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रमाकांत स्मृति पुरस्कार

Aug 09, 2013 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

मैं रमाकांत स्मृति पुरस्कार की संयोजन समिति और इस वर्ष के निर्णायक श्री दिनेश खन्ना का अभारी हूं जिन्होंने इस वर्ष के इस कहानी पुरस्कार के लिए मेरी कहानी ‘दुश्मन मेमना’ को चुना। हिन्दी कहानी के लिए दिये जाने वाले इस इकलौते और विशिष्ठ पुरस्कार की पिछले बरसों में जो प्रतिष्ठा बनी है, उस कड़ी में स्वयं को शामिल होते देख मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। कोई भी पुरस्कार किसी रचना का निहित नहीं होता है लेकिन उस रचना विशेष को रेखांकित करने में उसकी महत्तवपूर्ण भूमिका होती है जिसे पिछ्ले दिनों व्यक्तिगत तौर पर मैंने महसूस किया है। मेरे प्रिय लेखक निर्मल वर्मा की कही एक बात याद आ रही है। ‘‘जब किसी लेखक को कोई सम्मान मिलता है तो उसे चाहे थोड़ी देर के लिए सही, लगता है कि अब वह दुनिया की आँखों में सम्माननीय हो गया है। उसे लगता है कि उसे अपने ऐसे धन्धे के लिए वैद्यता प्राप्त हो गयी है जो प्लेटो के जमाने से संदिग्ध और बदनाम माना जाता है।’’ ‘संदिग्ध’ आज के सन्दर्भ में एक बीज शब्द हो चला है… जब बड़े पुरस्कार तक संदिग्ध हो रहे हैं, रमाकांत स्मृति पुरस्कार की प्रतिष्ठा संदिग्धता के परे लगती है। पुरस्कार समिति के संयोजक भाई महेश दर्पण ने पुरस्कार की परम्परा के तहत मेरी रचना प्रक्रिया विशेषकर चयनित कहानी की रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालने की अपेक्षा जताई थी जिसके लिए मैं आपसे मुखातिब हूं।

लेकिन यही से मेरा डर और असमंजश शुरू होता है। रचना प्रक्रिया और उससे जुड़े बिन्दुओं पर कुछ कहने बोलने की काबिलियत और अपेक्षा उस्ताद लेखकों का दायरा है। उन्हें पढ़ना मेरा प्रिय शगल भी है कि जान सकूँ कि वे लोग जिन्होंने अपने कृतित्व से देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण किया, वंचना और प्रवंचनाओं की कन्दराओं के बीच जिन्होंने इन्सानी जिजीविषा की महागाथाएं रचीं, उन्होंने किस आँच से अपने जीवन को तपाया, किन प्रेरणाओं- आदतों, अड़चनों, उलझनों, चुनौतियों और सनकों के बीच वह सब मुमकिन कर दिखाया जिसके समक्ष मानव जाति आज भी कृतज्ञ और प्रफुल्लित महसूस करती है और करती रहेगी। वह व्यक्ति जो साहित्य को एक विद्यार्थी की जिज्ञासा की तरह महसूस भर करता है, उसकी रचना प्रक्रिया क्या होगी और होगी भी किस काम की? यह बात मैं किसी विनम्रतावश नहीं बहुत ईमानदारी से कह रहा हूं क्योंकि विन्रम होने लायक सलाहियत भी अभी मैंने हासिल नहीं की है। मेरी बातों को आप इस अवसर की परम्परा के निर्वहन के लिए की जाने वाली प्रस्तुति के रूप में ही लें। अंग्रेजी में किसी ने कहा भी है : ट्रस्ट द टेल, डॉन्ट ट्रस्ट द टैलर। इसे आप मेरी गुस्ताखी समझकर माफ कर सकें तो मैं अपने जीवन की संक्षिप्त झांकी पेश कर सकता हूं जिसमें जनी सोच शायद परोक्ष रूप से कुछ बयान कर सके।

