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कथाकार ओमा शर्मा से युवा आलोचक अंकित नरवाल के कुछ सवाल

Apr 05, 2020 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

प्रश्न 1: आप मूलतः अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं, बावजूद इसके साहित्य की ओर कैसे आये?

उत्तरः हाँ, मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी था और छात्र जीवन में आर्थिक विषयों पर छिटपुट लेख भी लिखने लगा था। मेरे पास अर्थशास्त्र के अध्ययन की ठीक-ठाक नींव रखी हुई थी क्योंकि दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स और जवाहर-लाल नेहरू विश्वविद्यालय से मैंने अपनी पढ़ाई की थी जहां इस विषय के बेहतरीन अध्यापक थे। साहित्य की ओर आने का मुख्य कारण मेरे घर का एक साहित्यिक माहौल था; मेरे बड़े भाई, प्रेमपाल जी कहानियाँ लिखते थे और उनके कारण घर पर कई समकालीन लेखकों का आना-जाना रहता था। ‘सारिका’, ‘हंस’ और दूसरी पत्र-पत्रिकाएं आती थीं जिन्हें मैं अर्थशास्त्र के अध्ययन से बोरियत के कारण जब-तब उलट-पुलट लेता था। धीरे-धीरे मुझे इसमें रुचि होने लगी। शुरुआत में मैंने पंकज बिष्ट और राजेंद्र यादव के कहानी-उपन्यासों के अलावा मन्नू भण्डारी और मोहन राकेश की रचनाओं को पढ़ा। मैं सोचता हूँ, अच्छा साहित्य इतनी आसानी से आपका पीछा नहीं छोड़ता है। वह आपको जैसे एक खिड़की के रास्ते उस पूरे जंगल के विस्तार को महसूस करने की ऊर्जा-प्रेरणा देने लगता है। शायद ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ।

प्रश्न 2: आपने स्वाइग की आत्मकथा और कालजयी कहानियों का बेहतरीन अनुवाद किया है। आप इनकी अनुवाद-प्रक्रिया के बारे में भी अपने अनुभव सांझा करें।

उत्तरः स्वाइग की आत्मकथा हो या उसकी कहानियाँ, उनके अनुवाद मेरे इस लेखक की सृजनात्मकता के प्रति आत्मीय सम्मान का नतीजा है। वह मुझे दुनिया के बेहतरीन लेखकों में एक लगता है। उसके लेखकीय और कलात्मक सरोकारों ने मुझे बहुत आकर्षित किया। अनुवाद प्रक्रिया को संक्षेप में समझाना तो बहुत मुश्किल है क्योंकि यह सचमुच बहुत जटिल रही है। मेरे सामने बस यही रहता था कि जो मन्तव्य स्वाइग ने अपनी भाषा में अभिव्यक्त किया है या जो वह अंग्रेज़ी अनुवाद के ज़रिए बृहत्तर दुनिया को उपलब्ध है, वह अपनी अभिव्यक्ति की पवित्रता और कला की बारीकी के स्तर पर हिन्दी पाठक को भी मुहैया हो सके। आपने ग़ौर किया होगा कि स्वाइग का लेखन बहुत कुछ मनोवैज्ञानिक स्तर पर चलता है। वहाँ कथानक से अधिक उसकी बुनावट में पैबस्त तमाम तरह के, अक्सर उलझन भरे, मनोभाव गुंथे होते हैं। उनको शाब्दिक या भाषिक स्तर पर अनुदित करना उनके साथ नाइंसाफ़ी होगी, जो सचमुच में अभी तक के अनेक हिन्दी अनुवादों में होती रही। स्वाइग के लेखन में बावजूद इसके, भाषा बड़ा तरल प्रवाह लिये होती है। वह अपने पाठक को लगातार अपनी गिरफ्त में लिए आगे बढ़ती है। इस तरह के मनोजगत और प्रवाह को हिन्दी मैं लाना यकीनन चुनौतीपूर्ण था। लेकिन मेरे साथ दो ऐसी बातें जुड़ी हुई थीं जिससे मुझे यह काम करने में बहुत आनंद भी आया। एक तो यही कि मैं यह अनुवाद किसी व्यावसायिक जरूरत के तहत नहीं, अपनी ख़ुशी से कर रहा था। यह मेरा चयन था। मैं शिद्दत से महसूस कर रहा था कि स्वाइग की चीजें हिन्दी में नहीं आयी हैं या उस रूप में नहीं आई हैं जिनकी वे हक़दार हैं। मतलब यही कि मुझे सिवाय अपने, किसी के प्रति कोई लालसा या जवाबदेही नहीं थी। दूसरे, मेरे लिए हिन्दी और जरा सी उर्दू, या जिसे कहे हिंदुस्तानी ज़ुबान, का पूरा आसमान खुला पड़ा था जो स्वाइग के मनोजगत के विस्तार को भाषा के स्तर पर अपनी तरह से पकड़ने और जज़्ब करने  की सलाहियत रखता है। दो जुबानों की यह सहूलियत आप कह सकते हैं कि हिन्दी के मानक रूप के साथ थोड़ी छूट लेती है, लेकिन वह मेरे अनुवादकीय मन्तव्य को भरपूर अंजाम देती सी लगी। लक्ष्य रचना में गहन निष्ठा और विश्वास के बाद ही आप अपने भाषागत आसमान में उसके  रूपान्तरण का बीड़ा उठा सकते हैं। अलबत्ता, उसका एक मुहावरा तो आपको तय करना ही होता है।

