लेखक का वास्तविक पुरस्कार दूर-दरस्थ पाठकों के बीच बनी पैठ और प्रबुद्ध लेखक समुदाय के बीच उसकी कला और वैचारिकी का समुचित मूल्यांकन होता है। अलबत्ता, हर पुरस्कार-सम्मान इन्हीं दोनों के बीच अपनी लेखकीय विश्वसनीयता को जांचने-परखने और सुदृढ़ करने का अवसर भी होता है।
पिछले दिनों तकनीकी परिवर्तनों से संचालित विश्व स्तर और हमारे चारों तरफ युगांतकारी परिवर्तन हुए हैं और लगातार हो रहे हैं। इसके तहत उपभोक्तावादी वृत्तियां अपने चरम पर पहुंचती दिखती हैं। मनुष्य की दिनचर्या में एक खौफनाक बदहवासी प्रवेश कर गई है। संवेदनाएं भोथरी हो रही हैं और मनुष्य को आनंद प्रदान करने के विकल्पों का ऐसा विस्तार हुआ है कि महानगर में रहने वाले मेरे जैसे साहित्य के विद्यार्थी को संशय होता है कि वक्त के इस बदलते दौर में साहित्य की कोई जरूरत रह भी गई है?
हिन्दी साहित्य की पहुंच हमारे समाज के एक प्रतिशत भाग में भी नहीं है। यह दायरा लगातार सिकुड़ रहा है। ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के सहारे लड़कपन के सुनहले दिन गुजारने वाली मेरी पीढ़ी दूसरे खुलते साहित्यिक विकल्पों की आजमाइश से भरसक कतराती है। इतने बड़े, लगभग पूरे समाज का काम किसी भी प्रकार के साहित्य के सान्निध्य के बगैर चल ही रहा है। जीवन पद्धति के नए दबावों के कारण सस्ता मनोरंजन जीवन के हर पक्ष पर हावी होता जा रहा है। किताब द्वारा आत्मा को आनंद प्रदान करने की जरूरत और कूव्वत मानो समाप्त हो गई है क्योंकि उतना ठहरने सोचने का अवकाश मानसिकता से ही फिसलता जा रहा है।
विशुद्ध मानवीय स्थितियों के अंधेरे, उजले और संवेदी पक्षों के साथ हमकदमी करने में समाज के दूसरे तमामों का वास्ता भंग-सा हो गया है क्योंकि उनको संचालित करने वाली शक्तियों में खुदपरस्ती और हीडॉनिज्म का बोलबाला है। संयुक्त परिवारों का दौर तो खैर कब का समाप्त हो गया, अब नाभिकीय परिवार और व्यक्ति अस्तित्व के लिए छटपटा रहे हैं। सिंगल चाइल्ड और सिंगल पेरेंटिंग, समाज शास्त्रीय नजरिए से पता नहीं कहां और कितने फिट बैठते हैं, मगर साफ तौर पर यह वह दौर है, जहां व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों ने जीवन की सामुदायकिता को दरकिनार कर दिया है। उधर साहित्य और साहित्यकारों की दुनिया भी कम दुराग्रहों, संकीर्णताओं और गैर-लेखकीय फजीहतों में फंसी पड़ी नहीं लगती है। मेरे मन में पैठे इस पवित्र प्रति-संसार की बैठकों में रचना केंद्रित संवाद, बहस और मूल्यांकन रस्मन और कम होता है; आपकी नौकरी, जाति और रसाई-नारसाई के बरक्स चर्चा अधिक होती है।
ऐसे परिदृश्य में एक युवा लेखक की साहित्य में कितनी आस्था हो सकती है?
