ष नाकाम होते देख चुका है, थक-हारकर सत्येन जी के पास जाता है और आठ बरस के अन्तराल में एक महीना उनके सानिघ्य में बिताता है। नाभिकियता और सिकुड़न के दौर में यह अपने आप में दुष्प्राप्य हकीकत है मगर इसकी बरामदी काबिलेगौर है। सत्येन जी अपनी राजपूती ठसक से रहते जरूर थे लेकिन उनके पास नौकर-चाकर या सहूलियतों का अम्बार नहीं था। हां, एक बेहद खूबसूरत और दूसरों के लिए धड़कता दिल जरूर था। प्रमिलाजी के रूप में उतनी ही जहीन और रहमदार संगिनी थी जिसके कारण उन्होंने सुनील सिंह को अपनी हिफाजत में ले लिया। मुझे सत्येन जी से एक मुलाकात का संयोग मिला जब पावस व्याख्यानमाला के संदर्भ में एक दोपहरिया वे मुझे और पुष्पाल सिंह को अगुवा करके एक शानदार होटल में बीयर पिलाने ले गए । लेखकों-कलाकारों के संदर्भ में उनके नैन-नक्श या शारीरिक खूबियां मायने नहीं रखते हैं लेकिन मंजूर एहतेशाम की तरह सत्येन की सुदर्शन उपस्थिति की अन्देखी मुश्किल थी– हृष्ट-पुष्ट, गोरे-चिट्टे ओर स्फूर्ति से भरे! रही सही कसर उनकी बातों की बेबाकी कर देती। लिखावट ऐसी कि पते का लिफाफा तक संभालने का जी करे।
लेकिन ये ऊपरी बातें हैं। सुनील पाठकों को किसी कुशल मल्लाह की तरह सत्येन की बीहड़ नदी में जा उतारते हैं और उस शख्स से ऐसे मिलवाते हैं जैसे उसकी तमाम प्रतिभा का माल-ओ-असबाब सामने बिखरा पड़ा है… उपन्यासकार, नाटककार और सम्पादक तो वे थे ही, सत्येन रंगमंच के अभिनेता भी थे। भारतीय ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे। चित्रकारी करते थे(उनके चित्रों को भोपाल के होटल की दीर्घा में मैंने देखा है)। बहुत अच्छी फोटोग्राफी करते थे, पाश्चात्य संगीत के रसिक थे। लेकिन उनकी ये प्रवीणताएं उनके इंसानी स्वरूप की गहराई और ऊर्जा के समक्ष मानो बौनी पड़ जाती है। सत्येनजी का 28 वर्षीय मेहमान जब बिना सूचना दिए देर से घर लौटता है तो जिस सख्ती से वे उसकी खबर लेते हैं, ठकुरसुहाती लग सकती थी जब तक कि यह नहीं बताया जाता कि उस सख्ती के पीछे घूमने-फिरने से ऑंखों पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव के अलावा उसी शाम शहर में हुए दंगे का वत्सल-डर भी था। इसी के बरक्स सुनील जब रात को बाथरूम तक न जा पाने की अपनी लाचारी का बखान करते हैं… कि कैसे वे अंधेरे में दीवार टटोलते-टटोलते निरूपाय हो गए… उधर बिजली कड़क रही थी, बारिश हो रही थी और कैसे उनकी एक आवाज पर सत्येनजी ने पिता की तरह आकर उनका हाथ थामा… तो सत्येनजी का बहुत कुछ हाथ लग जाता है। इलाज के दिनों में दरपेश किस्से जितनी रोचकता से लिखे गए हैं, उनमें सुनील सिंह की स्मरण शक्ति के अलावा कथा और भाषा में धीरे-धीरे उतरने और रमने की दक्षता भी साफ दिखती है। सुनील फिल्मों और संगीत की दुनिया के भी मुरीद हैं तो जब-तब उनके आस-पास की बातें भी उखड़ आती हैं लेकिन गंभीर होते हुए भी उनका तेवर मजाहिया है ।