प्रश्न 3: आपने अपनी क्रमशः ‘बांग्लादेश’ और ‘नवजन्म-कुछ हादसे’ नामक कहानियों में स्त्री समस्याओं को छुआ है। आपकी प्रथम कहानी में सुनिता देह-मुक्त तो हो जाती है, किंतु मानसिक मुक्ति में वह कहीं पीछे रह जाती है। आप स्त्री-स्वतंत्रता को कैसे देखते हैं? स्त्री केवल एक देह भर ही तो नहीं, क्यों?

उत्तरः देखिए, हमारे यहाँ — और शायद दुनिया भर में– स्त्री स्वतंत्रता या जिसे कहें फैमिनिज्म के तमाम तरह के शेड्स और संस्करण चलन में हैं। यह कहना ठीक नहीं होगा कि कौन सा शेड अव्वल है। यह  ठीक है कि स्त्री एक देह भर नहीं है लेकिन वह देह से मुक्त भी नहीं है। न हमारे यहाँ, और न पश्चिम में। मैं समझता हूँ कि लैंगिक स्वतंत्रता या लैंगिक समानता अधिक चर्चा का विषय होना चाहिए। हमारे यहाँ की स्त्रियाँ लैंगिक स्वतंत्रता भी चाहती हैं और स्त्री होने के नाते ‘कुछ’ अतिरिक्त भी। जब-तक इस दोकड़े से स्त्री नहीं निकलेगी, उसे लैंगिक स्वतंत्रता मिलने में कठिनाई आती रहेगी। पश्चिम में यों उसे लैंगिक स्वतंत्रता बहुत कुछ हासिल हो है लेकिन देह-मुक्ति वहाँ भी नहीं आई है।  लेकिन मैं पूछना चाहता हूँ कि स्वतंत्रता कोई ऐसा सस्ता मूल्य है, जो कोई किसी को दे सकता है? व्यक्ति हो या समाज, हर दौर में इसे अर्जित करना पड़ता है।

प्रश्न 4: पिछले कुछ वर्षों में हिन्दू मुस्लिम के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य जैसी स्थितियाँ लगातार उभरकर सामने आई हैं। आपकी कहानी ‘रिसाव’  व ‘कारोबार’  आदि में इनका कुछ नोटिस लिया गया है। आप इसकी मूल वजह किसे मानते हैं? क्या भारत के निर्माण की बुनियादी सोच के लिए यह एक खतरा नहीं है?

उत्तरः हिंदू-मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक वैमनस्य जैसी स्थितियों का सामाजिक से अधिक एक राजनीतिक पक्ष है। हमारे यहाँ के गाँव-कस्बों और शहरों में हिंदू और मुस्लिम एक दूसरे से खूब सटे हुए रहते हैं। उनके बच्चे साथ में पढ़ते हैं। वे सहकर्मी होते हैं और बहुत ज़्यादा तो नहीं लेकिन आपस में मेल-मिलाप भी रखते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहाँ सांप्रदायिकता का एक लंबा और पेंचदार इतिहास है। मुस्लिम समाज में किसी बड़े नेता के न होने के कारण उनका ख़ूब राजनीतिक इस्तेमाल होता रहा है जिसके लिए वे ख़ुद कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। लेकिन आप ग़ौर करें कि भारत में दूसरे और भी कई अल्पसंख्यक समुदाय हैं, जैसे सिख, ईसाई, सिन्धी या पारसी। किसी और अल्पसंख्यक समुदाय में इस तरह का भौगोलिक घेटोकरण नहीं दिखता है जैसा मुस्लिम समाज में है। इसके मूल में कारण कुछ भी हो लेकिन मैं इसे बहुत अच्छा नहीं मानता।भारत देश की संकल्पना के लिए यह ज़ाहिरन खतरा है लेकिन मुझे यह भी लगता है कि हमारे बुनियादी स्वरूप मे एक सनातन किस्म का रेजीलीएन्स भी है जो, मौसमों की तर्ज़ पर जरा इधर-उधर तो होता है मगर मोटे तौर पर अपने बुनियादी स्वरूप से बहुत ज्यादा दूर भी नहीं जा पाता है।

प्रश्न 5: भारतीय उन्नत समाजों में साहित्य की भूमिका को बतौर लेखक आप कैसे देखते?