मेरा जीवन सामान्य से ज्यादा संघर्षपूर्ण चाहे न रहा हो मगर वैविध्यपूर्ण तो रहा ही है। मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक साधारण किसान परिवार में पैदा और बड़ा हुआ…भैस चराता, कुट्टी(चारा) काटता, हल जोतता, निराई करता, दाँय हाँकता…गाँव के कष्टप्रद, आत्मलीन जीवन में दूसरे तमामों की तरह घिसटता-रमता। पढ़ने-लिखने में कभी प्रतिभाशाली जैसा था नहीं सो सपने भी खास नहीं थे। पिताजी यहीं दिल्ली में नौकरी करते थे। सन 1977 में जब कांग्रेस की जगह जनता पार्टी की केन्द्र में सरकार बनी, उस समय एक दूरदर्शी फैसले के तहत पिताजी ने परिवार को दिल्ली बुला लिया जो मेरे तथा परिवार के भविष्य निर्माण में एक निर्णायक कदम था। ऊब, उमस और त्रस्तपूर्ण ग्रामीण जीवन से निकलकर पूर्वी दिल्ली के एक मौहल्ले में आकर रहना बहुत चिंतामुक्त और आरामदायक लगता था। न किसी खेत-क्यार के सिंचाई की आफत, न किसी पौहे-जैंगरे(जानवर) की रख-रखाई का भार। स्कूल जाओ, पढ़ो, खेलो-कूदो और मौज करो। घर में सबसे छोटा होने के कारण तमाम तरह की आर्थिक-समाजिक जिम्मेवारियों से मुक्त रहने का मुझे अतिरिक्त लाभ और था। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था। गणित तथा भौतिकशास्त्र में अधिक रूचि थी लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी अच्छे कॉलेज में आनर्स कोर्स में दाखिला न मिल पाने के कारण अर्थशास्त्र की तरफ मुड़ गया। लक्ष्य था एक यथासंभव अच्छी सरकारी नौकरी जो एक मध्यवर्गीय परिवार को जाहिर असुरक्षाओं से मुक्त कर दे और जो मुझे छकाने की कगार पर ले जाने को थी। लेकिन लगता है मेरे सौभाग्य को असफलताओं के माध्यम से मेरे पास चलकर आना था (और जो बाद में भी  आता रहा है)…मसलन, इंजीनियरिंग के डिप्लोमा कोर्स में मुझे दाखिला नहीं मिला मगर आई आई टी के पढ़े न जाने कितने इंजीनियर बाद में केन्द्रीय सेवा में मेरे सहकर्मी बने। दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में अर्थशास्त्र के अध्ययन ने मुझे मेहनत करने और चीजों को समग्रता में जांचने-परखने का प्रशिक्षण दिया, तन्त्र में आर्थिक शक्तियों की केन्द्रियता समझने का संस्कार दिया, एक से एक विश्वविख्यात और मेधावी शिक्षकों की सोहबत दी और सबसे अहम बात यह कि उसने मुझे स्वतन्त्र होकर सोचने और झुककर चलने का गुरूकुल नवाजा। उसके बाद मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलिज में पढ़ाने तथा अर्थ सम्बंधी छुटपुट लेख लिखने लगा। एकेडेमिक्स का रास्ता जब सरपट होने लगा तभी केन्द्रीय सिविल सेवा में मेरा चयन हो गया। इसी के साथ एक से एक अधुनातन आर्थिक सिद्धान्त और उनकी बारीकियों में पनपती मेरी रूची का पटाक्षेप हो गया। पहले विज्ञान की दुनिया छूटी और अब अर्थशास्त्र भी छूट गया। एक से एक प्रेरणास्पद अध्यापक और एकेडिमिक्स के मुक्त गगन को छोड़ मैं अपनी मध्यमवर्गी मानसिकता के बोझ तले सामाजिक (?) रूप से प्रतिष्ठित एक केन्द्रीय सेवा में अपने करियर की गिनतियां गिनने लगा। भुरभुरी जमीन पर खड़े एक मध्यवर्गीय युवक के पास जब ज्यादा सोचने-करने को कुछ नहीं होता है तो आस-पास के मामूली हासिलों में वह अपना वजूद ही नहीं, अहम-तृप्ति के मार्ग  और मुगालते भी तलाशने लगता है। मेरी क्या बिसात थी जब सर्वोच्च और ख्यात संस्थानों से निकले यकीनन मेधावी युवकों की दौड़ सत्ता का पर्याय बनी ऐसी ही नौकरियों में भस्म होने लगती है।  