दोस्तोवस्की, कुर्ररतुल हैदर, निर्मल वर्मा और अज्ञेय तो अपने-अपने ढंग से इस पाठ का हिस्सा बनते ही हैं, मंजूर एहतेशाम की सोहबत पूरे पाठ में अलग गरिमा घोल जाती है। मंजूर साब के सलीके का जिक्र मुलाहजा हो… अगर मैं यह आस लगाए बैठा रहूं कि मंजूर भाई मुझे पानी पिलाएंगे, तो यह मेरी खाम ख्याली है। मैं भले ही प्यासा मर जाऊं, मंजूर भाई मुझे पानी नहीं पिला सकते। मंजूर भाई के ‘बुक ऑफ एटीकेट्स’ में पानी पिलाने की क्रिया का जिक्र है ही नहीं… मंजूर भाई तो पानी पेश करते हैं… जो पानी इतनी मुहब्बत से पेश किया हो, उसका इस्तेमाल इबादत के लिए भले हो जाए, पीने के काम तो हर्गिज नहीं आ सकता।
उत्तरार्ध में जब सुनील सत्येन कुमार के लेखन का उनके जीवन के साथ मिलान करते हैं, उनकी गुंथी जड़ों को पकड़ते हैं तो किताब एक खास मकाम अख्तियार कर लेती है। सत्येनजी की परवरिश ननिहाल में हुई थी। उनके पिता अधिकारी थे मगर बालक सत्येन का बचपन अभावों में बीता जिसके ब्यौरे उनके उपन्यास ‘छुट्टी का दिन’ में मौजूद हैं । सुनील के निरीक्षण देखें– सत्येन कुमार अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में वहां है जहां वे अपने मन-मिजाज खाते अनुभवों पर लिखते हैं। 1. पतनोन्मुख सामंतवाद। इस जीवन को उन्होंने बहुत करीब से देखा और जाना था। इस पृष्ठभूमि पर उन्होंने ‘जहाज’, ‘नक्षत्र’ और ‘नदी को याद नहीं’ लिखा। 2. जीवन से जूझते-टकराते संघर्षशील चरित्र हों जैसे ’शेरनी’, ‘परखा इल्लै’ और ‘छुट्टी का एक दिन’। 3. प्रेम का उदान्त पक्षप हो- ‘सजा’, ‘बर्फ और शेरनी’, ‘जहाज’ कहानी मुझे पूरे तौर पर जब समझ आयी जब मैंने ‘टायटैनिक’ फिल्म देखी । जहाज पर पूरे शहर को आबाद देखा… जहाज डूबने वाला है। जहाज के साथ कप्तान को भी डूब जाना है। कप्तान अन्तिम समय तक अपनी जिम्मेवारी पूरी करता है। लेकिन जब वह पूरे तौर पर बेबस हो जाता है तो खुद को गोली मार लेता है। यही हालत ‘जहाज’ के आसिफ मियां की है। जरीना जैसे चूहे भागने भी लगे हैं लेकिन आसिफ मियां क्या करें? वे जहाज को छोड़कर भाग भी नहीं सकते।‘’
ऐसे अंश इस पाठ को और अतिरिक्त उठान प्रदान करते हैं और तब यह संस्मरण, संस्मरण न होकर अपने अजीज लेखक के कृतित्व का प्रकारांतर से किया विनम्र मूल्यांकन बन जाता है । काश ये अंश थोड़ा और विस्तार पाते !
बतकही से भरपूर यह रचना, अलबत्ता जितनी सत्येनजी के बारे में हैं, अव्यक्त रूप से सुनील सिंह के बारे में भी है… कि कैसे वे लेखकीय तत्वों के प्रति सिजदा रहते हैं… कैसे जीवन के तत्वों में कथा संचारित रहती है…व्यक्ति चित्रण में भाषा की सम्भावानाएं कितनी आवश्यक होती है… कलाकार का होना कृतज्ञ होना भी होता है…
सुनील सिंह ने कम लिखा है लेकिन ऑंखों की लाइलाज बीमारी और निजी जीवन की परेशानियों के बीचोंबीच तीन कथा संग्रहों में फैली उनकी कहानियां उनकी कथा यात्रा का पक्का सबूत हैं। वे हिन्दी के बोर्खेज चाहे न हों लेकिन साहित्य और कलाओं के प्रति मासूम चाहतों और जिज्ञासाओं से भरे रहते हैं । खुद को प्रछन्न रखकर, प्रमिला वर्मा, मंजूर एहतेशाम और सुमति अय्यर को हाजिर नाजिर मानकर, सत्येन कुमार के बहाने सुनील सिंह ने जैसे अपने समय की सरगम को बाखूब दर्ज किया है ।
‘पितु मातु सहायक स्वामी सखा’, बार-बार पढ़े जाने लायक विरल पुस्तक है।
समीक्ष्य पुस्तक
सत्येन कुमार: ‘पितु मातु सहायक स्वामी सखा’
प्रकाशक: यश पब्लिकेशंस, दिल्ली
पृष्ठ : 100
मूल्य : 250/-
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