दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका, हिटलर के कहर और नाजियों के नरसंहार, उपनिवेशवाद का संघर्षपूर्ण अंत और नव-साम्राज्यवाद का उभार, बोल्शेविक-क्रांति के बाद सोवियत संघ का एक महाशक्ति के रूप में उदय –और अरसे बाद पतन, इंसानी मंसूबों को नभ-जल-थल की अभिनव दुनिया में फहराते तकनीकी-वैज्ञानिकी आविष्कार तथा गरीबी, कुपोषण, महामारियों और विभिन्न विचारों-विचारधाराओं से दो-चार होती हुई बीसवीं सदी इतिहास के जिस निर्णायक दौर से गुजरी है वह मानवीय और मनोवैज्ञानिक स्तर पर इसके साहित्य में प्रकाशित हुआ है! नोबेल पुरस्कार से सम्मानिक लेखकों की रचनात्मकता में झांकना उस वैकल्पिक इतिहास, जीवन-दर्शन और समाज की वास्तविकताओं, विरूपताओं और खुरदरेपन से रूबरू होना है जो अपने स्वरूप, संवेदना और अस्तित्व के लिए किसी उस्ताद महारथी की कला और कलम की गुहार करती है। बेशक, उत्कृष्ट साहित्य का फलक किसी पुरस्कार—चाहे वह सर्वप्रतिष्ठित नोबेल ही क्यों न हो—से निर्धारित-सीमित नहीं होता है…. आखिर इसी सदी में दस्तक देते प्रेमचंद, जॉयस, स्वाइग, टॉलस्टॉय और चेखव जैसे दिग्गज को यह नहीं मिला। मगर यह एक जाहिर सत्य है कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार दुनिया के विशिष्टतम लेखकों को दिया जाता रहा है। ऐसे लेखकों को जिनका साहित्यिक अवदान निर्विवाद है; जिनकी साहित्यिक कला अप्रतिम रही है; मानवीय चेतना, आस्था, प्रेम, बर्बरता, त्रासदी, निरीहता, एकाकीपन, विस्थापन और हादसों जैसी अनेक स्थितियों और जीवन-मूल्यों को जिन्होंने इतनी गहराई से अपनी अभिव्यक्त कला का वाहक बनाया है कि उनकी रचनात्मकता देश-काल की चहारदीवारों के परे जाकर भी प्रासंगिकता बनाए रखती है।
नोबेल पुरस्कार से नवाजे ऐसे 15 लेखकों की रचनात्मकता और रागात्मकता को श्रीमती विजय शर्मा ने इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है जिसके आधार में इन लेखकों के वे व्याख्यान हैं जो नोबेल अलंकरण के समय इन विभूतियों ने दिए। नोबेल सम्मान की तरह साहित्य का नोबेल व्याख्यान विश्व-साहित्य की अहम घटना माना जाता है क्योंकि इसके जरिए लेखक अपने समय, समाज, कला-साहित्य, आदर्शों-मूल्यों, रचना-प्रक्रिया और साहित्य संबंधी तमाम व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक मसलों-मंतव्यों पर विश्व समाज के साथ अपनी राय बांटता है। कहना न होगा कि सम्मानित लेखक की रचनाओं को जांचने परखने और जीवन के बरक्स उसकी भूमिका को समझने के लिए ये व्याख्यान महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रदान करते हैं।
चयनित लेखकों में एक तरफ नाटककार हैरोल्ड पिंटर और कवि पाब्लो नेरूदा हैं जो अपने-अपने ढंग से सामाजिक राजनीति में लेखकीय दखल के पैरोकार हैं तो दूसरी तरफ आइजैक सिंगर, वी एस नायपॉल, लाओ जिंग जियान, टोनी मॉरीसन और नजीब महफूज जैसे उपन्यासकार हैं जो लेखकीय-कला और उसमें प्रछन्न स्वतंत्रता को किसी भी राजनैतिक वाद या विचार के चश्मे से देखे-दिखाए जाने पर एतराज करते हैं। वैसे तो हर चयनित लेखक का भाषण अपनी तरह से दृष्टिपरक है मगर साहित्य के समकालीन एवं शाश्वत मुद्दों पर चीनी लेखक लाओ जिंग जियान का बयान सबसे धारदार लगता है। मसलनः ‘साहित्य की सुरक्षा और अस्तित्व के लिए आवश्यक है कि इसे राजनीति का हथियार न बनने दिया जाए…. लेखकों के राजनैतिक झुकावों ने साहित्य का बहुत नुकसान किया है’। ‘साहित्य इसलिए आवश्यक है कि यह एक व्यक्ति की मानवीय चेतना को बनाए रखता है’। ‘अपनी पराकाष्ठा में लेखन अपनी वजह स्वयं होता है’। ‘साहित्य यथार्थ की सीधी-सीधी प्रतिकृति नहीं होता है’। ‘साहित्य में उन आवाजों को भी जगह मिलती है जिन्हें इतिहास कूड़ेदान में फेंक देता है’। ‘साहित्य मात्र भाषा नहीं है… भाषा मात्र तात्पर्य नहीं है’।