आगे अब न पढ़ने-लिखने की जरूरत है और न किशोरावस्था में समाज के लिए कुछ करने के जज्बे को अन्जाम देने के लिए कुछ मशक्कत उठाने की। परिवार और नौकरी को लेकर भविष्य की योजनाएं, पत्नी और बच्चों के साथ घूमने-फिरने का गृहस्थ सुख, यार-दोस्तों के बीच जब तब गपशप-गिटपिट करते हुए अपेक्षाकृत बौद्धिकता के कुल्ले करना, जरूरी निवेशों की लहलहाती फसलों में बाबा भारती सी तसल्ली तथा एक इज्जतमंद सेवानिवृत्ति के स्वर्णकाल की तरफ डकार मारते बढ़ना (इसमें कोई हिकारत भाव नहीं है)…। मैं यदि इस सबकी गिरफ्त से लगभग बच गया तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। दोष है मेरे बड़े भाई साहब (जो प्रेमचंद के ‘बड़े भाईसाहब’ नहीं हैं) प्रेमपाल शर्मा का जिनकी उपस्थिति अनजाने ही कई स्तरों पर मुझे प्रेरित और उर्जस्वित करती रही है। जीवन को इतनी ईमानदारी, मेहनत, सादगी और मितव्यता के साथ जीने-बरतने की जो मिसाल और मशाल प्रेमपालजी के रूप में मुझे घर पर मुहैया थी  निजी होने के कारण उसका जिक्र यहां मैं हरगिज न करता यदि उसका एक सिरा मेरी रचना प्रक्रिया की शुरूआत से नहीं जुड़ा होता। अपने जीवन से सम्बंधित जिन स्थितियों की तरफ मैंने इशारा किया है, कोई आसानी से समझ सकता है कि उसमें मेरे जैसे सामान्य से व्यक्ति के लेखक बनने की न कोई सम्भावना थी और न आकांक्षा। जब मैं विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था तब वे एक कहानीकार बनने की प्रक्रिया में रहे होंगे। मेरी तरह–अलबत्ता चार पाँच साल पहले– वे भी गांव से निजात पाकर दिल्ली आए थे। बड़ा होने के कारण उनके संघर्ष और दायित्व मुझसे कहीं ज्यादा रहे होंगे। साहित्य और नौकरी के पायदानों पर वे बिना किसी मदद के चढ़ रहे थे। लेकिन उनका संघर्ष सिर्फ उनका था।दिन भर नौकरी करने के बाद घर आकर वे मेरी प्रोग्रेस रिपोर्ट लेते, जहां तहां डांटते-उकसाते और बाद उसके मरियल रोशनी में किसी संत की एकाग्रता से घंटों यूं ही बैठे पढ़ते रहते। मुझे तो तब पढ़ने का भी शौक नहीं था मगर हैरान होता था कि वे  इतने नियम संयम से पढ़ने की ऊर्जा कहां से बटोर लेते हैं। हमारी पारिवारिक स्थितियों से जो मित्र वाकिफ रहे हैं वे इस बात से सहमत होंगे कि प्रेमपालजी की भूमिका किसी अलक्षित पायनियर से कम नहीं रही है। नौकरी, साहित्य और दिल्ली के झाड़-झंखाड़ में वे एक रास्ता बना रहे थे जो यहाँ उपस्थित आपमें से कई महानुभावों ने भी बनाया हो। मेरे कॉलिज से निकलते निकलते यह रास्ता पर्याप्त चलने लायक हो गया था। वे घर में एक-दो साहित्यिक पत्रिकाएं तथा दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से उधार ली गयीं किताबें मंगाते-लाते रहते थे जिन्हें पढ़ने-पलटने की मुझे परोक्ष मनाही थी क्योंकि मेरे समक्ष मेरा करियर मुंह बाए खड़ा था। मुझसे वही नहीं संभलने में आ रहा था तो बाकी किसी चीज की गुंजाइश ही नहीं बचती थी। अलबत्ता उन पत्रिकाओं और पुस्तकों को कभी-कभार उलटने-पलटने का मौका मुझे मिल जाता था जो इकॉनोमैट्रिक्स के पीले-नीले(ब्लू) समीकरणों से घिर आई ऊब से ताल्कालिक निजात पाने से ज्यादा कुछ नहीं होता था। उस दौरान चाय पिलाने वाले लड़के की हैसियत से जब प्रेमपालजी के कुछ लेखक मित्रों –विशेषकर पंकज बिष्ट – की संगत का मौका मिलता तो दिल में हुमक सी उठती कि ये लोग एक प्याली चाय पर कितने जोश-ओ-खरोश से बतियाते हैं। क्या हैं इनके न खत्म होने वाले झगड़े या सरोकार? अर्थशास्त्र की उन्नत सैद्धांतिकी के बरक्स ज्यादा समझ न आते हुए भी वह सब मुझे प्रासंगिक न सही मगर दिलचस्प तो जरूर लगता था। केन्द्र सरकार की नौकरी में आने पर जब मेरे करियर की समस्या सुलट गयी तो चलते-फिरते या खुरचन की तरह आ मिले साहित्य के मेरे शौक को थोड़ी हवा और पूरी वैधता मिल गयी जिसे परिवार पत्तेबाजी, दोस्तखोरी या क्लबिंग जैसे विकल्पों के बरक्स पर्याप्त निरापद ही नहीं सम्मानीय भी मानता था। सभी तरह की रचनाएं पढ़ते-पढ़ते मैंने कैसे कहानी लिखना शुरू किया इसे बताने का अभी अवकाश नहीं है। निरंतर पढ़ना क्रिकेट टीम के बारहवें खिलाड़ी की हैसियत जीना है। लिखना मानो उसके टीम में अगले पड़ाव सा सहज हालाँकि कितनी प्रतिभाएं सिर्फ बारहवें खिलाड़ी की कैफियत पाकर तिरोहित हो जाती हैं।