उत्तरः साहित्य की भूमिका को किसी भी समाज में परिभाषित या रेखांकित करना इतना सरल नहीं है। साहित्य समाज के लिए इंगित होता भी नहीं है, अलबत्ता साहित्य समाज को जब-तब प्रभावित करता रहा है। डिकन्स के उपन्यासों की वजह से इंग्लैंड में कई तरह के जेल सुधार हुए। लेकिन मैं नहीं समझता कि जेम्स जॉयस के लेखन से ऐसा-वैसा कुछ हो सकता है। या प्रेमचंद कि रचनाओं ने कोई सामाजिक बदलावकारी भूमिका निभाई।  लेकिन कला के स्तर पर दोनों की अपनी स्वतंत्र अहमियत है। मैं राजेंद्र यादव कि इस बात से सहमत हूँ। साहित्य का काम मनुष्य को आनंदित करना है और यह आनंदित करना केवल मनोरंजित करना नहीं है। मैं सोचता हूँ कि साहित्य कि भूमिका अपने समय-समाज में दबी-अटी पड़ी उन ज़रूरी संवेदनाओं पर उंगली रखने का है अधिक है जिसके लिए भाषा एक सहज माध्यम है। आप कह सकते हैं कि भरे पेट लोगों के लिए किसी किताब की कोई ज़रूरत नहीं होती है लेकिन मत भूलिए कि रविन्द्रनाथ टैगोर या टॉलस्टॉय ख़ूब समृद्ध परिवारों से थे। बिल गेट्स तो दुनिया के सबसे समृद्ध लोगों में से एक है, मगर लगातार और ख़ूब पढ़ते हैं। ये शायद एक हिन्दी समाज की प्रवृत्ति अधिक हो, जहाँ आर्थिक समृद्धि के साथ साहित्य या पठन-पाठन से जुड़ाव क्रमशः कमज़ोर होता दिखता है।

प्रश्न 6: आपने यूरोप का भी भ्रमण किया है और भारत के भी विभिन्न हिस्सों में आप घूमे हैं। क्या यूरोप व भारत के बीच अपनी कला, संस्कृति व साहित्य के सम्मान को लेकर कोई अन्तर पाते हैं? यदि यह अन्तर है, तो आप इसकी क्या वजह मानते हैं?

उत्तरः मैंने यूरोप और अमेरिका की यात्रायें की हैं लेकिन मैंने उसका इतना अध्ययन नहीं किया कि भारत और पश्चिम की कला-संस्कृति और साहित्य के तुलनात्मक अंतरों को स्पष्ट कर सकूँ। शायद दोनों जगह ही साहित्य की पठनीयता या ज़रूरत ढलान पर है। ग्लोबलाइजेशन का दबाव मानसिक फुर्सत के स्पेस को लगातार संकुचित कर रहा है जहाँ से साहित्य के सरोकार अभी तक फलते-फूलते रहे। पढ़ने के लिए या तो कारोबारी किताबें ही ज़्यादा पढ़ी जाती हैं या कारोबारी थकान से मुक्ति के लिए सकारात्मक सोच और आध्यात्मिक क़िस्म की किताबें। इसका कुछ कारण शायद लेखकीय सरोकारों का अभाव भी हो जो अपने दौर के जन-समुदाय को आनंदित करने के लिए अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रहा है।

प्रश्न 7: एक ओर हिन्दी के पाठकों की कमी को निर्देशित किय जा रहा है, वहीं दूसरी ओर सब प्रकाशकों के  अपने-अपने बेस्टसेलर लेखक बनते जा रहे हैं। इसे आप कैसे देखते हैं?

उत्तरः प्रकाशकों के लिए बेस्ट सेलर होना सुखद है और कुछ हद तक लेखक के लिए भी। लेकिन मत भूलिए कि साहित्य के बेस्ट सेलर होने का मतलब है पांच या छह सौ की संख्या के एक या दो संस्करणों का साल-दो साल में बिक जाना। नौ राज्यों के हिन्दी भाषी समुदाय में यह कोई बहुत प्रीतिकर स्थिति नहीं है। मैं इसे इस रूप में देखता हूँ कि ईमानदार लेखन के लिए एक पाठकीय स्पेस अभी भी बना हुआ है। हाँ, सोशल मीडिया या नए माध्यमों के ज़रिए यदि प्रकाशक उसे पाठकों तक ले जाने में एक भूमिका निभाता है तो यह सबके लिए प्रसन्नता की बात है। लेकिन बाज दफ़ा प्रकाशक कारोबारी रणनीति के तहत कई तरह की कुटिलतायें भी बरतते हैं जो अंततः पूरे परिदृश्य को कलुषित करती हैं।