इसी संदर्भ में मैं दर्ज करना चाहता हूं कि इस मुश्किल और जटिल समय में साहित्य ही मुझे वह विकल्प लगता है जो न सिर्फ अपने को बचाने, बल्कि गड्ड-मड्ड और ढलान भरे दौर में, इसी समाज और व्यवस्था का न सिर्फ प्रतिरोध खड़ा कर सकता है, बल्कि एक सार्थक प्रतिपक्ष भी रच सकता है। इस अंधेरे दौर में भी साहित्य मुझे वह रौशन कोना लगता है, जहां कभी कुंवर नारायण चुपचाप आकर बतला जाते हैं कि सभ्यता और बर्बरता में फर्क बनाए रखने के लिए साहित्य जरूरी है, कभी निर्मल वर्मा यह अहसास भर जाते हैं कि ‘‘साहित्य हमें मुक्ति नहीं दिलाता है, वह हमें बंदी होने का अहसास कराता है, वह हमारे रिक्त स्थानों को नहीं भरता है, उसके खालीपन को दर्शाता है।’’ यह जानकर हैरानी भी होती है कि कला की जरूरत और लेखक की भूमिका को इन मनीषियों ने कितनी आत्मशक्ति और दृष्टि से जिया-उकेरा है। इस प्रति-संसार का आत्मीय अनंत और उसके छप्पन भोगों से आत्म और इतर के संधान से खुद को तृप्त और अक्सर ऊर्जस्वित-तरोताजा करने की छूट इतनी मोहक और लतभरी लगती है कि अपने आसपास के वास्तविक संसार की दुर्बलताएं क्षम्य और झुटपुटे की तरह आभासीय लगती हैं।
यहां एक लेखक (फॉकनर) अपने अवदान से मुझे इंसानी जिजीविषा में अपना खून-पसीना एक करने को प्रेरित करता है तो दूसरे कई (स्वाइग, रिल्के, पामुक) मंच और चहल-पहल से दूर, सन्नाटे की स्थिति में रहकर तमाम दुश्वारियों, नाकामियों, बदकिस्मती और तौहीनों को अपनी कला का सही और वास्तविक खाद-पानी बनाने के लिए उकसाते हैं। भरे पड़े उस्तादों में एक-एक की कलम का खजाना और उनका जीवन, मेरे भीतर स्वतंत्रता, समानता और संवेदना तथा श्रम के जिन आवेगों को तरंगित-संचरित करता है, वह अनिर्वचनीय है या मेरी सृजन की इच्छाओं का संभावित निवेश। मैं उस खजाने के नगण्य अंशमात्र से ही वाकिफ होऊंगा, मगर उसकी विपुलता, उत्कृष्टता और विशिष्टता प्रणम्य लगने के साथ-साथ अपनी तरह से छीजती रही है।
मैं सोचता हूं कि हमारे लेखक इस वैश्विक खजाने में अपनी आवाजाही बढ़ाएं और निजी हितों-कमजोरियों से प्रेरित होकर की जानेवाली तमाम गुटबाजियों और वैचारिक गुलामियों से मुक्त होकर रचना और कला के लोक (जिसकी जड़ें वास्तविक संसार में ही पैबस्त होती हैं) में संधान करने निकल पड़ें तो जरूर वे सॉल बेलो के कहे उस ‘प्रशांत क्षेत्र’ (क्वाइट जोन) के करीब पहुंच जाएंगे जहां से खड़े होकर देखने और अपने भीतर की बुलाहट सुनने से अहसास होगा कि भागम-भाग और आत्मनिर्लिप्तता का आभास देती इस दुनिया की रफ्तार में अरसे से कोई फर्क नहीं आया है…जीवन की बढ़ती जटिलताओं के भीतर आज भी पर्याप्त सादगी से प्रवेश किया जा सकता है…उपभोक्तावाद की आंधी ने शब्द की दुनिया को लाख धूसरित, लज्जित और पैताने कर रखा हो, मगर सदैव उत्सर्जित रहने के कारण इसका बड़ा हिस्सा उसकी पहुंच से परे रहा है,और आगे भी रहेगा…अपने एकाकीपन और अवसाद में फंसे रहकर भी लेखक कमजोर और अकेला नहीं होता है, कि लेखक का रचनात्मक निवेश वे तमाम अनचुनी विषम-विकट स्थितियां भी होती हैं जिनका वह अन्यथा चयन नहीं करता है।अपने आसपास के प्रति सचेतना, जिज्ञासा, अध्ययन और ईमानदारी जैसे अवयवों के रहते लेखक आज भी अपनी भूमिका पूर्ववत ढंग से देख सकता है। मुझे संतोष है कि इनमें से कम से कम एक यानी ईमानदारी, मेरे पास है। इसी के सहारे मैं अपने लिए ऐसे जीवन की कल्पना करने की सामर्थ्य पालता और जीता हूं, जिसमें लेखन और साहित्य आवश्यक तौर पर हों।
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