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नोबोकोव ने लेखन को विशुद्ध प्रतिभा की बदौलत कहा है। गोगोल की ‘तस्वीर’, स्टीफन स्वाइग की ‘अदृश्य संग्रह’और ‘शतरंज’, प्रेमचन्द की ‘कफन’, रेणु की ‘मारे गए गुलफाम’, दूधनाथ सिंह की ‘धर्मक्षेत्रे-कुरूक्षेत्रे’, प्रभु जोशी की ‘पित्रऋण’, संजीव की ‘अपराध’, रेमण्ड कार्वर की ‘बुखार’ तथा आइजैक सिंगर की ‘पांडुलिपि’ जैसी कहानियों को पढ़कर नोबोकोव की बात सच लगती है लेकिन गल्प-कला किसी एक सत्य का उदघाटन करती दिखती है तो यही कि जीवन में कोई एक या अन्तिम सत्य जैसा कुछ नहीं होता है। सत्य के केवल संस्करण होते हैं। उसके अस्तित्व और आकार-प्रकार के बारे में घपले जैसे हालात चाहे न हों मगर उसकी लोकेशन और आभ्यंतरिकता पर्यवेक्षक और समय सापेक्ष होती है। नोबोकोव बहुत प्रतिभाशाली थे लेकिन मुझे गेटे की यह बात प्रेरणास्पद ढंग से रूचि कि मेहनत और निष्ठा के अभाव में प्रतिभा अक्सर बेकार हो जाती है। भाषा और साहित्य की समझ को अनपेक्षित ढंग से संवारती स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा ‘वो गुजरा जमाना’ का अनुवाद करने के सुनहरी दिनों में मुझे गेटे की उक्तियों के विपुल खजाने से हमेशा गांठ बांधकर रखने वाला ऐसा मोती मिल गया जो लेखन के जरिए अपने भीतर के सत्य की पड़ताल करने में किसी रहमदिल मित्र की तरह मेरा साथ देता है। उन्होंने कहा है कि साहित्य में सत्यनिष्ठा से अभिप्राय लेखक के दिल की सदाकत मात्र नहीं हैं; असल बात है कि लिखते समय वह अपनी निजी भावनाओं से बिना डरे या उम्मीद रखे दो-चार होता है या नहीं…क्योंकि यदि वह उनसे डरेगा तो उन्हें छोटा कर देगा और उम्मीद रखेगा तो उन्हें महिमामंडित कर देगा। चैक लेखक कारेल चापेक के एक उपन्यास (एन ऑर्डिनरी लाइफ) का केन्द्रिय विषय यही है कि हमारा जीवन उन बेशुमार नामालूम घटनाओं के निचोड़ या गठजोड़ से मिलकर बना होता है जो हमारे साथ जाने-अनजाने होती रहती हैं…मैं किसी और घर में जन्मा होता, कहीं और पढ़ा होता, जीविका के लिए कुछ और कर रहा होता, किसी और से मेरा विवाह हो गया होता…तब क्या मैं वही होता (यहां सवाल अच्छे-बुरे का नहीं है) जो मैं हूं! पहले विज्ञान और बाद में अर्थशास्त्र के प्रेम के सताए विद्यार्थी को मानवीय बुनावट की तह तक ले जाने वाले ऐसे सीधे-सरल और उद्भट रहस्योदघाटनों ने बरबस अपनी गोद में भींच लिया। बियावान घने जंगल में टिटहरी का दूर से आता छिटपुट नाद मानों किसी मकाम का गुमां दे रहा था। अड़चन थी तो बस यही कि आसपास निबिड़ अंधेरा था…नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही ! बहुत दिनों तक एक कष्टमय कशमकश जीते हुए मैंने अपनी पहली कहानी-‘शुभारम्भ’ पर आजमाइश की जो दरम्यान के इन अठारह बरसों में अपनी बुनियादी प्रक्रिया में अधिक जटिल और चुनौतिपूर्ण हो गयी है।