प्रश्न 8: पुस्तक-संस्कृति के ऊपर मंडराते खतरे को आपने अपने लेख ‘विलुप्त प्रजातियों के सबक’  में छुआ है। उस समय इंटरनेट की ऐसी उपलब्धता नहीं थी जैसी आज है। फिर आज तो ब्लॉग लेखन है। फेसबुक, ट्विटर आदि पर भी लोग लिख रहे हैं। ऐसे में पुस्तक-संस्कृति को आप कैसे देखते हैं?

उत्तरः पुस्तकों को सोशल मीडिया से बहुत ख़तरा नहीं है क्योंकि दोनों के उद्देश्य और रुझान अलग हैं । शायद सोशल मीडिया पुस्तक संस्कृति का एक अच्छा संवाहक हो सकता है, यदि वह अपनी भूमिका एक मैसेंजर के तौर पर ही रखे। लेकिन आप ब्लॉग और फ़ेसबुक की पोस्ट को ही पुस्तकों के विकल्प के रूप में ही पढ़ने-देखने लगे तो यह तो दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा। इंटरनेट संस्कृति ने इतनी सारी महत्वपूर्ण सामग्री पाठकों को उपलब्ध करा दी है कि वह पुस्तक संस्कृति का इज़ाफ़ा ही करता है।

प्रश्न 9: वर्तमान में हिन्दी में अनेक प्रकाशक उभर आये हैं और छपास एक लत-सी बन गया है। प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी गंभीरता को जाने अपने को लेखक सिद्ध करने में जुटा है।  हिन्दी-साहित्य पर इसके प्रभाव को आप किस रूप में देखते हैं?

उत्तरः बेहतर हो आप यह सवाल सम्बद्ध प्रकाशकों से करें। मैं सोचता हूँ की एक अजीब क़िस्म का लोकतंत्र चौतरफ़ा छाया हुआ है। अनगिनत लेखक या लेखक बनने को लालायित लोग जिनकी माँग की आपूर्ति के लिए उसी तरह के उत्सुक उद्यमी प्रकाशक। यह एक दौर है जिसे अंग्रेज़ी में ‘चर्निंग’ कहते हैं। देर-सवेर एक छँटनी दोनों तरफ़ से ही काम करती है। वैसे दोनों की असली छँटनी तो पाठक ही करते हैं।

प्रश्न 10: इधर लिखी का रही कहानियों की कहानी कला के बारे में आपकी क्या राय?

उत्तरः कहानी-कला के लिए इन दिनों का माहौल उत्साहवर्धक नहीं लगता है। प्रियंवद, उदय प्रकाश और मैत्रेयी  पुष्पा ने कहानी लिखना लगभग बंद कर दिया है। शिवमूर्ति और नीलाक्षी सिंह इतना कम लिखते हैं। संजीव और चित्रा मुद्गल अपना सर्वश्रेष्ठ अरसा पहले दे चुके हैं। मुझे दूधनाथ सिंह और रघुनंदन त्रिवेदी की कहानियों का इंतज़ार रहता था जो अब दुनिया में नहीं रहे। दस-पंद्रह बरस पहले जो युवा पीढ़ी हिन्दी कहानी में उभरकर आयी थी, वे सब अब बाल-बच्चेदार हो गए हैं। जो थोड़े-बहुत सक्रिय लोग हैं उनमें योगेन्द्र आहूजा, मनोज रूपड़ा जैसे बहुत कम हैं जो अपनी ईमानदारी और शिल्पगत संरचना के कारण लगातार आकर्षित करते हैं। किरण सिंह, मनोज पाण्डेय और राकेश मिश्र ने लगातार एक स्तरीयता बनाए रखी है लेकिन उनके यहाँ ‘कहानी कला’ का मामला मेरे जाने पेचीदा ही होगा।  इनके अलावा ज़्यादातरों में तात्कालिकता और इतिसिद्धम का जज़्बा इतना उग्र है कि वह कहानी कला के साथ बेमेल हो बैठता है। किसी दूसरी भाषा का ईमानदार पाठक, नई या पुरानी पीढ़ी से कोई पाँच-पाँच हिन्दी लेखक-लेखिकाओं की रचनाओं को पढ़ने का पूछे —जिनमें अपने दौर या समाज की पर्याप्त शिनाख्त होती दिखती हो– तो आप पसीना-पसीना हो जाएंगे। बहुत संतोषजनक राय नहीं बनती है।

(10/4/2019)

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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