नोबेल सम्मान के बावजूद जिंग जियान जैसा लेखक हिंदी में अज्ञात न सही पर अल्पज्ञात तो है ही। इसी तर्ज पर हंगेरियाई लेखक इमरे कर्टीज का नाम लिया जा सकता है जिनकी रचनात्मकता का पूरा स्रोत होलोकास्ट का वह नाजी-दौर है जिसके ऑस्कि्वट्ज यातना-शिविर में रोंगटे खड़े करने वाली बर्बरताओं के वे भुक्तभोगी रहे थे। जिंग जियान चीन में कम्युनिस्टों से वैचारिक असहमति के कारण दुरदुराए जा रहे थे तो कर्टीज यहूदी होने की सजा भोग रहे थे। मगर दोनों लेखकों की रचनात्मकता जान पर बन आए कटुतम अनुभवों से भी दुराग्रहित नहीं होती है। इन निजी अनुभवों के विशाल कूड़े को मानव स्वभाव की सहज एवं संभावित प्रकृति मानते हुए वे उन्हें साहित्य-कला के विरल दस्तावेजों—‘फेटलैस’ और ‘सोल-माउंटेन’ में तब्दील कर देते हैं। संत्रास और अंधकार ने जनी स्थितियों के बीच सकारात्मक, आस्थागत रुख यहां चयनित हर लेखक के यहां झलकता है।
लेखकों के नोबेल व्याख्यानों के आधार पर उनकी रचनात्मकता, वैचारिकता और कलागत विशेषताओं का कैनवास खींचते समय विजय शर्मा एक उत्साही गाइड की भूमिका में चली जाती हैं। इसमें निवेशित श्रम और शोध से, एक विद्यार्थी की तरह वे उन संदर्भों को ही संबोधित नहीं करती हैं जो हिंदी के आम पाठक के लिए अनजान हो सकते हैं बल्कि लेखक की रचनाओं और जीवनीपरक घटनाओं के सहारे उस लेखक के निहितार्थों को भी अवस्थित करती जाती हैं। मसलन, नायपॉल की भाषणों से कतराने की प्रवृति के संदर्भ में प्राउस्ट की उस स्थापना का संदर्भ दिया है जिसमें लेखक को दोहरे व्यक्तित्व का मालिक होने की बात कही थी। इसी तरह चेश्लाव मिलोश के यहां गिओर्डोनो ब्रूनो (वैचारिक एकाकीपन का संदर्भ), सिंगर के यहां ओस्वॉल्ड स्प्रेंगलर (संस्कृतियों के जीवन-चक्र का संदर्भ), टोनी मॉरीसन के यहाँ नैट टर्नर (काले गुलामों के विद्रोह का संदर्भ) का खुलासा होने से मंतव्य संप्रेषण में बेहतरी आई है।
लेखकों का प्रारंभिक जीवन कैसा था, आर्थिक-पारिवारिक स्थितियां क्या थीं, लेखन की शुरुआत कैसे हुई, किन घटनाओं और किताबों ने प्रभावित किया, प्रेरणास्रोत क्या रहे, रचना-प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं की स्वाभावगत विशेषताएं (जैसे जियान का स्याही से चित्रकारी करना, गुंटर ग्रास का एक कान में ऊंगली दबाकर पढ़ना, सिंगर का कबूतरों को दाना चुगाना), प्रकाशन की दिक्कतें, शोहरत के मायने, भाषा की अहमियत, बाजार और उपभोक्तावाद के वर्चस्व तले साहित्य की भूमिका और सीमाओं सहित दूसरे महत्त्वूर्ण मुद्दों पर इन चयनित लेखकों का गौरतलब विमर्श समेत लेखकी के आदि सवालों को विजय शर्मा ने यथासंभव निष्ठा और श्रम से इस पुस्तक में उतारा है।
ऐसे समय में जब व्यवस्थाएं भूमंडलीकृत हो रही हैं और उसी के समकक्ष व्यावहारिक संकीर्णताओं की दुनिया फल-फूल रही है, नोबेल से सम्मानित लेखकों के कृतित्व और व्यक्तित्व की पर्याप्त झांकी पेश करती अपनी तरह की यह विशिष्ट पुस्तक, उम्मीद है लेखकों को नए सिरे से उर्जस्वित और पाठकों को उम्मीद से संचरित करेगी।
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