‘‘मैं कैसे लिखता हूं?’’ मेरे सन्दर्भ में इस नाबालिग प्रश्न का उत्तर किसी ने पहले ही दे दिया है: बहुत आसान है लिखना। करना ये है कि मेज पर बैठकर खाली कागज को निहारने लगो…जब तक कि पेशानी से खून न चुहचुहाने लगे। मेरे मामले में यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, सौ प्रतिशत सच है। कंप्यूटर-लैपटॉप और सॉफ्टवेअर्स के जमाने में मैं हर चीज कागज-कलम से ही लिखता हूं। जानता हूं कि तकनीकी के साथ कदम मिलाकर चलने से बारहा तड़कने की कगार पर पहुंची मेरी उंगलियों को जरूरी दीर्घकालीन राहत मिल सकती है, लेकिन एक लती पत्ताखोर की तरह इस नेक ख्याल को मैं ‘अगली बार’ की परछत्ती में खौंस अपनी पूर्ववत मुद्रा में आ जाता हूं। उलटे, यह भी मानता हूं कि लिखे जा रहे के साथ इससे बेहतर और जैविक ताल्लुक बनता है। पाब्लो नेरूदा इस बाबत मेरी तरफदारी में खड़े होते हैं। वैसे लिखा हुआ अहम है न कि यह कि वह कैसे लिखा गया है। कोई कहानी कैसे बनती है? इस शाश्वत और निष्ठुर प्रश्न पर कितने उस्तादों के तजुर्बे दर्ज होंगे लेकिन शायद ही कोई मेरे काम आया है। कहानी मुझे लेखन कला की सबसे सघन और कलात्मक विधा लगती है। उसके कच्चे माल के लिए दर-दर भटकने या उसकी शान में (अपने मुताबिक) रत्ती भर भी कुछ जोड़ने-संवारने के लिए मेहनत-मशक्कत करने अथवा जो कुछ निवेशित किया जा सकता है वह सब करने में सुकून लगता है। मसलन, अपना एंगल तय हो जाने के बाद ‘भविष्यदृष्टा’ को लिखने में ढाई-तीन साल लग गए क्योंकि ज्योतिषशास्त्र के व्याकरण की बारीकियों से वाकिफ हुए बगैर मैं उस पर हाथ नहीं रख सकता था। ‘घोड़े’ को तो लिखने से पहले ही मैं गधा बन गया था। मेहनत मशक्कत से बनाई कहानी की इस पूर्व पीठिका के बाद वह काम शुरू होता है जिसे दरअसल बहुत पहले शुरू कर देना चाहिए था–यानी कहानी को शब्दों में ढालने का काम। इस बिन्दु पर मेरे व्यक्तित्व की निजता के ऐसे-ऐसे तर्कातीत पहलू उजागर होते हैं जिनका होना मुझे बेबस ढंग से हलकान किये रहता है। फॉकनर की ‘लाइट इन ऑगस्त’ पढ़ लूँ तो कैसा रहे? अपनी आत्मकथा में मार्खेज ने इस किताब की बहुत तारीफ की है। पॉल क्रूगमैन की मन्दी पर आयी किताब का नम्बर क्या अगली मन्दी में लगेगा? ये कुछ दिन तो दफ्तरी दवाब में जाएंगे,इस समय कहानी शुरू की तो कोई फायदा नहीं क्योंकि थकी-माँदी हालत में मुझसे कभी ढंग का नहीं लिखा जाता है। इस सप्ताह बच्चों को फिल्म दिखा लाता हूँ, फिर…। अरे, उस मित्र का फोन आया था, दफ्तर में कुछ बात ही नहीं हो पायी…फोन के बाद आराम से लिखूंगा। सुबह टहलकर आते ही बैठ जाऊंगा। पेपर तो पढ़ लूं, महानगर के अखबार कहानी का  नित रोज मसाला परोसते हैं।लाइब्रेरी चला जाता हूँ…कितना और अटूट सिलसिला है उस दिली चाहत से मुंह छिपाने का जबकि पता है कि खुमारी और बेचैनी से सने ऐसे दिन कितने मोहक, मूल्यवान और विरल होते हैं। मन जरा कड़क हो जाए तो कितना कुछ दुरूस्त हो सकता है। आज तक नहीं हुआ तो आगे भी क्यों होगा। ऐसे होते हैं लेखक…जिनके लेखन की आज तक कोई चर्या नहीं बनी। ऊपर से तुर्रा ये कि चौबीसौ घन्टे लेखक की मानसिकता जीता हूं। किसे बनाने चले हो मियाँ?

बरसों से टूटे-फूटे ऐसे खिड़ंजे पर सौ-डेढ़ सौ किलोमीटर खचड़ा साईकिल चलाने के बाद एक पक्की सड़क मिलती है जिस पर पहुंचकर अभी तक की सारी फिजूलियत का गिला काफूर हो जाता है। लेखकी का सबसे दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण पक्ष है तो यही कि ‘दूसरी दुनियाओं’ की ऊभ-चूभ कराते हुए यह आपको सृजन का निजी घरौंदा-सा रच डालने के भरम से भर देती है। परकाया प्रवेश के इस सुख के लिए फ्लावेअर रह-रहकर ईश्वर को धन्यवाद देते हैं जो लेखन के सिवाय अन्यत्र असम्भव है। जीविका के लिए मेरे ऊपर नौकरी का पहरा और बेड़ियां कसी होती हैं लेकिन इसी के जरिए मुझे अनेक दूसरी दुनियाओं को देखने-समझने का अतिरिक्त अवसर मिल जाता है। मेरे पास दूसरे तमाम लेखकों सी कल्पनाशीलता नहीं है। जो है वह भी देखे-जाने यथार्थ से ही कहीं न कहीं जुड़ी होती है। इसलिए अधिकांश वक्त मैं लेखक नहीं, उसका ऐसा मुखबिर होता हूं जो मौका ए वारदात—जब शब्द कागज पर उतर रहे होते हैं—पर लेखक का चपरासी बनकर खुश होने लगता है। अपने वजूद से लेखकी का जामा उतारकर जीवन का विशुद्ध भोक्ता (जिसे बहरुपिया कहना मुफीद हो)–और उसके फौरन बाद मुखबिर–बन जाना ही लेखकीय कला का अजूबा सत्य है। मैं सोचता हूं कि जीवन के अनुभवों को इस नीयत से देखना-जीना कि इन्हें स्मृति द्वार से कभी लेखन में तब्दील होना है, उस देखने-जीने की सम्पूर्णता को एक दर्जा कम कर देता होगा। खिड़की खुली रहने पर जैसे कमरे का वातानकूलन असर में मुकम्मल नहीं हो पाता है। फिर इस देखने जीने पर किसी वाद या दुराग्रह की झिल्ली आ लगे तो पूरा दृश्य ही संकुचित हो जाएगा। इसलिए मैं अपने  बहरुपिये को बाल्जाक की इस सलाह के ताप में खड़ा करने में लगा रहता हूं…‘‘सबसे बड़ी बात ये कि अपनी आँखों का इस्तेमाल करो…लेखक के लिए आँखिन देखी से ज्यादा मूल्यवान और कुछ नहीं।’’ कितनी आत्मसम्पन्न और पवित्र नदिया है लेखकी भी ! आप अपने अहं और वाद का जामा उतारकर तो देखें, दुनिया भर के सैकड़ों मजबूत काबिल हाथ अनचाहे ही आपका सम्बल बनने लगते हैं।

**                                                                    **

‘दुश्मन मेमना’ की रचना प्रक्रिया के बारे में क्या कहूँ? यह ऐसा इलाका है जिसके बारे में अलेक्सैई तोल्सतोय ने कहा है कि किसी स्त्री को एक पुरूष के साथ की अपनी पहली रात का वर्णन नहीं करना चाहिए। मैं सोचता हूं कि जो चीज एक धुंधली चित्रलिपि से ज्यादा कुछ न हो, जो खुद को स्पष्ट न हो वह बताई भी जा सकती है? मगर फिर भी। यकीनन यह मेरी अभी तक की सबसे आत्मकथात्मक कहानी है हालाँकि इसकी चिंगारी कहीं और से मेरे पास पहुँची थी। बेटी के बोर्ड की परीक्षा का परिणाम आने से एक रोज पहले छुट्टी मागने आयी मेरी एक सहकर्मी की उदासी देखते बनती थी…मानो जीवन में कभी हंसने-मुस्कराने की बारी नहीं आएगी।

‘‘ कल दोपहर तीन बजे आएगा न रिजल्ट…तो कल आधे दिन की छुट्टी ले लेना, पूरे सप्ताह की क्यों?’’ मैंने खारिज करने के अन्दाज में हल्के ढंग से पूछा तो उस प्रौढ़ा का चेहरा अवसन्न हो गया। सिर जमीन की तरफ घुसने लगा। किसी तरह खुद पर काबू पाया तो ‘‘रिजल्ट तो पता है…उसके पास होने का चांस कम है…इसलिए मुझे उसके पास रहना होगा…’’ जैसे चन्द अल्फाज मेरी तरफ भटकते पहुँचे। मां-बाप का कितना कुछ बच्चों के लिए जीता-मरता है, इसे बताने की जरूरत नहीं है और न यह आज की कहानी का विषय बनता है। मेरे मन में अलबत्ता यह जरूर आया कि कल जब कितने मां-बाप अपने होनहारों के बोर्ड के नतीजों को लेकर चहक-महक रहे होंगे, उनमें अपवाद स्वरूप कुछ दूसरे भी होंगे। 90-95 प्रतिशत के जमाने में जब 70-75 प्रतिशत को हेय दृष्टि से देखा जाता है, उन मां-बाप की पीड़ा क्या होगी जिनके बच्चों के पास होने के लाले पड़े हों? और क्या वे बच्चे स्वंय इससे पीड़ित नहीं रहते होंगे? उस सहकर्मी को अपनी नादानी में जब मैंने कोचिंग तथा ट्यूशनों के बारे में सुझाया तो भरी आवाज में भी उसने बताया कि सब कुछ किया था। ‘‘तब क्यों’’ मेरे इस सवाल का जवाब था कि वह एकाग्र नहीं हो पाती है, मोबायल और फेसबुक की वजह से। और तब मुझे लगा कि पिछले छह-आठ महीनों से अपनी चौदह वर्षीय बेटी के लगभग ऐसे रवैए को लेकर मैं जिस गुस्सा मिश्रित लाचारी को ढो रहा हूं उसका हमारे समय की तकनीकी-प्रगति से गहरा सम्बंध है। यह मेरी या उस सहकर्मी की नहीं, एक व्यापक समय सन्नद्ध समस्या है। लेकिन तकनीकी को गरियाने मात्र से कहानी बनती है? हो भी सकता है मगर मुझे लगा कि इसका एक छोर तो मानवीय आचरण के किसी पहलू से जुड़ा होना चाहिए। आज के दौर में जब तकनीकी हमारे बीच सचमुच एक सत्ताधीश के माफिक पसर बैठी है, मुझे उसका वर्चस्व स्वीकारने में हिचक थी। आपने गौर किया हो, कहानी का अन्त कुछ कुहासे भरा है। कई पाठकों और कहानीकार मित्रों ने कहानी को ‘लाइक’ करते हुए तुरन्त मुझसे जानना भी चाहा कि अन्त में क्या हुआ है। मैंने सबको यही कहा कि कहानी के आखिरी दो पन्ने फिर से पढ़ लीजिए। वहां मैंने पर्याप्त संकेत-सूत्र छोड़े हैं। कहानी उस अन्त के बारे में नहीं है मगर अन्त की ऐसी सम्भावित नीयत के बगैर कहानी नहीं बनेगी। ब्रेख्त की कविता की दो पंक्तियां हैं:

जनरल ये जो तुम्हारा टैंक है

पूरे जंगल को रौंद सकता है

सैकड़ों लोगों को कुचल सकता है

मगर इसकी एक कमजोरी है

चलाने के लिए इसे एक ड्राइवर चाहिए होता है।

रमाकांत स्मृति पुरस्कार का पुन: आभार जो मैं आज आपसे मुखातिब हो सका।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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